कविता संग्रह >> छंदशती छंदशतीजगदीश गुप्त
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प्रस्तुत है छन्द पदावली....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दृष्टिकोण
भारतीय मनीषा ने कर्म का विभाजन त्रिधा माना है जिसे इस देश के जन मानस ने
भी स्वीकार किया है-संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध। ब्रज भाषा के छन्द मेरे
संचित कर्मों का द्योतन करते हैं, नयी कविता मेरा क्रियमाण रही है। मेरा
प्रारब्ध अब जो भी होगा वह इन दोनों के प्रवहमान सम्मिलित परिणाम से विलग
नहीं हो सकता। अन्तर्विरोध को मैंने हर तरह से सहा है, झेला है और काव्य
को रचनात्मक धरातल पर कहीं किसी बिन्दु पर उन्हें अविरोधी भी पाया है।
मेरी नवता की धारणा और सौन्दर्यात्मक मूल्य-बोध में दोनों समाहित रहे हैं।
यदि ऐसा न होता तो मेरी काव्य-यात्रा मुझे वहाँ न ला पाती जहाँ मैं आज
अटकते-भटकते आ पहुँचा हूँ।
‘अज्ञेय’ शीर्षक अपनी कविता में मैंने ‘परम्परा’ के तथाकथित ‘बोझ’ से मुक्त होने का संकल्प लेते हुए जब दाहिना हाथ उठाकर किसी योग्य याचक को उसे दे डालना चाहा तो मेरा ही बायाँ हाथ याचक बनकर पहुँच गया जिसे मैंने रोशनी में सहज ही पहचान लिया। अतः भावनात्मक और वैचारिक दोनों स्तरों पर मैं कह सकता हूँ कि संचय और अर्जन के क्रम में कहीं न कहीं मेरी आत्मदान की प्रवृत्ति भी शामिल रही है। मेरे एक हाथ में ‘परम्परा’ रही है और दूसरे में ‘प्रवर्तन’; ‘नयी कविता’ के नाम पर अगर आप इस शब्द के प्रयोग का अधिकार मुझे दें तो मैं निस्संकोच कह सकता हूँ। ‘दुहूँ हाथ मुद-मोदक मोरे’। साथ ही दूसरों के लिए भी दूसरी अर्धाली का आधा भाग अर्पित कर सकता हूँ-‘कहहु सखेन जथामति जेही’।
प्राचीनता के प्रति मेरा वास्ता केवल ‘ब्रजभाषा के छंदों’ तक सीमित नहीं है। उसमें गुप्त-कालीन एवं शुंग-कुषाण-कालीन ‘मृण्मूर्तियाँ’, आद्यैतिहासिक ‘ताम्रास्त्र’ और प्रौगैतिहासिक ‘शिला-चित्र’ भी समाहित रहे हैं। इसी तरह आधुनिकता की दिशा में नयी कविता तक ही मेरी इयत्ता नहीं है, प्रयोगशील चित्रण एवं रेखांकन तथा नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन आर्ट’ के लिए चित्र-चयन भई उसी की परिधि में आता है। वस्तुतः काल-सापेक्ष दृष्टि कला-दृष्टि को मर्यादित अवश्य करती है पर वह उसका विकल्प प्रस्तुत नहीं करती। सौन्दर्य बोध का एक आयाम ऐसा होता ही है जो मनुष्य की उस अन्तश्चेतना से जुड़ता है जिसे समय का बोध तो होता है पर जो स्वयं समयातीत होते रहने की क्षमता रखती है अथवा वैसी ही होती है। इस दार्शनिकता की ओट लेकर मैं ऐतिहासिक गति को उलटना या झुठलाना नहीं चाहता, वरन् उसकी अनुभवगम्य सीमा का संकेत मात्र करता हूँ। स्वप्न, संवेग और समाधि में मानव मन जिस तरह या जितने अंश में काल-मुक्त होकर आचरण करता प्रतीत होता है, लगभग वैसा ही काव्य-रचना और काव्यास्वादन की अलौकिक प्रक्रिया में घटित होता है। यह वस्तुगत यथार्थ का अस्वीकार नहीं है, वरन् गहन एवं बृहत्तर यथार्थ-अतियथार्थ-का आनयन एवं स्वीकार है। कला और काव्य ने इसे निरन्तर प्रमाणित किया है। काल-दर्शन में द्रष्टा की अनिवार्य सत्ता, उसका आत्मगत बोध, ‘मैक टैगॉर्न का पैराडॉक्स’ तथा ऐसे ही अन्य तथ्य उपेक्षणीय नहीं हैं।
प्राचीनता और नवीनता को मिलाने, और उन्हें एक नैरन्तर्य तक ले जाने में यदि मेरा कृतित्व अंशतः भी सेतु का कार्य कर सका तो मानूँगा कि मेरा लेखन और सोच, सार्थक हुआ। भारतीय सन्दर्भ में काव्य-भाषा के रूप में अन्यतम स्थान रखने वाली ‘ब्रजभाषा’ व्यापक रूप में शताब्दियों तक हिन्दी काव्य की श्रेष्ठतम उपलब्धियों का प्रतीक रही है। रचनात्मक स्तर पर वह मध्यदेश की उस सामासिक चेतना की संवाहिका बनी जिसका उसके सहवर्ती एवं सहयोगी इतर भाषा-रूपों से कोई विरोध नहीं रहा, और कुछ संघर्ष हुआ भी तो वह ऐतिहासिक विकास का अंग होकर रह गया। उसकी ऐसी परिणति नहीं हुई कि पूर्व परम्परा से विच्छेद ही घटित हो गया हो। वस्तुतः उसकी बहुत सी भाव-सम्पत्ति एवं शब्द-सौन्दर्य हिन्दी के परवर्ती विकास में संक्रमित हो गया और वह मधुरता, सुकुमारता एवं सौन्दर्यात्मकता का पर्याय समझी जाती रही।
