नाटक-एकाँकी >> खराशें खराशेंगुलजार
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फिल्मकार और अदीब गुलज़ार की कविताओं और कहानियों की एक रंगमंचीय प्रस्तुति
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सन् 1947 में जब मुल्क आज़ाद हुआ तो इस आज़ादी के साथ-साथ आग और लहू की एक
लकीर ने मुल्क को दो टुकड़ों में तक़सीम कर दिया। यह बँटवारा सिर्फ़ मुल्क
का ही नहीं बल्कि दिलों का, इंसानियत का और सदियों की सहेजी गंगा-ज़मनी
तहज़ीब का भी हुआ। साम्प्रदायिकता के शोले ने सब कुछ जलाकर ख़ाक कर दिया
और लोगों के दिलों में हिंसा, नफ़रत और फ़िरक़ापरस्ती के बीज बो दिए। इस
फ़िरक़ावाराना बहशत ने वतन और इंसानियत के ज़िस्म पर अनगिनत ख़राशें पैदा
की। बार-बार दंगे होते रहे। समय गुज़रता गया लेकिन ये जख़्म भरे नहीं
बल्कि और भी बर्बर रूप में हमारे समाने आए। जख़्म रिसता रहा और इंसानियत
कराहती रही...लाशें ही लाशें गिरती चली गईं।
‘ख़राशे’ मुल्क के इस दर्दनाक क़िस्से को बड़े तल्ख़ अंदाज़ में हमारे सामने रखती है। फिल्मकार और अदीब गुलज़ार की कविताओं और कहानियों की यह रंगमंचीय प्रस्तुति इन दंगों के दौरान आम इंसान की चीख़ों-कराहों के साथ पुलिसिया ज़ुल्म तथा सरकारी मीडिया के झूठ का नंगा सच भी बयाँ करती है। यह कृति हमारी संवेदनशीलता को कुरेदकर एक सुलगता हुआ सवाल रखती है कि इन दुरुह परिस्थितियों में यदि आप फँसे तो आपकी सोच और निर्णयों का आधार क्या होगा-मज़हब और शब्द-प्रयोग की ज़ादूगरी गुलज़ार की अपनी ख़ास विशेषता है। अपने अनूठे अंदाज़ के कारण यह कृति निश्चित ही पाठकों को बेहद पठनीय लगेगी।
1947 में इतनी लाशें गिरती देखीं और इतने फ़सादात भड़कते देखे कि उनकी छाप अब तक आँखों से उतरी नहीं।
आसमान पर उड़ती चीलें भी देखूँ तो गिद्ध लगती हैं-कहीं कोई सफ़ा खुल जाता है, कोई बेकफ़न लाश नज़र आ जाती है-कोई बेकफ़न दिन जो अब तक दफ़नाया नहीं गया।
सलीम आरिफ़ बहुत सालों से मेरे साथ हैं-दोस्त भी हैं, मुआविन भी-उम्र में मुझसे कम हैं, इसलिए कम फ़सादात देखे हैं-ये मौजूँ जो बार-बार मेरी नज़्मों और अफ़सानों में उभर आता था, उससे वो बेचैन रहते थे-यह उन्हीं की कोशिश है, और उन्हीं का इन्तख़ाब, कि उन नज़्मों, अफ़सानों को एक कोलाज की सूरत देकर स्टेज पर खड़ा कर दिया-सलीम एक बा-शऊर इंसान हैं, और चाहतें है कि हम सब मिलकर अपने सुलूक और बर्ताव को दुरुस्त करें-ताकि इन उड़ती चीलों की बला हमारे आसमाँ से उतर गए।
‘ख़राशे’ मुल्क के इस दर्दनाक क़िस्से को बड़े तल्ख़ अंदाज़ में हमारे सामने रखती है। फिल्मकार और अदीब गुलज़ार की कविताओं और कहानियों की यह रंगमंचीय प्रस्तुति इन दंगों के दौरान आम इंसान की चीख़ों-कराहों के साथ पुलिसिया ज़ुल्म तथा सरकारी मीडिया के झूठ का नंगा सच भी बयाँ करती है। यह कृति हमारी संवेदनशीलता को कुरेदकर एक सुलगता हुआ सवाल रखती है कि इन दुरुह परिस्थितियों में यदि आप फँसे तो आपकी सोच और निर्णयों का आधार क्या होगा-मज़हब और शब्द-प्रयोग की ज़ादूगरी गुलज़ार की अपनी ख़ास विशेषता है। अपने अनूठे अंदाज़ के कारण यह कृति निश्चित ही पाठकों को बेहद पठनीय लगेगी।
1947 में इतनी लाशें गिरती देखीं और इतने फ़सादात भड़कते देखे कि उनकी छाप अब तक आँखों से उतरी नहीं।
आसमान पर उड़ती चीलें भी देखूँ तो गिद्ध लगती हैं-कहीं कोई सफ़ा खुल जाता है, कोई बेकफ़न लाश नज़र आ जाती है-कोई बेकफ़न दिन जो अब तक दफ़नाया नहीं गया।
