पत्र एवं पत्रकारिता >> समय की शिला पर समय की शिला परफणीश्वरनाथ रेणु
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प्रख्यात कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु के अब तक उपलब्ध सभी रिपोर्ताज़ का संकलन।
Samay Ki Shila Par
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रख्यात कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु ने रिपोर्ताज़ के बारे में अपनी राय इन शब्दों में व्यक्त की है-‘‘गत महायुद्ध ने चिकित्साशास्त्र के चीर-फाड़ (शल्य-क्रिया) विभाग के पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा-विभाग को रिपोर्ताज़।’’ रेणु का यह कथन हिन्दी-साहित्य में रिपोर्ताज़ के आवर्भाव का काल-निर्धारण ही नहीं, उसकी सामाजिक भूमिका को भी रेखांकित करता है।
रेणु मानवीय भावनाओं के अप्रतिम चितेरे हैं, लेकिन उनका रचनाकार मन उन सामाजिक, राजनीतिक और प्राकृतिक त्रासदियों को अनदेखा नहीं करता, जो किसी भी भावना-लोक को प्रभावित करती हैं। एक योद्धा रचनाकार के नाते रेणु ने स्वयं ऐसी त्रासदियों का सामना किया था। यही कारण है कि उनके अनेक कथा-रिपोर्ताज़ जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता को भी समृद्ध किया, विभिन्न त्रासद स्थितियों का अत्यंत रचनात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
इतिहास पर अपने निशान छोड़ जानेवाली अनेक घटनाएँ, रचनाकार की विभिन्न भावस्थितियाँ, जीवन-स्थितियाँ और उसके लगाव-सरोकार एक विधा को निश्चित ही एक विशिष्ट ऊँचाई सौंपते हैं। ‘समय की शिला पर’ में रेणु के अब तक उपलब्ध सभी रिपोर्ताज़ संकलित हैं।
रेणु मानवीय भावनाओं के अप्रतिम चितेरे हैं, लेकिन उनका रचनाकार मन उन सामाजिक, राजनीतिक और प्राकृतिक त्रासदियों को अनदेखा नहीं करता, जो किसी भी भावना-लोक को प्रभावित करती हैं। एक योद्धा रचनाकार के नाते रेणु ने स्वयं ऐसी त्रासदियों का सामना किया था। यही कारण है कि उनके अनेक कथा-रिपोर्ताज़ जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता को भी समृद्ध किया, विभिन्न त्रासद स्थितियों का अत्यंत रचनात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
इतिहास पर अपने निशान छोड़ जानेवाली अनेक घटनाएँ, रचनाकार की विभिन्न भावस्थितियाँ, जीवन-स्थितियाँ और उसके लगाव-सरोकार एक विधा को निश्चित ही एक विशिष्ट ऊँचाई सौंपते हैं। ‘समय की शिला पर’ में रेणु के अब तक उपलब्ध सभी रिपोर्ताज़ संकलित हैं।
पीठिका
फणीश्ववरनाथ रेणु का कथा-लेखन द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम दौर से शुरू होकर आठवें दशक तक अविराम चलता रहा। 1942 के ‘भारत आंदोलन’ में गिरफ्तार होने के बाद रेणु 1944 के मध्य में जेल से छूटे और कहानियाँ एवं रिपोर्ताज़ लिखना प्रारंभ किया। 27 अगस्त, 1944 के साप्ताहिक ‘विश्वामित्र’ में रेणु की पहली कहानी ‘बटबाबा’ छपी एवं इसी पत्रिका के 1 अगस्त, 1945 के अंक में पहला रिपोर्ताज़ ‘बिदापत नाथ’ का प्रकाशन हुआ। रेणु का मानना था-‘‘......गत महायुद्ध ने चिकित्सा-शास्त्र के चीर-फाड़ (शल्य-चिकित्सा) विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा-विभाग को रिपोर्ताज़ !’’
