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रसवन्ती

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : उदयांचल प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3222
आईएसबीएन :978-81-8031-411

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प्रस्तुत है दिनकर जी की उत्कृष्ट कवितायें...

Rasvanti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रसवन्ती

सूखे विटप की सारिके !
उजड़ी-कटीली डार से
मैं देखता किस प्यार से
पहना नवल पुष्पाभरण
तृण, तरु, लता, वनराजि को
हैं जो रहे विहसित वदन
ऋतुराज मेरे द्वार से।
 
मुझ में जलन है प्यास है,
रस का नहीं आभास है,
यह देख हँसती वल्लरी
हँसता निखिल आकाश है।
जग तो समझता है यही,
पाषाण में कुछ रस नहीं,
पर, गिरि-हृदय में क्या न
व्याकुल निर्झरों का वास है ?

बाकी अभी रसनाद हो,
पिछली कथा कुछ याद हो,
तो कूक पंचम तान में,
संजीवनी भर गान में,
सूखे विटप की डार को
कर दे हरी करुणामयी
पढ़ दे ऋचा पीयूष की,
उग जाय फिर कोंपल नयी;
जीवन-गगन के दाह में
उड़ चल सजल नीहारिके।
सूखे विटप की सारिके !


गीत-शिशु


आशीर्वचन कहो मंगलमयि, गायन चले हृदय से,
दूर्वासन दो अवनि। किरण मृदु, उतरो नील निलय से।
बड़े यत्न से जिन्हें छिपाया ये वे मुकुल हमारे,
जो अब तक बच रहे किसी विध ध्वंसक इष्ट प्रलय से।
ये अबोध कल्पक के शिशु क्या रीति जगत की जानें,
कुछ फूटे रोमाञ्च-पुलक से, कुछ अस्फुट विस्मय से।
निज मधु-चक्र निचोड़ लगन से पाला इन्हें हृदय ने,
बड़े नाज से बड़ी साध से, ममता मोह प्रणय से।

चुन अपरूप विभूति सृष्टि की मैंने रूप सँवारा।
उडु से द्युति, गति बाल लहर से सौरभ रुचिर मलय से।
सोते-जागते मृदुल स्वप्न में सदा किलकते आये, 
नहीं उतारा कभी अंग से कठिन भूमि के भय से।

नन्हें अरुण चरण ये कोमल, क्षिति की परुष प्रकृति  है,
मुझे सोच पड़ जाय कहीं पाला न कुलिश निर्दय से।
अर्जित किया ज्ञान कब इनने, जीवन का दुख झेला ?
अभी अबुध ये खेल रहे थे रजकण के संचय से।

सीख न पाये रेणु रत्न का भेद अभी ये भोले,
मुट्ठी भर मिट्टी बदलेंगे कञ्चन रचित वलय से।
कुछ न सीख पाये, तो भी रुक सके न पुण्य-प्रहर में,
घुटनों बल चल पड़े, पुकारा तुमने देवालय से।
 
रुन-झुन-झुन पैंजनी चरण में, केश कटिल घुँघराले
नील नयन देखो, माँ। इनके दाँत धुले है भ्रम से।
देख रहे अति चकित रत्न-मणियों के हार तुम्हारे,
विस्फारित निज नील नयन से, कौतुक भरे हृदय से।

कुछ विस्मय, कुछ शील दृगों में, अभिलाषा कुछ मन में,
पर न खोल पाते मुख लज्जित प्रथम-प्रथम परिचय से।
निपुण गायकों की रानी, इनकी भी एक कथा है।
सुन लो, क्या कहने आये हैं ये तुतली-सी लय से।

छूकर भाल वरद कर से, मुख चूम बिदा दो इनको;
आशिष दो ये सरल गीत-शिशु विचरें अजर-अजय से।
दिशि-दिशि विविध प्रलोभन जग में, मुझे चाह, बस, इतनी,
कभी निनादित द्वार तुम्हारा हो इनकी जय-जय से।


रसवन्ती
(1)


अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !

लिये कीड़ा-वंशी दिन-रात
पलातक शिशु-सा मैं अनजान,
कर्म के कोलाहल से दूर
फिरा गाता फूलों के गान।

कोकिलों ने सिखलाया कभी
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात
कभी बाड़व की दाहक आग।

पत्तियों फूलों की सुकुमार
गयीं हीरे-से दिल को चीर,
कभी कलिकाओं के मुख देख
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।



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