सलीम आरिफ़ बहुत सालों से मेरे साथ हैं-दोस्त भी हैं, मुआविन भी-उम्र में मुझसे कम हैं, इसलिए कम फ़सादात देखे हैं-ये मौजूँ जो बार-बार मेरी नज़्मों और अफ़सानों में उभर आता था, उससे वो बेचैन रहते थे-यह उन्हीं की कोशिश है, और उन्हीं का इन्तख़ाब, कि उन नज़्मों, अफ़सानों को एक कोलाज की सूरत देकर स्टेज पर खड़ा कर दिया-सलीम एक बा-शऊर इंसान हैं, और चाहतें है कि हम सब मिलकर अपने सुलूक और बर्ताव को दुरुस्त करें-ताकि इन उड़ती चीलों की बला हमारे आसमाँ से उतर गए।
गुलज़ार
निर्देशकीय
बहुत समय से अपने देश में बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता पर कोई सार्थक मंचन
करने का मन था लेकिन कथ्य की समस्या बार-बार खड़ी हो जाती
थी-हिन्दू-मुसलिम भाई-भाई के सरकारी नारे की विफलता ने भी हतोत्साहित
किया। जब गुजरात के दंगे हुए तो यह सवाल सामने था कि हमारी सामाजिक
व्यवस्था में ऐसा क्या है जो साम्प्रदायिक दंगे थोड़े-थोड़े अन्तराल से
पूरे देश में उभरते हैं, हालाँकि उनके आयाम बदलते रहे
हैं-‘ख़राशें’ का अंकुर इसी सोच से जुड़ा हुआ
है-साम्प्रदायिकता पर रंगमंच के लिए प्रस्तुति तैयार करते हुए यह खतरा
बराबर बना रहता है कि विभिन्न सम्प्रदायों को बराबरी से निबाहने में
प्रस्तुति फिर उसी सरकारी फ़ार्मूले के बहुत पास खड़ी हो जाती है जो पिछले
पचास-साठ वर्षों से साम्प्रदायिकता के कैंसर को मिटाने में विफल रहा है।
पहले विचार बना कि पचास सालों में जो भी महत्त्वपूर्ण लेखन इस विषय पर मिले उसे जोड़कर एक तुलनात्मक विवेचन दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाए जिसमें साम्प्रदायिकता पर कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल खड़े किए जा सकें। यह हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि मंटो के ‘स्याह हाशिए’ और ‘खोल दो’ व कुछ अन्य कहानियाँ आज भी समसामयिक रचनाएँ लगती हैं। फिर विचार बना कि किसी ऐसे लेखक को चुना जाए जो समय-समय पर लगातार इस विषय पर रचनात्मक प्रतिक्रिया देता रहा हो।
गुलज़ार साहब में मुझे ऐसा रचनाकार मिला जिसने 1947 का बँटवारा भी देखा था और जो आज भी आसपास की घटनाओं पर कविताओं और कहानियों के माध्यम से रचनात्मक रूप से प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कर रहा है।
‘ख़राशें’ उन्हीं की कविताओं और कहानियों का एक ‘कोलाज’ है-इन रचनाओं की महत्त्वपूर्ण बात उनकी इंसान परस्ती है-वह इंसान की इंसानियत पर पड़नेवाली आँच से विचलित हैं-ऐसी आँच जो एक व्यक्ति में उसकी सोच को डगमगा देती है-उनके चरित्र उन हालातों का शिकार हैं जो उन्होंने स्वयं नहीं बनाए हैं- वह स्थितियाँ उन्हें अपने साथ बहा ले जाती हैं-‘ख़राशें’ में एक महत्त्वपूर्ण सवाल छिपा है-अगर आप ऐसी किसी स्थिति में फँसे तो आपकी सोच और निर्णयों का आधार आपका धर्म होगा या फिर इंसानियत। ख़राशें के ‘कोलाज’ स्वरूप को लेकर काफ़ी चर्चा रही है-विशेषकर कविताओं और कहानियों को एक साथ एक ही प्रयोग में जोड़ने पर। श्री देवेन्द्र राज अंकुर, जो इस समय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के निर्देशक हैं, उन्होंने कहानियों को मंच पर प्रस्तुत करके काफ़ी समय पहले रंगमंच से साहित्य के रिश्ते को सुदृढ़ किया और कथ्य की सम्भावनाओं को नया विस्तार भी दिया-जाने-माने कवि स्व. रघुवीर सहाय, मंच पर कविताओं की प्रस्तुति की एक मुहिम-सी चला चुके हैं-यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने इन दोनों सर्जकों का सान्निध्य पाया और उनसे सीखा भी। यह बात सिर्फ़ इसलिए लिख रहा हूँ कि कविता और कहानी का एक साथ मंच पर प्रयोग हो सकता है, ‘ख़राशें’ में पहली बार प्रस्तुत किया गया है पर अलग-अलग कहानी और कविताएँ बहुत पहले इन दो कलाकारों द्वारा मंच पर प्रस्तुत की जा चुकी हैं।