कथाकार होने के साथ-साथ रेणु राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उन्होंने भारत और नेपाल की जनता की मुक्ति के कई आंदोलनों में भाग लिया था। वे अन्य रचनाकारों की तरह स्थितियों के मात्र मूक द्रष्टा नहीं थे, असल मायनों में मुक्ति योद्धा थे; सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए कलम के साथ-साथ बंदूक थामने के भी हिमायती थे। इसलिए जो लोग उनकी कलम के जादू से सम्मोहित थे, उनकी कमर में लटक रहे रिवाल्वर को देखकर अचंभित होते थे।
रेणु के इसी रूप ने उन्हें पत्रकारिता की ओर अग्रसर किया। जिन सामाजिक-राजनीतिक हलचलों और आंदोलनों में वे शरीक थे, उन्हें अंकित करने को उनका कथाकार उन्हें उद्वेलित करता रहता था, इसलिए उन्होंने रिपोर्ताज़ लिखना शुरू किया। सोशलिस्ट पार्टी के मुख-पत्र ‘जनता’ (पटना) का प्रकाशन 1946 से प्रारंभ हुआ सोशलिस्ट पार्टी में शरीक होने के साथ उन्होंने अपने जिले और नेपाल के बारे में उसमें ‘रिपोर्ताज़’ लिखना शुरू किया। साप्ताहिक ‘जनता’ में उनके कई लंबे रिपोर्ताज़ प्रकाशित हुए, जो उस समय काफी चर्चित भी हुए। बाढ़ पर ‘जै गंगा’ (1947) एवं ‘डायन कोशी’ (1948), अकाल पर हड्डियों का पुल’ एवं नेपाल पर धारावाहिक रिपोर्ताज़ ‘हिल रहा हिमालय’। इसके अलावा भी उनके कई महत्त्वपूर्ण रिपोर्ताज़ इसमें प्रकाशित हुए। ‘डायन कोशी’ रिपोर्ताज़ इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण था, कारण उसी समय उर्दू में भी इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ एवं 1950 में डॉ. केसरी कुमार द्वारा संपादित ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ पुस्तक में इसे कहानी के रूप में संकलित किया गया। डालमिया नगर के मिल-मजदूरों की हड़ताल पर भी उनका एक रिपोर्ताज़ ‘घोड़े की टाप पर लोहे की रामधुन’ शीर्षक में छपा था।......पर ‘जनता’ में प्रकाशित उनके प्रारंभिक रिपोर्ताज़ों में सिर्फ दो ‘सरहद के उस पार’ एवं ‘हड्डियों’ का पुल’ ही अब तक उपलब्ध हो पाए हैं।
1954 से 56 तक रेणु ने पटना से ही प्रकाशित साप्ताहिक ‘आवाज़’ में भी कई रिपोर्ताज़ लिखे। इसके अलावा भी पटना के कई साप्ताहिकों में उनके रिपोर्ताज़ छपे। पर कथानक खोज के बावजूद इन साप्ताहिक पत्रों की पूरी फाईल कहीं उपलब्ध नहीं हो पाने के कारण वे रिपोर्ताज़ अब तक उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। यदि रेणु के सभी रिपोर्ताज़ संकलित हो जाएँ, तो वे लगभग हजार पृष्ठों के होंगे एवं उनसे उनके एक बड़े रिपोर्ताज़-लेखक की छवि उभर कर आएगी।
रेणु के अब तक कुल सत्रह रिपोर्ताज़ उपलब्ध हो पाए हैं, जिनमें तीन ! ‘ऋण-जल–धनजल’ एवं ‘नेपाली क्रांति तथा’ पुस्तक-के रूप में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ रिपोर्ताज़ उनके-संग्रहों में एवं कुछ ‘श्रतु-अश्रुत पूर्व’ में संकलित किए जा चुके हैं। शेष असंकलित हैं। ये सभी रिपोर्ताज़ पहली बार एक जगह एक साथ यहाँ प्रकाशित किए जा रहे हैं। यानी ‘समय की शिला पर, रेणु के अब तक उपलब्ध सम्पूर्ण रिपोर्ताज़ का संकलन है। इसमें पहला रिपोर्ताज़ ‘बिदापद नाच’ 1945 में प्रकाशित हुआ था एवं अंतिम पटना-जलप्रलय पर लिखा रिपोर्ताज़ 1975 में। इस तरह यह संकलन रेणु के प्रारंभिक दौर से लेकर अंतिम दौर तक के लेखक का सिर्फ साक्ष्य ही नहीं प्रस्तुत