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राधेय

रणजीत देसाई

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3216
आईएसबीएन :81-7119-457-5

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कर्ण के जीवन पर आधारित उपन्यास....

Radheya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘महाभारत’ के अमर पात्र ‘कर्ण’ के जीवन की विडम्बनाएँ और उसके चरित्र की उदात्तता बार-बार आधुनिक रचनाकारों को आकर्षित करती रही है। उसका जीवन-चरित बार-बार नाटकों, खण्ड-काव्यों और उपन्यासों का विषय बनता रहा है। यह उपन्यास भी कर्ण के जीवन पर आधारित है। ऐतिहासिक-पौराणिक कथानकों पर प्रभावशाली औपन्यासिक सृष्टि करने में सिद्धहस्त लेखक रणजीत देसाई ने इस कृति में कर्ण की एक व्यक्ति और एक परिस्थिति, दोनों रुपों में व्याख्या की है।
माता-पिता के स्नेह से वंचित, सतत उपेक्षित और अपमानित कर्ण जीवन-भर किसी ऐसे अपराध की सजा भोगता रहता है, जिसमें वह कहीं शामिल नहीं था। कदम-कदम पर उससे उसकी जाति-गत श्रेष्ठता का प्रमाण माँगा जाता है, जो वह नहीं दे पाता, जिसके कारण उसके व्यक्तित्व का प्राकृतिक तेज धूमिल पड़ जाता है, वह अकेला पड़ जाता है। ‘महाभारत’ के इतने विस्तृत फलक पर जिस तरह का अकेलापन कर्ण झेलता है, वह और कोई पात्र नहीं। प्रस्तुत उपन्यास में गंगा के किनारे जाकर कर्ण को ध्यानस्थ होते देखना सचमुच उसे उस करुणा और सहानुभूति का अधिकारी बनाता है जिसे उसका देश-काल अपनी धार्मिक-सामाजिक सीमाओं के चलते नहीं दे पाया।   

राधेय


कुरुक्षेत्र की विस्तृत विशाल रणभूमि उदास, उजड़ी हुई लग रही थी। आकाश में सहस्ररश्मि अपने संपूर्ण तेज से प्रकाशमान था, फिर भी वह भूमि तेजोहीन लग रही थी। जिस रणभूमि पर इतना घमासान युद्ध हुआ उस रणभूमि पर अब शूरवीरों की चिताएँ जल रही थीं। विजय की आकांक्षा से जीवन-मृत्यु का भय न रखते हुए शत्रु के रक्त की प्यास से रणभूमि पर निरंतर संचरण करने वाले जीव अब विजय प्राप्त करने पर भी उसी रणभूमि पर मस्तक झुकाकर युद्ध में अमर हुए वीरों की खोज कर रहे थे। जय- पराजय का अर्थ कब का समाप्त हो चुका था। जिनके चक्रों की तीव्र गति से रणभूमि में लाखों चिह्न पड़े थे। उन्हीं ध्वस्त रथों के ढेर अब युद्ध स्थल पर एकत्रित किए जा रहे थे। अपने गंभीर मंत्रों से अचेतनों में भी चेतना जाग्रत करने वाले रणवाद्यों में भी दरारें पड़ गई थीं। अपनी ऊँची ध्वनि से विजय का विश्वास दिलाने वाले शंख, तीरों की बौछारों से आच्छादित भूमि पर बिखरे पड़े थे। रणवाद्यों के ढेरों में वे भी अब विश्राम कर रहे थे। रणक्षेत्र पर अब अतृप्त गीदड़ों की परछाइयाँ घूम रही थीं। युद्ध क्षेत्र की चिंता से निरंतर चिंतित रहने वाले पाँच पांडव धौम्य, संजय, विदुर और युयुत्सु के साथ सेवकों की सहायता से वीरों का दाह संस्कार कर रहे थे। एक-एक करके सभी चिताएँ अग्निशिखाओं में भड़कने लगीं। धरती पर पुण्य का अवतरण हो इसलिए किसी युग में सुवर्ण हल से जोती गई कुरुक्षेत्र की उस भूमि से निकलने वाले धुएँ के सैकड़ों काले मेघ आकाश को छूने लगे।