ब्रजभाषा-साहित्य जीवन के जिस अमृत-स्रोत से निरंतर अभिसिंचित होता रहा है वह समय के साथ बीत जाने वाला नहीं है और आज भी अगर उससे सम्पृक्त होने की ललक किसी देशी या विदेशी साहित्यानुरागी दिखाई दे अथवा मेरा जैसा कोई हठी रचनाधर्मी उसे हीनता या अपराध का द्योतक मानने को तैयार न हो तो ‘फ़तवा’ देने या ‘रिजेक्ट’ करने से पहले उसके दृष्टिकोण को समझने की चेष्टा भी की जानी चाहिए; ऐसा मुझे ठीक जँचता है इसलिए लिख रहा हूँ। कुछ किसी से मुझे यहाँ निवेदन नहीं करना है। जो भी मेरा नैवेद्य था वह मैंने संकलित छंदों के प्रारम्भ में ही प्रस्तुत कर दिया है।
‘अज्ञेय’ शीर्षक अपनी कविता में मैंने ‘परम्परा’ के तथाकथित ‘बोझ’ से मुक्त होने का संकल्प लेते हुए जब दाहिना हाथ उठाकर किसी योग्य याचक को उसे दे डालना चाहा तो मेरा ही बायाँ हाथ याचक बनकर पहुँच गया जिसे मैंने रोशनी में सहज ही पहचान लिया। अतः भावनात्मक और वैचारिक दोनों स्तरों पर मैं कह सकता हूँ कि संचय और अर्जन के क्रम में कहीं न कहीं मेरी आत्मदान की प्रवृत्ति भी शामिल रही है। मेरे एक हाथ में ‘परम्परा’ रही है और दूसरे में ‘प्रवर्तन’; ‘नयी कविता’ के नाम पर अगर आप इस शब्द के प्रयोग का अधिकार मुझे दें तो मैं निस्संकोच कह सकता हूँ। ‘दुहूँ हाथ मुद-मोदक मोरे’। साथ ही दूसरों के लिए भी दूसरी अर्धाली का आधा भाग अर्पित कर सकता हूँ-‘कहहु सखेन जथामति जेही’।
प्राचीनता के प्रति मेरा वास्ता केवल ‘ब्रजभाषा के छंदों’ तक सीमित नहीं है। उसमें गुप्त-कालीन एवं शुंग-कुषाण-कालीन ‘मृण्मूर्तियाँ’, आद्यैतिहासिक ‘ताम्रास्त्र’ और प्रौगैतिहासिक ‘शिला-चित्र’ भी समाहित रहे हैं। इसी तरह आधुनिकता की दिशा में नयी कविता तक ही मेरी इयत्ता नहीं है, प्रयोगशील चित्रण एवं रेखांकन तथा नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन आर्ट’ के लिए चित्र-चयन भई उसी की परिधि में आता है। वस्तुतः काल-सापेक्ष दृष्टि कला-दृष्टि को मर्यादित अवश्य करती है पर वह उसका विकल्प प्रस्तुत नहीं करती। सौन्दर्य बोध का एक आयाम ऐसा होता ही है जो मनुष्य की उस अन्तश्चेतना से जुड़ता है जिसे समय का बोध तो होता है पर जो स्वयं समयातीत होते रहने की क्षमता रखती है अथवा वैसी ही होती है। इस दार्शनिकता की ओट लेकर मैं ऐतिहासिक गति को उलटना या झुठलाना नहीं चाहता, वरन् उसकी अनुभवगम्य सीमा का संकेत मात्र करता हूँ। स्वप्न, संवेग और समाधि में मानव मन जिस तरह या जितने अंश में काल-मुक्त होकर आचरण करता प्रतीत होता है, लगभग वैसा ही काव्य-रचना और काव्यास्वादन की अलौकिक प्रक्रिया में घटित होता है। यह वस्तुगत यथार्थ का अस्वीकार नहीं है, वरन् गहन एवं बृहत्तर यथार्थ-अतियथार्थ-का आनयन एवं स्वीकार है। कला और काव्य ने इसे निरन्तर प्रमाणित किया है। काल-दर्शन में द्रष्टा की अनिवार्य सत्ता, उसका आत्मगत बोध, ‘मैक टैगॉर्न का पैराडॉक्स’ तथा ऐसे ही अन्य तथ्य उपेक्षणीय नहीं हैं।
प्राचीनता और नवीनता को मिलाने, और उन्हें एक नैरन्तर्य तक ले जाने में यदि मेरा कृतित्व अंशतः भी सेतु का कार्य कर सका तो मानूँगा कि मेरा लेखन और सोच, सार्थक हुआ। भारतीय सन्दर्भ में काव्य-भाषा के रूप में अन्यतम स्थान रखने वाली ‘ब्रजभाषा’ व्यापक रूप में शताब्दियों तक हिन्दी काव्य की श्रेष्ठतम उपलब्धियों का प्रतीक रही है। रचनात्मक स्तर पर वह मध्यदेश की उस सामासिक चेतना की संवाहिका बनी जिसका उसके सहवर्ती एवं सहयोगी इतर भाषा-रूपों से कोई विरोध नहीं रहा, और कुछ संघर्ष हुआ भी तो वह ऐतिहासिक विकास का अंग होकर रह गया। उसकी ऐसी परिणति नहीं हुई कि पूर्व परम्परा से विच्छेद ही घटित हो गया हो। वस्तुतः उसकी बहुत सी भाव-सम्पत्ति एवं शब्द-सौन्दर्य हिन्दी के परवर्ती विकास में संक्रमित हो गया और वह मधुरता, सुकुमारता एवं सौन्दर्यात्मकता का पर्याय समझी जाती रही।
