भाषा एवं साहित्य >> आलोचक के मुख से आलोचक के मुख सेनामवर सिंह
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डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य कहे जाते हैं। ...
Aalok Ke Mukha Se a hindi book by Namvar Singh - आलोचक के मुख से - नामवर सिंह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
डॉ. नामवार सिंह हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य कहे जाते हैं। जैसे बाबा नागार्जुन घूम-घूमकर किसानों और मजदूरों की सभाओं से लेकर छात्र-नौजवानों, बुद्धिजीवियों और विद्वानों तक की गोष्ठियों में अपनी कविताएँ बेहिचक सुनाकर जनतान्त्रिक संवेदना जगाने का काम करते रहे, वैसे ही नामवर जी घूम-घूमकर वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, कलावाद, व्यक्तिवाद आदि के खिलाफ चिन्तन को ही प्रेरित करते रहे हैं। इस वैचारिक, सांस्कृतिक अभियान में नामवर जी एक तो विचारहीनता की व्यावहारिक काट करते रहे हैं, दूसरे वैकल्पिक विचारधारा की ओर से लोकशिक्षण भी करते रहे हैं।
नामवर जी मार्क्सवाद को अध्ययन की पद्धति के रूप में, चिन्तन की पद्धति के रूप में, समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में, जीवन और समाज को मानवीय बनाने वाले सौन्दर्य-सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करते हैं। एक मार्क्सवादी होने के नाते वे आत्मालोचन को भी स्वीकार करके चलते रहे हैं। वे आत्मालोचन करते भी रहे हैं। उनके व्याख्यानों और लेखन में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। आलोचना को स्वीकार करने में नामवर जी का जवाब नहीं। यही कारण है कि हिन्दी क्षेत्र की शिक्षित जनता के बीच मार्क्सवाद और वामपंथ के बहुत लोकप्रिय नहीं होने के बावजूद नामवर जी उनके बीच प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हैं।
इस पुस्तक में संकलित नामवर जी के पाँच आख्यान पटना में प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से विभिन्न अवसरों पर दिये गये हैं इन व्याख्यानों को सम्पादित करते हुए भी व्याख्यान के रूप में ही रहने दिया गया है, ताकि पाठक नामवर जी की वक्तृत्व कला का भी आनन्द ले सकें।
नामवर जी अभी हिन्दी के सर्वोत्तम वक्ता हैं और माने भी जाते हैं। उनके व्याख्यान में भाषा के प्रवाह के साथ विचारों की लय होती है। इस लय का निर्माण विचारों के तारतम्य और क्रमबद्धता से होता है। अनावश्यक तथ्यों और प्रसंगों से वे बचते रहे हैं और रोचकता का भी ध्यान हमेशा रखते हैं।
आज के साहित्य, विचारधारा, सौन्दर्य, राजनीति और आलोचना से जुड़े तथा उनके अन्तरसंबंधों के बारे में महत्वपूर्ण बातें इन व्याख्यानों में कही गई हैं। हिन्दी आलोचना की यह एक महत्वपूर्ण किताब मानी जाएगी।
साहित्य की भाषा में जो ‘सृजनशीलता’ आती है, वह लोकभाषा से आती है। लोकभाषा सृजनशील होती है, सृजनात्मक होती है। उसी से शक्ति लेकर साहित्य अपने रूढ़ घिसे हुए प्रतीकों और रूपकों से मुक्त होता हुआ सृजनशीलता की ओर अग्रसर होता है। सवाल उठता है कि लोकभाषा क्यों सृजनशील होती है ? क्योंकि लोकभाषा के निर्माण करने वाले सृजनशील हैं, जो लोक है, जो मेहनत करने वाला है, वही सृजनशील होता है। ‘उत्पादन’ और सृजन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए जो सामाजिक मूल्यों, नैतिक मूल्यों और आर्थिक मूल्यों का निर्माता होता है, वही सौन्दर्य के मूल्यों का, कला के मूल्यों का, साहित्य के मूल्यों का भी निर्माता है। संक्षेप में आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपि की यही स्थापना है।
सृष्टि के आरम्भ में उत्पादन-प्रक्रिया के साथ जिस सामूहिक जन ने अपने श्रम से पहली बार कोई हथियार या औजार बनाया होगा जंगल काटने के लिए, जिसने पहली बार धान का एक पौधा रोपा होगा, उसी के साथ उसने अपने कंठ में एक गीत भी रोपा होगा।
नामवर जी मार्क्सवाद को अध्ययन की पद्धति के रूप में, चिन्तन की पद्धति के रूप में, समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में, जीवन और समाज को मानवीय बनाने वाले सौन्दर्य-सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करते हैं। एक मार्क्सवादी होने के नाते वे आत्मालोचन को भी स्वीकार करके चलते रहे हैं। वे आत्मालोचन करते भी रहे हैं। उनके व्याख्यानों और लेखन में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। आलोचना को स्वीकार करने में नामवर जी का जवाब नहीं। यही कारण है कि हिन्दी क्षेत्र की शिक्षित जनता के बीच मार्क्सवाद और वामपंथ के बहुत लोकप्रिय नहीं होने के बावजूद नामवर जी उनके बीच प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हैं।
इस पुस्तक में संकलित नामवर जी के पाँच आख्यान पटना में प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से विभिन्न अवसरों पर दिये गये हैं इन व्याख्यानों को सम्पादित करते हुए भी व्याख्यान के रूप में ही रहने दिया गया है, ताकि पाठक नामवर जी की वक्तृत्व कला का भी आनन्द ले सकें।
नामवर जी अभी हिन्दी के सर्वोत्तम वक्ता हैं और माने भी जाते हैं। उनके व्याख्यान में भाषा के प्रवाह के साथ विचारों की लय होती है। इस लय का निर्माण विचारों के तारतम्य और क्रमबद्धता से होता है। अनावश्यक तथ्यों और प्रसंगों से वे बचते रहे हैं और रोचकता का भी ध्यान हमेशा रखते हैं।
आज के साहित्य, विचारधारा, सौन्दर्य, राजनीति और आलोचना से जुड़े तथा उनके अन्तरसंबंधों के बारे में महत्वपूर्ण बातें इन व्याख्यानों में कही गई हैं। हिन्दी आलोचना की यह एक महत्वपूर्ण किताब मानी जाएगी।
