कविता संग्रह >> श्रीकान्त वर्मा संचयिता श्रीकान्त वर्मा संचयिताउदयन वाजपेयी
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इस पुस्तक कविताएँ पढ़ने पर हमें स्वातन्त्रोत्तर भारतीय नागरिक के खण्ड स्वप्न आसानी से मिल सकते हैं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आमतौर पर यह धारणा है कि विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी साहित्य, भाषा और
संस्कृति का जो अध्ययन-अध्यापन होता है वह अधिकतर रूढिग्रस्त और उबाऊ हो
गया है। महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्राथमिक
सरोकारों में से एक यह है कि पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या और पाठ्यसामग्री को एक
नई शताब्दी की नई चुनौतियों और प्रश्नाकुलता के अनुभव ताजातरीन करते हुए
इस क्षेत्र में नए विकल्पों को खोजा, विकसित और विन्यस्त किया जाए। तभी यह
विश्वविद्यालय हिन्दी अध्ययन-अध्यापन और अनुसन्धान के क्षेत्रों में कुछ
ठोस, प्रासंगिक और कारगर विकल्प प्रस्तुत कर सकता है।
हमारे विश्वविद्यालय ने देश और विदेश के श्रेष्ठ विशेषज्ञों से विचार-विनमय कर इस दिशा में कुछ प्रयत्न करना शुरू किया है। हमारा लक्ष्य हिन्दी साहित्य भाषा और संस्कृति को उसकी समग्रता और जटिलता और बहुलता में आलोकित करते हुए उनकी नए प्रश्नों, चिन्ताओं और उत्सुकताओं से दो-चार होने की क्षमता और उसकी वर्तमान अनेक दिशाओं को इंगित करना भी है।
चूँकि नए किस्म के पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या के लिए नए किस्म की पाठ्य-सामग्री अनिवार्य है, इस विद्यालय ने एक अपेक्षाकृत महत्वाकांक्षी प्रकाशन-योजना हाथ में ली है। यह पुस्तक उसी योजना का एक हिस्सा है।
इस प्रकाशक योजना में हिन्दी के प्रमुख लेखकों के प्रतिनिधि संचयनों, विविध विषयों पर आधारित संकलनों, यथा-प्रेम, प्रकृति, आध्यात्म, मृत्यु और अनुपस्थिति, समाज, नदी, ऋतु-विषयक कविताओं के संकलनों के साथ-साथ ऐसे लेखकों के चयन भी प्रकाशित करने की योजना है जो साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा में कतिपय कारणों से विशेष उल्लेख न पा सके किन्तु जिनकी रचनात्मकता से परिचय होने पर हिन्दी साहित्य की समझ समद्ध ही होगी।
इनके साथ ही अनेक विशिष्ट प्रकाशनों की योजना है। बीसवीं सदी के उत्तार्ध की हिन्दी-कुल की भाषाओं का (भोजपुरी, अवधी, बुन्देलखडी, मालवी आदि) की कविताओं का संयचय, हिन्दी के आरम्भिक गद्य का संचालन, मध्यकालीन काव्य का संचयन, सूफी-काव्य का संचयन, बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की हिन्दी कथा, कविता, आलोचना आदि के चयन, महत्त्वपूर्ण लेखकों और कृतियों के द्विभाषी संस्करण (हिन्दी-अंग्रेजी, हिन्दी-पोलिश आदि) तैयार किए जा रहे हैं।