करता है, अपितु 45 से 75 ई. के बीच के तीस वर्षों की कई महत्वपूर्ण घटनाएँ रेणु के लेखक के विभिन्न मूड्स जीवन-स्थितियाँ, आस्था एवं लगाव भी इन रिपोर्ताज़ में पाठकों को दिखलाई पड़ेंगे। इनमें वस्तु या कथ्य की जितनी विविधता है, उतनी ही भाषा-शैली की भी। इन रिपोर्ताज़ों में कथा-साहित्य की विभिन्न विधाओं का प्रयोग हुआ है। कुछ रिपोर्ताज़ में कहानी-विधा का प्रयोग हुआ है (इसलिए ‘डायन कोशी’ एवं ‘पुरानी कहानीःनया पाठ’ कहानी संकलनों में भी संकलित हुए।) तो कुछ में संस्मरण का। कुछ रिपोर्ताज़ रिपोर्टिंग के करीब हैं, तो कुछ डायरी, निबंध के कई यात्रा-कथात्मक हैं। इन रिपोर्ताज़ों के लिए ‘वृत्तांत’ शब्द का प्रयोग किया जा सकता है।
रेणुजी इनके लिए ‘जॉर्नल’ यानी ‘रोजनामचा’ शब्द का भी प्रयोग करते थे। पर रेणु अन्य कथा-विधा का समावेश इन रिपोर्ताज़ों में करने के साथ ही, उनके बने-बनाए ढाँचे को तोड़ते भी हैं। रेणु का महत्व इसलिए भी है क्योंकि वे अपनी बनाई सीमा को बार-बार दूसरी रचना में तोड़ते हैं। उनकी कथा-शैली, भाषा, ग्रामीण बोली एवं गीतों के प्रयोग के कारण उन्हें ‘आंचलिक’ कहा गया। पर रेणु-साहित्य का महत्त्व ही इसलिए है कि वह अपने स्वर या ‘टोन’ में आचंलिकता का बराबर अतिक्रण करता है। खासकर ये रिपोर्ताज़ इसके सशक्त उदाहरण हैं। उनमें रेणु का कथाकार लोक-जीवन नेपाल, बंगला देश, पाकिस्तान युद्ध और दक्षिणी बिहार के अकालग्रस्त क्षेत्र से लेकर बंबई की फिल्मी दुनिया तक जाता है। यहाँ जाने से तात्पर्य सशरीर यात्रा के साथ मन की यात्राओं से भी है।
रेणु का इन रिपोर्ताज़ों में देखना एक ही साथ हर तरह देखना है। वे वर्तमान को देखते हुए सुदूर अतीत के स्मति-चित्रों को भी याद करते हैं, तो कभी भविष्य में भी झाँकने की कोशिश करते हैं, परन्तु उनका ज्यादा देखना वर्तमान के क्रिया-कलापों को ही है। वे यथार्थ सूक्ष्मता के की उसकी बहुरंगी विविधता एवं जटिलता में अत्यन्त साथ इन रिपोर्ताज़ों में अंकित करते हैं-अपने उपन्यासों एवं कहानियों से भी ज्यादा। रेणु ने जितनी तन्मयता और श्रम से इन रिपोर्ताज़ों की है, उतनी ही तन्मयता और श्रम से इन रिपोतार्जों को रचा है।....पर इन रिपोर्ताज़ों में रेणु का भावप्रवण मन व्यंग्य-धर्मी कुछ ज्यादा ही हो गया है, खासकर उन प्रसंगों में जहाँ वे जीवन की विसंगतियों एवं राजनैतिक-सामाजिक विद्रूपताओं का चित्रण करते हैं।
‘बिदापत-नाच’ रेणु का पहला रिपोतार्ज़ है। इसमें रेणु अपने क्षेत्र यान अंचल के प्रसिद्ध लोक-नृत्य ‘बिदापत-नाच’ का परिचय हिन्दी पाठकों से करवाते हैं। इस नृत्य का आयोजन ‘मैला आँचल’ के एक दृश्य क रूप में भी संयोजित है और ‘रसप्रिया’ कहानी का नायक पंचकौड़ी मिरदंगिया भी बिदापत-नाच में मृदंग बजानेवाला एक पात्र है। इस रचना के प्रारम्भ में वे लिखते हैं-‘‘नृत्यकला के आचार्य श्री उदय शंकर जी से प्रार्थना करूँगा कि वे इसे मेरी अनधिकार चेष्टा कदापि न समझें। मेरा तो अनुमान है कि उन्होंने इस ‘नाच’ का नाम भी न सुना होगा।’’ यहाँ उदय शंकर जी के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए भी रेणु को पूर्ण आत्म-विश्वास है कि इस नाच के बारे में उनको भी जानकारी न होगी। मुसहरों, धाँगड़ों, दुसाधों यानी दलित वर्ग के हरिजनों के बीच प्रचलित यह लोक-नृत्य लेकर रेणु पूरे आस्था-विश्वास के साथ पाठकों के बीच पहले-पहल अवतरित है। यहाँ शहरी आभिजात्य के सामने लोक-जीवन में व्याप्त कलाकारों को पहली बार उपस्थित किया गया है-एक चुनौतीपूर्ण मुद्रा के साथ। रेणु का अधिकांश साहित्य भी लगभग इसी मुद्रा-विशेष से रचा गया प्रतीत होता है। रेणु इस नाच के प्रारंभिक परिचय के बाद ही पाठकों को एक मुसहर बस्ती में ले जाते हैं और इस नाच को हम पढ़ते नहीं, मानो साक्षात् देखने लगते हैं।
