बहुभागीय पुस्तकें >> महासमर - अधिकार महासमर - अधिकारनरेन्द्र कोहली
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महाभारत की कथा भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती है। नरेन्द्र कोहली ने उसे ही अपने उपन्यास का आधार बनाया है। ‘महासमर’ की कथा मनुष्य के उस अनवरत युद्ध की कथा है, जो उसे अपने बाहरी और भीतरी शत्रुओं के साथ निरंतर करना पड़ता है।
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Adhikaar - A hindi book by Narendra Kohli
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रख्यात कथाओं का पुनर्सृजन उन कथाओं का संशोधन अथवा पुनर्लेखन नहीं होता वह उनका युग सापेक्ष अनुकूलन मात्र भी नहीं होता। पीपल के बीज से उत्पन्न प्रत्येक वृक्ष पीपल होते हुए भी, स्वयं में एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है, वह न किसी का अनुसरण है, न किसी का नया संस्करण ! मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है। मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार लेखक अपने गली मुहल्ले, नगर देश, समाचार-पत्रों तथा समकालीन इतिहास में आबद्ध होकर भी करता है, और मानव सभ्यता तथा संस्कृति की सम्पूर्ण जातीय स्मृति के सम्मुख बैठकर भी। पौराणिक उपन्यासकार के ‘प्राचीन’ में घिरकर प्रगति के प्रति अंधे हो जाने की संभावना उतनी ही घातक है, जितनी समकालीन लेखक की समसामयिक पत्रकारिता में बंदी हो एक खण्ड सत्य को पूर्ण सत्य मानने की मूढ़ता। सृजक साहित्यकार का सत्य अपने काल-खण्ड का अंग होते हुए भी, खंडों के अतिक्रमण का लक्ष्य लेकर चलता है। नरेन्द्र कोहली का नया उपन्यास है ‘महासमर’ घटनाएँ तथा पात्र महाभारत से संबद्ध हैं, किन्तु यह कृति का एक उपन्यास है-आज के एक लेखक का मौलिक सृजन।
अधिकार
संध्या समय भी युधिष्ठिर को अन्यमनस्क-सा कक्ष में बैठा देख कुंती को अच्छा नहीं लगा।
‘‘तुम बाहर खेलने क्यों नहीं जाते युधिष्ठिर ?’’ कुंती बोली, ‘‘दिन-भर गुरु-गंभीर बने, कक्ष में घुसे बैठे रहते हो। तुम तो अभी से वृद्ध हो गये लगते हो।’’
‘‘जाता तो हूँ !’’ युधिष्ठिर ने जैसे अपना पक्ष प्रस्तुत किया, ‘‘आचार्य के पास जाता हूँ। वे जिन शस्त्रों का अभ्यास कराते हैं, करता हूँ। जो शस्त्र-शिक्षा देते हैं, उसे ग्रहण करता हूँ।’’
‘‘किंतु इस समय जब सारे बालक उद्यान में खेल रहे हैं, तुम क्यों भीतर घुसे बैठे हो ?’’
युधिष्ठिर ने उत्तर में कुछ कहा नहीं, केवल एक बार माँ की ओर देखा-भर; और सिर झुका लिया।
कुंती युधिष्ठिर की उस दृष्टि को देखकर जैसे स्तंभित रह गई: क्या था उन आँखों में ? वे तो किसी बालक की अबोध उल्लास से आकंठ निमज्जित आँखें नही थीं। उन आँखों में तो किसी प्रौढ़ की मूक पीड़ा थी। उनमें आक्रोश भी था, प्रतिरोध भी; और अपनी असहायता की एक निरीह स्वीकृति भी !
‘‘क्या बात है पुत्र ?’’ कुंती के मन की करुणा जागी। उसने अनेक बार देखा था कि उसे अपना बड़े-से-बड़ा दुःख भी इस प्रकार विचलित नहीं कर जाता था; किंतु अपने इस अधिकार-विहीन अभिभावक पुत्र युधिष्ठिर की यह निरीह मूक पीड़ा उसे कहीं भीतर तक बहुत गहरे तड़पा जाती थी।
‘‘कोई विशेष बात नहीं है माँ !’’ युधिष्ठिर ने मुख फिरा लिया।
‘‘बात कैसे नहीं है !’’ कुंती उसके निकट चली आई। उसने युधिष्ठिर के मुख को अपनी हथेलियों में थाम, अपनी ओर फेरा। उसकी आँखों में सीधे देखते हुए बोली, ‘‘सदा सत्य बोलो पुत्र ! अप्रिय भी हो तो सत्य ही बोलो। माँ को पीड़ा पहुँचती हो, तो भी सत्य ही बोलो ! झूठ से समस्या का समाधान नहीं होता, उसकी उपेक्षा होती है। कपोत अपनी आँखें बंद कर ले तो मार्जार का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता।’’
युधिष्ठिर जैसे तड़पकर उठ बैठा, ‘‘मैं झूठ नहीं बोलता माँ !’’
‘‘मैं तुम्हारा विश्वास करती हूँ पुत्र ! जिस क्षण कुंती को अपने पुत्रों पर विश्वास नहीं रह जायेगा, उसी क्षण उसके जीवन में कोई सार भी नहीं रह जायेगा।’’ कुंती ने रुककर पुत्र को देखा, ‘‘तुमने कहा कि कोई बात नहीं है। तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो।’’
युधिष्ठिर ने निश्छल और विश्वस्त दृष्टि से माँ की ओर देखा, ‘‘मैंने कहा था, कोई विशेष बात नहीं है।’’ और अकस्मात् ही जैसे उसके प्रतिरोध का बाँध ध्वस्त हो गया और उसका आक्रोश मार्ग पाकर प्रवाहित हो चला, ‘‘सुयोधन कहता है कि प्रासाद का उद्यान उसके तथा उसके भाइयों के खेलने के लिए है। उसके पिता ने यदि कृपापूर्वक हमें प्रासाद में ठहरने की अनुमति दे दी है, तो इसका अर्थ यह तो नहीं है कि हम सारे प्रासाद के स्वामी हो गये कि स्वेच्छा से जहाँ-कहीं घूमते फिरें...हमें अपनी मर्यादा पहचाननी चाहिए।’’ उसने रुककर माँ को देखा, ‘‘अब बताओ ! यह कोई ऐसी बात है, जिसे विशेष रूप से उल्लेखनीय मानकर मैं तुम्हें बताता।...’’
कुंती स्तंभित रह गई। यह बालक इतने बड़े अपमान को इस प्रकार चुप-चाप पी गया। माँ को बताना भी नहीं चाहता !...
और सहसा युधिष्ठिर ने आकर कुंती का हाथ पकड़ लिया, ‘‘हम अपने घर कब जायेंगे माँ ?’’
कुंती को लगा, उसकी आँखों में अश्रु भर आये हैं और यदि उसने स्वयं को नियंत्रित नहीं किया तो वे टपक पड़ेंगे।
‘‘कौन-सा घर पुत्र ?’’
युधिष्ठिर ने हतप्रभ होकर माँ की ओर देखा, ‘‘क्या हमारा कोई घर नहीं है ?’’
कुंती ने उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। वह तो जैसे स्वयं ही अपने-आपसे युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर माँग रही थी: कौन-सा घर है उसका अपना ? उसके जनक का घर ? उसके पिता का घर ? उसके पति का घर ?...क्या कोई घर उसका अपना नहीं है ?
‘‘इससे तो अच्छा है माँ !’’ युधिष्ठिर ने उसका हाथ पकड़कर झकझोरा, ‘‘हम लोग ऋष्य श्रृंग के आश्रम में लौट जाएँ। वहाँ कभी किसी ने हमें यह तो नहीं कहा कि वह आश्रम हमारा नहीं है। कुटीर हमारा नहीं है, क्षेत्र हमारा नहीं है, या सरोवर हमारा नहीं है। तुम हमे हस्तिनापुर क्यों ले आईं माँ ! जहाँ कुछ भी हमारा नहीं है ?’’