इस प्रकाशन योजना की एक विशेषता यह है कि इसके निर्माण में लोकतान्त्रिक और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई गई है। अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञों की समितियों ने प्रकाशन योग्य सामग्री के साथ-साथ सम्पादकों का चुनाव भी किया है। निश्चय ही पुस्तकों में उनकी अपनी दृष्टि तो झलकती है, उसके साथ ही वे एक सामूहिक विवेक सम्मत प्रक्रिया का परिणाम भी हैं। इन्हें तैयार करते समय इस बात का ध्यान तो रखा ही गया है कि इस सामग्री का उपयोग भारत के बाहर उन केन्द्रों में भी किया जाना है जहाँ हिन्दी पढ़ाई जा रही ह। यदि ये पुस्तकें सामान्य पाठकों को अतिरिक्त हिन्दी के छात्रों और शिक्षकों के लिए उपयोगी सिद्ध हुईं तो हमें सन्तोष होगा।
हमारे विश्वविद्यालय ने देश और विदेश के श्रेष्ठ विशेषज्ञों से विचार-विनमय कर इस दिशा में कुछ प्रयत्न करना शुरू किया है। हमारा लक्ष्य हिन्दी साहित्य भाषा और संस्कृति को उसकी समग्रता और जटिलता और बहुलता में आलोकित करते हुए उनकी नए प्रश्नों, चिन्ताओं और उत्सुकताओं से दो-चार होने की क्षमता और उसकी वर्तमान अनेक दिशाओं को इंगित करना भी है।
चूँकि नए किस्म के पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या के लिए नए किस्म की पाठ्य-सामग्री अनिवार्य है, इस विद्यालय ने एक अपेक्षाकृत महत्वाकांक्षी प्रकाशन-योजना हाथ में ली है। यह पुस्तक उसी योजना का एक हिस्सा है।
इस प्रकाशक योजना में हिन्दी के प्रमुख लेखकों के प्रतिनिधि संचयनों, विविध विषयों पर आधारित संकलनों, यथा-प्रेम, प्रकृति, आध्यात्म, मृत्यु और अनुपस्थिति, समाज, नदी, ऋतु-विषयक कविताओं के संकलनों के साथ-साथ ऐसे लेखकों के चयन भी प्रकाशित करने की योजना है जो साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा में कतिपय कारणों से विशेष उल्लेख न पा सके किन्तु जिनकी रचनात्मकता से परिचय होने पर हिन्दी साहित्य की समझ समद्ध ही होगी।
इनके साथ ही अनेक विशिष्ट प्रकाशनों की योजना है। बीसवीं सदी के उत्तार्ध की हिन्दी-कुल की भाषाओं का (भोजपुरी, अवधी, बुन्देलखडी, मालवी आदि) की कविताओं का संयचय, हिन्दी के आरम्भिक गद्य का संचालन, मध्यकालीन काव्य का संचयन, सूफी-काव्य का संचयन, बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की हिन्दी कथा, कविता, आलोचना आदि के चयन, महत्त्वपूर्ण लेखकों और कृतियों के द्विभाषी संस्करण (हिन्दी-अंग्रेजी, हिन्दी-पोलिश आदि) तैयार किए जा रहे हैं।
इस प्रकाशन योजना की एक विशेषता यह है कि इसके निर्माण में लोकतान्त्रिक और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई गई है। अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञों की समितियों ने प्रकाशन योग्य सामग्री के साथ-साथ सम्पादकों का चुनाव भी किया है। निश्चय ही पुस्तकों में उनकी अपनी दृष्टि तो झलकती है, उसके साथ ही वे एक सामूहिक विवेक सम्मत प्रक्रिया का परिणाम भी हैं। इन्हें तैयार करते समय इस बात का ध्यान तो रखा ही गया है कि इस सामग्री का उपयोग भारत के बाहर उन केन्द्रों में भी किया जाना है जहाँ हिन्दी पढ़ाई जा रही ह। यदि ये पुस्तकें सामान्य पाठकों को अतिरिक्त हिन्दी के छात्रों और शिक्षकों के लिए उपयोगी सिद्ध हुईं तो हमें सन्तोष होगा।
भूमिका
स्वभाव की तलाश
1
श्रीकान्त वर्मा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के सम्भवतः सबसे ऊर्जस्वित
