जीवन कथाएँ >> महर्षि दयानन्द महर्षि दयानन्दयदुवंश सहाय
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महर्षि दयानन्द के जीवन पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
डॉ. भगवानदास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य
निर्माता थे। श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले
व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘भारत भारतीयों के लिए’ की
घोषणा की।
सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी
दयानन्द ने डाली थी। पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी जी
राष्ट्र-पिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।
फ्रेंच
लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति
को क्रियात्मक रुप देने में प्रयत्नशील थे। अन्य फ्रेंच लेखक रिचर्ड का
कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने
और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श
है-‘‘आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है,
नये युग
में प्रवेश कर।’’
प्राक्कथन
इस कृति को प्रस्तुत करते समय मेरे मन में बहुत संकोच है।
मेरी सीमाएँ इसका प्रमुख कारण हैं। महर्षि दयानन्द के जीवन को भारतीय समाज के आधुनिक पुनरुत्थान के सन्दर्भ में अंकित करने के लिए जिस योग्यता और जानकारी की अपेक्षा है, वह मुझमें नहीं है। मैं तो यह भी बलपूर्वक नहीं कह सकता है कि मैं स्वामी के धर्म, दर्शन, समाज, राजनीति, संस्कृति आदि से संबंधित विचारों से भलीभाँति अवगत हूँ। यह अवश्य है, मेरे अग्रज श्री जगदम्बा सहाय प्रारम्भ में महर्षि के एक श्रद्धावान् भक्त और अनुयायी रहे हैं, जिनके माध्यम से हमारा सारा परिवार स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारों से परिचित और प्रभावित रहा है। परन्तु उनकी ओर मेरा विशेष
ध्यान मेरी पत्नी श्यामा देवी ने आकर्षित किया। अपने कार्यालय के अन्तिम समय में बाराबंकी में था और वहाँ स्त्री-समाज के सम्पर्क में आने के कारण उनकी श्रद्धा स्वामी जी के व्यक्तित्व के प्रति बढ़ती गई। अन्तत: सन् 1964 ई. में हम दोनों ने आर्य वानप्रस्थ आश्रम की दीक्षा ले ली। सौभाग्य से वहाँ प्रभु आश्रित जी के समीप रहने का अवसर मिला और दूसरे विद्वानों का सत्संग भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार स्वाध्याय के संबंध में उनसे मार्ग-निर्देशन मिल सका।
मेरी पत्नी ने मुझे समाज-सेवा के साथ स्वामी जी के विचारों के प्रचार के लिए भी प्रोत्साहित किया साधारण पढ़ा-लिखा होकर भी मैं स्वामी जी के जीवन के संबंध में लिखने का साहस कर सका, उसके पीछे मेरी स्वर्गीय पत्नी की प्रेरणा सतत कार्य करती रही है। मैं अनुभव करता हूँ कि अनेक कारणों से स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारों की ओर हमारे शिक्षित समाज का विशेष ध्यान नहीं गया। इधर जितना नकली ढंग का अन्तर्राष्ट्रीयतावाद, धर्म-निरपेक्षता और आधुनिकता का प्रचार-प्रसार होता गया है, स्वामी जी के विषय में लोगों की भ्रामक धारणाएँ भी बनती गई हैं, जबकि मैं अनुभव करता हूँ कि स्वामी जी ने अपने समय में द्रष्टा के रूप में