सहसा ही कुंती अपनी हताशा से उबरी।...उसके युधिष्ठिर में रजोगुण का आधिक्य नहीं है। वह झगड़कर किसी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं जताएगा। अधिकार के विवाद में वह त्याग को ही अंगीकार करेगा।....यह स्थिति ठीक नहीं है। उसे अपने अधिकार के प्रति सचेत करना होगा।...
‘‘यही हमारा घर है पुत्र ! हमें और कहीं नहीं जाना है।’’ सहसा उसका स्वर आदेशात्मक हो गया, ‘‘हस्तिनापुर तुम्हारा है। तुम कुरु साम्राज्य के युवराज हो। तुम कहाँ जाने की बात कर रहे हो ?’’
युधिष्ठिर को तत्काल, माँ की बात का कोई उत्तर नहीं सूझा। वह दृष्टि में एक शून्य लिये, माँ की ओर देखता रह गया। और फिर जैसे उसे कुछ सूझ गया, ‘‘यदि हस्तिनापुर हमारा है, तो हम अपने लिए एक नया प्रासाद क्यों नहीं बनवा लेते ? हम सुयोधन के प्रासाद में क्यों रह रहे हैं ? वे लोग हमारे यहाँ रहने से असंतुष्ट हैं। उन्हें स्थान का अभाव लगता है। उन्हें असुविधा होती होगी माँ !’’
कुंती के मन में आया कि युधिष्ठिर को वह अपनी मुजाओं में समेट ले। उसे अपने वक्ष से लगा ले। उसके मस्तक का चुंबन कर कहे, ‘‘चिरायु हो मेरे लाल ! तुमने कितना उदार हृदय पाया है।’’
किंतु उसकी भुजाएँ अपने स्थान से हिली नहीं। मन को उसने दृढ़ किया और बोली, ‘‘यह हस्तिनापुर का राजप्रासाद है पुत्र। हस्तिनापुर का राजा इसी में रहता है। तपस्या के लिए जाने से पूर्व मैं और तुम्हारे पिता इसी प्रासाद में रहते थे। अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में तुम्हें इसी प्रासाद में रहना है। हस्तिनापुर के युवराज को यहाँ से हटकर कहीं नहीं जाना है। भावी सम्राट् यदि अपना प्रासाद भी छोड़ देगा तो राज्य त्यागने में उसे कितना समय लगेगा ?’’
‘‘तुम ठीक कहती हो माँ ! किंतु अब यहाँ राजा धृतराष्ट्र रहते हैं। एक प्रासाद के लिए यह सब....।’’
‘‘बात प्रासाद की नहीं, अधिकार की है पुत्र !’’ कुंती बोली, ‘‘मैं तुम्हारे मन में प्रासाद का लोभ नहीं जगा रही ! मैं तुम्हें अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना सिखा रही हूँ।....तुम्हारे पितृत्य राजा नहीं हैं, मात्र राज्यपाल हैं। राजा तुम्हारे पिता थे और अब तुम होगे।’’
युधिष्ठिर ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह मन-ही-मन सोच रहा था कि यदि माँ यह कहती कि हमारे पास रहने के लिए दूसरा कोई स्थान नहीं है, तो संघर्ष की बात उसकी समझ में भी आती। पर...
‘‘अच्छा ! यह बताओ।’’ थोड़ी देर पश्चात् कुंती स्वयं ही बोली, ‘‘शिक्षण के समय कृपाचार्य का व्यवहार तुम्हारे साथ कैसा है ? कहीं वे भी तो यह नहीं कहते कि तुम अध्ययन के लिए यहाँ क्यों आए हो ?’’
‘‘आचार्य का व्यवहार...।’’ युधिष्ठिर जैसे निर्णय नहीं कर पा रहा था, ‘‘उन्हें मुझसे कोई विरोध नहीं लगता।’’ वह फिर रुका, ‘‘किंतु माँ ! ऋष्य श्रृंग के आचार्य और ही प्रकार के थे। कृपाचार्य वैसे तो नहीं हैं।’’
‘‘मैं समझती हूँ पुत्र !’’ कुंती धीरे से बोली, ‘‘तुम जाओ। संध्या समय बाहर खुली वायु में खेलना चाहिए। कक्ष के भीतर घुसे रहना, तुम्हारे स्वास्थ के लिए अच्छा नहीं है।’’
युधिष्ठिर उठा और जैसे बलात् स्वयं को घसीटकर बाहर ले गया।
कुंती उसे देखती रही और सोचती रही: कहीं वह इन नन्हे कोमल कंधों पर उनके सामर्थ्य से भारी बोझ तो नहीं डाल रही ? किंतु यदि वह बोझ नहीं डालेगी, तो ये कंधे बोझ उठाने के अभ्यस्त कैसे होंगे ? वे दृढ़ कैसे होगे ?...युधिष्ठिर का स्वभाव वह जानती है। वह किसी से कुछ लेना नहीं चाहता, देना ही चाहता है। किंतु देने के लिए भी तो स्वयं अपने पास बहुत कुछ होना चाहिए...
तभी कहीं से दौड़ता हुआ भीम आया। स्वेद से सारा शरीर गीला। वह हाँफ रहा था। निश्चय ही कहीं खेल रहा होगा। खेल से कभी उसका मन नहीं भरता। वह थकता भी तो नहीं है।....एक दिन कौतूहल में, मात्र परीक्षा लेने के लिए, खेलने के लिए जाते हुए भीम को रोक लिया था, ‘‘देखो ! यह नकुल बहुत रो रहा है। इसे थोड़ी देर बाहर टहला लाओ।’’
कुंती का विचार था कि वह इसका विरोध करेगा। हठ करेगा कि उसे खेलना है। ऐसे में वह नकुल को कहाँ ले जाएगा...या कदाचित् वह कहे कि ढाई वर्षों के नकुल को वह कैसे उठाएगा। वह भारी है....या कि उसे उठाने में उसे असुविधा होगी।....
किंतु भीम ने उसके द्वारा कल्पित एक भी उत्तर नहीं दिया। उसने हँसते हुए दोनों हाथ बढ़ा दिए, ‘‘आ जा नकुल ! बैठा-बैठा आलसी मत बन ! चल, कुछ व्यायाम कर आएँ।’’
कुंती चकित रह गई। एक बार तो मन में आया: भीम को रोक दे; बहुत हो चुकी परीक्षा। कहीं ऐसा न हो कि नकुल को गोद में उठाए-उठाए, भीम भी लुढ़क जाए। दोनों के नाक-मुँह और घुटने छिल जाएँ। भीम इतना चंचल है। नकुल को गोद में लेकर भी वह शांति से तो बैठेगा नहीं...किंतु दूसरे ही क्षण उसने अपने मन को दृढ़ किया। एक बार देखे तो सही कि भीम करता क्या है।...
भीम, नकुल को लेकर मुड़ा तो उसकी दृष्टि सहदेव पर पड़ी। बोला, ‘‘तू घर में बैठा क्या करेगा भाई ! तू भी आ जा !....’’