ब्रजभाषा-साहित्य जीवन के जिस अमृत-स्रोत से निरंतर अभिसिंचित होता रहा है वह समय के साथ बीत जाने वाला नहीं है और आज भी अगर उससे सम्पृक्त होने की ललक किसी देशी या विदेशी साहित्यानुरागी दिखाई दे अथवा मेरा जैसा कोई हठी रचनाधर्मी उसे हीनता या अपराध का द्योतक मानने को तैयार न हो तो ‘फ़तवा’ देने या ‘रिजेक्ट’ करने से पहले उसके दृष्टिकोण को समझने की चेष्टा भी की जानी चाहिए; ऐसा मुझे ठीक जँचता है इसलिए लिख रहा हूँ। कुछ किसी से मुझे यहाँ निवेदन नहीं करना है। जो भी मेरा नैवेद्य था वह मैंने संकलित छंदों के प्रारम्भ में ही प्रस्तुत कर दिया है।
पतिआहि कै कोऊ नहीं पतिआहि,
मैं सम्पत्ति याहि परम्परा पायी।
मैं सम्पत्ति याहि परम्परा पायी।
इस ‘सम्पत्ति’ को मैंने सम्पत्ति ही माना है,
‘आपत्ति’ या ‘विपत्ति’ के रूप
में कभी ग्रहण नहीं किया। शंकालुओं के प्रति अकबर इलाहाबादी का एक शेर
समर्पित कर रहा हूँ-
हरीफ़ों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में,
कि अकबर ज़िक्र करता है खुदा का इस ज़माने में।
कि अकबर ज़िक्र करता है खुदा का इस ज़माने में।
(अकबर
सर्वस्व, पृ. 127)
हिन्दी साहित्य के स्वाभाविक विकास-क्रम में भाषा के बहुविध सम्पर्क और
मध्यदेशीय स्थिति के कारण, जैसे और जितने अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव आये वैसे
भारत की किसी अन्य प्रान्तीय भाषा में लक्षित नहीं होते। तुलनात्मक स्तर
पर कुछ ऐसा हिन्दीतर भाषा-भाषी विद्वानों भी अनुभव किया गया है। हाँ, नयी
पुरानी काव्य-चेतना का वैचारिक द्वन्द्व और संवेदनात्मक अन्तर बहुत कुछ एक
जैसा लक्षित होता है। कहीं कुछ आगे, कहीं कुछ पीछे। कहीं प्रखर, कहीं
सामान्य।
प्रथम विश्व हिन्दी परिषद के अवसर पर नागपुर में आयोजित हिन्दी पुस्तक प्रदर्शनी में मैंने ‘भावगंध’ नामक एक बड़ी रोचक समीक्षा-पुस्तक प्राप्त की। यह डॉ. माधव गोपाल देशमुख की मूल मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद है, डॉ. घनश्याम गोपाल व्यास का किया हुआ। भाषा विचारों से कम आनंदप्रद नहीं है। भावगंध की प्रतिष्ठा करके देशमुख ने रस-सिद्धान्त को अमान्य ठहराया है। नयी कविता के संदर्भ में अपने ढंग से मैंने भी कुछ ऐसा ही किया है अतः समानधर्मिता का सुख भी मिला। रचना की दृष्टि से नये कवियों में एक अनिल देश पाण्डे ऐसे दिखायी दिये जिनकी ‘फुलबात’ ‘जीर्ण सम्प्रदाय’ यानी पुरानी पद्धति की तथा ‘निर्वासित चीनी मुलास’ आदि रचनाएँ ‘नव सम्प्रदाय’ की हैं। मराठी के नव समीक्षकों ने उन्हें देहरी दीप’ न्यायानुसार दोनों ओर निर्धारित किया है जिस पर व्यंग्य करते हुए देशपाण्डे ने लिखा है-
एक ही कवि के व्यक्तित्व में नवीन प्राचीन दोनों आंचल गुंफने वाले समीक्षकों के बारे में ‘मित्रेभ्यः परिभायस्व’। ईश्वर की करुणा माँगने का बाँका प्रसंग बेचारे अनिल पर आ पड़ा है।
अब हिन्दी को समीक्षक मित्रों से परित्राण पाने के लिए भगवान से विनय करने की जिम्मेदारी इस बेचारे गुप्त पर आ पड़ी है। अनिल जी की फुलबात की भूमिका ‘छंद-शती’ अदा करेगी। यहाँ, मुझे अपने पहले काव्य-संग्रह की समीक्षा का शीर्षक याद आ रहा है ‘रीति गीति और नयी कविता’। निश्चय ही यह समीक्षा मेरे एक अनुजवत् प्रिय मित्र ने की थी तथा जिन्होंने उसे स्वसम्पादित पत्रिका में सहर्ष छापा था वे भी मित्र ही थे। सच पूछिये तो और घनिष्ठ, एवं आत्मीय। उन्होंने सत्य को सामने लाकर अन्ततः मेरा उपकार ही किया अतः मैं उनके प्रति हृदय से आभारी हूँ। ‘नयी कविता’ का पहला अंक निकालने में सहयोग देने के बाद मेरे एक सहपाठी कवि-मित्र ने स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक में नयी कविता के सम्बन्ध में एक लेख लिख कर स्वयं ही यह प्रश्न चिह्न अंकित किया है ब्रजभाषा से सम्बद्ध होने के नाते मुझे ‘नयी कविता’ के सम्पादन का क्या अधिकार था। अधिकार तो मेरा ‘नयी कविता’ के आठ अंकों के प्रकाशित होते-होते नयी कविता की व्यापक प्रतिष्ठा एवं सर्व सामान्य स्वीकृति से ही सिद्ध हो
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भावगंध, संदर्भित अनुवाद, पृ. 73
आलोचना-1966