इस नृत्य की नाटकीयता और हाल-उल्लास के चित्रण के साथ ही वे उन लोक-कलाकारों की पीड़ा को भी उभारते हैं। बिकटा को जब कोड़े से पीटने का दृश्य आता है तो वह कहता है कि-‘मुझे पीटकर बेकार समय बर्बाद किया जा रहा है। ज़मीदार के जूते खाते-खाते मेरी पीठ की चमड़ी मोटी हो गई।’ इस एक वाक्य से उस पर जुल्म की पूरी तस्वीर उभर कर आ जाती है और हम उसकी पीड़ा को अनुभव करने लगते हैं। ‘बिकटा’ के द्वार बनाए गए गीत के टुकड़े इस वर्ग के जीवन की पूरी त्रासदी को उभारते हैं।
दूसरा रिपोर्ताज़ ‘सरहद के उस पार’ का प्रकाशन ‘जनता’ के 2 मार्च, 1947 के अंक में हुआ था। रेणु के क्षेत्र से सटा हुआ नेपाल का विराटनगर जहाँ उनका लंबा प्रारंभिक जीवन कोइराला-बंधुओं के बीच बीता। यहीं उन्हें पूरी तरह साहित्य और राजनीति की दीक्षा मिली। इसलिए नेपाल के दो बड़े जन-आंदोलनों में उन्होंने जमकर हिस्सा लिया था। ‘सरहद के उस पार’ विराटनगर के मिल-मजदूरों की बदतर जीवन-स्थितियों का याथार्थ चित्र खींचने के साथ ही वहाँ के पूँजीपतियों एवं राणाशाही पर तीखे व्यंग्य भी करते हैं। इसके अलावा इस रिपोर्ताज़ में हम रेणु के प्रखर वामपन्थी स्वरूप का भी दर्शन पाते हैं। ....इस रिपोर्ताज़ के प्रकाशन के बाद ही विराटनगर के मजदूरों का प्रखर आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन के संदर्भ में कुछ बातें बताना शायद यहाँ संदर्भित होगा। क्योंकि इसी आंदोलन ने बाद में चलकर नेपाल में पहली बार तख्ता-पलट में पृष्ठभूमि का काम किया-यानी ‘नेपाल क्रांति-कथा’ की ‘भूमिका’ बना।
विराटनगर में कई पूँजीपतियों ने विभिन्न कारखाने स्थापित किए। वे राणाशाही की सरकार की सहायता से मिल-मजदूरों के साथ पशुवत् व्यवहार करते। उनमें यूनियन बनाने की भी छूट नहीं थी। वे अपनी जायज माँगों को लेकर भी हड़ताल नहीं कर सकते थे। रेणु उनकी यथार्थ दशा को लेकर जब ‘सरहद के उस पार लिख रहे थे। उसी समय उनके बीच दबे-छुपे ढंग से यूनियन भी कायम कर रहे थे। 2 मार्च, 1947 को यह रिपोर्ताज़ प्रकाशित हुआ और 4 मार्च से विराटनगर के मजदूरों का ऐतिहासिक आंदोलन प्रारंभ हुआ। उस आंदोलन पर रेणु ने ‘विराटनगर की खूनी दास्तान’ नामक एक रिपोर्ताज़ उसकी समय लिखा, जो स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। इस रिपोर्ताज़ की चर्चा पूर्णिया जिले के रेणुजी के मित्रगण आज भी करते हैं, पर इसकी प्रति आज तक खोजीराम को उपलब्ध नहीं हो पाई है। धीरे-धीरे यह आंदोलन जोर पकड़ता गया और इसका विस्तार होता गया। कुछ दिनों बाद रेणु कोइराला-बंधुओं को इस आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए ले आए। पूर्णिया जिले के प्रमुख सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता एवं रेणु के सहकर्मी भी इस आंदोलन में शामिल हुए। इस आंदोलन को कुचलने के लिए राणा सरकार ने कई बार गोलियाँ भी चलवाईं, जिसमें कई मारे गए एवं असंख्य लोग घायल।