और जब तक कुंती आगे बढ़कर उसे रोकती, उसने नकुल को उठाए-उठाए ही थोड़ा झुककर दूसरे हाथ में सहदेव को उठा लिया। कुंती जहाँ की तहाँ रुक गई। भीम ने दोनों बालकों को उठाने से तनिक भी असुविधा नहीं हुई थी, वह सहज रूप से मुस्कराकर अर्जुन से कह रहा था, ‘‘अज्जू ! तू मेरे कंधों पर बैठ जा। मैं तुम तीनों को उठाकर उद्यान के दस चक्कर लगाऊँगा।’’
कुंती को प्रसन्नता हुई। भीम, वस्तुतः भी था। वह ढाई वर्ष बड़े युधिष्ठिर के बराबर लंबा हो चुका था, और उससे अधिक शक्तिशाली दिखाई देता था। यदि कुंती उसे न रोके तो निश्चय ही, वह नकुल और सहदेव को लेकर बाहर उद्यान में चला जाएगा....
‘‘रुको भीम !’’
भीम ने रुककर माँ की ओर देखा।
‘‘बच्चों को गोद से उतार दो।’’
‘‘अभी तो तुम कह रही थीं माँ ! कि इन्हें बाहर घुमा लाऊ।’’
‘‘ठीक है। कह रही थी ! पर अब तुमसे एक बात पूछनी है।’’
‘‘तो पूछो !’’
‘‘अरे तो ऐसे ही खड़ा रहेगा क्या-दोनों बच्चों को उठाए हुए। थक जाएगा।’’
‘‘यह तो मेरा व्यायाम है।’’ भीम हँसा, ‘‘मैं तो पाठशाला में भी सबसे अधिक बोझ उठाता हूँ। बोझ उठाकर दौड़ सकता हूँ।’’
‘‘वह सब ठीक है।’’कुंती बोली, ‘‘पर तू इनको उतारकर नीचे बैठ। तब ही तुझसे बात करूँगी।’’
‘‘अरे माँ !’’ भीम ने अपनी अनिच्छा जताई और नकुल तथा सहदेव को उतारकर आसन पर बैठा दिया, ‘‘पूछो ! क्या पूछ रही हो !’’
उस दिन तो कुंती को उससे कुछ विशेष नहीं पूछना था, किंतु आज उसके मन में कुछ चुभते हुए प्रश्न थे।
भीम जल पीकर उल्टे पाँव लौटने लगा तो कुंती ने टोका, ‘‘भीम !’’
भीम ने माँ की ओर देखा।
‘‘तुम उद्यान में खेलते हो तो क्या सुयोधन तुम्हें भी रोकता है ?’’
‘‘हाँ !’’ भीम जैसे हुलसकर बोला, ‘‘उसने मुझसे कहा कि उद्यान उसके और उसके भाइयों के खेलने के लिए है। मैं वहाँ नहीं खेल सकता।’’
‘‘तो तुमने क्या कहा ?’’
‘‘मैंने कहा कि मैं तो खेलूँगा। वह यदि रोक सके तो रोक ले। यह कहकर मैं दौड़ा-वेग से माँ ! पवन वेग से !....’’
कुंती कल्पना कर रही थी कि वह किस वेग से दौड़ा होगा। वह तो है ही वायु-पुत्र !
‘‘फिर ?’’
‘‘मैं दौड़ा माँ ! उसने अपने भाइयों को संकेत किया। भाई भी तो उसके इतने सारे हैं, जैसे कोई सेना हो।...उसके भाइयों ने एक-दूसरे के हाथ पकड़ लिये और मेरा मार्ग रोककर खड़े हो गए। मैंने उनके निकट पहुँचते ही अपनी भुजाएँ फैला दीं। मेरे वेग से उनका बंधन ढीला पड़ गया। किंतु मैंने अपनी एक-एक भुजा में एक-एक सुयोधन-भ्राता को थाम लिया था। वे थोड़ी देर तक तो मेरे साथ घिसटे। फिर मैंने उन दोनों के सिर एक-दूसरे के साथ बजाए और उन्हें वहीं लुढ़कता-पुढ़कता छोड़कर भाग गया। जब पलटकर उनकी ओर पुनः आया तो सुयोधन ने उन्हें बहुत बुलाया, बहुत उकसाया; किंतु कोई भी मेरे मार्ग में नहीं आया।’’ भीम मन खोलकर हँसा।
‘‘सुयोधन ने भी नहीं रोका तुझे ?’’
‘‘वह स्वयं तो साहस ही नहीं करता। बस अपने भाइयों को आदेश देता रहता है। वह मुझे रोकने का साहस नहीं कर सकता।’’
कुंती भीम की बात से संतुष्ट हुई; किंतु उसका आशंकित मन पूछे बिना नहीं रह सका, ‘‘कोई तेरे साथ खेलता भी है, या तू अकेला ही सारे उद्यान में डोलता फिरता है !’’
‘‘नहीं ! मेरे मित्र हैं माँ ! वह युयुत्सु है न ! उसके कई साथी हैं। कई बार विकर्ण भी हमारे साथ खेलता है।....और माँ ! कोई न भी खेले मेरे साथ, तो क्या ! मैं अकेला भी बहुत सारे खेल खेल सकता हूँ।’’
‘‘अकेला क्या खेलेगा तूँ ?’’
‘‘मैं पवन के साथ स्पर्धा करता हूँ ! ’’ भीम बोला, ‘‘देखता हूँ कि मैं बड़ा धावक हूँ या वह ?’’
‘‘तो क्या सिद्ध हुआ ?’’
‘‘वेग तो मेरा ही उससे अधिक है।’’ भीम बोला, ‘‘किंतु जाने कैसे वह मुझसे पहले ही गंतव्य पर पहुँच जाता है।’’
‘‘तू तो पगला है एकदम !’’ कुंती हँसी, ‘‘क्या तू नहीं जानता कि पवन तो प्रत्येक स्थान पर पहले से ही विद्यमान है।’’
‘‘ओह !’’ भीम का निश्चल अट्टहास गूँजा, ‘‘तो फिर पवन के साथ स्पर्धा ही व्यर्थ है।’’
‘‘और कौन-सी क्रीड़ाएँ हैं तेरी-अकेले की ?’’
‘‘कुछ नहीं सूझता तो मैं वृक्षों को हिलाने का प्रयत्न करता हूँ। उन्हें हिला-कर उनके फल गिराने का। उन्हें जड़ से उखाड़ने का।’’
‘‘क्या किसी पेड़ को उखाड़ने में तू सफल हुआ ?’’
‘‘नहीं !’’ भीम फिर उच्च स्वर में हँसा, ‘‘किंतु आज तक कोई वृक्ष भी मुझे जड़ से नहीं उखाड़ पाया माँ !’’
‘‘कैसा बुद्धू है तू !’’ कुंती हँसी, ‘‘तेरी जड़ें हैं ही कहाँ, जो कोई तुझे जड़ से उखाड़ सके।’’
‘‘बुद्धू ! तुम मुझे बुद्धू कहती हो।’’ भीम हुमककर बोला, ‘‘तुमने ध्यान नहीं दिया माँ ! कैसा चतुर हूँ मैं कि ऐसा खेल चुना है, जिसमें कभी मैं पराजित हो ही नहीं सकता। जब कभी उखड़ा, पेड़ ही जड़ से उखड़ेगा, मैं तो उखड़ सकता ही नहीं !’’
कुंती कुछ बोली नहीं, सम्मोहित-सी अपने इस चिंताशून्य उन्मुक्त पुत्र को देखती रही। ऐसा ही कहीं युधिष्ठिर भी हो पाता तो !....
‘‘तेरे इन खेलों के नियम कौन बनाता है ?’’ क्षण-भर रुककर कुंती ने पूछा।
‘‘मैं स्वयं बनाता हूँ !’’
‘‘सब लोग अपने-अपने नियम बनाने लगेगें तो खेल संभव कैसे होंगे ?’’ कुंती ने उसे उकसाया।
‘‘धोती बाँधने के सब अपने-अपने नियम बना लेते हैं, तो भी सबके लिए धोती बाँधना संभव होता है न !’’