जाता है। उसके लिए उनका प्रतिवाद करने और अपने पक्ष में प्रमाण देने की अब मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। हिन्दी साहित्य में ‘नयी कविता’ आपके और मेरे देखते-देखते वैसे ही स्थापित हो गयी है जैसे प्रसाद-पंत निराला-महादेवी के जीवन-काल में ‘छायावाद’ स्थापित होकर हिन्दी साहित्य के इतिहास का अंग बन गया था। रचते हुए इतिहास से अपने को सम्बद्ध देखने का अनुभव भी कम रोमांचकारी नहीं होता पर उसमें व्यतीत होने का विषाद भी शामिल रहता है। मातृत्व के सुख में वार्धक्य का दुख भी कहीं न कहीं मिला ही रहता है।
कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘व्रजबूलि’ में अपने प्रारम्भिक काव्य-काल में अनेक भक्तिपरक पद रचे थे। ‘भानुसिंहेर पदावली’ के नाम से उनकी पर्याप्त ख्याति रही है। बहुत काल तक लोग इस भ्रम में रहे कि सचमुच ‘भानुसिंह’ नाम का कोई कवि मध्यकाल में हुआ था जिसकी पदावली उपलब्ध हो गयी है। शोधार्थी शोध के लिए उत्सुक हो उठे थे और प्राचीन साहित्य के अनुरागी तो अभिभूत थे ही। बाद में जब इस विनोद को सीमा पार करते देखा तो स्वयं गुरुदेव ने मुस्कराहट के साथ इस तथ्य को प्रकट कर दिया कि वे पद उन्हीं के लिखे हैं। लोग चकित रह गये, और ‘भौचकित’ भी। मुझमें न ऐसा छद्म लीला-सामर्थ्य है और न इतनी महिमा कि उनकी राह पर चल सकूँ और निष्कलुष भी बना रहूँ। मैंने तो शुरू से ही अपने ब्रजभाषा कृतित्व को उजागर रक्खा और कभी उसे छिपाने की चेष्टा नहीं की। भली-बुरी जैसी लिखीं, गयीं, खड़ी और ब्रज दोनों की रचनाएँ प्रायः समानान्तर रूप से ही सबके सामने आती रहीं। यही सही है कि प्रयाग आने पर और स्वातन्त्र्य आन्दोलन से सक्रिय-रूप से सम्बद्ध हो जाने पर नियमबद्ध रचना-कर्म की प्रवृत्ति धीरे-धीरे स्वयं विराम पाती गयी। स्वतः उन्मेष की प्रक्रिया समाप्त हो गयी। यों चाहूँ तो आज भी वैसा लिख सकता हूँ पर सहज प्रेरणा, जैसी पहले होती थी, अब नहीं होती। मैं प्रेरणा को काव्य-रचना में सर्वोपरि स्थान देता हूँ।
ऐसा अवश्य हुआ है कि मेरे मनोजगत् में आधुनिक चेतना के विकास के साथ और विशेष रूप से नयी कविता से सम्पृक्त होने पर, धीरे-धीरे ब्रजभाषा में रचना करते रहने की सहज संकल्पशीलता स्वतः शिथिल होती गयी। क्षमता आज भी निःशेष नहीं हुई है पर रचनात्मक उन्मेष और परिचित छंदात्मक प्रवाह अवश्य मद्धिम हो गया है। उसका मूल कारण यही है कि रत्नाकर जी की तरह खड़ी बोली की स्पर्धा में ब्रजभाषा को आगे लाने का दायित्व मैंने अपने ऊपर कभी ओढ़ा ही नहीं क्योंकि वह जहाँ तक पहुँच चुकी है उससे आगे की बात सोचना मुझे दुष्कर लगता है। मुझे खड़ी बोली काव्य के नवोन्मेष से न केवल प्रसन्नता होती रही वरन् उसके स्वरूप-विकास और चिंतन-क्रम में अपना यत्किंचित् योगदान देने का उत्साह उत्तरोत्तर प्रमुख होता गया। प्रारम्भ से ही मेरे रचना-संसार में भाषा-भेद को लेकर अलगाव या विरोध के बीज नहीं पनपे। कदाचित् इसीलिए हितैषी जी की तरह खड़ी बोली से सवैया लिखकर अपनी और उसकी क्षमता का सम्मिलित प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति भी मुझमें उत्पन्न नहीं हुई। ब्रजभाषा में नये विषयों का समावेश करना भी कम से कम मुझे प्रेरक नहीं लगा यद्यपि मैं जानता हूँ कि ‘करुण सतसई’ से लेकर ‘किसान सतसई’ तक ऐसे न जाने कितने प्रयत्न होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। निहित क्षमता एवं सम्भावना के अनुरूप किसी भाषा के विकास को रोका नहीं जा सकता। किन्तु नयी अभिव्यक्ति को सम्हालने में जैसी क्षमता और उपयुक्तता खड़ी बोली के अन्दर विकसित हो चुकी है और जो सम्भावनाएँ अभी प्रकट होती जा रही हैं उनकी ओर से आँखें मूँद कर छंदात्मकता के पक्ष में आन्दोलन खड़ा करना, कवियों से मुक्त-छंद की रचना को छंद-बद्ध कर देने का आग्रह करना तथा घटिया रचनाओं को मात्र छंद-बद्ध होने के कारण छापते जाना, मेरी दृष्टि में दयनीय का द्योतक है। ऐसे प्रयत्न हारे हुए पन का बोध कराते हैं, चाहे वे किसी श्रद्धेय कवि की पुण्य स्मृति को जगाये रखने के नाम पर ही क्यों न किये जाते हों। उनमें साहित्य की दिशा बदल देने की शक्ति दिखायी नहीं देती।