उदात्त राष्ट्रीयता, मानवतावाद और आधुनिकता की भूमिका तैयार कर दी थी। हमारे समाज और राष्ट्र का जितना भी वास्तविक विकास हुआ है। अत: मेरे मन में भाव रहा है कि स्वामी जी के जीवन को इस रूप में किसी योग्य व्यक्ति द्वारा पुन: सामने लाना आज बहुत आवश्यक है। परन्तु इस कार्य को करने की योग्यता मुझमें न थी। मेरी सीमाएँ मेरे आड़े थीं, न मुझमें किसी गम्भीर विषय के अध्ययन की योग्यता है और न मेरा भाषा पर ही अधिकार है। फिर भी मेरी विवशता मुझे हतोत्साह न कर सकी। मैंने सोचा कि यदि मैं गंभीर और ऊँचे स्तर की जीवनी नहीं लिख सकता तो कम से कम स्वामी जी के जीवन की प्रमुख घटनाओं को लेकर ऐसी कहानियाँ लिखूँ जिनके माध्यम से उनका चिन्तन और उनकी दृष्टि स्पष्ट हो सके। मैंने इस विषय में अपने भाई रघुवंश से परामर्श किया। उन्होंने न केवल मेरे विचार का स्वागत किया वरन कुछ सुझाव भी दिए।
फिर पिछले वर्ष लगभग सात मास ज्वालापुर में रहकर मैं तमाम सामग्री के बीच से घटनाओं को चुनकर उनको कथानक रूप देने की चेष्टा करता रहा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस प्रकार मेरा श्रम कुछ भी सार्थक हो रहा हो। पर कई गुरुजनों और मित्रों ने पाण्डुलिपि को देखकर प्रोत्साहित किया। पूज्य पण्डित शिवदयालु जी ने तो अपना अमूल्य समय लगाकर उसमें आवश्यक संशोधन करने की भी कृपा की। अपनी सारी सामग्री लेकर मैं इलाहाबाद पुन: अपने भाई रघुवंश के पास आया। उन्होंने सामग्री को देखकर परामर्श दिया कि मेरा यह कार्य महर्षि की जीवनी के रूप में ठीक रहेगा, इसलिए सारी सामग्री जीवन के घटनाक्रम में प्रस्तुत करना आपेक्षित होगा। ऐसा करने के लिए मुझे पुन: कथा-क्रम कुछ बदलना पड़ा और बीच-बीच में जीवनी को क्रमबद्ध करने के लिए कुछ तथ्यों का निर्देश करना पड़ा।
यहाँ स्मरणीय है कि मेरा दृष्टिकोण स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारों को यथासम्भव सजीव रूप में प्रस्तुत करना था, अत: उनके जीवन की घटनाओं को ही केन्द्र में रखकर चला गया है। उनको सजीव रूप में निर्मित करने के लिए अनेक स्थानों पर अपरिचित और अनामपात्रों को अधिक स्पष्ट नाम-रूप प्रदान करना पड़ा है। पर ऐतिहासिक तथ्यों का किसी स्थान पर अतिक्रमण नहीं हुआ है। मैंने सामग्री का संकलन अनेक पूर्ववर्ती जीवनियों, लेखों, उल्लेखों, सन्दर्भों के आधार पर किया है, पर मेरा मुख्य आधार स्वामी सत्यानन्द का ‘दयानन्द प्रकाश’ रहा है, और उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
अन्त में मैं अपने सुयोग्य भाई चिरंजीव रघुवंश को हार्दिक आशीर्वाद बिना दिये नहीं रह सकता, जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय लगाकर पूरी पाण्डुलिपि को बार-बार देखकर उसका संशोधन किया और इस पुस्तक के लिए एक सुन्दर और सारगर्भित भूमिका लिखी।
मेरी सीमाएँ इसका प्रमुख कारण हैं। महर्षि दयानन्द के जीवन को भारतीय समाज के आधुनिक पुनरुत्थान के सन्दर्भ में अंकित करने के लिए जिस योग्यता और जानकारी की अपेक्षा है, वह मुझमें नहीं है। मैं तो यह भी बलपूर्वक नहीं कह सकता है कि मैं स्वामी के धर्म, दर्शन, समाज, राजनीति, संस्कृति आदि से संबंधित विचारों से भलीभाँति अवगत हूँ। यह अवश्य है, मेरे अग्रज श्री जगदम्बा सहाय प्रारम्भ में महर्षि के एक श्रद्धावान् भक्त और अनुयायी रहे हैं, जिनके माध्यम से हमारा सारा परिवार स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारों से परिचित और प्रभावित रहा है। परन्तु उनकी ओर मेरा विशेष