वीरों के दाह संस्कार की विधि करके खिन्न हृदय से सभी गंगा की ओर चल पड़े। अपराहृ का सूर्य पश्चिम क्षितिज की ओर ढल चुका था। गंगा का विशाल शुभ्र जल-प्रवाह सूर्य की किरणों में चमक रहा था। तपी हुई रेत पर चलकर गंगा की ओर जाने वाले को गंगा के दर्शन से न तो प्रसन्नता मिल रही थी, न ही चरणों के दाह की अनुभूति हो रही थी। विजयी पांडव और पराजित कौरव, दोनों की जय-पराजय के मनोवेग दहनभूमि के अंगारों में जलकर राख हो गए थे। बिछड़े हुए जीवों के वियोग से और बचे हुए लोगों के दुःख से सभी हृदय व्याकुल हो गए थे।

गंगा के मरुस्थल पर अस्थायी शिविर बनाया गया था। मस्तक झुकाकर खिन्न छवि से धीरे-धीरे गंगा की ओर जाने वाले वीरों को देख ही शिविर में प्रतीक्षारत बैठी राजस्त्रियाँ परिवार सहित उठीं और नदी की ओर चल पड़ीं।
गंगा के प्रवाह में युधिष्ठिर घुटने भर जल में खड़ा था, तट पर एक विशाल शिला पर राजमाता कुंती बैठी हुई थीं। उनके पास द्रौपदी अधोबदन खड़ी थी। उन दोनों के पीछे श्रीकृष्ण मौन खड़े थे। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सभी अपने स्वजनों समेत व्यथित हृदय से नदी के तट पर बैठे थे। वीरता का अभिमान नहीं था, प्रतिज्ञाओं की अनुभूति नहीं थी, विजय का संतोष नहीं था। बाहुबल का तेज कब का मिट चुका था। स्मरण था मात्र विजय के लिए रणभूमि पर समर्पित वीरों का !

नदी के मध्य खड़ा युधिष्ठिर एक-एक वीर का नाम पुकारकर तिलांजलि अर्पण कर रहा था। नामों के उच्चारण से ही स्मरण के तीव्र आवेग उठ रहे थे। रुके हुए अश्रु गालों पर झरने लगे थे। सभी वीरों को तिलांजलि अर्पित की गई। बिना मुड़े युधिष्ठिर ने प्रश्न किया, ‘‘क्या, विस्मरण से कोई वीर शेष तो नहीं रहा ?’’ समस्त जन एक-दूसरे की ओर ताक रहे थे। वीरों के नामों का स्मरण कर रहे थे। किंतु ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था कि कोई नाम शेष रहा हो। युधिष्ठिर के शब्दों से राजमाता कुंती के हृदय में भावनाओं का ज्वार उठा। बैठे-बैठे राजमाता का संपूर्ण शरीर काँफने लगा। होंठ शुष्क हो गए। उनके शुष्क नेत्र अज्ञात आत्मीयता से भर आए। माता ने आशा से श्रीकृष्ण की ओर देखा। श्रीकृष्ण निरन्तर स्थिर दृष्टि से गंगा के प्रवाह की ओर देख रहे थे। उनके नेत्रों में अश्रु भर आए थे। युधिष्ठिर मुड़ने ही वाला था कि कुंती ने बलपूर्वक पुकारा, ‘‘केशव ऽऽ।’’

श्रीकृष्ण ने कुंती की ओर देखा।
‘‘केशव, तुम तो ऽऽ’’
राजमाता कुंती आगे कुछ बोल न पाईं। सभी श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे। श्रीकृष्ण ने एक दीर्घ श्वास ली, अपना उत्तरीय सँभाला और वे गंगा के प्रवाह की ओर चलने लगे। यह देखकर कि युधिष्ठिर मुड़ रहा है, श्रीकृष्ण ने दूर से ही आवाज दी, ‘‘ठहरो धर्मराज, मुड़ो मत।’’
गंगा के प्रवाह में खड़े युधिष्ठिर के समीप जाने वाले श्रीकृष्ण को अपने वस्त्र सँभालने का भी ध्यान नहीं रहा। श्रीकृष्ण के समीप आते ही युधिष्ठिर ने पूछा, ‘‘केशव, सभी को तिलांजलि अर्पित की गई न ?’’
मस्तक हिलाकर श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘नहीं धर्मराज, अब भी एक तिलांजलि शेष है।’’
‘‘असंभव ! केशव पराजय में सभी का विस्मरण होता है, किंतु विजय में वीरों का विस्मरण कभी नहीं होता। इस तिलांजलि से विजय की अर्थहीनता, मैं भलीभाँति जान चुका हूँ। मेरा दुःख और मत बढ़ाओ। ऐसा कौन वीर हो सकता है जिसका मुझे विस्मरण हुआ हो ?’’