काव्य में नये विषयों और नयी शैली को अपनाने की माँग ब्रजभाषा के संदर्भ में मुझे कभी उतनी उपयुक्त नहीं लगी जितनी खड़ी बोली के संदर्भ में क्योंकि जितनी क्षमता उर्वरता तथा अनुकूलता नये माध्यम से होती है उतनी पुराने में नहीं। ब्रजभाषा शिखरों को छू चुकी है, अतः उसका स्वभाव बहुत कुछ स्थिरीभूत हो चुका है जब कि खड़ी बोली शिखरों के स्पर्श-क्रम में तेजी के साथ संलग्न है। वस्तुतः उसमें प्रवाहित नयी काव्य-चेतना के दबाव से ही ब्रजभाषा से ऐसी माँग की जाने लगी। स्वयं ब्रज की भाषिक संचेतना से वह उत्पन्न नहीं होती है। जब कोई भाषा अपनी सम्भावनाओं को परिभाषित कर चुकती है तो उसकी सृजन-धर्मिता विराम की ओर उन्मुख हो जाती है। आज ब्रजभाषा मुझे विरामदायिनी लगती है और खड़ी बोली प्रवहमानता से संवलित, सत्वर गतिशील इसे मेरी निजी सीमा भी माना जा सकता है।
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1. ‘ब्रजभारती’ के सम्पादकीय में संवत् 2011 में मान्यवर कृष्णदत्त वाजपेयी ने लिखा था-‘ब्रजभाषा की अधिकांश रचनाएँ युग के अनुरूप नहीं हैं। उनमें वही भाव, भाषा की एक रूपता तथा पुरानी घिसी-घिसाई बातें पाई जाती हैं जो भक्ति काल तथा रीति-काल की रचनाओं में मिलती हैं: ऐसी बात नहीं कि ब्रजभाषा में नये विषयों पर युगानुरूप रचनाएँ न की जा सकें। आशा है ब्रजभाषा के लेखक चेतेंगे और देश-काल का ध्यान रखते हुए नये वर्ण्य विषयों और नयी शैली को अपनावेंगे। इससे न केवल उक्त आक्षेप का निराकरण हो सकेगा अपितु ब्रजभाषा साहित्य एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी की समृद्धि में भी योग दिया जा सकेगा।’’
प्रथम विश्व हिन्दी परिषद के अवसर पर नागपुर में आयोजित हिन्दी पुस्तक प्रदर्शनी में मैंने ‘भावगंध’ नामक एक बड़ी रोचक समीक्षा-पुस्तक प्राप्त की। यह डॉ. माधव गोपाल देशमुख की मूल मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद है, डॉ. घनश्याम गोपाल व्यास का किया हुआ। भाषा विचारों से कम आनंदप्रद नहीं है। भावगंध की प्रतिष्ठा करके देशमुख ने रस-सिद्धान्त को अमान्य ठहराया है। नयी कविता के संदर्भ में अपने ढंग से मैंने भी कुछ ऐसा ही किया है अतः समानधर्मिता का सुख भी मिला। रचना की दृष्टि से नये कवियों में एक अनिल देश पाण्डे ऐसे दिखायी दिये जिनकी ‘फुलबात’ ‘जीर्ण सम्प्रदाय’ यानी पुरानी पद्धति की तथा ‘निर्वासित चीनी मुलास’ आदि रचनाएँ ‘नव सम्प्रदाय’ की हैं। मराठी के नव समीक्षकों ने उन्हें देहरी दीप’ न्यायानुसार दोनों ओर निर्धारित किया है जिस पर व्यंग्य करते हुए देशपाण्डे ने लिखा है-
एक ही कवि के व्यक्तित्व में नवीन प्राचीन दोनों आंचल गुंफने वाले समीक्षकों के बारे में ‘मित्रेभ्यः परिभायस्व’। ईश्वर की करुणा माँगने का बाँका प्रसंग बेचारे अनिल पर आ पड़ा है।
अब हिन्दी को समीक्षक मित्रों से परित्राण पाने के लिए भगवान से विनय करने की जिम्मेदारी इस बेचारे गुप्त पर आ पड़ी है। अनिल जी की फुलबात की भूमिका ‘छंद-शती’ अदा करेगी। यहाँ, मुझे अपने पहले काव्य-संग्रह की समीक्षा का शीर्षक याद आ रहा है ‘रीति गीति और नयी कविता’। निश्चय ही यह समीक्षा मेरे एक अनुजवत् प्रिय मित्र ने की थी तथा जिन्होंने उसे स्वसम्पादित पत्रिका में सहर्ष छापा था वे भी मित्र ही थे। सच पूछिये तो और घनिष्ठ, एवं आत्मीय। उन्होंने सत्य को सामने लाकर अन्ततः मेरा उपकार ही किया अतः मैं उनके प्रति हृदय से आभारी हूँ। ‘नयी कविता’ का पहला अंक निकालने में सहयोग देने के बाद मेरे एक सहपाठी कवि-मित्र ने स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक में नयी कविता के सम्बन्ध में एक लेख लिख कर स्वयं ही यह प्रश्न चिह्न अंकित किया है ब्रजभाषा से सम्बद्ध होने के नाते मुझे ‘नयी कविता’ के सम्पादन का क्या अधिकार था। अधिकार तो मेरा ‘नयी कविता’ के आठ अंकों के प्रकाशित होते-होते नयी कविता की व्यापक प्रतिष्ठा एवं सर्व सामान्य स्वीकृति से ही सिद्ध हो
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भावगंध, संदर्भित अनुवाद, पृ. 73