कुंती चकित नेत्रों से उसे देखती रही, ‘‘धोती बाँधने का नियम ?’’
‘‘हाँ !’’ भीम बोला, ‘‘मेरी धोती एड़ी से बीस अंगुल ऊँची होती है, और सुयोधन की चार अंगुल ! वह मानता है कि नियमतः धोती एड़ी से चार अंगुल ही ऊँची होनी चाहिए। इसलिए वह मुझे गँवार कहता है और मैं उसे मूर्ख ! वह इतना भी नहीं समझता कि एड़ी तक धोती बाँधकर, व्यक्ति न भाग सकता है, न दौड़ सकता है, न खेल सकता है !’’ सहसा भीम जैसे निद्रा से जागा, ‘‘अरे मुझे तो खेलने जाना है। मैं तुम्हारी बातों में ही उलझ गया। तुम्हारी बातों की मोहिनी से बचना कठिन है माँ !’’
वह भागता हुआ बाहर निकल गया।
भीम चला गया और उसे कदाचित् स्मरण भी नहीं रहा कि वह माँ से क्या कहकर आया है; किंतु कुंती को वह वैसे ही झकझोर गया, जैसे वह अपनी शक्ति को परखने के लिए वृक्षों को झकझोरा करता है...
हस्तिनापुर में प्रवेश से पहले, ‘वर्धमान’ द्वार के बाहर ही, यात्रा से थके आए, धूल-धूसरित उसके पुत्रों को देखकर, सुयोधन ने उन्हें ‘गंदा’ कहा था, उसकी वेश-भूषा के प्रति अपनी वितृष्णा प्रकट की थी। वह आज भी भीम को गँवार कहता है। युधिष्ठिर और अर्जुन को क्या कहता होगा ! नकुल और सहदेव तो अभी छोटे हैं...वह स्वयं को इन सबसे श्रेष्ठ मानता है, इसलिए कि वह हस्तिनापुर के राजसी वैभव में पला था और कुंती के पुत्र आश्रम के सात्त्विक वातावरण में वेश-भूषा अथवा आडंबर के अन्य उपकरणों के प्रति निस्पृह रहे हैं....
कुछ दिन पूर्व सुयोधन अपने भाइयों, मित्रों और कुछ सेवकों के साथ इधर आ निकला था। जाने वह आगमन आकस्मिक था, वह किसी कार्यवश आया था, अथवा मात्र टीका-टिप्पणी करने की असभ्य इच्छा...
कुंती उस समय अपने बच्चों को भोजन करा रही थी। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन अपने-अपने आसनों पर बैठे, चौकियों पर अपने थाल रखे, स्वतंत्र रूप से अपना भोजन कर रहे थे। नकुल और सहदेव को अपनी गोद में लिये, कुंती बारी-बारी कौर खिला रही थी।
‘‘अरे ! इनके पास कोई दास-दासी भी नहीं है, जो इनको भोजन परोस सके।’’ उस झुंड में से किसी ने कहा था।
‘‘दास-दासी !’’ सुयोधन निर्द्वंद्व भाव से बोला था, ‘‘पिताजी ने कृपा न की होती तो ये लोग पत्तलों में भोजन कर रहे होते। जिस समय हस्तिनापुर आए थे, क्या था इनके पास ! वस्त्र भी तो वे ही पहन रखे थे, जो पिताजी ने हस्तिनापुर से भिजवाए थे। सर्वथा कंगले थे, ये वनवासी।....’’
वे लोग चले गए थे और कुंती को कई रातों तक नींद नहीं आई थी।...कौन बोल रहा था वह सब, सुयोधन की जिह्ना से ? स्वयं बालक सुयोधन ? या उसकी जिह्ना से किसी और के शब्द उच्चरित होते हैं ? इतने से बालक के मन में ये भाव कैसे आते होंगे ? उसका तो युधिष्ठिर तक कभी इस प्रकार की बात न किसी के विषय में सोच सकता है, न कह सकता है। उन्होंने तो सदा ज्ञान, चरित्र और वय का सम्मान करना सीखा है। धन का होना, न होना-सुविधा और असुविधा का कारण हो सकता है, मान-अपमान का नहीं।...और सुयोधन यह कैसे मान बैठा है कि यह सब उसके पिता की सम्पत्ति है ? उसे यह क्यों नहीं बताया गया कि यह कौरवों की संपत्ति है, जिनके सम्राट् पांडु थे-और यह उसी पांडु का परिवार है।...क्यों उसे बताया नहीं गया कि संपत्ति का उत्तराधिकारी युधिष्ठिर है। वे लोग जिस संपत्ति का भोग कर रहे हैं, वह युधिष्ठिर की है; जिस अधिकार का प्रयोग कर रहे हैं, वह अधिकार युधिष्ठिर का है !...अपने राजप्रसाद में बैठे भावी सम्राट् से कहा जा रहा है कि वह किसी की दया पर जीवनयापन कर रहा है...क्या धृतराष्ट्र और गांधारी जानते हैं कि उनका सुपुत्र क्या कर रहा है, क्या कह रहा है ?...
गांधारी की एक दासी भीम को खोजती हुई आई थी, ‘‘कहाँ है वह मोटा लड़का-भीम।’’
कुंती को भीम के लिए यह विशेषण अच्छा नहीं लगा। पर कदाचित् दासी को इसकी चिंता नहीं थी। उसने तो कुंती को भी किसी सम्मानजनक शब्द से संबोधित नहीं किया था। ‘महारानी’ अथवा राजपरिवार-संबंधित किसी अन्य आदरसूचक संबोधन की आवश्यकता तो उसने नहीं ही समझी थी; उसने तो ‘आर्ये’ या ‘भद्रे’ जैसे सामान्य संबोधन भी अनावश्यक मान लिये थे। कुंती स्तब्ध थी: राजप्रासाद की एक साधारण दासी को इतना साहस कैसे हुआ कि वह भूतपूर्व सम्राट् की पत्नी तथा भावी सम्राट् की माता की इस प्रकार अवज्ञा करे। यह न तो उसका अज्ञान हो सकता है, न अपना दुस्साहस।...वैसे उसे इसकी आवश्यकता भी क्या है ? जिसकी जिह्ना दिन-भर ‘स्वामी’, ‘अन्न-दाता’ आदि सबोधनों को रटती रहती हो, उसे कुंती को इस प्रकार अपमानित करके क्या मिलेगा ?...यह अवश्य ही किसी और की इच्छा है ; और दासी के पीछे उसी व्यक्ति का बल भी है। कौन है वह ?
कुंती ने अपना आक्रोश प्रकट नहीं होने दिया। शांत स्वर में बोली, ‘‘किसे ढूँढ रही हो तुम-किसी मोटे लड़के को अथवा भीम को ?’’
‘‘क्यों ? भीम मोटा नहीं है क्या ?’’