ध्यान मेरी पत्नी श्यामा देवी ने आकर्षित किया। अपने कार्यालय के अन्तिम समय में बाराबंकी में था और वहाँ स्त्री-समाज के सम्पर्क में आने के कारण उनकी श्रद्धा स्वामी जी के व्यक्तित्व के प्रति बढ़ती गई। अन्तत: सन् 1964 ई. में हम दोनों ने आर्य वानप्रस्थ आश्रम की दीक्षा ले ली। सौभाग्य से वहाँ प्रभु आश्रित जी के समीप रहने का अवसर मिला और दूसरे विद्वानों का सत्संग भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार स्वाध्याय के संबंध में उनसे मार्ग-निर्देशन मिल सका।
मेरी पत्नी ने मुझे समाज-सेवा के साथ स्वामी जी के विचारों के प्रचार के लिए भी प्रोत्साहित किया साधारण पढ़ा-लिखा होकर भी मैं स्वामी जी के जीवन के संबंध में लिखने का साहस कर सका, उसके पीछे मेरी स्वर्गीय पत्नी की प्रेरणा सतत कार्य करती रही है। मैं अनुभव करता हूँ कि अनेक कारणों से स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारों की ओर हमारे शिक्षित समाज का विशेष ध्यान नहीं गया। इधर जितना नकली ढंग का अन्तर्राष्ट्रीयतावाद, धर्म-निरपेक्षता और आधुनिकता का प्रचार-प्रसार होता गया है, स्वामी जी के विषय में लोगों की भ्रामक धारणाएँ भी बनती गई हैं, जबकि मैं अनुभव करता हूँ कि स्वामी जी ने अपने समय में द्रष्टा के रूप में उदात्त राष्ट्रीयता, मानवतावाद और आधुनिकता की भूमिका तैयार कर दी थी। हमारे समाज और राष्ट्र का जितना भी वास्तविक विकास हुआ है। अत: मेरे मन में भाव रहा है कि स्वामी जी के जीवन को इस रूप में किसी योग्य व्यक्ति द्वारा पुन: सामने लाना आज बहुत आवश्यक है। परन्तु इस कार्य को करने की योग्यता मुझमें न थी। मेरी सीमाएँ मेरे आड़े थीं, न मुझमें किसी गम्भीर विषय के अध्ययन की योग्यता है और न मेरा भाषा पर ही अधिकार है। फिर भी मेरी विवशता मुझे हतोत्साह न कर सकी। मैंने सोचा कि यदि मैं गंभीर और ऊँचे स्तर की जीवनी नहीं लिख सकता तो कम से कम स्वामी जी के जीवन की प्रमुख घटनाओं को लेकर ऐसी कहानियाँ लिखूँ जिनके माध्यम से उनका चिन्तन और उनकी दृष्टि स्पष्ट हो सके। मैंने इस विषय में अपने भाई रघुवंश से परामर्श किया। उन्होंने न केवल मेरे विचार का स्वागत किया वरन कुछ सुझाव भी दिए।
फिर पिछले वर्ष लगभग सात मास ज्वालापुर में रहकर मैं तमाम सामग्री के बीच से घटनाओं को चुनकर उनको कथानक रूप देने की चेष्टा करता रहा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस प्रकार मेरा श्रम कुछ भी सार्थक हो रहा हो। पर कई गुरुजनों और मित्रों ने पाण्डुलिपि को देखकर प्रोत्साहित किया। पूज्य पण्डित शिवदयालु जी ने तो अपना अमूल्य समय लगाकर उसमें आवश्यक संशोधन करने की भी कृपा की। अपनी सारी सामग्री लेकर मैं इलाहाबाद पुन: अपने भाई रघुवंश के पास आया। उन्होंने सामग्री को देखकर परामर्श दिया कि मेरा यह कार्य महर्षि की जीवनी के रूप में ठीक रहेगा, इसलिए सारी सामग्री जीवन के घटनाक्रम में प्रस्तुत करना आपेक्षित होगा। ऐसा करने के लिए मुझे पुन: कथा-क्रम कुछ बदलना पड़ा और बीच-बीच में जीवनी को क्रमबद्ध करने के लिए कुछ तथ्यों का निर्देश करना पड़ा।