आलोचना-1966
जाता है। उसके लिए उनका प्रतिवाद करने और अपने पक्ष में प्रमाण देने की अब मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। हिन्दी साहित्य में ‘नयी कविता’ आपके और मेरे देखते-देखते वैसे ही स्थापित हो गयी है जैसे प्रसाद-पंत निराला-महादेवी के जीवन-काल में ‘छायावाद’ स्थापित होकर हिन्दी साहित्य के इतिहास का अंग बन गया था। रचते हुए इतिहास से अपने को सम्बद्ध देखने का अनुभव भी कम रोमांचकारी नहीं होता पर उसमें व्यतीत होने का विषाद भी शामिल रहता है। मातृत्व के सुख में वार्धक्य का दुख भी कहीं न कहीं मिला ही रहता है।
कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘व्रजबूलि’ में अपने प्रारम्भिक काव्य-काल में अनेक भक्तिपरक पद रचे थे। ‘भानुसिंहेर पदावली’ के नाम से उनकी पर्याप्त ख्याति रही है। बहुत काल तक लोग इस भ्रम में रहे कि सचमुच ‘भानुसिंह’ नाम का कोई कवि मध्यकाल में हुआ था जिसकी पदावली उपलब्ध हो गयी है। शोधार्थी शोध के लिए उत्सुक हो उठे थे और प्राचीन साहित्य के अनुरागी तो अभिभूत थे ही। बाद में जब इस विनोद को सीमा पार करते देखा तो स्वयं गुरुदेव ने मुस्कराहट के साथ इस तथ्य को प्रकट कर दिया कि वे पद उन्हीं के लिखे हैं। लोग चकित रह गये, और ‘भौचकित’ भी। मुझमें न ऐसा छद्म लीला-सामर्थ्य है और न इतनी महिमा कि उनकी राह पर चल सकूँ और निष्कलुष भी बना रहूँ। मैंने तो शुरू से ही अपने ब्रजभाषा कृतित्व को उजागर रक्खा और कभी उसे छिपाने की चेष्टा नहीं की। भली-बुरी जैसी लिखीं, गयीं, खड़ी और ब्रज दोनों की रचनाएँ प्रायः समानान्तर रूप से ही सबके सामने आती रहीं। यही सही है कि प्रयाग आने पर और स्वातन्त्र्य आन्दोलन से सक्रिय-रूप से सम्बद्ध हो जाने पर नियमबद्ध रचना-कर्म की प्रवृत्ति धीरे-धीरे स्वयं विराम पाती गयी। स्वतः उन्मेष की प्रक्रिया समाप्त हो गयी। यों चाहूँ तो आज भी वैसा लिख सकता हूँ पर सहज प्रेरणा, जैसी पहले होती थी, अब नहीं होती। मैं प्रेरणा को काव्य-रचना में सर्वोपरि स्थान देता हूँ।
ऐसा अवश्य हुआ है कि मेरे मनोजगत् में आधुनिक चेतना के विकास के साथ और विशेष रूप से नयी कविता से सम्पृक्त होने पर, धीरे-धीरे ब्रजभाषा में रचना करते रहने की सहज संकल्पशीलता स्वतः शिथिल होती गयी। क्षमता आज भी निःशेष नहीं हुई है पर रचनात्मक उन्मेष और परिचित छंदात्मक प्रवाह अवश्य मद्धिम हो गया है। उसका मूल कारण यही है कि रत्नाकर जी की तरह खड़ी बोली की स्पर्धा में ब्रजभाषा को आगे लाने का दायित्व मैंने अपने ऊपर कभी ओढ़ा ही नहीं क्योंकि वह जहाँ तक पहुँच चुकी है उससे आगे की बात सोचना मुझे दुष्कर लगता है। मुझे खड़ी बोली काव्य के नवोन्मेष से न केवल प्रसन्नता होती रही वरन् उसके स्वरूप-विकास और चिंतन-क्रम में अपना यत्किंचित् योगदान देने का उत्साह उत्तरोत्तर प्रमुख होता गया। प्रारम्भ से ही मेरे रचना-संसार में भाषा-भेद को लेकर अलगाव या विरोध के बीज नहीं पनपे। कदाचित् इसीलिए हितैषी जी की तरह खड़ी बोली से सवैया लिखकर अपनी और उसकी क्षमता का सम्मिलित प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति भी मुझमें उत्पन्न नहीं हुई। ब्रजभाषा में नये विषयों का समावेश करना भी कम से कम मुझे प्रेरक नहीं लगा यद्यपि मैं जानता हूँ कि ‘करुण सतसई’ से लेकर ‘किसान सतसई’ तक ऐसे न जाने कितने प्रयत्न होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। निहित क्षमता एवं सम्भावना के अनुरूप किसी भाषा के विकास को रोका नहीं जा सकता। किन्तु नयी अभिव्यक्ति को सम्हालने में जैसी क्षमता और उपयुक्तता खड़ी बोली के अन्दर विकसित हो चुकी है और जो सम्भावनाएँ अभी प्रकट होती जा रही हैं उनकी ओर से आँखें मूँद कर छंदात्मकता के पक्ष में आन्दोलन खड़ा करना, कवियों से मुक्त-छंद की रचना को छंद-बद्ध कर देने का आग्रह करना तथा घटिया रचनाओं को मात्र छंद-बद्ध होने के कारण छापते जाना, मेरी दृष्टि में दयनीय का द्योतक है। ऐसे प्रयत्न हारे हुए पन का बोध कराते हैं, चाहे वे किसी श्रद्धेय कवि की पुण्य स्मृति को जगाये रखने के नाम पर ही क्यों न किये जाते हों। उनमें साहित्य की दिशा बदल देने की शक्ति दिखायी नहीं देती।