‘‘नहीं !’’ कुंती स्थिर वाणी में बोली, ‘‘वह बलिष्ठ है और इस वय में भी तुम जैसी अशिष्ट दासियों की ग्रीवा मरोड़ देने में समर्थ है।’’
दासी न भयभीत हुई, न लज्जित। वह मौन भी नहीं रही। तुनककर बोली, ‘‘जानती हूँ ! अब कोई भी सुरक्षित नहीं है यहाँ। किसी की ग्रीवा मोड़ी जायेगी और किसी का सिर फोड़ा जायेगा। तुम लोग आ जो गये हो।’’
‘‘अपनी मर्यादा के भीतर रह।’’ कुंती का स्वर कुछ प्रखर हुआ।
‘‘मर्यादा ! ऊँह !’’ दासी और भी ऐंठकर बोली, ‘‘जाने क्या समझते हैं स्वयं को ! कहाँ से आकर गले पड़ गये ; और स्वयं को स्वामी ही समझने लग गये ! राजप्रासाद की सारी मर्यादाएँ ही नष्ट हो गई।’’ उसने घूरकर कुंती को देखा, ‘‘मैं कहे देती हूँ, अपने उस मोटे लड़के को समझा लो। अब यदि कभी उसने मेरे सुशासन पर हाथ उठाया, तो मैं भी उसका सिर फोड़ दूँगी। किसी की चिंता नहीं है मुझे।’’
‘‘तुम सुशासन की दासी हो ?’’ कुंती का स्वर धीमा हो गया।
‘‘मैं उसकी धात्री हूँ। दूध पिलाया है उसको मैंने अपना। उसका रक्त बहते नहीं देख सकती। हाँ ! किसी गुमान में मत रहना।’’
दासी बड़ी ठसक से मुड़ी और चली गई। दासी चली गई और कुंती को दोहरी चिंता ने दबोच लिया: क्या सचमुच भीम ने सुशासन का सिर फोड़ दिया है ? कुंती के मन में गांधारी के पुत्रों के व्यवहार को लेकर चाहे कितना भी आक्रोश और विरोध हो ; किंतु यह उसने कभी नहीं चाहा कि उनमें इस प्रकार की शत्रुता पनपे कि वे एक-दूसरे के सिरफोड़ दें। इससे तो उनमें भाइयों का-सा स्नेह और सौहार्द कभी भी विकसित नहीं हो पाएगा। उल्टे दो पक्ष बन जायेंगे; वैर-विरोध बढ़ेगा। और यदि स्थिति मार-पीट की ही आई तो भीम किस-किससे लड़ेगा ? वे लोग तो अनेक हैं; फिर उनके दास-दासियाँ भी उनके साथ हैं। भीम के पक्ष से कौन लड़ेगा-युधिष्ठिर ? उसकी तो वैर-विरोध, लड़ाई-झगड़े में वैसे भी कोई रुचि नहीं है।...अर्जुन, नकुल और सहदेव अभी छोटे हैं।...बेचारा अकेला भीम किस-किससे लड़ेगा ?...पर यह भीम इतना ऊधम मचाता ही क्यों है ? इस प्रकार तो वह किसी-न-किसी झंझट में फँस ही जाएगा...
कुंती ऋष्य श्रृंग से अपने घर आई थी। किंतु यह उसका घर है क्या ? उसे चारों ओर अपने विरोधी-ही-विरोधी दिखाई पड़ते हैं।...एक सम्राट् पांडु के न रहने से संसार में उसका अपना कोई नहीं रहा। यदि वे होते तो कुंती के पुत्र इतने असुरक्षित होते ? इस दासी का इतना साहस होता कि आकर वह महारानी कुंती को अपमानित कर ऐसे धमका जाती, जैसे कोई किसी चांडाल को भी नहीं धमकाता...आज एक दासी ने इस प्रकार का व्यवहार किया है, कल दूसरी भी करेगी। और फिर... कुंती अपने ऊहा-पोह में बैठी रह गई: वह भीम की सुरक्षा का प्रबंध करे या उसके लौटने पर उसको धमकाए कि वह गांधारी के पुत्रों से न लड़ा करे ? किंतु क्या भीम सचमुच किसी से लड़ता है ? वह तो इतना अबोध है कि जैसे शुद्ध शैशव ही हो-सशरीर ! किसी से वैर नहीं, विरोध नहीं। सब कुछ क्रीड़ा ही क्रीड़ा है। वह तो जैसे निश्छल पवन का एक झकोरा है, जो एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। सदा गतिमान है। मार्ग में कोई आ जाये, तो वह दुलरा भी सकता है, धकिया भी सकता है। कुंती नहीं चाहती कि उसके मन में वैमन्स्य का अंकुर जड़ जमाये....
तभी अपनी सदा की मुद्रा में भीम भागता-दौड़ता आया: स्वेद से गीला और हाँफता हुआ, ‘‘माँ ! माँ ! जानती हो, आज सुशासन का सिर फट गया। उसे खेलना भी नहीं आता माँ ! दौड़ता भी है तो न धरती देखता है, न आकाश ! वन्य-शूकर के समान सिर झुकाकर भागता है और भागता ही चला जाता है। आज भी दौड़ा और वृक्ष की निचली शाखा से अपना सिर मार लिया। और फिर कितना रोया माँ !....’’
कुंती मुग्ध भाव से चुपचाप उसे देखती रही: वह सचमुच ही निर्दोष है अथवा झूठी कहानियाँ गढ़ने में दक्ष हो गया है ?
‘‘ऐसे क्या देख रही हो माँ ? क्या तुम्हें मेरा विश्वास नहीं है ?’’
‘‘तूने नहीं मारा सुशासन को ?’’
‘‘तुम बाहर खेलने क्यों नहीं जाते युधिष्ठिर ?’’ कुंती बोली, ‘‘दिन-भर गुरु-गंभीर बने, कक्ष में घुसे बैठे रहते हो। तुम तो अभी से वृद्ध हो गये लगते हो।’’
‘‘जाता तो हूँ !’’ युधिष्ठिर ने जैसे अपना पक्ष प्रस्तुत किया, ‘‘आचार्य के पास जाता हूँ। वे जिन शस्त्रों का अभ्यास कराते हैं, करता हूँ। जो शस्त्र-शिक्षा देते हैं, उसे ग्रहण करता हूँ।’’
‘‘किंतु इस समय जब सारे बालक उद्यान में खेल रहे हैं, तुम क्यों भीतर घुसे बैठे हो ?’’
युधिष्ठिर ने उत्तर में कुछ कहा नहीं, केवल एक बार माँ की ओर देखा-भर; और सिर झुका लिया।
कुंती युधिष्ठिर की उस दृष्टि को देखकर जैसे स्तंभित रह गई: क्या था उन आँखों में ? वे तो किसी बालक की अबोध उल्लास से आकंठ निमज्जित आँखें नही थीं। उन आँखों में तो किसी प्रौढ़ की मूक पीड़ा थी। उनमें आक्रोश भी था, प्रतिरोध भी; और अपनी असहायता की एक निरीह स्वीकृति भी !
‘‘क्या बात है पुत्र ?’’ कुंती के मन की करुणा जागी। उसने अनेक बार देखा था कि उसे अपना बड़े-से-बड़ा दुःख भी इस प्रकार विचलित नहीं कर जाता था; किंतु अपने इस अधिकार-विहीन अभिभावक पुत्र युधिष्ठिर की यह निरीह मूक पीड़ा उसे कहीं भीतर तक बहुत गहरे तड़पा जाती थी।
‘‘कोई विशेष बात नहीं है माँ !’’ युधिष्ठिर ने मुख फिरा लिया।
‘‘बात कैसे नहीं है !’’ कुंती उसके निकट चली आई। उसने युधिष्ठिर के मुख को अपनी हथेलियों में थाम, अपनी ओर फेरा। उसकी आँखों में सीधे देखते हुए बोली, ‘‘सदा सत्य बोलो पुत्र ! अप्रिय भी हो तो सत्य ही बोलो। माँ को पीड़ा पहुँचती हो, तो भी सत्य ही बोलो ! झूठ से समस्या का समाधान नहीं होता, उसकी उपेक्षा होती है। कपोत अपनी आँखें बंद कर ले तो मार्जार का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता।’’
युधिष्ठिर जैसे तड़पकर उठ बैठा, ‘‘मैं झूठ नहीं बोलता माँ !’’