लेखकों में हैं। वे मूर्धन्य कवि हैं, सटीक कहानीकार हैं, और अनोखे
उपन्यासकार। वे उन विरले कवियों में है जिन्होंने अपने भीतर बहती पिघले
लोहे-सी काव्य-धारा को पूरे धीरज से सहा और उसे बिल्कुल नए
काव्य-विन्यासों में ढाला। यह भी सच है कई बार इस लोहे के-से काव्य-आवेग
ने उन्हें धीरज बरत सकने का अवकाश नहीं दिया या शायद अपने घुमड़ते
काव्य-आवेग के आगे कवि का धीरज निष्फल हो गया लेकिन तब यह काव्य आवेग या
काव्य-संवेदना उन्हीं की कविताओं के सुघड़ विन्यासों के आसपास, यहाँ-वहाँ
चिनगारियों की तरह बिखर गया। शायद इसलिए विन्यासों के आसपास, यहां-वहाँ
चिनगारियों की तरह बिखर गया। शायद इसलिए उनकी कविताएं, उनके काव्य-संयम और
काव्य-असंयम का विलक्षण साक्ष्य और फलन हैं। उनके धीरज और उनकी हड़बड़ी
दोनों का पारदर्शी अंकन।
मैं उठता हूँ और उठकर
खिड़कियाँ, दरवाजे
और कमीज़ के बटन
बन्द कर लेता हूँ
और फुर्ती के साथ
एक कागज पर लिखता हूँ
मैं अपनी विफलताओं का
प्रणेता हूँ’
खिड़कियाँ, दरवाजे
और कमीज़ के बटन
बन्द कर लेता हूँ
और फुर्ती के साथ
एक कागज पर लिखता हूँ
मैं अपनी विफलताओं का
प्रणेता हूँ’
चाहें तो हम कह सकते हैं कि ये कविताएँ आँधी की तरह उनके आर-पार बहते
काव्य-आवेग के हाथों उनके क्षय-विक्षत जीवन का टूटा हुआ बिखरा हुआ
मानचित्र हैं। इस खंडहर मानचित्र में ढूँढने पर हमें स्वातन्त्र्योत्तर
भारतीय नागरिक के खंड-खंड स्वप्न और विदग्ध आकाँक्षाओं के धुँधुआते हुए
टुकड़े मिल जाएँगे।
2
मुक्तिबोध का काव्य संगीत का निषेध करता है।....संगीत के रहने से कविता
में शून्य पैदा हो जाता है और कविता कविता नहीं रह जाती। मुक्तिबोध ने
संगीत से पैदा हुए शून्य को तनाव से भरा। संगीत का स्थान तनाव ने ले लिया।
मुक्ति बोध की कविता श्रीकान्त वर्मा के ये विचार कविता मात्र से उनकी प्रत्याशा को दर्शाते हैः कविता वह जिसके मर्म में तनाव’ प्रतिष्ठित हो। और आधुनिक मनुष्य की स्थिति की भी श्रीकान्त वर्मा की यही कल्पना हैः उसका मर्म तनाव से निर्मित है। और इसलिए ‘भटका मेघ’ से शुरू होकर ‘जलसाघर’ की लगभग सभी कविताओं में तनाव’ को प्रतिष्ठित और आलोकित करने का संघर्ष है। कविता उस सबका दर्पण बने (भले ही मायादर्पण) जो आधुनिक मनुष्य को आन्दोलित किए हुए है, जो बीसवीं शताब्दी के मनुष्य को आक्रान्त किए हुए हैः उसका अपनी पारम्परिक भाव-भूमि से विस्थापित होकर आधुनिक नागर पारिस्थितिकी में उलटकर छटपटाना। इस छटपटाने से उत्पन्न उसके जीवन के तार-तार में तनाव का समा जाना। और इसी पारिस्थितिकी में हर मूल्य का अर्थहीन होते चला जानाः
मुक्ति बोध की कविता श्रीकान्त वर्मा के ये विचार कविता मात्र से उनकी प्रत्याशा को दर्शाते हैः कविता वह जिसके मर्म में तनाव’ प्रतिष्ठित हो। और आधुनिक मनुष्य की स्थिति की भी श्रीकान्त वर्मा की यही कल्पना हैः उसका मर्म तनाव से निर्मित है। और इसलिए ‘भटका मेघ’ से शुरू होकर ‘जलसाघर’ की लगभग सभी कविताओं में तनाव’ को प्रतिष्ठित और आलोकित करने का संघर्ष है। कविता उस सबका दर्पण बने (भले ही मायादर्पण) जो आधुनिक मनुष्य को आन्दोलित किए हुए है, जो बीसवीं शताब्दी के मनुष्य को आक्रान्त किए हुए हैः उसका अपनी पारम्परिक भाव-भूमि से विस्थापित होकर आधुनिक नागर पारिस्थितिकी में उलटकर छटपटाना। इस छटपटाने से उत्पन्न उसके जीवन के तार-तार में तनाव का समा जाना। और इसी पारिस्थितिकी में हर मूल्य का अर्थहीन होते चला जानाः