काव्य में नये विषयों और नयी शैली को अपनाने की माँग ब्रजभाषा के संदर्भ में मुझे कभी उतनी उपयुक्त नहीं लगी जितनी खड़ी बोली के संदर्भ में क्योंकि जितनी क्षमता उर्वरता तथा अनुकूलता नये माध्यम से होती है उतनी पुराने में नहीं। ब्रजभाषा शिखरों को छू चुकी है, अतः उसका स्वभाव बहुत कुछ स्थिरीभूत हो चुका है जब कि खड़ी बोली शिखरों के स्पर्श-क्रम में तेजी के साथ संलग्न है। वस्तुतः उसमें प्रवाहित नयी काव्य-चेतना के दबाव से ही ब्रजभाषा से ऐसी माँग की जाने लगी। स्वयं ब्रज की भाषिक संचेतना से वह उत्पन्न नहीं होती है। जब कोई भाषा अपनी सम्भावनाओं को परिभाषित कर चुकती है तो उसकी सृजन-धर्मिता विराम की ओर उन्मुख हो जाती है। आज ब्रजभाषा मुझे विरामदायिनी लगती है और खड़ी बोली प्रवहमानता से संवलित, सत्वर गतिशील इसे मेरी निजी सीमा भी माना जा सकता है।
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1. ‘ब्रजभारती’ के सम्पादकीय में संवत् 2011 में मान्यवर कृष्णदत्त वाजपेयी ने लिखा था-‘ब्रजभाषा की अधिकांश रचनाएँ युग के अनुरूप नहीं हैं। उनमें वही भाव, भाषा की एक रूपता तथा पुरानी घिसी-घिसाई बातें पाई जाती हैं जो भक्ति काल तथा रीति-काल की रचनाओं में मिलती हैं: ऐसी बात नहीं कि ब्रजभाषा में नये विषयों पर युगानुरूप रचनाएँ न की जा सकें। आशा है ब्रजभाषा के लेखक चेतेंगे और देश-काल का ध्यान रखते हुए नये वर्ण्य विषयों और नयी शैली को अपनावेंगे। इससे न केवल उक्त आक्षेप का निराकरण हो सकेगा अपितु ब्रजभाषा साहित्य एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी की समृद्धि में भी योग दिया जा सकेगा।’’
-वर्ष-12, अंक-4, पृ. 63
यह छंद-शती
चित्रों का साहचर्य
मेरी दृष्टि में ब्रजभाषा-काव्य असाधारण सांस्कृतिक गरिमा और परिष्कृत
सौंदर्य-बोध का काव्य है। मुझे तो उसमें वही अप्रतिम लालित्य और
रंग-रूप-वैभव मिलता है जो राजस्थानी और काँगड़ा शैली, के विश्वव्यापी स्तर
पर आशंसित, चित्रों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। ऐतिहासिक सत्य तो यह
है कि दोनों का विकास बहुत कुछ एक ही सामाजिक, सांस्कृतिक वातावरण में
हुआ। जिस तरह चाक्षुष कलाएँ सहज रूप से सार्वभौमिक हो जाती हैं वैसी
स्थिति भाषाबद्ध काव्य की नहीं हो पाती। जहाँ भी ब्रजभाषा काव्य को
भाषान्तरित किया गया है या कोई देशेतर भाषा-भाषी उसके निकट आया है वहाँ
उसका रचनात्मक और भावात्मक दोहरा आकर्षण स्वतः सक्रिय हुआ है।
‘बिहारी सतसई’ को अंग्रेजी में अनूदित करके जीवन से
अकस्मात् विराम लेने वाले विलियम हॉलैण्ड का उदाहरण मेरे सामने है जिसने
उसकी भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि कैशोर्य और युवा-प्रेम की जैसी पूर्णता
ब्रजभाषा काव्य में मिलती है वह योरोपीय साहित्य के लिए स्पृहणीय
है।’
रीति परम्परा के मुक्तक-काव्य को ‘खंड-खंड वाचिक संपूर्तियाँ’ मानकर जिस रूप में रमेश कुन्तल मेघ ने देखने की चेष्टा की है उसमें चित्रोपमता की पहचान तो सही है पर उसके मुक्तकों में खंडित हो जाने की घोषणा संगत नहीं है।2 उपनिषत्काल से ही पूर्णता की अवधारणा भारतीय चिन्तकों की दृष्टि में बड़ी विचित्र रही है। मूलतः
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1. आजकल के कटुतापूर्ण और अवज्ञापूर्ण पाश्चात्य काव्य में सौन्दर्यपरक वर्णन वास्तव में अविद्यमान हैं। गिन्ज़वर्ग और सेलीन जैसे कलाकार साहित्य को अप्रियता की सीमा तक ले चले हैं और दूसरे कलाकार बुद्धिभाव और शाब्दिक निरर्थकता में फँस गये हैं।...पश्चिम की दृष्टि में बिहारीलाल की रचना का महत्त्व यह है कि यह हमारे साहित्य की एक कमी पूरी कर सकती है।
2. आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र अभिनन्दन ग्रंथ, पृ. 287-8