यहाँ स्मरणीय है कि मेरा दृष्टिकोण स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारों को यथासम्भव सजीव रूप में प्रस्तुत करना था, अत: उनके जीवन की घटनाओं को ही केन्द्र में रखकर चला गया है। उनको सजीव रूप में निर्मित करने के लिए अनेक स्थानों पर अपरिचित और अनामपात्रों को अधिक स्पष्ट नाम-रूप प्रदान करना पड़ा है। पर ऐतिहासिक तथ्यों का किसी स्थान पर अतिक्रमण नहीं हुआ है। मैंने सामग्री का संकलन अनेक पूर्ववर्ती जीवनियों, लेखों, उल्लेखों, सन्दर्भों के आधार पर किया है, पर मेरा मुख्य आधार स्वामी सत्यानन्द का ‘दयानन्द प्रकाश’ रहा है, और उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
अन्त में मैं अपने सुयोग्य भाई चिरंजीव रघुवंश को हार्दिक आशीर्वाद बिना दिये नहीं रह सकता, जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय लगाकर पूरी पाण्डुलिपि को बार-बार देखकर उसका संशोधन किया और इस पुस्तक के लिए एक सुन्दर और सारगर्भित भूमिका लिखी।
यदुवंश सहाय, वानप्रस्थ
पुनरुत्थान युग का द्रष्टा
भारतीय पुनरुत्थान का आधुनिक युग उन्नीसवीं शती के दूसरे चरण से शुरु हुआ।
इस युग का सही चित्र प्रस्तुत करते समय इस तथ्य को ठीक परिप्रेक्ष्य में
सदा रखना होगा कि इस युग के मानस में पश्चिम का गहरा प्रभाव-संघात रहा है
और पश्चिमी संस्कृति का सजग प्रयत्न रहा है कि मानस उससे अभिभूत रहे।
पश्चिमी आधुनिक संस्कृति अन्य समस्त संस्कृतियों से इस माने में भिन्न है
कि वह जागरूक और आत्मालोचन करने में समर्थ है। उसके इतिहास-बोध ने उसे
अपने विस्तार, आरोप, संरक्षण का अधिक सामर्थ्य दिया है। उसकी वैज्ञानिक
प्रगति ने अपनी शक्ति-विस्तार की उसे अपूर्व क्षमता प्रदान की है; अनेक
मानवीय शास्त्रों के वैज्ञानिक विकास में उसने अपना प्रभाव-क्षेत्र अनेक
स्तरों और आयामों में फैला लिया है। इसका परिणाम हुआ कि पश्चिमी संस्कृति
ने पिछली पुरानी संस्कृति और परंपरा वाले एशिया के राष्ट्रों और आदि (मैं
आदिम कहना उचित मानता हूँ) संस्कृति वाले अफ्रीका और अमरीकी समाजों और
देशों को राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक प्रभावों में अपने उपनिवेश बने
रहने के लिए विवश कर दिया है।
पुनरुत्थान युग से होकर स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद तक के भारतीय मानस पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ इस समस्या का विस्तृत विवेचन-विश्लेषण किया जा सकता है। भारतीय बौद्धिक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानता है कि भारत, वस्तुत: समस्त एशियाई देशों का आधुनिकीकरण तभी संभव हो सका है, जब यूरोप के देशों ने वहाँ के निवासियों को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का अवसर प्रदान किया। भारत की राष्ट्रीय इकाई की परिकल्पना अंग्रेजी़ राज्य की देन है। भारतीय संस्कृति वस्तुत: समस्य एशियाई संस्कृतियाँ पिछड़ी हुई, मध्ययुगीन, प्रगति की संभावनाओं से शून्य, अन्धविश्वास और जड़ताओं से ग्रस्त हैं। इनके उद्वार का एकमात्र उपाय है कि पश्चिमी संस्कृति को अपना लें। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि पश्चिमी संस्कृति संसार की संस्कृतियों में श्रेष्ठ है, अन्य संस्कृतियाँ अपनी कमियों और कमजोरियों के कारण ह्नासोन्मुखी हुई और अन्तत: विनष्ट हो गई हैं, लेकिन पश्चिम की आधुनिक संस्कृति सबसे श्रेष्ठ और निरन्तर विकसनशील है। इस प्रकार के चिन्तन को अग्रसर करने का पश्चिम के समस्त बौद्धिक वर्ग ने और उनके तथा कथित वैज्ञानिक तथा तटस्थ अध्ययनों ने निरन्तर प्रयत्न किया है। ऐसे पश्चिम विद्वान् अपवाद ही माने जायँगे, जिन्होंने पश्चिमी संस्कृति की इस श्रेष्ठता और अन्य संस्कृतियों की हीनता के विचार को चुनौती दी हो। और मज़े की बात है कि मानसिक रूप से पश्चिम के गुलाम भारत के बौद्धिक उनके विचारों को प्रामाणिकता तो नहीं देते, पर उनके आधार पर पश्चिमी संस्कृति की महनीयता का समर्थन अवश्य करते हैं।
भारत में अंग्रेजों के प्रभुत्व काल में प्रारम्भ से यह प्रयत्न रहा है कि राजसत्ता के क्रमश: बढ़ते हुए विस्तार के साथ इस देश के परम्परित सामाजिक, प्रशासनिक और आर्थिक ढाँचे को छिन्न-भिन्न कर दिया जाय। इस प्रकार अंग्रेज़ी राजनीति और राजनय का सारा दृष्टिकोण यह रहा है कि यहाँ कि पिछली संस्थाओं, व्यवस्थाओं और परंपराओं को नष्ट कर देश की समस्त आन्तरिक शक्ति, आस्था तथा विश्वास को तोड़कर उसे नैतिक मेरुदण्ड-विहीन बना दिया जाय। भारतीयजन-समाज को उसके स्वीकृत आधार से उन्मूलित कर, ग्राम-समाज और पंचायतों के ढाँचों को विश्रृंखल कर, धार्मिक आस्थाओं को खण्डित कर तथा उद्योग-धन्धों और व्यापार को विनष्ट कर अँग्रेजों ने भारत में अँग्रेजी़ उपनिवेश की जड़े मज़बूत कर ली थीं। साथ ही, अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ज्ञान –विज्ञान की दीक्षा देकर भारतीय मानस को यूरोपीय संस्कृति की महत्ता से इस प्रकार अभिभूत कर दिया कि अधिकांश शिक्षित वर्ग अपने देश के धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हीन भावना से भर गया। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि पुनरुत्थान युग के प्रारम्भ से उन्नत और विकसित होने के लिए पश्चिमीकरण अधिकांशत: अनुकरणमूलक ही रहा। कोई भी आरोप अनुकरणमूलक ही हो सकता है।
यह आवश्य हुआ है कि अँग्रेज़ी राजनीति के परिणामस्वरूप भारत में उनके उपनिवेश की जड़ें काफ़ी ग़हरी और मज़बूत रहीं और इस प्रक्रिया में अर्थात् पश्चिमीकरण के दौरान भारत मध्ययुगीन संस्कारों तथा मनोवृत्तियों से अपने को मुक्त कर आधुनिक बन सका। यह बात संस्कारगत और परिवेशगत पक्षपात के कारण मार्क्स तथा ट्वायनवी जैसे यूरोपीय विचारकों ने भी कही है, अन्यों की तो बात अलग है। पश्चिम के मानस-पुत्र भारतीय तो यह राग अलापते कभी थकते नहीं। बुद्धदेव जैसे सुपुत्र तो कृतज्ञ भाव से यह मानकर अपना संतोष प्रकट करते हैं कि यह तो स्वाभाविक है, क्योंकि हम भारतीय यूरोप के ही आगत प्रवासी हैं। निश्चय ही यह हीन-भाव की उपज है। इस प्रसंग का अधिक विवेचन यहाँ नहीं करना चाहूँगा, क्योंकि अन्यत्र किया गया है। पर सिद्धान्त के रूप में कहा जा सकता है कि गुलामी की हीन-भावना से कोई व्यक्ति