रेणु भी इसमें बुरी तरह जख्मी हुए। मजदूरों का यह आंदोलन धीरे-धीरे पूरे नेपाल में व्याप्त हो गया। नेपाल की जनता हर शहर में सड़कों पर उतर आई और निरंकुश राणाशाही के खिलाफ प्रदर्शन करने लगी। नेपाल में यह पहला व्यापक आंदोलन था। पर इसे अंततः दबा दिया गया। इस आंदोलन के प्रायः सभी प्रमुख व्यक्तियों को जेल में बंद कर दिया गया। बाद में, रेणु भी गिरफ्तार हुए एवं लंबे समय तक जेल में रहे।.....1950 के अंतिम दिनों से राणाशाही के खिलाफ दूसरा सशस्त्र संग्राम शुरू हुआ, जिसके फलस्वरूप 1951 में नेपाल में पहली बार प्रजातंत्र की स्थापना हुई। नेपाल की इस क्रांति-कथा के नियामकों में रेणु का भी प्रमुख हाथ था।
वे अपनी पार्कर 51 कलम के साथ ही रायफल लेकर इसमें सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। उन्होंने ‘जनता’ में ‘हिल रहा हिमालय’ धारावाहिक रिपोर्ताज़ लिखकर इस आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इस आंदोलन में पर्चे एवं गीत वगैरह लिखने के साथ ही कोइराला बन्धुओं में तीसरे—तारिणी प्रसाद कोईराला के साथ मिलकर स्वत्रन्त्र प्रजातंत्र नेपाल रेडियो की स्थापना भी उन्होंने इसी आंदोलन के दौरान की थी। ‘नेपाली क्रांति कथा’ का महत्त्व रेणु के लिए कितना था, इस बात का पता इससे भी चलता है कि आंदोलन के ठीक बीस वर्षों बाद उन्होंने ‘दिनमान’ 1971 के अंकों में उसे धारावाहिक रूप में प्रकाशित करवाया। आज नेपाल में पुनः प्रजातांत्रिक सरकार का गठन हुआ है और इतिहास बन चुकी इस ‘क्रान्ति-कथा’ का पुरवलोकन अब और भी आवश्यक हो गया है।
कथाकार होने के साथ-साथ रेणु राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उन्होंने भारत और नेपाल की जनता की मुक्ति के कई आंदोलनों में भाग लिया था। वे अन्य रचनाकारों की तरह स्थितियों के मात्र मूक द्रष्टा नहीं थे, असल मायनों में मुक्ति योद्धा थे; सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए कलम के साथ-साथ बंदूक थामने के भी हिमायती थे। इसलिए जो लोग उनकी कलम के जादू से सम्मोहित थे, उनकी कमर में लटक रहे रिवाल्वर को देखकर अचंभित होते थे।
रेणु के इसी रूप ने उन्हें पत्रकारिता की ओर अग्रसर किया। जिन सामाजिक-राजनीतिक हलचलों और आंदोलनों में वे शरीक थे, उन्हें अंकित करने को उनका कथाकार उन्हें उद्वेलित करता रहता था, इसलिए उन्होंने रिपोर्ताज़ लिखना शुरू किया। सोशलिस्ट पार्टी के मुख-पत्र ‘जनता’ (पटना) का प्रकाशन 1946 से प्रारंभ हुआ सोशलिस्ट पार्टी में शरीक होने के साथ उन्होंने अपने जिले और नेपाल के बारे में उसमें ‘रिपोर्ताज़’ लिखना शुरू किया। साप्ताहिक ‘जनता’ में उनके कई लंबे रिपोर्ताज़ प्रकाशित हुए, जो उस समय काफी चर्चित भी हुए। बाढ़ पर ‘जै गंगा’ (1947) एवं ‘डायन कोशी’ (1948), अकाल पर हड्डियों का पुल’ एवं नेपाल पर धारावाहिक रिपोर्ताज़ ‘हिल रहा हिमालय’। इसके अलावा भी उनके कई महत्त्वपूर्ण रिपोर्ताज़ इसमें प्रकाशित हुए। ‘डायन कोशी’ रिपोर्ताज़ इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण था, कारण उसी समय उर्दू में भी इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ एवं 1950 में डॉ. केसरी कुमार द्वारा संपादित ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ पुस्तक में इसे कहानी के रूप में संकलित किया गया। डालमिया नगर के मिल-मजदूरों की हड़ताल पर भी उनका एक रिपोर्ताज़ ‘घोड़े की टाप पर लोहे की रामधुन’ शीर्षक में छपा था।......पर ‘जनता’ में प्रकाशित उनके प्रारंभिक रिपोर्ताज़ों में सिर्फ दो ‘सरहद के उस पार’ एवं ‘हड्डियों’ का पुल’ ही अब तक उपलब्ध हो पाए हैं।