उसे अखण्ड माना गया है। रचनात्मक रूप में मुक्तक अपने में पूर्ण होता है, यही उसकी विशेषता और सार्थकता है। भेदों-प्रभेदों में काव्य-शास्त्रीय आधार पर वर्गीकृत होना इस बात का द्योतक नहीं है कि काव्यानुभूति को ‘Verbal icon’ जिसका अनुवाद ‘वाचिक कलश’ और ‘वाचिक संमूर्ति’ किया गया है, के रूप में खण्डित अभिव्यक्ति की गई है। दोनों की इयत्ता और महत्ता में अन्तर हो सकता है पर एक मुक्तक की पूर्णता प्रबन्ध काव्य की पूर्णता से तत्त्वतः भिन्न नहीं हैं। पहले इस तथ्य की उपेक्षा की गयी परन्तु ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने इसकी जिस रूप में प्रतिष्ठा की वह अनुपेक्षणीय हो गया। उन्हें ‘अमरुक शतक’ के मुक्तकों ने विशेष प्रभावित किया था। सिद्धान्त प्रतिपादन करते समय नामोल्लेख इसका प्रमाण है मुक्तकों को ‘अन्येनालिंगितम्’ अथवा ‘पूर्वापर निरपेक्ष’ बताते हुए ‘लोचन’ में अभिनव गुप्त ने भी आनन्दवर्धन के मत का समर्थन ही किया है। उन्होंने प्रबन्ध के बीच भी मुक्तकों की स्थिति मानी है। आचार्य दण्डी और हेमचन्द्र आदि ने मुक्तकों के तरह-तरह के भेद, वर्ग और नाम दिये हैं। यह सारी स्थिति इस बात की द्योतक है कि जिस प्रकार भारतीय ‘मिनिएचर आर्ट’ को आज विशालकाय कृतियों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता है, उसी प्रकार मुक्तकों की कलात्मकता को भी काव्य-चिन्तकों द्वारा न्यून महत्ता प्रदान नहीं की गई है। वस्तुतः यह कला-चेतना की दो प्रवृत्तियाँ हैं जो किसी कलाकार में एक साथ भी हो सकती हैं अन्यथा अलग-अलग तो उनका अस्तित्व देखा ही जाता है।
रीति परम्परा के मुक्तक-काव्य को ‘खंड-खंड वाचिक संपूर्तियाँ’ मानकर जिस रूप में रमेश कुन्तल मेघ ने देखने की चेष्टा की है उसमें चित्रोपमता की पहचान तो सही है पर उसके मुक्तकों में खंडित हो जाने की घोषणा संगत नहीं है।2 उपनिषत्काल से ही पूर्णता की अवधारणा भारतीय चिन्तकों की दृष्टि में बड़ी विचित्र रही है। मूलतः
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1. आजकल के कटुतापूर्ण और अवज्ञापूर्ण पाश्चात्य काव्य में सौन्दर्यपरक वर्णन वास्तव में अविद्यमान हैं। गिन्ज़वर्ग और सेलीन जैसे कलाकार साहित्य को अप्रियता की सीमा तक ले चले हैं और दूसरे कलाकार बुद्धिभाव और शाब्दिक निरर्थकता में फँस गये हैं।...पश्चिम की दृष्टि में बिहारीलाल की रचना का महत्त्व यह है कि यह हमारे साहित्य की एक कमी पूरी कर सकती है।
2. आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र अभिनन्दन ग्रंथ, पृ. 287-8
उसे अखण्ड माना गया है। रचनात्मक रूप में मुक्तक अपने में पूर्ण होता है, यही उसकी विशेषता और सार्थकता है। भेदों-प्रभेदों में काव्य-शास्त्रीय आधार पर वर्गीकृत होना इस बात का द्योतक नहीं है कि काव्यानुभूति को ‘Verbal icon’ जिसका अनुवाद ‘वाचिक कलश’ और ‘वाचिक संमूर्ति’ किया गया है, के रूप में खण्डित अभिव्यक्ति की गई है। दोनों की इयत्ता और महत्ता में अन्तर हो सकता है पर एक मुक्तक की पूर्णता प्रबन्ध काव्य की पूर्णता से तत्त्वतः भिन्न नहीं हैं। पहले इस तथ्य की उपेक्षा की गयी परन्तु ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने इसकी जिस रूप में प्रतिष्ठा की वह अनुपेक्षणीय हो गया। उन्हें ‘अमरुक शतक’ के मुक्तकों ने विशेष प्रभावित किया था। सिद्धान्त प्रतिपादन करते समय नामोल्लेख इसका प्रमाण है मुक्तकों को ‘अन्येनालिंगितम्’ अथवा ‘पूर्वापर निरपेक्ष’ बताते हुए ‘लोचन’ में अभिनव गुप्त ने भी आनन्दवर्धन के मत का समर्थन ही किया है। उन्होंने प्रबन्ध के बीच भी मुक्तकों की स्थिति मानी है। आचार्य दण्डी और हेमचन्द्र आदि ने मुक्तकों के तरह-तरह के भेद, वर्ग और नाम दिये हैं। यह सारी स्थिति इस बात की द्योतक है कि जिस प्रकार भारतीय ‘मिनिएचर आर्ट’ को आज विशालकाय कृतियों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता है, उसी प्रकार मुक्तकों की कलात्मकता को भी काव्य-चिन्तकों द्वारा न्यून महत्ता प्रदान नहीं की गई है। वस्तुतः यह कला-चेतना की दो प्रवृत्तियाँ हैं जो किसी कलाकार में एक साथ भी हो सकती हैं अन्यथा अलग-अलग तो उनका अस्तित्व देखा ही जाता है।
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