‘‘मैं तुम्हारा विश्वास करती हूँ पुत्र ! जिस क्षण कुंती को अपने पुत्रों पर विश्वास नहीं रह जायेगा, उसी क्षण उसके जीवन में कोई सार भी नहीं रह जायेगा।’’ कुंती ने रुककर पुत्र को देखा, ‘‘तुमने कहा कि कोई बात नहीं है। तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो।’’
युधिष्ठिर ने निश्छल और विश्वस्त दृष्टि से माँ की ओर देखा, ‘‘मैंने कहा था, कोई विशेष बात नहीं है।’’ और अकस्मात् ही जैसे उसके प्रतिरोध का बाँध ध्वस्त हो गया और उसका आक्रोश मार्ग पाकर प्रवाहित हो चला, ‘‘सुयोधन कहता है कि प्रासाद का उद्यान उसके तथा उसके भाइयों के खेलने के लिए है। उसके पिता ने यदि कृपापूर्वक हमें प्रासाद में ठहरने की अनुमति दे दी है, तो इसका अर्थ यह तो नहीं है कि हम सारे प्रासाद के स्वामी हो गये कि स्वेच्छा से जहाँ-कहीं घूमते फिरें...हमें अपनी मर्यादा पहचाननी चाहिए।’’ उसने रुककर माँ को देखा, ‘‘अब बताओ ! यह कोई ऐसी बात है, जिसे विशेष रूप से उल्लेखनीय मानकर मैं तुम्हें बताता।...’’
कुंती स्तंभित रह गई। यह बालक इतने बड़े अपमान को इस प्रकार चुप-चाप पी गया। माँ को बताना भी नहीं चाहता !...
और सहसा युधिष्ठिर ने आकर कुंती का हाथ पकड़ लिया, ‘‘हम अपने घर कब जायेंगे माँ ?’’
कुंती को लगा, उसकी आँखों में अश्रु भर आये हैं और यदि उसने स्वयं को नियंत्रित नहीं किया तो वे टपक पड़ेंगे।
‘‘कौन-सा घर पुत्र ?’’
युधिष्ठिर ने हतप्रभ होकर माँ की ओर देखा, ‘‘क्या हमारा कोई घर नहीं है ?’’
कुंती ने उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। वह तो जैसे स्वयं ही अपने-आपसे युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर माँग रही थी: कौन-सा घर है उसका अपना ? उसके जनक का घर ? उसके पिता का घर ? उसके पति का घर ?...क्या कोई घर उसका अपना नहीं है ?
‘‘इससे तो अच्छा है माँ !’’ युधिष्ठिर ने उसका हाथ पकड़कर झकझोरा, ‘‘हम लोग ऋष्य श्रृंग के आश्रम में लौट जाएँ। वहाँ कभी किसी ने हमें यह तो नहीं कहा कि वह आश्रम हमारा नहीं है। कुटीर हमारा नहीं है, क्षेत्र हमारा नहीं है, या सरोवर हमारा नहीं है। तुम हमे हस्तिनापुर क्यों ले आईं माँ ! जहाँ कुछ भी हमारा नहीं है ?’’
सहसा ही कुंती अपनी हताशा से उबरी।...उसके युधिष्ठिर में रजोगुण का आधिक्य नहीं है। वह झगड़कर किसी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं जताएगा। अधिकार के विवाद में वह त्याग को ही अंगीकार करेगा।....यह स्थिति ठीक नहीं है। उसे अपने अधिकार के प्रति सचेत करना होगा।...
‘‘यही हमारा घर है पुत्र ! हमें और कहीं नहीं जाना है।’’ सहसा उसका स्वर आदेशात्मक हो गया, ‘‘हस्तिनापुर तुम्हारा है। तुम कुरु साम्राज्य के युवराज हो। तुम कहाँ जाने की बात कर रहे हो ?’’
युधिष्ठिर को तत्काल, माँ की बात का कोई उत्तर नहीं सूझा। वह दृष्टि में एक शून्य लिये, माँ की ओर देखता रह गया। और फिर जैसे उसे कुछ सूझ गया, ‘‘यदि हस्तिनापुर हमारा है, तो हम अपने लिए एक नया प्रासाद क्यों नहीं बनवा लेते ? हम सुयोधन के प्रासाद में क्यों रह रहे हैं ? वे लोग हमारे यहाँ रहने से असंतुष्ट हैं। उन्हें स्थान का अभाव लगता है। उन्हें असुविधा होती होगी माँ !’’
कुंती के मन में आया कि युधिष्ठिर को वह अपनी मुजाओं में समेट ले। उसे अपने वक्ष से लगा ले। उसके मस्तक का चुंबन कर कहे, ‘‘चिरायु हो मेरे लाल ! तुमने कितना उदार हृदय पाया है।’’
किंतु उसकी भुजाएँ अपने स्थान से हिली नहीं। मन को उसने दृढ़ किया और बोली, ‘‘यह हस्तिनापुर का राजप्रासाद है पुत्र। हस्तिनापुर का राजा इसी में रहता है। तपस्या के लिए जाने से पूर्व मैं और तुम्हारे पिता इसी प्रासाद में रहते थे। अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में तुम्हें इसी प्रासाद में रहना है। हस्तिनापुर के युवराज को यहाँ से हटकर कहीं नहीं जाना है। भावी सम्राट् यदि अपना प्रासाद भी छोड़ देगा तो राज्य त्यागने में उसे कितना समय लगेगा ?’’
‘‘तुम ठीक कहती हो माँ ! किंतु अब यहाँ राजा धृतराष्ट्र रहते हैं। एक प्रासाद के लिए यह सब....।’’
‘‘बात प्रासाद की नहीं, अधिकार की है पुत्र !’’ कुंती बोली, ‘‘मैं तुम्हारे मन में प्रासाद का लोभ नहीं जगा रही ! मैं तुम्हें अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना सिखा रही हूँ।....तुम्हारे पितृत्य राजा नहीं हैं, मात्र राज्यपाल हैं। राजा तुम्हारे पिता थे और अब तुम होगे।’’
युधिष्ठिर ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह मन-ही-मन सोच रहा था कि यदि माँ यह कहती कि हमारे पास रहने के लिए दूसरा कोई स्थान नहीं है, तो संघर्ष की बात उसकी समझ में भी आती। पर...
‘‘अच्छा ! यह बताओ।’’ थोड़ी देर पश्चात् कुंती स्वयं ही बोली, ‘‘शिक्षण के समय कृपाचार्य का व्यवहार तुम्हारे साथ कैसा है ? कहीं वे भी तो यह नहीं कहते कि तुम अध्ययन के लिए यहाँ क्यों आए हो ?’’
‘‘आचार्य का व्यवहार...।’’ युधिष्ठिर जैसे निर्णय नहीं कर पा रहा था, ‘‘उन्हें मुझसे कोई विरोध नहीं लगता।’’ वह फिर रुका, ‘‘किंतु माँ ! ऋष्य श्रृंग के आचार्य और ही प्रकार के थे। कृपाचार्य वैसे तो नहीं हैं।’’
‘‘मैं समझती हूँ पुत्र !’’ कुंती धीरे से बोली, ‘‘तुम जाओ। संध्या समय बाहर खुली वायु में खेलना चाहिए। कक्ष के भीतर घुसे रहना, तुम्हारे स्वास्थ के लिए अच्छा नहीं है।’’
युधिष्ठिर उठा और जैसे बलात् स्वयं को घसीटकर बाहर ले गया।
कुंती उसे देखती रही और सोचती रही: कहीं वह इन नन्हे कोमल कंधों पर उनके सामर्थ्य से भारी बोझ तो नहीं डाल रही ? किंतु यदि वह बोझ नहीं डालेगी, तो ये कंधे बोझ उठाने के अभ्यस्त कैसे होंगे ? वे दृढ़ कैसे होगे ?...युधिष्ठिर का स्वभाव वह जानती है। वह किसी से कुछ लेना नहीं चाहता, देना ही चाहता है। किंतु देने के लिए भी तो स्वयं अपने पास बहुत कुछ होना चाहिए...