राष्ट्र अपने निजी व्यक्तित्व के विकास की दिशा नहीं पा सकता है, क्योंकि व्यक्तित्व की स्वाधीनता तथा निजता का अनुभव विकास की पहली शर्त है। इसी प्रकार कोई भी प्राचीन संस्कृत समाज अपनी जड़ता और अवरुद्धता में भी अपने निजी व्यक्तित्व की खोज बिना किये आगे बढ़ने में समर्थ नहीं हो सकता। अन्तत: यह भी सही है कि अनुकरण किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र को न गौरव प्रदान कर सकता है और न मौलिक सर्जनशीलता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति संभव नहीं है। साथ ही दृष्टान्त रूप में जापान का उल्लेख करके यूरोपीय शक्ति के उपनिवेश होने का सौभाग्य मिला और न किसी विदेशी भाषा के सहारे वहाँ ज्ञान-विज्ञान शक्ति फैलाने का सुयोग हुआ।
पश्चिमी संस्कृति के रंग में रँगे हुए बौद्धिकों ने एक मिथ रचा है कि भारतीय जागरण अँग्रेज़ी भाषा और शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही संभव हुआ। पुनरुत्थान का नेतृत्व अँग्रेजी़ शिक्षा प्राप्त महापुरुषों ने किया है। इस मिथ में तथ्यात्मक आधार ज़रूर है, परन्तु यह सत्य नहीं है।
पुनरुत्थान युग से होकर स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद तक के भारतीय मानस पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ इस समस्या का विस्तृत विवेचन-विश्लेषण किया जा सकता है। भारतीय बौद्धिक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानता है कि भारत, वस्तुत: समस्त एशियाई देशों का आधुनिकीकरण तभी संभव हो सका है, जब यूरोप के देशों ने वहाँ के निवासियों को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का अवसर प्रदान किया। भारत की राष्ट्रीय इकाई की परिकल्पना अंग्रेजी़ राज्य की देन है। भारतीय संस्कृति वस्तुत: समस्य एशियाई संस्कृतियाँ पिछड़ी हुई, मध्ययुगीन, प्रगति की संभावनाओं से शून्य, अन्धविश्वास और जड़ताओं से ग्रस्त हैं। इनके उद्वार का एकमात्र उपाय है कि पश्चिमी संस्कृति को अपना लें। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि पश्चिमी संस्कृति संसार की संस्कृतियों में श्रेष्ठ है, अन्य संस्कृतियाँ अपनी कमियों और कमजोरियों के कारण ह्नासोन्मुखी हुई और अन्तत: विनष्ट हो गई हैं, लेकिन पश्चिम की आधुनिक संस्कृति सबसे श्रेष्ठ और निरन्तर विकसनशील है। इस प्रकार के चिन्तन को अग्रसर करने का पश्चिम के समस्त बौद्धिक वर्ग ने और उनके तथा कथित वैज्ञानिक तथा तटस्थ अध्ययनों ने निरन्तर प्रयत्न किया है। ऐसे पश्चिम विद्वान् अपवाद ही माने जायँगे, जिन्होंने पश्चिमी संस्कृति की इस श्रेष्ठता और अन्य संस्कृतियों की हीनता के विचार को चुनौती दी हो। और मज़े की बात है कि मानसिक रूप से पश्चिम के गुलाम भारत के बौद्धिक उनके विचारों को प्रामाणिकता तो नहीं देते, पर उनके आधार पर पश्चिमी संस्कृति की महनीयता का समर्थन अवश्य करते हैं।