साहित्य की भाषा में जो ‘सृजनशीलता’ आती है, वह लोकभाषा से आती है। लोकभाषा सृजनशील होती है, सृजनात्मक होती है। उसी से शक्ति लेकर साहित्य अपने रूढ़ घिसे हुए प्रतीकों और रूपकों से मुक्त होता हुआ सृजनशीलता की ओर अग्रसर होता है। सवाल उठता है कि लोकभाषा क्यों सृजनशील होती है ? क्योंकि लोकभाषा के निर्माण करने वाले सृजनशील हैं, जो लोक है, जो मेहनत करने वाला है, वही सृजनशील होता है। ‘उत्पादन’ और सृजन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए जो सामाजिक मूल्यों, नैतिक मूल्यों और आर्थिक मूल्यों का निर्माता होता है, वही सौन्दर्य के मूल्यों का, कला के मूल्यों का, साहित्य के मूल्यों का भी निर्माता है। संक्षेप में आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपि की यही स्थापना है।
सृष्टि के आरम्भ में उत्पादन-प्रक्रिया के साथ जिस सामूहिक जन ने अपने श्रम से पहली बार कोई हथियार या औजार बनाया होगा जंगल काटने के लिए, जिसने पहली बार धान का एक पौधा रोपा होगा, उसी के साथ उसने अपने कंठ में एक गीत भी रोपा होगा।
प्रस्तावना
यह डॉ. नामवर सिंह के व्याख्यानों का संग्रह है। ये व्याख्यान प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से पटना में आयोजित विचार-सभाओं में दिए गए और इन्हें अक्सर पटना ही नहीं, बिहार के प्रबुद्ध श्रोताओं ने केवल कान से नहीं, पूरे मन से ग्रहण किया। ये आग्रहशील श्रोता रहे हैं। डॉ. नामवर सिंह के श्रोताओं में केवल लेखक या साहित्य प्रेमी नहीं या साहित्य के अध्यापक और छात्र ही नहीं बल्कि विचार-प्रेमी भी रहे हैं। इन विचार-प्रेमियों में नामवर जी के विचारों से सहमति के साथ ही असहमति रखनेवाले लोग भी शामिल रहे हैं। नगर में नामवर जी का व्याख्यान आयोजित हो और विचार-विमर्श को पसन्द करनेवाले विचलित न हों, यह सम्भव नहीं। इन व्याख्यानों के जरिए भी प्रगतिशील लेखक संघ और प्रगतिशील आन्दोलन की साख शिक्षित समुदाय में फैली और बढ़ी है। कई बार मुझे ऐसे पूछनेवाले भी मिले कि प्रगतिशील लेखक संघ का अगला आयोजन कब है या यह भी कि डॉ. नामवर सिंह का अगला व्याख्यान कब है। इससे प्रगतिशील आन्दोलन और डॉ. नामवर सिंह के विचारों के जनाधार का स्वरूप और पैमाना समझा जा सकता है। ऐसे श्रोता कहते हैं कि एक गोष्ठी या एक व्याख्यान में कई पुस्तकों के बराबर सामग्री मिल जाती है।
प्रगतिशील आन्दोलन का सम्बन्ध यदि हिन्दी नवजागरण से है, (और बेशक यह सम्बन्ध है) तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी नवजागरण को इस दौर में प्रगतिशील लेखक संघ तथा अन्य सहयोगी मंचों से जन जागरण का स्वरूप देनेवालों में डॉ. नामवर सिंह अग्रणी रहे हैं। मैं कहना चाहता हूँ कि वे हमारे दौर में हिन्दी-जनता के वैचारिक सेनानी की भूमिका निभाते रहे हैं। हिन्दी जनता का उल्लेख मैं यहाँ केवल हिन्दीभाषी जनता के अर्थ में नहीं, बल्कि डॉ. इकबाल की पंक्ति ‘‘हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा’’ में प्रयुक्त हिन्दी के अर्थ में भी कर रहा हूँ। मैंने खुद नामवर जी को चण्डीगढ़, कोलकाता, मुम्बई, हैदराबाद जैसे शहरों में प्रगतिशील लेखक संघ के अलावा दूसरे मंचों से भी सुना है और एक बार तमिलनाडु के कुछ मित्र चेन्नई में दिए गए उनके व्याख्यान के प्रभाव का जिक्र प्रसन्न भाव से कर रहे थे। पंजाबी खिलाड़ी सभा के अधिवेशन में उनके उद्घाटन भाषण का जिक्र पंजाबी के लेखक मित्र बहुत दिनों तक करते रहे। इन सब के पीछे बात यह है कि नामवर जी के व्याख्यान शिक्षित करते हैं, वैचारिक रूप से समृद्ध करते हैं और उद्विग्न एवं उद्वेलित करते हैं। कोई उनकी तारीफ कर सकता है, विरोध कर सकता है, लेकिन किसी के लिए भी उनकी अपेक्षा करना या स्वयं तटस्थ एवं निर्विकार रह पाना सम्भव नहीं है।
इन व्याख्यानों को यहाँ संकलित और सम्पादित करते हुए मेरे ध्यान में यह बात आ रही है कि इनका वैचारिक महत्त्व यह भी बता रहा है कि प्रगतिशील लेखक संघ के अपने आयोजनों के माध्यम से और नामवर जी की मदद से कितना महत्त्वपूर्ण काम किया है, वह भी उस दौर में जब हमारे ही अनेक मित्र और सहयात्री हमें विसर्जनवादी कहते रहे हैं और प्रगतिशील लेखक संघ को विघटित करार देते रहे। हम यह भी सोच रहे हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ ने अपने प्रारम्भिक दौर में जो ऐतिहासिक भूमिका अदा की और जिसका महत्त्व इतिहास में स्वीकृत है, जिस पर हम गर्व करते हैं, हमारे इस दौर की सक्रियता की भूमिका क्या उस दौर को विकसित और समृद्ध नहीं करती ? ये व्याख्यान जब पुस्तकाकार प्रकाशित होकर फिर एक बार पाठकों और श्रोताओं के बीच जाएँगे, तब वे ही इसका मूल्यांकन करेंगे। डॉ. रामशरण शर्मा ने एक बार पटना में कहा कि इस दौर का सांस्कृतिक इतिहास कोई लिखने की कोशिश करेगा, तो वह प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों का जिक्र अवश्य करेगा, इसके बिना वह इतिहास पूरा नहीं होगा। इसी बात में इतना जोड़ना चाहता हूँ कि इस पुस्तक में संकलित व्याख्यानों को उक्त दौर की ऐतिहासिक एवं वैचारिक उपलब्धियों का जीवन्त प्रमाण माना जाएगा।
डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य कहे जाते हैं। कुछ लोग तो व्यंग्यात्मक लहजे में यह बात कहते हैं, लेकिन भारत में वाचिक परम्परा की जरूरत और महत्त्व को समझनेवाले पूरी गम्भीरता से नामवर जी को वाचिक परम्परा का आचार्य मानते हैं और समझते हैं कि नामवर जी ने एक बड़ा काम किया है। व्यंग्य से बोलनेवाले यह धारणा फैलाना चाहते हैं कि नामवर जी लिखते नहीं, बोलते ही रहे हैं। यहाँ मैं नामवर जी की प्रकाशित पुस्तकों की चर्चा करके व्यंग्य का जवाब नहीं देना चाहता, लेकिन इतना तय है कि व्यंग्य करनवालों के रिकार्ड में उतना लेखन नहीं है, जितना नामवर जी ने लिखा है और जब लिखा तो इतिहास और आलोचना में नया मानदंड प्रस्तुत करने जैसी हलचल पैदा की इसलिए व्यंग्य तो बनता ही नहीं है। वाचिक परम्परा की आवश्यकता और गम्भीरता को महसूस करनेवालों का जैसे प्रतिनिधि बनकर नागार्जुन जी ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही। अवसर था नामवर जी के साठ वर्ष पूरे करने पर वाराणसी में प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से आयोजित समारोह और संगोष्ठी। 28 मई, 1988 को समारोह के अध्यक्ष मंडल में नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री दोनों थे। सबसे अन्त में बोलते हुए नागार्जुन जी ने कहा, ‘‘अपने देश में आम जनता तक बातों को ले जाने की दृष्टि से, पुस्तकों से दूर कर दिए गए लोगों तक विचारों को पहुँचाने के लिए लिखना जितना जरूरी है, उससे ज्यादा जरूरी है बोलना। स्थापित (और स्थावर भी) विश्वविद्यालयों की तुलना में यह जंगम विद्यापीठ ज्यादा जरूरी है। नामवर इस जंगम विद्यापीठ के कुलपति हैं। इस विद्यापीठ का कोई मुख्यालय नहीं होता। यह जगह-जगह जाकर ज्ञान का वितरण सत्र आयोजित करता है। यह है ‘‘सुरसति के भण्डार की अपूरब बात। इसे किसी की नजर न लगे।’’ (सम्पादक के नोट बुक से) जैसे बाबा घूम-घूमकर किसानों और मजदूरों की सभाओं से लेकर छात्र-नौजवानों, बुद्धिजीवियों और विद्वानों तक की गोष्ठियों में अपनी कविताएँ बेहिचक सुनाकर जनतांत्रिक संवेदना जगाने का काम करते रहे, वैसे ही नामवर जी घूम-घूमकर वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे हैं, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, कलावाद, व्यक्तिवाद आदि के खिलाफ चिन्तन को प्रेरित करते रहे हैं, नई चेतना का प्रसार करते रहे हैं। वे विचारों के बीज बोते रहे हैं। इस वैचारिक, सांस्कृतिक अभियान में नामवर जी एक तो विचारधारा हीनता की व्यावहारिक काट करते रहे हैं, दूसरे वैकल्पिक विचारधारा की ओर से लोकशिक्षण भी करते रहे हैं। ध्यान देने की बात यह है कि लोकशिक्षण की यह भूमिका सार्थक एवं समर्थ ढंग से अदा करने के लिए आज की परिस्थितियों में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की वैचारिक और सांस्कृतिक स्थितियों और अभियानों के अद्यतन स्वरूप का उन्होंने अध्ययन किया है। उन्हें समझ-बूझकर उन्होंने लोगों को न केवल सावधान किया है, बल्कि उनके प्रत्युत्तर के लिए भी तैयार करने की कोशिश की है। मेरे कहने का अर्थ यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आज का साम्राज्यवाद राष्ट्रों के खिलाफ, सांस्कृतिक स्वायत्तता के खिलाफ, जनता और जनतन्त्र की चेतना को कुन्द करने के लिए जो कुछ हो रहा है, उसका अद्यतन ज्ञान हिन्दी में सबसे अधिक नामवर जी को है, ऐसा उनके व्याख्यानों से स्पष्टतः पता चलता है। कुल मिलाकर आज की परिस्थिति में भारत की देशभक्ति और मेहनतकश जनता की वैचारिक जरूरतों की पूर्ति करने में नामवर जी के माध्यम से चलनेवाले वैचारिक अभियान ने उल्लेखनीय योगदान किया है। इस योगदान का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी है प्रगतिशील आन्दोलन में नामवर जी के सम्पर्क से जनपक्ष की ओर से वैचारिक संघर्ष में भाग लेनेवालों, उसे व्यापक रूप से विकसित और प्रसारित करनेवालों की अच्छी-खासी टीम हिन्दी-क्षेत्र में बनी है। यह जरूरी नहीं है कि उस टीम के सदस्य नामवर जी को अपना ऐसा नायक मानते हों, जिसके पीछे वे आँख मूँदकर या हाथ जोड़कर चलें। वे नामवर जी से मतभेद व्यक्त करते हैं, उनकी आलोचना करते हैं, कभी-कभी विरोध भी करते हैं। और नामवर जी इन सबको पसन्द करते हैं। वे अक्सर कहते हैं कि विवाद करनेवाला, विचारों के क्षेत्र में पंजा लड़ानेवाला दुर्लभ होता जा रहा है। विवाद छिड़ने पर नामवर जी के विचार सान पर चढ़ते हैं और व्याख्यान की भाषा भी धारदार हो जाती है। इसलिए वे वाचिक परम्परा के ही नहीं, वाद-विवाद-संवाद के भी आचार्य माने जाते हैं। इस वैचारिक पद्धति में वे प्रतिपक्ष को हमेशा ध्यान में रखते हैं। इससे उनकी अपनी वैचारिक प्रक्रिया जनतान्त्रिक बनी रहती है।
नामवार जी मार्क्सवादी हैं। वे मार्क्सवाद को अध्ययन की प्रद्धति के रूप में, चिन्तन की पद्धति के रूप में, समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लानेवाले मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में, जीवन और समाज को मानवीय बनानेवाले सौन्दर्य-सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करते हैं। यों यह सर्वविदित है कि आज हमारे देश में और दुनिया भर में मार्क्सवाद की कम-से-कम डेढ़ दर्जन व्याख्याएँ और टीकाएँ दिखाई पड़ रही हैं। उनमें कई ऐसी टीकाएँ भी हैं, जिनके प्रवक्ता नामवर जी को संशोधनवादी कहते रहे हैं। आज तो मार्क्सवाद के दायरे में, कट्टरतावाद, संशोधनवाद, जैसे शब्द प्रायः निरर्थक हो गए हैं, लेकिन नामवर जी यों भी इस तरह के हमले से बेअसर रहकर अपना काम करते रहे हैं। एक मार्क्सवादी होने के नाते वे आत्मालोचन को भी स्वीकार करके चलते रहे हैं। वे आत्मालोचन करते भी रहे हैं। आत्मालोचन मार्क्सवादी अध्ययन पद्धति और उसकी रचनात्मकता का आवश्यक अंग है। नामवर जी के व्याख्यानों में और लेखन में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि जो आत्मालोचन की रचनात्मकता का इजहार कर सकता है, वह दूसरों की आलोचना को भी स्वीकार करने की धीरता का परिचय दे सकता है। आलोचना को स्वीकार करने में तो