तभी कहीं से दौड़ता हुआ भीम आया। स्वेद से सारा शरीर गीला। वह हाँफ रहा था। निश्चय ही कहीं खेल रहा होगा। खेल से कभी उसका मन नहीं भरता। वह थकता भी तो नहीं है।....एक दिन कौतूहल में, मात्र परीक्षा लेने के लिए, खेलने के लिए जाते हुए भीम को रोक लिया था, ‘‘देखो ! यह नकुल बहुत रो रहा है। इसे थोड़ी देर बाहर टहला लाओ।’’
कुंती का विचार था कि वह इसका विरोध करेगा। हठ करेगा कि उसे खेलना है। ऐसे में वह नकुल को कहाँ ले जाएगा...या कदाचित् वह कहे कि ढाई वर्षों के नकुल को वह कैसे उठाएगा। वह भारी है....या कि उसे उठाने में उसे असुविधा होगी।....
किंतु भीम ने उसके द्वारा कल्पित एक भी उत्तर नहीं दिया। उसने हँसते हुए दोनों हाथ बढ़ा दिए, ‘‘आ जा नकुल ! बैठा-बैठा आलसी मत बन ! चल, कुछ व्यायाम कर आएँ।’’
कुंती चकित रह गई। एक बार तो मन में आया: भीम को रोक दे; बहुत हो चुकी परीक्षा। कहीं ऐसा न हो कि नकुल को गोद में उठाए-उठाए, भीम भी लुढ़क जाए। दोनों के नाक-मुँह और घुटने छिल जाएँ। भीम इतना चंचल है। नकुल को गोद में लेकर भी वह शांति से तो बैठेगा नहीं...किंतु दूसरे ही क्षण उसने अपने मन को दृढ़ किया। एक बार देखे तो सही कि भीम करता क्या है।...
भीम, नकुल को लेकर मुड़ा तो उसकी दृष्टि सहदेव पर पड़ी। बोला, ‘‘तू घर में बैठा क्या करेगा भाई ! तू भी आ जा !....’’
और जब तक कुंती आगे बढ़कर उसे रोकती, उसने नकुल को उठाए-उठाए ही थोड़ा झुककर दूसरे हाथ में सहदेव को उठा लिया। कुंती जहाँ की तहाँ रुक गई। भीम ने दोनों बालकों को उठाने से तनिक भी असुविधा नहीं हुई थी, वह सहज रूप से मुस्कराकर अर्जुन से कह रहा था, ‘‘अज्जू ! तू मेरे कंधों पर बैठ जा। मैं तुम तीनों को उठाकर उद्यान के दस चक्कर लगाऊँगा।’’
कुंती को प्रसन्नता हुई। भीम, वस्तुतः भी था। वह ढाई वर्ष बड़े युधिष्ठिर के बराबर लंबा हो चुका था, और उससे अधिक शक्तिशाली दिखाई देता था। यदि कुंती उसे न रोके तो निश्चय ही, वह नकुल और सहदेव को लेकर बाहर उद्यान में चला जाएगा....
‘‘रुको भीम !’’
भीम ने रुककर माँ की ओर देखा।
‘‘बच्चों को गोद से उतार दो।’’
‘‘अभी तो तुम कह रही थीं माँ ! कि इन्हें बाहर घुमा लाऊ।’’
‘‘ठीक है। कह रही थी ! पर अब तुमसे एक बात पूछनी है।’’
‘‘तो पूछो !’’
‘‘अरे तो ऐसे ही खड़ा रहेगा क्या-दोनों बच्चों को उठाए हुए। थक जाएगा।’’
‘‘यह तो मेरा व्यायाम है।’’ भीम हँसा, ‘‘मैं तो पाठशाला में भी सबसे अधिक बोझ उठाता हूँ। बोझ उठाकर दौड़ सकता हूँ।’’
‘‘वह सब ठीक है।’’कुंती बोली, ‘‘पर तू इनको उतारकर नीचे बैठ। तब ही तुझसे बात करूँगी।’’
‘‘अरे माँ !’’ भीम ने अपनी अनिच्छा जताई और नकुल तथा सहदेव को उतारकर आसन पर बैठा दिया, ‘‘पूछो ! क्या पूछ रही हो !’’
उस दिन तो कुंती को उससे कुछ विशेष नहीं पूछना था, किंतु आज उसके मन में कुछ चुभते हुए प्रश्न थे।
भीम जल पीकर उल्टे पाँव लौटने लगा तो कुंती ने टोका, ‘‘भीम !’’
भीम ने माँ की ओर देखा।
‘‘तुम उद्यान में खेलते हो तो क्या सुयोधन तुम्हें भी रोकता है ?’’
‘‘हाँ !’’ भीम जैसे हुलसकर बोला, ‘‘उसने मुझसे कहा कि उद्यान उसके और उसके भाइयों के खेलने के लिए है। मैं वहाँ नहीं खेल सकता।’’
‘‘तो तुमने क्या कहा ?’’
‘‘मैंने कहा कि मैं तो खेलूँगा। वह यदि रोक सके तो रोक ले। यह कहकर मैं दौड़ा-वेग से माँ ! पवन वेग से !....’’
कुंती कल्पना कर रही थी कि वह किस वेग से दौड़ा होगा। वह तो है ही वायु-पुत्र !
‘‘फिर ?’’
‘‘मैं दौड़ा माँ ! उसने अपने भाइयों को संकेत किया। भाई भी तो उसके इतने सारे हैं, जैसे कोई सेना हो।...उसके भाइयों ने एक-दूसरे के हाथ पकड़ लिये और मेरा मार्ग रोककर खड़े हो गए। मैंने उनके निकट पहुँचते ही अपनी भुजाएँ फैला दीं। मेरे वेग से उनका बंधन ढीला पड़ गया। किंतु मैंने अपनी एक-एक भुजा में एक-एक सुयोधन-भ्राता को थाम लिया था। वे थोड़ी देर तक तो मेरे साथ घिसटे। फिर मैंने उन दोनों के सिर एक-दूसरे के साथ बजाए और उन्हें वहीं लुढ़कता-पुढ़कता छोड़कर भाग गया। जब पलटकर उनकी ओर पुनः आया तो सुयोधन ने उन्हें बहुत बुलाया, बहुत उकसाया; किंतु कोई भी मेरे मार्ग में नहीं आया।’’ भीम मन खोलकर हँसा।
‘‘सुयोधन ने भी नहीं रोका तुझे ?’’
‘‘वह स्वयं तो साहस ही नहीं करता। बस अपने भाइयों को आदेश देता रहता है। वह मुझे रोकने का साहस नहीं कर सकता।’’
कुंती भीम की बात से संतुष्ट हुई; किंतु उसका आशंकित मन पूछे बिना नहीं रह सका, ‘‘कोई तेरे साथ खेलता भी है, या तू अकेला ही सारे उद्यान में डोलता फिरता है !’’
‘‘नहीं ! मेरे मित्र हैं माँ ! वह युयुत्सु है न ! उसके कई साथी हैं। कई बार विकर्ण भी हमारे साथ खेलता है।....और माँ ! कोई न भी खेले मेरे साथ, तो क्या ! मैं अकेला भी बहुत सारे खेल खेल सकता हूँ।’’
‘‘अकेला क्या खेलेगा तूँ ?’’
‘‘मैं पवन के साथ स्पर्धा करता हूँ ! ’’ भीम बोला, ‘‘देखता हूँ कि मैं बड़ा धावक हूँ या वह ?’’
‘‘तो क्या सिद्ध हुआ ?’’