1954 से 56 तक रेणु ने पटना से ही प्रकाशित साप्ताहिक ‘आवाज़’ में भी कई रिपोर्ताज़ लिखे। इसके अलावा भी पटना के कई साप्ताहिकों में उनके रिपोर्ताज़ छपे। पर कथानक खोज के बावजूद इन साप्ताहिक पत्रों की पूरी फाईल कहीं उपलब्ध नहीं हो पाने के कारण वे रिपोर्ताज़ अब तक उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। यदि रेणु के सभी रिपोर्ताज़ संकलित हो जाएँ, तो वे लगभग हजार पृष्ठों के होंगे एवं उनसे उनके एक बड़े रिपोर्ताज़-लेखक की छवि उभर कर आएगी।
रेणु के अब तक कुल सत्रह रिपोर्ताज़ उपलब्ध हो पाए हैं, जिनमें तीन ! ‘ऋण-जल–धनजल’ एवं ‘नेपाली क्रांति तथा’ पुस्तक-के रूप में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ रिपोर्ताज़ उनके-संग्रहों में एवं कुछ ‘श्रतु-अश्रुत पूर्व’ में संकलित किए जा चुके हैं। शेष असंकलित हैं। ये सभी रिपोर्ताज़ पहली बार एक जगह एक साथ यहाँ प्रकाशित किए जा रहे हैं। यानी ‘समय की शिला पर, रेणु के अब तक उपलब्ध सम्पूर्ण रिपोर्ताज़ का संकलन है। इसमें पहला रिपोर्ताज़ ‘बिदापद नाच’ 1945 में प्रकाशित हुआ था एवं अंतिम पटना-जलप्रलय पर लिखा रिपोर्ताज़ 1975 में। इस तरह यह संकलन रेणु के प्रारंभिक दौर से लेकर अंतिम दौर तक के लेखक का सिर्फ साक्ष्य ही नहीं प्रस्तुत करता है, अपितु 45 से 75 ई. के बीच के तीस वर्षों की कई महत्वपूर्ण घटनाएँ रेणु के लेखक के विभिन्न मूड्स जीवन-स्थितियाँ, आस्था एवं लगाव भी इन रिपोर्ताज़ में पाठकों को दिखलाई पड़ेंगे। इनमें वस्तु या कथ्य की जितनी विविधता है, उतनी ही भाषा-शैली की भी। इन रिपोर्ताज़ों में कथा-साहित्य की विभिन्न विधाओं का प्रयोग हुआ है। कुछ रिपोर्ताज़ में कहानी-विधा का प्रयोग हुआ है (इसलिए ‘डायन कोशी’ एवं ‘पुरानी कहानीःनया पाठ’ कहानी संकलनों में भी संकलित हुए।) तो कुछ में संस्मरण का। कुछ रिपोर्ताज़ रिपोर्टिंग के करीब हैं, तो कुछ डायरी, निबंध के कई यात्रा-कथात्मक हैं। इन रिपोर्ताज़ों के लिए ‘वृत्तांत’ शब्द का प्रयोग किया जा सकता है।
रेणुजी इनके लिए ‘जॉर्नल’ यानी ‘रोजनामचा’ शब्द का भी प्रयोग करते थे। पर रेणु अन्य कथा-विधा का समावेश इन रिपोर्ताज़ों में करने के साथ ही, उनके बने-बनाए ढाँचे को तोड़ते भी हैं। रेणु का महत्व इसलिए भी है क्योंकि वे अपनी बनाई सीमा को बार-बार दूसरी रचना में तोड़ते हैं। उनकी कथा-शैली, भाषा, ग्रामीण बोली एवं गीतों के प्रयोग के कारण उन्हें ‘आंचलिक’ कहा गया। पर रेणु-साहित्य का महत्त्व ही इसलिए है कि वह अपने स्वर या ‘टोन’ में आचंलिकता का बराबर अतिक्रण करता है। खासकर ये रिपोर्ताज़ इसके सशक्त उदाहरण हैं। उनमें रेणु का कथाकार लोक-जीवन नेपाल, बंगला देश, पाकिस्तान युद्ध और दक्षिणी बिहार के अकालग्रस्त क्षेत्र से लेकर बंबई की फिल्मी दुनिया तक जाता है। यहाँ जाने से तात्पर्य सशरीर यात्रा के साथ मन की यात्राओं से भी है।