‘ख़राशें’ से बहुत-सी सुखद यादें जुड़ी हैं, जिसमें एक का ज़िक्र करना चाहूँगा-मंचन से एक सप्ताह पहले मेरे पास एक फोन आया, जानी-मानी चित्रकार ‘टीना बोपाया’ का। उन्होंने एक अख़बार के दफ़्तर से, जिसमें ‘ख़राशें’ पर एक लेख छपा था, मेरा नम्बर लिया था। वह कह रही थीं कि इस शो के लिए वह कुछ करना चाहती हैं। अगर मैं समय निकालकर उनकी पेंटिंग्स देख लूँ तो...
मैं हिचकिचाता उनके घर पहुँचा और उनकी पेंटिंग्स देखकर लगा कि वह गुलज़ार साहब की रचनाओं और मेरी प्रस्तुति के बहुत क़रीब है-वह तुरन्त मेरे लिए 10’×4’ के पाँच-छह कैनवस पेंट करने के लिए तैयार हो गईं-वह भी बिना किसी मेहनताने के-उनके इस सहयोग के लिए मैं बहुत ऋणी हूँ-टीना बोपाया की यह पेंटिंग्स ‘ख़राशें’ की बहुत बड़ी उपलब्धि बन गई हैं-वह मंच पर प्रस्तुति के पूरे माहौल को बनाने में बहुत मदद करती हैं और अमूर्त रूप से कथ्य को विस्तार भी देती हैं।
‘ख़राशें’ का मंच विन्यास बड़ा सादा-सा है :
मंच पर 6’×8’ का एक प्लेटफॉर्म दाईं ओर था। इस प्लेटफॉर्म को पीछे की तरफ़ 10’×4’ की एक पेटिंग विंग की तरह खड़ी करके उसके पीछे एक छोटा Cubical बनाया था। इसे ‘हिल्सा’ कहानी में वैशाली कपड़े और मंच सामग्री रखने के लिए उपयोग करती है-इस तरह दो और पेंटिंग्स दाईं और बाईं ओर एक बड़ी पेंटिंग पीछे की ओर flats की तरह खड़ी कर रखी थीं-इस सबसे मंच पर उपयुक्त Backdrop तो बना ही, साथ ही कविता और कहानी के इस संयुक्त स्वरुप को सम्प्रेषित करने में बहुत ही मदद मिली-यह पेंटिंग्स विंग्स की तरह कलाकारों के आने-जाने में मदद भी करते हैं। एक खोखले बक्से का फ्रेम 4‘×3’×1’&1/2’ का पहले से मंच पर प्लेटफॉर्म के बाईं ओर रखा रहता है। इस बक्से की चारों तरफ़ पेंटिंग की style का ही कैनवस चढ़ा हुआ है यह खोखला बक्सा ‘हिल्सा’ और ‘रावी पार’ कहानियों में दीवार की तरह से काम करता है-कलाकार उसके गिर्द घूमकर नए स्पेसेस का निर्माण करते हैं और ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ में यही बक्सा कूड़े का डिब्बा बन जाता है-पर निर्देशकों को यह छूट है कि वह इसे चाहें तो सिर्फ़ ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ में रखें या पूरे मंच विन्यास को नई तरह से सोच लें-
पूरी रचनाओं को सात कलाकारों के बीच इस तरह से बाँटा था कि हर कलाकार को कुछ कविताएँ और एक कहानी में अभिनय का मौक़ा मिले-‘ख़ुदा हाफ़िज़’ का मूल समरेश बसु की ‘आदाब’ नाम की बँगला कहानी है, जिसकी गुलज़ार साहब ने पटकथा बनाई है-यह लगभग दस साल पूर्व दूरदर्शन पर ‘किरदार’ धारावाहिक की एक कड़ी के रूप में दिखाई जा चुकी थी-इसका मंचन पहली बार ‘ख़राशें’ में हुआ और उसमें उसी रूप से मैंने बदलाव भी किए-अपने इस नए रूप में यह गुलज़ार साहब की रचना मानी जानी चाहिए, हालाँकि मूल कहानी समरेश बसु की है।