मैं जानता हूँ
यह पाने की विफलता और
न पाने का दुःख दोनों
अर्थहीन हो जाते हैं
यह पाने की विफलता और
न पाने का दुःख दोनों
अर्थहीन हो जाते हैं
कविता को श्रीकान्त वर्मा की दृष्टि में, यह सब प्रकट बल्कि चरितार्थ कर
पाना चाहिए लेकिन कर्तव्यवश नहीं, सम्भाववश।
कविता कर्तव्यवश कुछ नहीं करती, स्वभाववश बहुत कुछ करती है। हर युग की कविता का स्वभाव बदलता है, उसकी ग्रहणशीलता का क्षेत्र बदलता है इसलिए उसके प्रश्न बदलते हैं।
श्रीकान्त वर्मा की काव्य-यात्रा बींसवीं शताब्दी में कविता का स्वभाव खोजने की अनथक यात्रा है। इस यात्रा में वे लहूलुहान होते हैं। खीजते हैं, चिढते हैं, तिलमिलाते हैं, स्वयं महानगर के घर (यानी गाँव) जाने को छटपटाते हैं,
अब मैं घर जाहता हूँ।
लेकिन कहीं ठौर नहीं पाते। मैक्सिकन उपन्यास कर्लोस फियान्तेस ने कहीं लिखा है कि साहित्य का सत्य उसके सत्य की खोज के विविरण में निहित है। इसी तरह श्रीकान्त वर्मा की कविता का स्वभाव उनका आधुनिक कविता मात्र के स्वभाव की खोज में निहित है। इसलिए उनकी कविता की सुघड़ता और लड़खड़ाहट, उसकी सुन्दरता और विद्रूपता, उसकी मन्त्रात्मकता और उसका गाली हो जाना (‘मैं लिखता नहीं कविता ईजाद करता हूँ गाली’), उसका प्रकृति वर्णन और उसकी अकूत घृणा सारा कुछ उनको कविता की इस खोज का वैविध्यपूर्ण विवरण है कि उनके युग में कविता का क्या स्वभाव हो। इस कविता का स्वभाव कविता के स्वभाव की तलाश से बुना जाता है।
कविता कर्तव्यवश कुछ नहीं करती, स्वभाववश बहुत कुछ करती है। हर युग की कविता का स्वभाव बदलता है, उसकी ग्रहणशीलता का क्षेत्र बदलता है इसलिए उसके प्रश्न बदलते हैं।
श्रीकान्त वर्मा की काव्य-यात्रा बींसवीं शताब्दी में कविता का स्वभाव खोजने की अनथक यात्रा है। इस यात्रा में वे लहूलुहान होते हैं। खीजते हैं, चिढते हैं, तिलमिलाते हैं, स्वयं महानगर के घर (यानी गाँव) जाने को छटपटाते हैं,
अब मैं घर जाहता हूँ।
लेकिन कहीं ठौर नहीं पाते। मैक्सिकन उपन्यास कर्लोस फियान्तेस ने कहीं लिखा है कि साहित्य का सत्य उसके सत्य की खोज के विविरण में निहित है। इसी तरह श्रीकान्त वर्मा की कविता का स्वभाव उनका आधुनिक कविता मात्र के स्वभाव की खोज में निहित है। इसलिए उनकी कविता की सुघड़ता और लड़खड़ाहट, उसकी सुन्दरता और विद्रूपता, उसकी मन्त्रात्मकता और उसका गाली हो जाना (‘मैं लिखता नहीं कविता ईजाद करता हूँ गाली’), उसका प्रकृति वर्णन और उसकी अकूत घृणा सारा कुछ उनको कविता की इस खोज का वैविध्यपूर्ण विवरण है कि उनके युग में कविता का क्या स्वभाव हो। इस कविता का स्वभाव कविता के स्वभाव की तलाश से बुना जाता है।
3
श्रीकान्त वर्मा की कविता-यात्रा ‘भटका मेघ’ से शुरू
होकर
‘मायादर्पण’, ‘दिनारम्भ’ और
‘जलसाघर’
से होते हुए ‘मगध’ और ‘गरुण किसने देखा
है’ तक जा
पहुँचती है। ‘भटका मेघ’ की कुछ करने की बल्कि कर