श्रीकृष्ण ने संयम पूर्वक अपने अश्रु रोके। अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखने का प्रयास करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘धर्मराज जिसकी तिलांजलि को अग्रता देनी चाहिए ऐसा वह वीर, तुम्हारी विजय के लिए स्वेच्छा से जिसने मृत्यु का आह्वान स्वीकार किया, जिसे तुम अपना शत्रु समझ रहे थे, किंतु तुम्हारे और अपने नाते से जो निरंतर परिचित था, ऐसा वह एक ही वीर है...’’
श्रीकृष्ण के शब्द सुनकर धर्मराज भय व्याकुल हो उठे। कष्टपूर्वक उन्होंने कहा, ‘‘पितामह भीष्माचार्य ! असंभव। वे तो उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उससे पूर्व वे देह नहीं त्यागेंगे और उत्तरायण के लिए तो अभी पर्याप्त अवधि है। ऐसी अकाल मृत्यु..’’
‘‘नहीं युधिष्ठिर ! मैं पितामह की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ महारथी कर्ण के संबंध में...’’
‘‘कर्ण ? राधेय....?’’ उस नाम के उच्चारण से ही युधिष्ठिर का सारा क्रोध उमड़ पड़ा। निश्चयपूर्वक उसने कहा, ‘‘नहीं केशव ! मेरी शांत स्वभाव की भी कोई सीमा है मेरी नीति के बंध निश्चित हैं। जिसे मैंने शत्रु माना, उसे मैं तिलांजलि अर्पित नहीं कर सकता...’’

‘‘वह तुम्हारा संबंधी हो तो...’’
‘‘केशव, कहो तो कौरव वीरों को तिलांजलि अर्पित करने के लिए मैं तैयार हूँ, किंतु कर्ण ! उस राधेय को...’’
‘‘शांति से सुनो, युधिष्ठिर !’’ श्रीकृष्ण का स्वर शुष्क बन गया था। ‘‘महारथी कर्ण तुम्हारा ज्येष्ठ भ्राता है...’’
‘‘केशव ऽऽ ...!’’
‘‘वह राधेय नहीं, कौंतेय है।’’
‘‘असत्य, असत्य।’’ कहकर युधिष्ठिर ने अपने दोनों कानों पर हाथ रखे। श्रीकृष्ण के नेत्रों में अश्रु भर आए। धर्मराज ने बड़ी आशा से राजमाता कुंती की ओर देखा। माता कुंती की गरदन घुटनों में झुकी हुई थी। बैठे हुए चारों पांडव आश्चर्य से विस्मित हो उठ खड़े हुए। श्रीकृष्ण के शब्द कानों से टकराने लगे, ‘‘हे युधिष्ठिर हृदय को स्थिर करो। शांत हो जाओ। नियति के आगे कोई कुछ नहीं कर सकता। महारथी कर्ण साक्षात् सूर्य का पुत्र था। माता कुंती को कुमारी अवस्था में मिला हुआ वरदान था वह। कर्ण ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कौंतेय है। उसे तिलांजलि अर्पित करना तुम्हारा कर्तव्य है। मैं जो भी कह रहा हूँ सत्य है। हे धर्मनिष्ठ युधिष्ठिर, कौंतेय के रूप में श्रद्धापूर्वक, ज्येष्ठ भ्राता के रूप में नम्रतापूर्वक और दाता के रूप में कृतज्ञतापूर्वक कर्ण को तिंलाजलि अर्पण करो...’’ उन शब्दों से साक्षात् संयम की ख्याति पाने वाले युधिष्ठिर का शक्तिमान हो गया। बड़े कष्ट से उसने अंजलि में गंगाजल भरा।

‘‘अज्ञात के आवरण और विजय के उन्माद में निरंतर तुम्हारी मृत्यु की इच्छा करने वाला मैं, युधिष्ठिर हे महारथी कर्ण, ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कौंतेय...आज तुम्हें...’’
आगे और शब्द उच्चारने का सामर्थ्य युधिष्ठिर में नहीं रहा। थर-थर काँपती हुई अंजलि से जल छूट गया। गंगा के तीव्र प्रवाह में क्षण भर के लिए एक छोटा सा गड्ढा दिखाई दिया और फिर अचानक युधिष्ठिर जल में गिर पड़ा। उस आघात से सँभलने वाले पांडवों के हृदय में तीव्र शोक- संताप उभर आया। अर्जुन के हृदय का बाँध टूट गया। तपी हुई रेत पर उसने अपना शरीर झोंक दिया और मुख में रेत डालकर वह मूक रुदन करने लगा। उसका हृदय व्याकुल हो उठा था और हृदय में रणवाद्य सा अखंड नाद उठ रहा था।