प्रस्तुति में एक Ensemble Quality की फ़ील बन गई है जो ‘ख़राशें’ के कलाकारों की देन है। हम सब के लिए यह भी हर्ष का विषय है कि गुलज़ार साहब को 2002 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार जिस संग्रह पर मिला है उसकी दो कहानियाँ ‘ख़ौफ़’ और ‘रावी पार’ खराशें में हैं।
अपने प्रथम मंचन के लगभग एक वर्ष बाद ख़राशें का छपना हमारी पूरी टीम के लिए एक सुखद अनुभूति है। यह सार्थक रंगकर्म में जूझते उन तमाम रंगकर्मियों को अर्पित है जो आज भी मानव की गरिमा में विश्वास रखते हैं-उस इंसानियत में जो हमारे देश की धरोहर है।
पहले विचार बना कि पचास सालों में जो भी महत्त्वपूर्ण लेखन इस विषय पर मिले उसे जोड़कर एक तुलनात्मक विवेचन दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाए जिसमें साम्प्रदायिकता पर कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल खड़े किए जा सकें। यह हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि मंटो के ‘स्याह हाशिए’ और ‘खोल दो’ व कुछ अन्य कहानियाँ आज भी समसामयिक रचनाएँ लगती हैं। फिर विचार बना कि किसी ऐसे लेखक को चुना जाए जो समय-समय पर लगातार इस विषय पर रचनात्मक प्रतिक्रिया देता रहा हो।
गुलज़ार साहब में मुझे ऐसा रचनाकार मिला जिसने 1947 का बँटवारा भी देखा था और जो आज भी आसपास की घटनाओं पर कविताओं और कहानियों के माध्यम से रचनात्मक रूप से प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कर रहा है।
‘ख़राशें’ उन्हीं की कविताओं और कहानियों का एक ‘कोलाज’ है-इन रचनाओं की महत्त्वपूर्ण बात उनकी इंसान परस्ती है-वह इंसान की इंसानियत पर पड़नेवाली आँच से विचलित हैं-ऐसी आँच जो एक व्यक्ति में उसकी सोच को डगमगा देती है-उनके चरित्र उन हालातों का शिकार हैं जो उन्होंने स्वयं नहीं बनाए हैं- वह स्थितियाँ उन्हें अपने साथ बहा ले जाती हैं-‘ख़राशें’ में एक महत्त्वपूर्ण सवाल छिपा है-अगर आप ऐसी किसी स्थिति में फँसे तो आपकी सोच और निर्णयों का आधार आपका धर्म होगा या फिर इंसानियत। ख़राशें के ‘कोलाज’ स्वरूप को लेकर काफ़ी चर्चा रही है-विशेषकर कविताओं और कहानियों को एक साथ एक ही प्रयोग में जोड़ने पर। श्री देवेन्द्र राज अंकुर, जो इस समय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के निर्देशक हैं, उन्होंने कहानियों को मंच पर प्रस्तुत करके काफ़ी समय पहले रंगमंच से साहित्य के रिश्ते को सुदृढ़ किया और कथ्य की सम्भावनाओं को नया विस्तार भी दिया-जाने-माने कवि स्व. रघुवीर सहाय, मंच पर कविताओं की प्रस्तुति की एक मुहिम-सी चला चुके हैं-यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने इन दोनों सर्जकों का सान्निध्य पाया और उनसे सीखा भी। यह बात सिर्फ़ इसलिए लिख रहा हूँ कि कविता और कहानी का एक साथ मंच पर प्रयोग हो सकता है, ‘ख़राशें’ में पहली बार प्रस्तुत किया गया है पर अलग-अलग कहानी और कविताएँ बहुत पहले इन दो कलाकारों द्वारा मंच पर प्रस्तुत की जा चुकी हैं।
‘ख़राशें’ से बहुत-सी सुखद यादें जुड़ी हैं, जिसमें एक का ज़िक्र करना चाहूँगा-मंचन से एक सप्ताह पहले मेरे पास एक फोन आया, जानी-मानी चित्रकार ‘टीना बोपाया’ का। उन्होंने एक अख़बार के दफ़्तर से, जिसमें ‘ख़राशें’ पर एक लेख छपा था, मेरा नम्बर लिया था। वह कह रही थीं कि इस शो के लिए वह कुछ करना चाहती हैं। अगर मैं समय निकालकर उनकी पेंटिंग्स देख लूँ तो...