नामवर जी का जवाब नहीं। यही कारण है कि हिन्दी क्षेत्र की शिक्षित जनता के बीच मार्क्सवाद और वामंपथ के बहुत लोकप्रिय नहीं होने के बावजूद नामवर जी उनके बीच प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हैं। नामवर जी पटना में बोलें या भोपाल में, उनकी आवाज पूरे हिन्दी क्षेत्र में संचार माध्यमों के जरिए गूँजती है। इसलिए हिन्दी जनता की जनचेतना का प्रतिनिधित्व करने या प्रवक्ता बनने की क्षमता जितनी आज नामवर सिंह में है, उतनी किसी दूसरे लेखक या विद्वान में नहीं है। नामवर जी की इस विशिष्टता की परम्परा की ऐतिहासिक पहचान यदि की जाए तो आधुनिक युग में इस परम्परा में भारतेन्दु, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा डॉ. भगवत शरण उपाध्याय जैसे लेखक और विद्वान ही दीखते हैं। इन विद्वानों ने जनचेतना की जरूरत से जुड़े प्रश्नों से सम्बन्धित ज्ञान की जितनी शाखाओं में व्यापकता और गहराई के साथ विभिन्न विषयों पर लिखा है, उतने बड़े पैमाने पर नामवर जी ने लिखा भले ही न हो, लेकिन प्रतिक्रियावादी शक्तियों से वैचारिक संघर्ष करने तथा आज की जरूरत के मुताबिक सकारात्मक विचारधारा विकसित करने की उनकी तैयारी उन्हीं विद्वानों की तरह गहन और व्यापक है। इसीलिए कहीं भी, किसी समय, किसी भी विषय पर बोलने के लिए नामवर जी आमन्त्रण स्वीकार कर लेते हैं। सरजमीन पर वैचारिक राजनीतिक संघर्ष के काम में लगे लोगों को नामवर जी की इस तत्परता से कितनी सहूलियत होती है, यह मैं अच्छी तरह समझता हूँ, क्योंकि मैं उनके दर्जनों व्याख्यानों का आयोजक रहा हूँ। वांछित अवसर पर नहीं पहुँचने की परेशानी उन्होंने कभी नहीं दी। नामवर जी की इस तत्परता का सही कारण बहुत लोग नहीं समझ पाते। असल में वे स्वयं वैचारिक संघर्ष के एक योद्धा हैं, इसलिए किसी मोर्च से पुकार होने पर तत्परता से पहुँचते हैं। नामवर जी के मन में हिन्दी नवजागरण के बारे में अनेक शंकाएँ रही हैं, लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि सांस्कृतिक एवं वैचारिक दृष्टि से नामवर जी के माध्यम से विकसित वाचिक परम्परा हिन्दी नवजागरण का अद्यतन रूप है। स्वभावतः उनके व्यक्तित्व का यह रूप नवजागरण के पहले दूसरे दौर के व्यक्तित्वों जैसा ही है। यों नामवर जी ने इतिहास को कभी दुहराया नहीं है, उसे विकास की नई अवस्था में, नए धरातल पर आगे बढ़ाया है। इतिहास को आगे बढ़ाने से इतिहास की उपलब्धियाँ काम देती हैं, अन्यथा वे रूढ़ियाँ बन जाती हैं।
इस पुस्तक में संकलित नामवर जी के पाँच व्याख्यान पटना में प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से विभिन्न अवसरों पर दिए गए हैं। व्याख्यान तो नामवर जी के और भी हुए हैं लेकिन टेप से लिपिबद्ध और सम्पादित करके बिहार प्रगतिशील लेखक संघ की मेरे सम्पादन में प्रकाशित पत्रिका ‘उत्तरशती’ में ये व्याख्यान छपे थे। इन व्याख्यानों से ‘उत्तरशती’ की भूमिका भी स्पष्ट होती है। कुछेक टेप खराब हो गए। हमें अफसोस है कि वे भाषण उपलब्ध नहीं हैं। कुछ टेप नामवर जी के प्रेमियों और शिष्यों के पास होंगे, जिन्हें मैं उपलब्ध नहीं कर पाया। ये व्याख्यान हैं, इसलिए सम्पादित करते हुए भी व्याख्यान का रूप रहने दिया गया है, ताकि पाठक नामवर जी के वक्तृत्व का आनन्द श्रोता के रूप में भी ले सकें। नामवर जी अभी हिन्दी के सर्वोत्तम वक्ता हैं और माने भी जाते हैं। लेकिन उनके वक्तव्य की विशेषता जितनी भाषा की सहजता एवं प्रवाहपूर्णता, शैली की प्रभावपूर्णता और ध्वनि की बेधकता में निहित है, उससे अधिक विचारों के ओज, चिन्तन को प्रेरित करने की क्षमता और परिस्थिति के अनुसार विचारों के स्फुलिंग छिटकाने में है। इन बातों के अतिरिक्त उनके व्याख्यानों में विचारों की लय मिलती है, जिस पर श्रोता झूमते हैं। विचारों की लय ‘नई कविता’ की तथाकथित अर्थ की लय से बहुत भिन्न है। अर्थ की लय का तर्क तो भाषा की लय का निषेध करने के लिए दिया गया था। नामवर जी के व्याख्यान में भाषा के प्रवाह के साथ विचारों की लय होती है। इस लय का निर्माण विचारों के तारतम्य और क्रमबद्धता से होता है। अनावश्यक तथ्यों और प्रसंगों से वे बचते हैं और रोचकता का भी ध्यान हमेशा रखते हैं। वे विचारों की संगति और युक्ति से असंगत विचारों की धुंध काटने की कुशलता से व्याख्यान के मुख्य आकर्षण पैदा करते हैं। नामवर जी के व्याख्यान की विशेषता का जिक्र करते हुए एक बार डॉ. भगवतशरण उपाध्याय ने दिल्ली में प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठी में भीष्म साहनी के महासचिव-काल में अध्यक्ष पद से बोलते हुए कहा-नामवर जी गणित शैली में बोलते हैं। बिलकुल क्रमबद्ध ढंग से एक-दो-तीन करके अपने विचार-बिन्दु श्रोताओं की चेतना में उतार देते हैं। भगवतशरण जी स्वयं बहुत अच्छे और प्रभावशाली वक्ता थे। लेकिन वे भी नामवर जी की वक्तृत्व कला के कायल थे। इस पुस्तक में संकलित व्याख्यान से यदि सम्बोधन वाले अंश हटा दिए जाएँ, तो वे निबन्ध की तरह हो जाएँगे; ऐसे व्याख्यान किसी आयोजन में दिए जानेवाले व्याख्यान के समय की तैयारी के अलावा जीवन भर की तैयारी पर आधारित होते हैं। इन व्याख्यानों को मुखर निबन्ध कहा जा सकता है। यों इन व्याख्यानों के प्रकाशित रूप पर गौर करने पर मुझे लगता रहा है कि नामवर जी के माध्यम से हिन्दी में व्याख्यान एक विधा के रूप में प्रस्तुत हुआ है। यहाँ इन व्याख्यानों की समीक्षा या विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूँ कि ये व्याख्यान हिन्दी-आलोचना की ऊँचाई के साथ ही आलोचना में वस्तुगत एवं गहन विश्लेषण पद्धति के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। आज के साहित्य, विचारधारा, सौन्दर्य, राजनीति और आलोचना से जुड़े तथा उनके अन्तरसम्बन्धों के बारे में महत्त्वपूर्ण बातें इनमें कही गई हैं। हिन्दी आलोचना की यह एक महत्त्वपूर्ण किताब मानी जाएगी।