भारत में अंग्रेजों के प्रभुत्व काल में प्रारम्भ से यह प्रयत्न रहा है कि राजसत्ता के क्रमश: बढ़ते हुए विस्तार के साथ इस देश के परम्परित सामाजिक, प्रशासनिक और आर्थिक ढाँचे को छिन्न-भिन्न कर दिया जाय। इस प्रकार अंग्रेज़ी राजनीति और राजनय का सारा दृष्टिकोण यह रहा है कि यहाँ कि पिछली संस्थाओं, व्यवस्थाओं और परंपराओं को नष्ट कर देश की समस्त आन्तरिक शक्ति, आस्था तथा विश्वास को तोड़कर उसे नैतिक मेरुदण्ड-विहीन बना दिया जाय। भारतीयजन-समाज को उसके स्वीकृत आधार से उन्मूलित कर, ग्राम-समाज और पंचायतों के ढाँचों को विश्रृंखल कर, धार्मिक आस्थाओं को खण्डित कर तथा उद्योग-धन्धों और व्यापार को विनष्ट कर अँग्रेजों ने भारत में अँग्रेजी़ उपनिवेश की जड़े मज़बूत कर ली थीं। साथ ही, अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ज्ञान –विज्ञान की दीक्षा देकर भारतीय मानस को यूरोपीय संस्कृति की महत्ता से इस प्रकार अभिभूत कर दिया कि अधिकांश शिक्षित वर्ग अपने देश के धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हीन भावना से भर गया। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि पुनरुत्थान युग के प्रारम्भ से उन्नत और विकसित होने के लिए पश्चिमीकरण अधिकांशत: अनुकरणमूलक ही रहा। कोई भी आरोप अनुकरणमूलक ही हो सकता है।
यह आवश्य हुआ है कि अँग्रेज़ी राजनीति के परिणामस्वरूप भारत में उनके उपनिवेश की जड़ें काफ़ी ग़हरी और मज़बूत रहीं और इस प्रक्रिया में अर्थात् पश्चिमीकरण के दौरान भारत मध्ययुगीन संस्कारों तथा मनोवृत्तियों से अपने को मुक्त कर आधुनिक बन सका। यह बात संस्कारगत और परिवेशगत पक्षपात के कारण मार्क्स तथा ट्वायनवी जैसे यूरोपीय विचारकों ने भी कही है, अन्यों की तो बात अलग है। पश्चिम के मानस-पुत्र भारतीय तो यह राग अलापते कभी थकते नहीं। बुद्धदेव जैसे सुपुत्र तो कृतज्ञ भाव से यह मानकर अपना संतोष प्रकट करते हैं कि यह तो स्वाभाविक है, क्योंकि हम भारतीय यूरोप के ही आगत प्रवासी हैं। निश्चय ही यह हीन-भाव की उपज है। इस प्रसंग का अधिक विवेचन यहाँ नहीं करना चाहूँगा, क्योंकि अन्यत्र किया गया है। पर सिद्धान्त के रूप में कहा जा सकता है कि गुलामी की हीन-भावना से कोई व्यक्ति राष्ट्र अपने निजी व्यक्तित्व के विकास की दिशा नहीं पा सकता है, क्योंकि व्यक्तित्व की स्वाधीनता तथा निजता का अनुभव विकास की पहली शर्त है। इसी प्रकार कोई भी प्राचीन संस्कृत समाज अपनी जड़ता और अवरुद्धता में भी अपने निजी व्यक्तित्व की खोज बिना किये आगे बढ़ने में समर्थ नहीं हो सकता। अन्तत: यह भी सही है कि अनुकरण किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र को न गौरव प्रदान कर सकता है और न मौलिक सर्जनशीलता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति संभव नहीं है। साथ ही दृष्टान्त रूप में जापान का उल्लेख करके यूरोपीय शक्ति के उपनिवेश होने का सौभाग्य मिला और न किसी विदेशी भाषा के सहारे वहाँ ज्ञान-विज्ञान शक्ति फैलाने का सुयोग हुआ।
पश्चिमी संस्कृति के रंग में रँगे हुए बौद्धिकों ने एक मिथ रचा है कि भारतीय जागरण अँग्रेज़ी भाषा और शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही संभव हुआ। पुनरुत्थान का नेतृत्व अँग्रेजी़ शिक्षा प्राप्त महापुरुषों ने किया है। इस मिथ में तथ्यात्मक आधार ज़रूर है, परन्तु यह सत्य नहीं है।
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लोगों की राय
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