रेणु का इन रिपोर्ताज़ों में देखना एक ही साथ हर तरह देखना है। वे वर्तमान को देखते हुए सुदूर अतीत के स्मति-चित्रों को भी याद करते हैं, तो कभी भविष्य में भी झाँकने की कोशिश करते हैं, परन्तु उनका ज्यादा देखना वर्तमान के क्रिया-कलापों को ही है। वे यथार्थ सूक्ष्मता के की उसकी बहुरंगी विविधता एवं जटिलता में अत्यन्त साथ इन रिपोर्ताज़ों में अंकित करते हैं-अपने उपन्यासों एवं कहानियों से भी ज्यादा। रेणु ने जितनी तन्मयता और श्रम से इन रिपोर्ताज़ों की है, उतनी ही तन्मयता और श्रम से इन रिपोतार्जों को रचा है।....पर इन रिपोर्ताज़ों में रेणु का भावप्रवण मन व्यंग्य-धर्मी कुछ ज्यादा ही हो गया है, खासकर उन प्रसंगों में जहाँ वे जीवन की विसंगतियों एवं राजनैतिक-सामाजिक विद्रूपताओं का चित्रण करते हैं।
‘बिदापत-नाच’ रेणु का पहला रिपोतार्ज़ है। इसमें रेणु अपने क्षेत्र यान अंचल के प्रसिद्ध लोक-नृत्य ‘बिदापत-नाच’ का परिचय हिन्दी पाठकों से करवाते हैं। इस नृत्य का आयोजन ‘मैला आँचल’ के एक दृश्य क रूप में भी संयोजित है और ‘रसप्रिया’ कहानी का नायक पंचकौड़ी मिरदंगिया भी बिदापत-नाच में मृदंग बजानेवाला एक पात्र है। इस रचना के प्रारम्भ में वे लिखते हैं-‘‘नृत्यकला के आचार्य श्री उदय शंकर जी से प्रार्थना करूँगा कि वे इसे मेरी अनधिकार चेष्टा कदापि न समझें। मेरा तो अनुमान है कि उन्होंने इस ‘नाच’ का नाम भी न सुना होगा।’’ यहाँ उदय शंकर जी के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए भी रेणु को पूर्ण आत्म-विश्वास है कि इस नाच के बारे में उनको भी जानकारी न होगी। मुसहरों, धाँगड़ों, दुसाधों यानी दलित वर्ग के हरिजनों के बीच प्रचलित यह लोक-नृत्य लेकर रेणु पूरे आस्था-विश्वास के साथ पाठकों के बीच पहले-पहल अवतरित है। यहाँ शहरी आभिजात्य के सामने लोक-जीवन में व्याप्त कलाकारों को पहली बार उपस्थित किया गया है-एक चुनौतीपूर्ण मुद्रा के साथ। रेणु का अधिकांश साहित्य भी लगभग इसी मुद्रा-विशेष से रचा गया प्रतीत होता है। रेणु इस नाच के प्रारंभिक परिचय के बाद ही पाठकों को एक मुसहर बस्ती में ले जाते हैं और इस नाच को हम पढ़ते नहीं, मानो साक्षात् देखने लगते हैं।
इस नृत्य की नाटकीयता और हाल-उल्लास के चित्रण के साथ ही वे उन लोक-कलाकारों की पीड़ा को भी उभारते हैं। बिकटा को जब कोड़े से पीटने का दृश्य आता है तो वह कहता है कि-‘मुझे पीटकर बेकार समय बर्बाद किया जा रहा है। ज़मीदार के जूते खाते-खाते मेरी पीठ की चमड़ी मोटी हो गई।’ इस एक वाक्य से उस पर जुल्म की पूरी तस्वीर उभर कर आ जाती है और हम उसकी पीड़ा को अनुभव करने लगते हैं। ‘बिकटा’ के द्वार बनाए गए गीत के टुकड़े इस वर्ग के जीवन की पूरी त्रासदी को उभारते हैं।
दूसरा रिपोर्ताज़ ‘सरहद के उस पार’ का प्रकाशन ‘जनता’ के 2 मार्च, 1947 के अंक में हुआ था। रेणु के क्षेत्र से सटा हुआ नेपाल का विराटनगर जहाँ उनका लंबा प्रारंभिक जीवन कोइराला-बंधुओं के बीच बीता। यहीं उन्हें पूरी तरह साहित्य और राजनीति की दीक्षा मिली। इसलिए नेपाल के दो बड़े जन-आंदोलनों में उन्होंने जमकर हिस्सा लिया था। ‘सरहद के उस पार’ विराटनगर के मिल-मजदूरों की बदतर जीवन-स्थितियों का याथार्थ चित्र खींचने के साथ ही वहाँ के पूँजीपतियों एवं राणाशाही पर तीखे व्यंग्य भी करते हैं। इसके अलावा इस रिपोर्ताज़ में हम रेणु के प्रखर वामपन्थी स्वरूप का भी दर्शन पाते हैं। ....इस रिपोर्ताज़ के प्रकाशन के बाद ही विराटनगर के मजदूरों का प्रखर आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन के संदर्भ में कुछ बातें बताना शायद यहाँ संदर्भित होगा। क्योंकि इसी आंदोलन ने बाद में चलकर नेपाल में पहली बार तख्ता-पलट में पृष्ठभूमि का काम किया-यानी ‘नेपाल क्रांति-कथा’ की ‘भूमिका’ बना।