मुझे पूरा भरोसा है कि इस पुस्तक में संकलित ये व्याख्यान पाठकों को आकृष्ट करेंगे, समृद्ध करेंगे, प्रगतिशील आन्दोलन को मजबूत करने में मददगार होंगे। मैं यह भी समझ रहा हूँ कि इन व्याख्यानों में प्रतिपादित दृष्टिकोण और विचार के विरोधी भी इसे पढ़ना पसन्द करेंगे। अतः महाकवि तुलसीदास के इस वाक्यांश के साथ खत्म कर रहा हूँ-‘‘बन्दउ सन्त असंतन चरना ।’’
पुस्तक में व्याख्यान तिथि-क्रम से नहीं रखे गए हैं। मैंने अपने मन में उनका महत्त्व क्रम बनाकर उसी के अनुसार उनका स्थान तय किया है। पाठक इस वैचारिक क्रम की उपोयगिता महसूस करेंगे। उल्लेखनीय यह भी है कि यह नामवर जी के व्याख्यानों का पहला संग्रह है। आशा है, इसका स्वागत होगा।
प्रगतिशील आन्दोलन का सम्बन्ध यदि हिन्दी नवजागरण से है, (और बेशक यह सम्बन्ध है) तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी नवजागरण को इस दौर में प्रगतिशील लेखक संघ तथा अन्य सहयोगी मंचों से जन जागरण का स्वरूप देनेवालों में डॉ. नामवर सिंह अग्रणी रहे हैं। मैं कहना चाहता हूँ कि वे हमारे दौर में हिन्दी-जनता के वैचारिक सेनानी की भूमिका निभाते रहे हैं। हिन्दी जनता का उल्लेख मैं यहाँ केवल हिन्दीभाषी जनता के अर्थ में नहीं, बल्कि डॉ. इकबाल की पंक्ति ‘‘हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा’’ में प्रयुक्त हिन्दी के अर्थ में भी कर रहा हूँ। मैंने खुद नामवर जी को चण्डीगढ़, कोलकाता, मुम्बई, हैदराबाद जैसे शहरों में प्रगतिशील लेखक संघ के अलावा दूसरे मंचों से भी सुना है और एक बार तमिलनाडु के कुछ मित्र चेन्नई में दिए गए उनके व्याख्यान के प्रभाव का जिक्र प्रसन्न भाव से कर रहे थे। पंजाबी खिलाड़ी सभा के अधिवेशन में उनके उद्घाटन भाषण का जिक्र पंजाबी के लेखक मित्र बहुत दिनों तक करते रहे। इन सब के पीछे बात यह है कि नामवर जी के व्याख्यान शिक्षित करते हैं, वैचारिक रूप से समृद्ध करते हैं और उद्विग्न एवं उद्वेलित करते हैं। कोई उनकी तारीफ कर सकता है, विरोध कर सकता है, लेकिन किसी के लिए भी उनकी अपेक्षा करना या स्वयं तटस्थ एवं निर्विकार रह पाना सम्भव नहीं है।
इन व्याख्यानों को यहाँ संकलित और सम्पादित करते हुए मेरे ध्यान में यह बात आ रही है कि इनका वैचारिक महत्त्व यह भी बता रहा है कि प्रगतिशील लेखक संघ के अपने आयोजनों के माध्यम से और नामवर जी की मदद से कितना महत्त्वपूर्ण काम किया है, वह भी उस दौर में जब हमारे ही अनेक मित्र और सहयात्री हमें विसर्जनवादी कहते रहे हैं और प्रगतिशील लेखक संघ को विघटित करार देते रहे। हम यह भी सोच रहे हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ ने अपने प्रारम्भिक दौर में जो ऐतिहासिक भूमिका अदा की और जिसका महत्त्व इतिहास में स्वीकृत है, जिस पर हम गर्व करते हैं, हमारे इस दौर की सक्रियता की भूमिका क्या उस दौर को विकसित और समृद्ध नहीं करती ? ये व्याख्यान जब पुस्तकाकार प्रकाशित होकर फिर एक बार पाठकों और श्रोताओं के बीच जाएँगे, तब वे ही इसका मूल्यांकन करेंगे। डॉ. रामशरण शर्मा ने एक बार पटना में कहा कि इस दौर का सांस्कृतिक इतिहास कोई लिखने की कोशिश करेगा, तो वह प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों का जिक्र अवश्य करेगा, इसके बिना वह इतिहास पूरा नहीं होगा। इसी बात में इतना जोड़ना चाहता हूँ कि इस पुस्तक में संकलित व्याख्यानों को उक्त दौर की ऐतिहासिक एवं वैचारिक उपलब्धियों का जीवन्त प्रमाण माना जाएगा।
डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य कहे जाते हैं। कुछ लोग तो व्यंग्यात्मक लहजे में यह बात कहते हैं, लेकिन भारत में वाचिक परम्परा की जरूरत और महत्त्व को समझनेवाले पूरी गम्भीरता से नामवर जी को वाचिक परम्परा का आचार्य मानते हैं और समझते हैं कि नामवर जी ने एक बड़ा काम किया है। व्यंग्य से बोलनेवाले यह धारणा फैलाना चाहते हैं कि नामवर जी लिखते नहीं, बोलते ही रहे हैं। यहाँ मैं नामवर जी की प्रकाशित पुस्तकों की चर्चा करके व्यंग्य का जवाब नहीं देना चाहता, लेकिन इतना तय है कि व्यंग्य करनवालों के रिकार्ड में उतना लेखन नहीं है, जितना नामवर जी ने लिखा है और जब लिखा तो इतिहास और आलोचना में नया मानदंड प्रस्तुत करने जैसी हलचल पैदा की इसलिए व्यंग्य तो बनता ही नहीं है। वाचिक परम्परा की आवश्यकता और गम्भीरता को महसूस करनेवालों का जैसे प्रतिनिधि बनकर नागार्जुन जी ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही। अवसर था नामवर जी के साठ वर्ष पूरे करने पर वाराणसी में प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से आयोजित समारोह और संगोष्ठी। 28 मई, 1988 को समारोह के अध्यक्ष मंडल में नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री दोनों थे। सबसे अन्त में बोलते हुए नागार्जुन जी ने कहा, ‘‘अपने देश में आम जनता तक बातों को ले जाने की दृष्टि से, पुस्तकों से दूर कर दिए गए लोगों तक विचारों को पहुँचाने के लिए लिखना जितना जरूरी है, उससे ज्यादा जरूरी है बोलना। स्थापित (और स्थावर भी) विश्वविद्यालयों की तुलना में यह जंगम विद्यापीठ ज्यादा जरूरी है। नामवर इस जंगम विद्यापीठ के कुलपति हैं। इस विद्यापीठ का कोई मुख्यालय नहीं होता। यह जगह-जगह जाकर ज्ञान का वितरण सत्र आयोजित करता है। यह है ‘‘सुरसति के भण्डार की अपूरब बात। इसे किसी की नजर न लगे।’’ (सम्पादक के नोट बुक से) जैसे बाबा घूम-घूमकर किसानों और मजदूरों की सभाओं से लेकर छात्र-नौजवानों, बुद्धिजीवियों और विद्वानों तक की गोष्ठियों में अपनी कविताएँ बेहिचक सुनाकर जनतांत्रिक संवेदना जगाने का काम करते रहे, वैसे ही नामवर जी घूम-घूमकर वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे हैं, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, कलावाद, व्यक्तिवाद आदि के खिलाफ चिन्तन को प्रेरित करते रहे हैं, नई चेतना का प्रसार करते रहे हैं। वे विचारों के बीज बोते रहे हैं। इस वैचारिक, सांस्कृतिक अभियान में नामवर जी एक तो विचारधारा हीनता की व्यावहारिक काट करते रहे हैं, दूसरे वैकल्पिक विचारधारा की ओर से लोकशिक्षण भी करते रहे हैं। ध्यान देने की बात यह है कि लोकशिक्षण की यह भूमिका सार्थक एवं समर्थ ढंग से अदा करने के लिए आज की परिस्थितियों में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की वैचारिक और सांस्कृतिक स्थितियों और अभियानों के अद्यतन स्वरूप का उन्होंने अध्ययन किया है। उन्हें समझ-बूझकर उन्होंने लोगों को न केवल सावधान किया है, बल्कि उनके प्रत्युत्तर के लिए भी तैयार करने की कोशिश की है। मेरे कहने का अर्थ यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आज का साम्राज्यवाद राष्ट्रों के खिलाफ, सांस्कृतिक स्वायत्तता के खिलाफ, जनता और जनतन्त्र की चेतना को कुन्द करने के लिए जो कुछ हो रहा है, उसका अद्यतन ज्ञान हिन्दी में सबसे अधिक नामवर जी को है, ऐसा उनके व्याख्यानों से स्पष्टतः पता चलता है। कुल मिलाकर आज की परिस्थिति में भारत की देशभक्ति और मेहनतकश जनता की वैचारिक जरूरतों की पूर्ति करने में नामवर जी के माध्यम से चलनेवाले वैचारिक अभियान ने उल्लेखनीय योगदान किया है। इस योगदान का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी है प्रगतिशील आन्दोलन में नामवर जी के सम्पर्क से जनपक्ष की ओर से वैचारिक संघर्ष में भाग लेनेवालों, उसे व्यापक रूप से विकसित और प्रसारित करनेवालों की अच्छी-खासी टीम हिन्दी-क्षेत्र में बनी है। यह जरूरी नहीं है कि उस टीम के सदस्य नामवर जी को अपना ऐसा नायक मानते हों, जिसके पीछे वे आँख मूँदकर या हाथ जोड़कर चलें। वे नामवर जी से मतभेद व्यक्त करते हैं, उनकी आलोचना करते हैं, कभी-कभी विरोध भी करते हैं। और नामवर जी इन सबको पसन्द करते हैं। वे अक्सर कहते हैं कि विवाद करनेवाला, विचारों के क्षेत्र में पंजा लड़ानेवाला दुर्लभ होता जा रहा है। विवाद छिड़ने पर नामवर जी के विचार सान पर चढ़ते हैं और व्याख्यान की भाषा भी धारदार हो जाती है। इसलिए वे वाचिक परम्परा के ही नहीं, वाद-विवाद-संवाद के भी आचार्य माने जाते हैं। इस वैचारिक पद्धति में वे प्रतिपक्ष को हमेशा ध्यान में रखते हैं। इससे उनकी अपनी वैचारिक प्रक्रिया जनतान्त्रिक बनी रहती है।
नामवार जी मार्क्सवादी हैं। वे मार्क्सवाद को अध्ययन की प्रद्धति के रूप में, चिन्तन की पद्धति के रूप में, समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लानेवाले मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में, जीवन और समाज को मानवीय बनानेवाले सौन्दर्य-सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करते हैं। यों यह सर्वविदित है कि आज हमारे देश में और दुनिया भर में मार्क्सवाद की कम-से-कम डेढ़ दर्जन व्याख्याएँ और टीकाएँ दिखाई पड़ रही हैं। उनमें कई ऐसी टीकाएँ भी हैं, जिनके प्रवक्ता नामवर जी को संशोधनवादी कहते रहे हैं। आज तो मार्क्सवाद के दायरे में, कट्टरतावाद, संशोधनवाद, जैसे शब्द प्रायः निरर्थक हो गए हैं, लेकिन नामवर जी यों भी इस तरह के हमले से बेअसर रहकर अपना काम करते रहे हैं। एक मार्क्सवादी होने के नाते वे आत्मालोचन को भी स्वीकार करके चलते रहे हैं। वे आत्मालोचन करते भी रहे हैं। आत्मालोचन मार्क्सवादी अध्ययन पद्धति और उसकी रचनात्मकता का आवश्यक अंग है। नामवर जी के व्याख्यानों में और लेखन में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि जो आत्मालोचन की रचनात्मकता का इजहार कर सकता है, वह दूसरों की आलोचना को भी स्वीकार करने की धीरता का परिचय दे सकता है। आलोचना को स्वीकार करने में तो नामवर जी का जवाब नहीं। यही कारण है कि हिन्दी क्षेत्र की शिक्षित जनता के बीच मार्क्सवाद और वामंपथ के बहुत लोकप्रिय नहीं होने के बावजूद नामवर जी उनके बीच प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हैं। नामवर जी पटना में बोलें या भोपाल में, उनकी आवाज पूरे हिन्दी क्षेत्र में संचार माध्यमों के जरिए गूँजती है। इसलिए हिन्दी जनता की जनचेतना का प्रतिनिधित्व करने या प्रवक्ता बनने की क्षमता जितनी आज नामवर सिंह में है, उतनी किसी दूसरे लेखक या विद्वान में नहीं है। नामवर जी की इस विशिष्टता की परम्परा की ऐतिहासिक पहचान यदि की जाए तो आधुनिक युग में इस परम्परा में भारतेन्दु, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा डॉ. भगवत शरण उपाध्याय जैसे लेखक और विद्वान ही दीखते हैं। इन विद्वानों ने जनचेतना की जरूरत से जुड़े प्रश्नों से सम्बन्धित ज्ञान की जितनी शाखाओं में व्यापकता और गहराई के साथ विभिन्न विषयों पर लिखा है, उतने बड़े पैमाने पर नामवर जी ने लिखा भले ही न हो, लेकिन प्रतिक्रियावादी शक्तियों से वैचारिक संघर्ष करने तथा आज की जरूरत के मुताबिक सकारात्मक विचारधारा विकसित करने की उनकी तैयारी उन्हीं विद्वानों की तरह गहन और व्यापक है। इसीलिए कहीं भी, किसी समय, किसी भी विषय पर बोलने के लिए नामवर जी आमन्त्रण स्वीकार कर लेते हैं। सरजमीन