मैं हिचकिचाता उनके घर पहुँचा और उनकी पेंटिंग्स देखकर लगा कि वह गुलज़ार साहब की रचनाओं और मेरी प्रस्तुति के बहुत क़रीब है-वह तुरन्त मेरे लिए 10’×4’ के पाँच-छह कैनवस पेंट करने के लिए तैयार हो गईं-वह भी बिना किसी मेहनताने के-उनके इस सहयोग के लिए मैं बहुत ऋणी हूँ-टीना बोपाया की यह पेंटिंग्स ‘ख़राशें’ की बहुत बड़ी उपलब्धि बन गई हैं-वह मंच पर प्रस्तुति के पूरे माहौल को बनाने में बहुत मदद करती हैं और अमूर्त रूप से कथ्य को विस्तार भी देती हैं।
‘ख़राशें’ का मंच विन्यास बड़ा सादा-सा है :
मंच पर 6’×8’ का एक प्लेटफॉर्म दाईं ओर था। इस प्लेटफॉर्म को पीछे की तरफ़ 10’×4’ की एक पेटिंग विंग की तरह खड़ी करके उसके पीछे एक छोटा Cubical बनाया था। इसे ‘हिल्सा’ कहानी में वैशाली कपड़े और मंच सामग्री रखने के लिए उपयोग करती है-इस तरह दो और पेंटिंग्स दाईं और बाईं ओर एक बड़ी पेंटिंग पीछे की ओर flats की तरह खड़ी कर रखी थीं-इस सबसे मंच पर उपयुक्त Backdrop तो बना ही, साथ ही कविता और कहानी के इस संयुक्त स्वरुप को सम्प्रेषित करने में बहुत ही मदद मिली-यह पेंटिंग्स विंग्स की तरह कलाकारों के आने-जाने में मदद भी करते हैं। एक खोखले बक्से का फ्रेम 4‘×3’×1’&1/2’ का पहले से मंच पर प्लेटफॉर्म के बाईं ओर रखा रहता है। इस बक्से की चारों तरफ़ पेंटिंग की style का ही कैनवस चढ़ा हुआ है यह खोखला बक्सा ‘हिल्सा’ और ‘रावी पार’ कहानियों में दीवार की तरह से काम करता है-कलाकार उसके गिर्द घूमकर नए स्पेसेस का निर्माण करते हैं और ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ में यही बक्सा कूड़े का डिब्बा बन जाता है-पर निर्देशकों को यह छूट है कि वह इसे चाहें तो सिर्फ़ ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ में रखें या पूरे मंच विन्यास को नई तरह से सोच लें-
पूरी रचनाओं को सात कलाकारों के बीच इस तरह से बाँटा था कि हर कलाकार को कुछ कविताएँ और एक कहानी में अभिनय का मौक़ा मिले-‘ख़ुदा हाफ़िज़’ का मूल समरेश बसु की ‘आदाब’ नाम की बँगला कहानी है, जिसकी गुलज़ार साहब ने पटकथा बनाई है-यह लगभग दस साल पूर्व दूरदर्शन पर ‘किरदार’ धारावाहिक की एक कड़ी के रूप में दिखाई जा चुकी थी-इसका मंचन पहली बार ‘ख़राशें’ में हुआ और उसमें उसी रूप से मैंने बदलाव भी किए-अपने इस नए रूप में यह गुलज़ार साहब की रचना मानी जानी चाहिए, हालाँकि मूल कहानी समरेश बसु की है।
प्रस्तुति में एक Ensemble Quality की फ़ील बन गई है जो ‘ख़राशें’ के कलाकारों की देन है। हम सब के लिए यह भी हर्ष का विषय है कि गुलज़ार साहब को 2002 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार जिस संग्रह पर मिला है उसकी दो कहानियाँ ‘ख़ौफ़’ और ‘रावी पार’ खराशें में हैं।
अपने प्रथम मंचन के लगभग एक वर्ष बाद ख़राशें का छपना हमारी पूरी टीम के लिए एक सुखद अनुभूति है। यह सार्थक रंगकर्म में जूझते उन तमाम रंगकर्मियों को अर्पित है जो आज भी मानव की गरिमा में विश्वास रखते हैं-उस इंसानियत में जो हमारे देश की धरोहर है।
भाग : एक
(मंच के मध्य में प्रकाश का एक दायरा उभरता है जिसमें सलीम आरिफ़ पहली
कविता पढ़ता है...)