विराटनगर में कई पूँजीपतियों ने विभिन्न कारखाने स्थापित किए। वे राणाशाही की सरकार की सहायता से मिल-मजदूरों के साथ पशुवत् व्यवहार करते। उनमें यूनियन बनाने की भी छूट नहीं थी। वे अपनी जायज माँगों को लेकर भी हड़ताल नहीं कर सकते थे। रेणु उनकी यथार्थ दशा को लेकर जब ‘सरहद के उस पार लिख रहे थे। उसी समय उनके बीच दबे-छुपे ढंग से यूनियन भी कायम कर रहे थे। 2 मार्च, 1947 को यह रिपोर्ताज़ प्रकाशित हुआ और 4 मार्च से विराटनगर के मजदूरों का ऐतिहासिक आंदोलन प्रारंभ हुआ। उस आंदोलन पर रेणु ने ‘विराटनगर की खूनी दास्तान’ नामक एक रिपोर्ताज़ उसकी समय लिखा, जो स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। इस रिपोर्ताज़ की चर्चा पूर्णिया जिले के रेणुजी के मित्रगण आज भी करते हैं, पर इसकी प्रति आज तक खोजीराम को उपलब्ध नहीं हो पाई है। धीरे-धीरे यह आंदोलन जोर पकड़ता गया और इसका विस्तार होता गया। कुछ दिनों बाद रेणु कोइराला-बंधुओं को इस आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए ले आए। पूर्णिया जिले के प्रमुख सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता एवं रेणु के सहकर्मी भी इस आंदोलन में शामिल हुए। इस आंदोलन को कुचलने के लिए राणा सरकार ने कई बार गोलियाँ भी चलवाईं, जिसमें कई मारे गए एवं असंख्य लोग घायल।
रेणु भी इसमें बुरी तरह जख्मी हुए। मजदूरों का यह आंदोलन धीरे-धीरे पूरे नेपाल में व्याप्त हो गया। नेपाल की जनता हर शहर में सड़कों पर उतर आई और निरंकुश राणाशाही के खिलाफ प्रदर्शन करने लगी। नेपाल में यह पहला व्यापक आंदोलन था। पर इसे अंततः दबा दिया गया। इस आंदोलन के प्रायः सभी प्रमुख व्यक्तियों को जेल में बंद कर दिया गया। बाद में, रेणु भी गिरफ्तार हुए एवं लंबे समय तक जेल में रहे।.....1950 के अंतिम दिनों से राणाशाही के खिलाफ दूसरा सशस्त्र संग्राम शुरू हुआ, जिसके फलस्वरूप 1951 में नेपाल में पहली बार प्रजातंत्र की स्थापना हुई। नेपाल की इस क्रांति-कथा के नियामकों में रेणु का भी प्रमुख हाथ था।
वे अपनी पार्कर 51 कलम के साथ ही रायफल लेकर इसमें सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। उन्होंने ‘जनता’ में ‘हिल रहा हिमालय’ धारावाहिक रिपोर्ताज़ लिखकर इस आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इस आंदोलन में पर्चे एवं गीत वगैरह लिखने के साथ ही कोइराला बन्धुओं में तीसरे—तारिणी प्रसाद कोईराला के साथ मिलकर स्वत्रन्त्र प्रजातंत्र नेपाल रेडियो की स्थापना भी उन्होंने इसी आंदोलन के दौरान की थी। ‘नेपाली क्रांति कथा’ का महत्त्व रेणु के लिए कितना था, इस बात का पता इससे भी चलता है कि आंदोलन के ठीक बीस वर्षों बाद उन्होंने ‘दिनमान’ 1971 के अंकों में उसे धारावाहिक रूप में प्रकाशित करवाया। आज नेपाल में पुनः प्रजातांत्रिक सरकार का गठन हुआ है और इतिहास बन चुकी इस ‘क्रान्ति-कथा’ का पुरवलोकन अब और भी आवश्यक हो गया है।
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