पर वैचारिक राजनीतिक संघर्ष के काम में लगे लोगों को नामवर जी की इस तत्परता से कितनी सहूलियत होती है, यह मैं अच्छी तरह समझता हूँ, क्योंकि मैं उनके दर्जनों व्याख्यानों का आयोजक रहा हूँ। वांछित अवसर पर नहीं पहुँचने की परेशानी उन्होंने कभी नहीं दी। नामवर जी की इस तत्परता का सही कारण बहुत लोग नहीं समझ पाते। असल में वे स्वयं वैचारिक संघर्ष के एक योद्धा हैं, इसलिए किसी मोर्च से पुकार होने पर तत्परता से पहुँचते हैं। नामवर जी के मन में हिन्दी नवजागरण के बारे में अनेक शंकाएँ रही हैं, लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि सांस्कृतिक एवं वैचारिक दृष्टि से नामवर जी के माध्यम से विकसित वाचिक परम्परा हिन्दी नवजागरण का अद्यतन रूप है। स्वभावतः उनके व्यक्तित्व का यह रूप नवजागरण के पहले दूसरे दौर के व्यक्तित्वों जैसा ही है। यों नामवर जी ने इतिहास को कभी दुहराया नहीं है, उसे विकास की नई अवस्था में, नए धरातल पर आगे बढ़ाया है। इतिहास को आगे बढ़ाने से इतिहास की उपलब्धियाँ काम देती हैं, अन्यथा वे रूढ़ियाँ बन जाती हैं।
इस पुस्तक में संकलित नामवर जी के पाँच व्याख्यान पटना में प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से विभिन्न अवसरों पर दिए गए हैं। व्याख्यान तो नामवर जी के और भी हुए हैं लेकिन टेप से लिपिबद्ध और सम्पादित करके बिहार प्रगतिशील लेखक संघ की मेरे सम्पादन में प्रकाशित पत्रिका ‘उत्तरशती’ में ये व्याख्यान छपे थे। इन व्याख्यानों से ‘उत्तरशती’ की भूमिका भी स्पष्ट होती है। कुछेक टेप खराब हो गए। हमें अफसोस है कि वे भाषण उपलब्ध नहीं हैं। कुछ टेप नामवर जी के प्रेमियों और शिष्यों के पास होंगे, जिन्हें मैं उपलब्ध नहीं कर पाया। ये व्याख्यान हैं, इसलिए सम्पादित करते हुए भी व्याख्यान का रूप रहने दिया गया है, ताकि पाठक नामवर जी के वक्तृत्व का आनन्द श्रोता के रूप में भी ले सकें। नामवर जी अभी हिन्दी के सर्वोत्तम वक्ता हैं और माने भी जाते हैं। लेकिन उनके वक्तव्य की विशेषता जितनी भाषा की सहजता एवं प्रवाहपूर्णता, शैली की प्रभावपूर्णता और ध्वनि की बेधकता में निहित है, उससे अधिक विचारों के ओज, चिन्तन को प्रेरित करने की क्षमता और परिस्थिति के अनुसार विचारों के स्फुलिंग छिटकाने में है। इन बातों के अतिरिक्त उनके व्याख्यानों में विचारों की लय मिलती है, जिस पर श्रोता झूमते हैं। विचारों की लय ‘नई कविता’ की तथाकथित अर्थ की लय से बहुत भिन्न है। अर्थ की लय का तर्क तो भाषा की लय का निषेध करने के लिए दिया गया था। नामवर जी के व्याख्यान में भाषा के प्रवाह के साथ विचारों की लय होती है। इस लय का निर्माण विचारों के तारतम्य और क्रमबद्धता से होता है। अनावश्यक तथ्यों और प्रसंगों से वे बचते हैं और रोचकता का भी ध्यान हमेशा रखते हैं। वे विचारों की संगति और युक्ति से असंगत विचारों की धुंध काटने की कुशलता से व्याख्यान के मुख्य आकर्षण पैदा करते हैं। नामवर जी के व्याख्यान की विशेषता का जिक्र करते हुए एक बार डॉ. भगवतशरण उपाध्याय ने दिल्ली में प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठी में भीष्म साहनी के महासचिव-काल में अध्यक्ष पद से बोलते हुए कहा-नामवर जी गणित शैली में बोलते हैं। बिलकुल क्रमबद्ध ढंग से एक-दो-तीन करके अपने विचार-बिन्दु श्रोताओं की चेतना में उतार देते हैं। भगवतशरण जी स्वयं बहुत अच्छे और प्रभावशाली वक्ता थे। लेकिन वे भी नामवर जी की वक्तृत्व कला के कायल थे। इस पुस्तक में संकलित व्याख्यान से यदि सम्बोधन वाले अंश हटा दिए जाएँ, तो वे निबन्ध की तरह हो जाएँगे; ऐसे व्याख्यान किसी आयोजन में दिए जानेवाले व्याख्यान के समय की तैयारी के अलावा जीवन भर की तैयारी पर आधारित होते हैं। इन व्याख्यानों को मुखर निबन्ध कहा जा सकता है। यों इन व्याख्यानों के प्रकाशित रूप पर गौर करने पर मुझे लगता रहा है कि नामवर जी के माध्यम से हिन्दी में व्याख्यान एक विधा के रूप में प्रस्तुत हुआ है। यहाँ इन व्याख्यानों की समीक्षा या विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूँ कि ये व्याख्यान हिन्दी-आलोचना की ऊँचाई के साथ ही आलोचना में वस्तुगत एवं गहन विश्लेषण पद्धति के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। आज के साहित्य, विचारधारा, सौन्दर्य, राजनीति और आलोचना से जुड़े तथा उनके अन्तरसम्बन्धों के बारे में महत्त्वपूर्ण बातें इनमें कही गई हैं। हिन्दी आलोचना की यह एक महत्त्वपूर्ण किताब मानी जाएगी।
मुझे पूरा भरोसा है कि इस पुस्तक में संकलित ये व्याख्यान पाठकों को आकृष्ट करेंगे, समृद्ध करेंगे, प्रगतिशील आन्दोलन को मजबूत करने में मददगार होंगे। मैं यह भी समझ रहा हूँ कि इन व्याख्यानों में प्रतिपादित दृष्टिकोण और विचार के विरोधी भी इसे पढ़ना पसन्द करेंगे। अतः महाकवि तुलसीदास के इस वाक्यांश के साथ खत्म कर रहा हूँ-‘‘बन्दउ सन्त असंतन चरना ।’’
पुस्तक में व्याख्यान तिथि-क्रम से नहीं रखे गए हैं। मैंने अपने मन में उनका महत्त्व क्रम बनाकर उसी के अनुसार उनका स्थान तय किया है। पाठक इस वैचारिक क्रम की उपोयगिता महसूस करेंगे। उल्लेखनीय यह भी है कि यह नामवर जी के व्याख्यानों का पहला संग्रह है। आशा है, इसका स्वागत होगा।
-खगेन्द्र ठाकुर
कार्ल मार्क्स और साहित्य
लेनिन ने मार्क्सवाद के तीन मूल स्रोतों का उल्लेख किया है जिनसे आप में से अधिकांश लोग भली भाँति परिचित होंगे। वे तीनों मूल स्रोत हैं : जर्मन दर्शन, ब्रिटिश अर्थशास्त्र और फ्रेंच समाजवाद। मैं एक अरसे से यह अनुभव करता रहा हूँ कि एक चौथा स्रोत और है जिसका उल्लेख किया जाना चाहिए। और यह चौथा स्रोत साहित्यिक है। मेरी दृष्टि में वह चौथा स्रोत ग्रीक ट्रेजडी है। यह किस प्रकार है और कैसे उसे मार्क्सवाद के मूल स्रोतों में गिना जा सकता है, इसे हम लोग कुछ तथ्यों के आधार पर देखने की कोशिश कर सकते हैं।