किशोर: ज़रा सा आओ न, बैठो वतन की बात करें-उम्मीदें डूब गईं जो निगल-निगल
के भँवर-
उम्मीदें हाँप रही हैं जो बादबानों में उम्मीदो-शौक़ के क़त्लों-ग़बन की बात करें- वतन की बात करें ?
पचास सालों में ऐसा नहीं कि कुछ न हुआ-पचास सालों में लेकिन...
खुला फ़लक तो गिरी धूप जैसे गर्द गिरे-हर एक रोज़ फ़लक पोंछा-उठ के साफ़ किया-
उम्मीदें हाँप रही हैं जो बादबानों में उम्मीदो-शौक़ के क़त्लों-ग़बन की बात करें- वतन की बात करें ?
पचास सालों में ऐसा नहीं कि कुछ न हुआ-पचास सालों में लेकिन...
खुला फ़लक तो गिरी धूप जैसे गर्द गिरे-हर एक रोज़ फ़लक पोंछा-उठ के साफ़ किया-
हमारे टख़नों पे कुल्हाड़ियाँ गिरीं लेकिन-
लहू-लुहान क़दम सीढ़ियों पे चढ़ते रहे-
निकल तो आए हैं हम घुटनों-घुटनों दलदल से-
अभी खुला नहीं-कैसे चमन की बात करें-
चलो न चलते चलें और वतन की बात करें...
लहू-लुहान क़दम सीढ़ियों पे चढ़ते रहे-
निकल तो आए हैं हम घुटनों-घुटनों दलदल से-
अभी खुला नहीं-कैसे चमन की बात करें-
चलो न चलते चलें और वतन की बात करें...
(धीरे से पार्श्व संगीत बढ़ना शुरू होता है
और मंच पर अन्धकार हो जाता है...अँधेरे
में पार्श्व से प्रेक्षागृह में आवाज़ उभरती है-)
सन् 1947 में आग और ख़ून से लिपटी एक लकीर मुल्क को काटती हुई गुज़र गई और
मुल्क़ तक़सीम हो गया। लाखों लोग दोनों तरफ फ़िरक़ावाराना वहशत का शिकार
हुए-पचास साल से ज्यादा हो गए वो फ़सादात आज भी जारी हैं-एक जगह आग बुझती
है तो दूसरी तरफ़ धुआँ सर उठा लेता है। एक आस्तीन पर ख़ून सूखता है तो
दूसरे हाथ की उँगलियाँ ख़ून में डूबी हुई नज़र आती हैं। कभी पंजाब में,
कभी बंगाल में, कभी गुजरात में और कभी महाराष्ट्र में...
ये ज़ख्म भरते नहीं, बस एक खुरूंड-सा जम जाता है, कुछ देर के लिए-फिर कहीं दंगे शुरू होते हैं और ख़राशें फिर से रिसने लगती हैं। अब तो लगता है ये ज़ख्म आँखों से चिपक गए हैं...आँखें बहती रहती हैं और ज़ख्म रिसते रहते हैं...