कर्ण राधेय नहीं ! कौंतेय ! शत्रु नहीं, भ्राता। शस्त्र स्पर्धा के समय इसी कर्ण को राधेय, सूत पुत्र कहकर मैंने अपमानित किया था। जल में पड़े प्रतिबिंब को देखकर चंद्रमा को मैं चकमक समझ बैठा था। यही वह कर्ण जिसे द्रौपदी स्वयंवर के समय मत्स्य-वेध करने पर भी अपमानित होना पड़ा था और वह भी वीरता के कारण नहीं...कीर्ति के कारण नहीं, अपितु मिथ्या कुलाभिमान के कारण..मौन रहकर !’’
‘‘यही है न वह वीर जिस पर द्रौपदी-चीरहरण के सारे आरोप लगाए गए थे। क्या वे आरोप भी सत्य थे ?’’
‘हे, महाबाहो अभिमन्यु के वध में तुम्हारा हाथ नहीं था यह मुझे बहुत समय बाद ज्ञात हुआ, किंतु उसके पूर्व ही मात्र प्रतिशोध की भावना से मैं तुम्हारे पुत्र का वध कर चुका था। उसे देखकर भी तुम्हारे मुख से शापवाणी क्यों न निकली, यह आज समझकर भी क्या लाभ ?’

समीप आने वाले चरणों की आहट श्रवण कर अर्जुन सचेत हो गया। चौंककर उसने मस्तक ऊपर उठाया। श्रीकृष्ण की परछाईं उसके शरीर पर पड़ी थी, किंतु प्रखर सूर्यप्रकाश के कारण उस आकृति का रूप दृश्यमान नहीं था। वह परछाईं आगे सरक रही थी। अर्जुन सतर्क हो उठा। तीव्र घृणा से उसकी मुद्रा तिलमिला उठी। यह देखकर कि श्रीकृष्ण और समीप आ रहे हैं, वह अपने स्थान से कष्टपूर्वक उठा और पीछे हटते हुए वह चीख उठा, ‘‘ठहरो केशव ! मेरे समीप मत आओ ! अपने पापी हाथों से मुझे स्पर्श न करो। अरे, किसने कहा था कि हमें ऐसा कलंकित राज्य चाहिए ? जन्म से ही भाग्य में वनवास लेकर आए हम ! क्या ऐसी शापित विजय पाने की अपेक्षा आजीवन आनंद से वनवास स्वीकार नहीं कर लेते ? साक्षात् अग्नि से मैंने गांडीव धनुष प्राप्त किया। क्या वह ज्येष्ठ भ्राता का वध करने के लिए ? हमारे इस संबंध से तुम तो परिचित थे ! नाते का यह बंधन तुम जानते थे, फिर भी तुमने हमें इस अक्षम्य पाप का हिस्सेदार बनाया ? केशव, तुम पर हमने निष्ठा रखी, उसका यह फल दिया ? इस तरह तुम ही हमारी अधोगति का कारण बनोगे यह हमने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। धिक्कार है...’’

दुःख से व्याकुल अर्जुन अश्रु बहाते हुए श्रीकृष्ण की ओर से मुँह मोड़कर जा रहा था। श्रीकृष्ण की ओर भी न देखकर शोक संतप्त पांडव अर्जुन का अनुसरण कर रहे थे। किसी को भी रोक सकने का सामर्थ्य श्रीकृष्ण में नहीं था। उनकी दृष्टि कुंती द्रौपदी की ओर गई..
द्रौपदी सुन्न होकर निश्चल खड़ी थी। होंठ काँप रहे थे। आरक्त नेत्रों में अश्रु थम-से गए थे। अपनी दाईं हथेली को वह एक टक निहार रही थी। धीरे-धीरे वह हथेली उसके ललाट की ओर उठने लगी। सिंदूर की ओर उठने वाली द्रौपदी की हथेली देखकर झट से श्रीकृष्ण आगे बढे़ और उन्होंने द्रौपदी का हाथ थाम लिया। कलाई पर पड़े हाथ के स्पर्श से द्रौपदी सँभल गई। उसकी अश्रुपूर्ण व्याकुल दृष्टि श्रीकृष्ण की दृष्टि से मिली।
‘‘हे केशव, जिसकी अभिलाषा की, क्या उसी को खोना ही सदैव मेरे भाग्य में लिखा है ?’’

 

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