सन् 1841 में, जब मार्क्स तेईस वर्ष के युवक थे, बर्लिन विश्वविद्यालय में उन्होंने अपनी डॉक्टरेट की थीसिस प्रस्तुत की। इसका शीर्षक था ‘एपिकुरुस और देमोक्रुतुस के प्रकृति-दर्शनों का अन्तर !’ एपिकुरुस और देमोक्रुतुस ग्रीक दार्शनिक थे। खासतौर से हिन्दी के विद्यार्थियों का ध्यान इसकी ओर जाना चाहिए, जो शोध-प्रबन्ध के नाम पर किसी समकालीन कहानीकार, उपन्यासकरार या किसी कवि को चुनकर आसानी से थीसिस लिखकर शोध की नैया के सहारे डिग्री हासिल कर लेना चाहते हैं। युवा मार्क्स ने अपने शोध-प्रबन्ध के लिए दो प्राचीन ग्रीक दार्शनिकों को चुना था और उनके बीच-प्रकृति-दर्शनों के अन्तर जैसे विषय को चुना था ! इस शोध-प्रबन्ध की भूमिका में (उसे अपने भावी श्वसुर को समर्पित करते हुए उन्होंने भूमिका लिखी थी) प्रसिद्ध ग्रीक ट्रेजेडी लेखक एस्खिलुस की, जिसे अंग्रेजी उच्चारण के अनुसार आमतौर पर एस्काइलस के नाम से ज्यादातर लोग जानते हैं, प्रसिद्ध ट्रेजेडी ‘प्रॉमेथ्युस बाउंड’ (बद्ध प्रॉमेथ्युस) से, जिसे पुनः अंग्रेजी उच्चारण के अनुसार ‘प्रॉमिथियस बाउंड’ के नाम से ज्यादातर लोग जानते हैं, मार्क्स ने जो उद्धरण दिया था। उसमें विशेष रूप से एक प्रसंग उन्होंने चुना था। प्रॉमेथ्युस चट्टान से बँधा हुआ है। उसे दंड दिया गया है। देवताओं के पिता ज़ेउस, ने जिसे अंग्रेजी उच्चारण के अनुसार ज़ियस कहा जाता है, संस्कृत के बहुत नजदीक जिसे ‘द्यौस्’ कह सकते हैं और जो ‘इन्द्र’ के पर्याय जैसा है, हेरमेस को भेजा था प्रॉमेथ्युस को समझाने के लिए कि तुम चट्टान से बँधे हो, गिद्ध तुम्हारे सीने को नोच रहा है,इस दण्ड से बेहतर है कि तुम समझौता कर लो, पितर ज़ेउस तुम्हें क्षमा कर देंगे। प्रॉमेथ्युस ने चट्टान से बँधी हुई अवस्था में हेरमेस को जवाब दिया ‘‘विश्वास रखो, मैं अपनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के बदले तुम्हारी सेवकवाली स्थिति कभी स्वीकार नहीं करूँगा। मैं पितर ज़ेउस की ताबेदारी करने के बदले इस चट्टान की सेवकाई करना बेहतर समझता हूँ।’’ इस उद्धरण के बाद मार्क्स ने टिप्पणी की थी कि दर्शनशास्त्र के पंचांग में प्रॉमेथ्युस सबसे बड़े शहीद और सन्त थे। उसी प्रॉमेथ्युस बाउंड’ से शोध-प्रबन्ध के अन्तर्गत उन्होंने एक और उद्धवरण दिया था-‘‘सच तो यह हैकि मैं समस्त देव-मंडल से नफरत करता हूँ।’’ तेईस वर्ष के युवा मार्क्स ने दर्शनशास्त्र के शोध-प्रबन्ध की भूमिका में एक साहित्यिक कृति का उद्धरण देते हुए अपना मन्तव्य स्पष्ट किया था। यह युवा दार्शनिक का साहित्य से पहला स्रोत-ग्रहण था, जिसमें मार्क्स का हीरो आदि विद्रोही प्रॉमेथ्युस था।
सन् 1841 में, जब मार्क्स तेईस वर्ष के युवक थे, बर्लिन विश्वविद्यालय में उन्होंने अपनी डॉक्टरेट की थीसिस प्रस्तुत की। इसका शीर्षक था ‘एपिकुरुस और देमोक्रुतुस के प्रकृति-दर्शनों का अन्तर !’ एपिकुरुस और देमोक्रुतुस ग्रीक दार्शनिक थे। खासतौर से हिन्दी के विद्यार्थियों का ध्यान इसकी ओर जाना चाहिए, जो शोध-प्रबन्ध के नाम पर किसी समकालीन कहानीकार, उपन्यासकरार या किसी कवि को चुनकर आसानी से थीसिस लिखकर शोध की नैया के सहारे डिग्री हासिल कर लेना चाहते हैं। युवा मार्क्स ने अपने शोध-प्रबन्ध के लिए दो प्राचीन ग्रीक दार्शनिकों को चुना था और उनके बीच-प्रकृति-दर्शनों के अन्तर जैसे विषय को चुना था ! इस शोध-प्रबन्ध की भूमिका में (उसे अपने भावी श्वसुर को समर्पित करते हुए उन्होंने भूमिका लिखी थी) प्रसिद्ध ग्रीक ट्रेजेडी लेखक एस्खिलुस की, जिसे अंग्रेजी उच्चारण के अनुसार आमतौर पर एस्काइलस के नाम से ज्यादातर लोग जानते हैं, प्रसिद्ध ट्रेजेडी ‘प्रॉमेथ्युस बाउंड’ (बद्ध प्रॉमेथ्युस) से, जिसे पुनः अंग्रेजी उच्चारण के अनुसार ‘प्रॉमिथियस बाउंड’ के नाम से ज्यादातर लोग जानते हैं, मार्क्स ने जो उद्धरण दिया था। उसमें विशेष रूप से एक प्रसंग उन्होंने चुना था। प्रॉमेथ्युस चट्टान से बँधा हुआ है। उसे दंड दिया गया है। देवताओं के पिता ज़ेउस, ने जिसे अंग्रेजी उच्चारण के अनुसार ज़ियस कहा जाता है, संस्कृत के बहुत नजदीक जिसे ‘द्यौस्’ कह सकते हैं और जो ‘इन्द्र’ के पर्याय जैसा है, हेरमेस को भेजा था प्रॉमेथ्युस को समझाने के लिए कि तुम चट्टान से बँधे हो, गिद्ध तुम्हारे सीने को नोच रहा है,इस दण्ड से बेहतर है कि तुम समझौता कर लो, पितर ज़ेउस तुम्हें क्षमा कर देंगे। प्रॉमेथ्युस ने चट्टान से बँधी हुई अवस्था में हेरमेस को जवाब दिया ‘‘विश्वास रखो, मैं अपनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के बदले तुम्हारी सेवकवाली स्थिति कभी स्वीकार नहीं करूँगा। मैं पितर ज़ेउस की ताबेदारी करने के बदले इस चट्टान की सेवकाई करना बेहतर समझता हूँ।’’ इस उद्धरण के बाद मार्क्स ने टिप्पणी की थी कि दर्शनशास्त्र के पंचांग में प्रॉमेथ्युस सबसे बड़े शहीद और सन्त थे। उसी प्रॉमेथ्युस बाउंड’ से शोध-प्रबन्ध के अन्तर्गत उन्होंने एक और उद्धवरण दिया था-‘‘सच तो यह हैकि मैं समस्त देव-मंडल से नफरत करता हूँ।’’ तेईस वर्ष के युवा मार्क्स ने दर्शनशास्त्र के शोध-प्रबन्ध की भूमिका में एक साहित्यिक कृति का उद्धरण देते हुए अपना मन्तव्य स्पष्ट किया था। यह युवा दार्शनिक का साहित्य से पहला स्रोत-ग्रहण था, जिसमें मार्क्स का हीरो आदि विद्रोही प्रॉमेथ्युस था।
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