ये ज़ख्म भरते नहीं, बस एक खुरूंड-सा जम जाता है, कुछ देर के लिए-फिर कहीं दंगे शुरू होते हैं और ख़राशें फिर से रिसने लगती हैं। अब तो लगता है ये ज़ख्म आँखों से चिपक गए हैं...आँखें बहती रहती हैं और ज़ख्म रिसते रहते हैं...
(पार्श्व ध्वनि के अन्त से थोड़ा पहले मंच के एक कोने पर प्रकाश उभरता है
जिसमें अतुल कुर्सी पर बैठा अख़बार पढ़ रहा है...।
(थोड़े से वक़्फ़े के बाद अतुल अगली कविता बोलता है...)
(थोड़े से वक़्फ़े के बाद अतुल अगली कविता बोलता है...)
अतुल : सारा दिन मैं ख़ून में लथपथ रहता हूँ
सारे दिन में सूख-सूख के
काला पड़ जाता है ख़ून
पपड़ी-सी जम जाती है
पपड़ी-सी जम जाती है
खुरच-खुरच के नाख़ूनों से
चमड़ी छिलने लगती है...
नाक में ख़ून की कच्ची बू
और कपड़ों पर कुछ काले-काले
चकत्ते-से रह जाते हैं
रोज़ सुबह अख़बार मेरे घर
ख़ून में लथपथ आता है-
सारे दिन में सूख-सूख के
काला पड़ जाता है ख़ून
पपड़ी-सी जम जाती है
पपड़ी-सी जम जाती है
खुरच-खुरच के नाख़ूनों से
चमड़ी छिलने लगती है...
नाक में ख़ून की कच्ची बू
और कपड़ों पर कुछ काले-काले
चकत्ते-से रह जाते हैं
रोज़ सुबह अख़बार मेरे घर
ख़ून में लथपथ आता है-
(मंच के दूसरे कोने से गणेश आता है और प्रकाश आने पर अगली कविता बोलना
शुरू करता है-अतुल कुर्सी से उठकर विंग्स में चला जाता है..कुर्सी पर से
प्रकाश गुल होता है।)
गणेश : शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ,
नाम थे लोगों के जो क़त्ल हुए।
सर नहीं काटा किसी ने भी, कहीं पर कोई-लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे !
और ये बहता हुआ सुर्ख़ लहू है जो सड़क पर,
ज़बह होती हुई आवाज़ों की गर्दन से गिरा था।
नाम थे लोगों के जो क़त्ल हुए।
सर नहीं काटा किसी ने भी, कहीं पर कोई-लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे !
और ये बहता हुआ सुर्ख़ लहू है जो सड़क पर,
ज़बह होती हुई आवाज़ों की गर्दन से गिरा था।
(गणेश की कविता के अन्त में लुब्ना मंच के दाएँ तरफ़ से आती है, उसके हाथ
में एक बच्चे का स्कूल बैग और पानी की बोतल है। उसके कविता बोलने के
साथ-साथ गणेश विंग्स में चला जाता है...प्रकाश का दायरा सिर्फ़ लुब्ना पर
रह जाता है)
लुब्ना : अपनी मर्ज़ी से तो मज़हब भी नहीं
उसने चुना था,
उसका मज़हब था जो माँ-बाप से ही
उसने विरासत में लिया था-
उसने चुना था,
उसका मज़हब था जो माँ-बाप से ही
उसने विरासत में लिया था-
अपने माँ-बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है और ये मुल्क भी लाज़िम था,
कि माँ-बाँप का घर था इसमें (मुल्क में मर्ज़ी भी उसकी, ना वतन उसकी रज़ा से-
कि माँ-बाँप का घर था इसमें (मुल्क में मर्ज़ी भी उसकी, ना वतन उसकी रज़ा से-
ये वतन उसका चुनाव तो नहीं था।
वह तो कुल नौ ही बरस का था उसे क्यूँ चुनकर, फ़िरक़ावाराना फ़सादात ने कल क़त्ल किया-।।
वह तो कुल नौ ही बरस का था उसे क्यूँ चुनकर, फ़िरक़ावाराना फ़सादात ने कल क़त्ल किया-।।
(लुब्ना के कविता के अन्त में मंच के बीच से यशपाल प्रवेश करता है-उसके
कविता बोलने के साथ ही लुब्ना पर स्पॉट गुल हो जाता है और वह विंग्स में
चली जाती है-प्रकाश सिर्फ़ यशपाल पर रह जाता है-)
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लोगों की राय
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