गुजरने की
बेचैनी (मैं हारा नहीं पिता। मुझको आशीर्वाद दो माता लड़ने का।
उस
दिन के लिए लड़ूँ। जिस दिन जीवन न किसी माँ को बोझ बने।)
‘मायादर्पण’ और ‘दिनारम्भ’ और
‘जलसाघर’ में आकर आधुनिक नागर भारतीय के
‘समकालीन भूगोल
के नरक’ में विचलित है भटकती है, सरल रास्तों को समाधान मान
लेने की
जगह हर समाधान को प्रश्नांचित करती है। यहाँ अन्तहीन प्रश्नांकनों की झड़ी
लगी हुई है। लेकिन सिर्फ दूसरों को ही नहीं, खुद को भी लगातार कटघरे में
खड़ा किया जा रहा है। यहाँ नायक को प्रतिनायक से और प्रतिनायक को नायक से
छलनी किया जा रहा है।
नायक नायक नहीं, प्रतिनायक प्रतिनायक नहीं। दोनों एक दूसरे में इस तरह गड्डमड्ड हो गए हैं कि कैसी भी काव्य-शल्यक्रिया से उनको अलगाना दोंनों को रक्त में डुबोना है। श्रीकान्त वही करते है। वे बीसवीं शती में खड़े होकर अपनी आत्मा के मंच पर अपने भीतर के नायक और प्रतिनायक को प्रश्नों और समाधानों को एक दूसरे के हाथों रक्तरंजित होते देखते हैं। लेकिन यहाँ याद रहे कि इस खेल में सबसे अधिक चोट उस ‘आत्मा’ को लगती है जहाँ यह नाट्य चल रहा है। ‘मगध’ पहुँचते-पहुँचते श्रीकान्त वर्मा की यात्रा बेचैनी, विह्लवलता, हड़बड़ी आदि को तज कर अपने प्रश्नों को समकालीन मनुष्य के संदर्भ में उठाने की जगह मनुष्य मात्र के सन्दर्भ में उठाने लगते हैं। समकालीन मनुष्य महज़ ‘समकाल’ की रचना नहीं शताब्दियों का सृजन है। उसके आस्तित्तविक प्रश्नों का सामना करने के लिए जितनी वर्तमान के परीक्षण की आवश्यकता है, उतनी ही उसके अतीत की छानबीन की भी। इस छानबीन को करने की अनोखी विधी ईजाद करते हैं एक ही कविता के भीतर कभी अतीत में खड़े होकर वर्तमान को देखने और कभी वर्तमान में स्थित रहकर अतीत को निखारने की विधि। यह हिन्दी कविता में लेखक की विधि का अविष्कार है।
नायक नायक नहीं, प्रतिनायक प्रतिनायक नहीं। दोनों एक दूसरे में इस तरह गड्डमड्ड हो गए हैं कि कैसी भी काव्य-शल्यक्रिया से उनको अलगाना दोंनों को रक्त में डुबोना है। श्रीकान्त वही करते है। वे बीसवीं शती में खड़े होकर अपनी आत्मा के मंच पर अपने भीतर के नायक और प्रतिनायक को प्रश्नों और समाधानों को एक दूसरे के हाथों रक्तरंजित होते देखते हैं। लेकिन यहाँ याद रहे कि इस खेल में सबसे अधिक चोट उस ‘आत्मा’ को लगती है जहाँ यह नाट्य चल रहा है। ‘मगध’ पहुँचते-पहुँचते श्रीकान्त वर्मा की यात्रा बेचैनी, विह्लवलता, हड़बड़ी आदि को तज कर अपने प्रश्नों को समकालीन मनुष्य के संदर्भ में उठाने की जगह मनुष्य मात्र के सन्दर्भ में उठाने लगते हैं। समकालीन मनुष्य महज़ ‘समकाल’ की रचना नहीं शताब्दियों का सृजन है। उसके आस्तित्तविक प्रश्नों का सामना करने के लिए जितनी वर्तमान के परीक्षण की आवश्यकता है, उतनी ही उसके अतीत की छानबीन की भी। इस छानबीन को करने की अनोखी विधी ईजाद करते हैं एक ही कविता के भीतर कभी अतीत में खड़े होकर वर्तमान को देखने और कभी वर्तमान में स्थित रहकर अतीत को निखारने की विधि। यह हिन्दी कविता में लेखक की विधि का अविष्कार है।
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