‘‘वेग तो मेरा ही उससे अधिक है।’’ भीम बोला, ‘‘किंतु जाने कैसे वह मुझसे पहले ही गंतव्य पर पहुँच जाता है।’’
‘‘तू तो पगला है एकदम !’’ कुंती हँसी, ‘‘क्या तू नहीं जानता कि पवन तो प्रत्येक स्थान पर पहले से ही विद्यमान है।’’
‘‘ओह !’’ भीम का निश्चल अट्टहास गूँजा, ‘‘तो फिर पवन के साथ स्पर्धा ही व्यर्थ है।’’
‘‘और कौन-सी क्रीड़ाएँ हैं तेरी-अकेले की ?’’
‘‘कुछ नहीं सूझता तो मैं वृक्षों को हिलाने का प्रयत्न करता हूँ। उन्हें हिला-कर उनके फल गिराने का। उन्हें जड़ से उखाड़ने का।’’
‘‘क्या किसी पेड़ को उखाड़ने में तू सफल हुआ ?’’
‘‘नहीं !’’ भीम फिर उच्च स्वर में हँसा, ‘‘किंतु आज तक कोई वृक्ष भी मुझे जड़ से नहीं उखाड़ पाया माँ !’’
‘‘कैसा बुद्धू है तू !’’ कुंती हँसी, ‘‘तेरी जड़ें हैं ही कहाँ, जो कोई तुझे जड़ से उखाड़ सके।’’
‘‘बुद्धू ! तुम मुझे बुद्धू कहती हो।’’ भीम हुमककर बोला, ‘‘तुमने ध्यान नहीं दिया माँ ! कैसा चतुर हूँ मैं कि ऐसा खेल चुना है, जिसमें कभी मैं पराजित हो ही नहीं सकता। जब कभी उखड़ा, पेड़ ही जड़ से उखड़ेगा, मैं तो उखड़ सकता ही नहीं !’’
कुंती कुछ बोली नहीं, सम्मोहित-सी अपने इस चिंताशून्य उन्मुक्त पुत्र को देखती रही। ऐसा ही कहीं युधिष्ठिर भी हो पाता तो !....
‘‘तेरे इन खेलों के नियम कौन बनाता है ?’’ क्षण-भर रुककर कुंती ने पूछा।
‘‘मैं स्वयं बनाता हूँ !’’
‘‘सब लोग अपने-अपने नियम बनाने लगेगें तो खेल संभव कैसे होंगे ?’’ कुंती ने उसे उकसाया।
‘‘धोती बाँधने के सब अपने-अपने नियम बना लेते हैं, तो भी सबके लिए धोती बाँधना संभव होता है न !’’
कुंती चकित नेत्रों से उसे देखती रही, ‘‘धोती बाँधने का नियम ?’’
‘‘हाँ !’’ भीम बोला, ‘‘मेरी धोती एड़ी से बीस अंगुल ऊँची होती है, और सुयोधन की चार अंगुल ! वह मानता है कि नियमतः धोती एड़ी से चार अंगुल ही ऊँची होनी चाहिए। इसलिए वह मुझे गँवार कहता है और मैं उसे मूर्ख ! वह इतना भी नहीं समझता कि एड़ी तक धोती बाँधकर, व्यक्ति न भाग सकता है, न दौड़ सकता है, न खेल सकता है !’’ सहसा भीम जैसे निद्रा से जागा, ‘‘अरे मुझे तो खेलने जाना है। मैं तुम्हारी बातों में ही उलझ गया। तुम्हारी बातों की मोहिनी से बचना कठिन है माँ !’’
वह भागता हुआ बाहर निकल गया।
भीम चला गया और उसे कदाचित् स्मरण भी नहीं रहा कि वह माँ से क्या कहकर आया है; किंतु कुंती को वह वैसे ही झकझोर गया, जैसे वह अपनी शक्ति को परखने के लिए वृक्षों को झकझोरा करता है...
हस्तिनापुर में प्रवेश से पहले, ‘वर्धमान’ द्वार के बाहर ही, यात्रा से थके आए, धूल-धूसरित उसके पुत्रों को देखकर, सुयोधन ने उन्हें ‘गंदा’ कहा था, उसकी वेश-भूषा के प्रति अपनी वितृष्णा प्रकट की थी। वह आज भी भीम को गँवार कहता है। युधिष्ठिर और अर्जुन को क्या कहता होगा ! नकुल और सहदेव तो अभी छोटे हैं...वह स्वयं को इन सबसे श्रेष्ठ मानता है, इसलिए कि वह हस्तिनापुर के राजसी वैभव में पला था और कुंती के पुत्र आश्रम के सात्त्विक वातावरण में वेश-भूषा अथवा आडंबर के अन्य उपकरणों के प्रति निस्पृह रहे हैं....
कुछ दिन पूर्व सुयोधन अपने भाइयों, मित्रों और कुछ सेवकों के साथ इधर आ निकला था। जाने वह आगमन आकस्मिक था, वह किसी कार्यवश आया था, अथवा मात्र टीका-टिप्पणी करने की असभ्य इच्छा...
कुंती उस समय अपने बच्चों को भोजन करा रही थी। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन अपने-अपने आसनों पर बैठे, चौकियों पर अपने थाल रखे, स्वतंत्र रूप से अपना भोजन कर रहे थे। नकुल और सहदेव को अपनी गोद में लिये, कुंती बारी-बारी कौर खिला रही थी।
‘‘अरे ! इनके पास कोई दास-दासी भी नहीं है, जो इनको भोजन परोस सके।’’ उस झुंड में से किसी ने कहा था।
‘‘दास-दासी !’’ सुयोधन निर्द्वंद्व भाव से बोला था, ‘‘पिताजी ने कृपा न की होती तो ये लोग पत्तलों में भोजन कर रहे होते। जिस समय हस्तिनापुर आए थे, क्या था इनके पास ! वस्त्र भी तो वे ही पहन रखे थे, जो पिताजी ने हस्तिनापुर से भिजवाए थे। सर्वथा कंगले थे, ये वनवासी।....’’
वे लोग चले गए थे और कुंती को कई रातों तक नींद नहीं आई थी।...कौन बोल रहा था वह सब, सुयोधन की जिह्ना से ? स्वयं बालक सुयोधन ? या उसकी जिह्ना से किसी और के शब्द उच्चरित होते हैं ? इतने से बालक के मन में ये भाव कैसे आते होंगे ? उसका तो युधिष्ठिर तक कभी इस प्रकार की बात न किसी के विषय में सोच सकता है, न कह सकता है। उन्होंने तो सदा ज्ञान, चरित्र और वय का सम्मान करना सीखा है। धन का होना, न होना-सुविधा और असुविधा का कारण हो सकता है, मान-अपमान का नहीं।...और सुयोधन यह कैसे मान बैठा है कि यह सब उसके पिता की सम्पत्ति है ? उसे यह क्यों नहीं बताया गया कि यह कौरवों की संपत्ति है, जिनके सम्राट् पांडु थे-और यह उसी पांडु का परिवार है।...क्यों उसे बताया नहीं गया कि संपत्ति का उत्तराधिकारी युधिष्ठिर है। वे लोग जिस संपत्ति का भोग कर रहे हैं, वह युधिष्ठिर की है; जिस अधिकार का प्रयोग कर रहे हैं, वह अधिकार युधिष्ठिर का है !...अपने राजप्रसाद में बैठे भावी सम्राट् से कहा जा रहा है कि वह किसी की दया पर जीवनयापन कर रहा है...क्या धृतराष्ट्र और गांधारी जानते हैं कि उनका सुपुत्र क्या कर रहा है, क्या कह रहा है ?...
गांधारी की एक दासी भीम को खोजती हुई आई थी, ‘‘कहाँ है वह मोटा लड़का-भीम।’’
कुंती को भीम के लिए यह विशेषण अच्छा नहीं लगा। पर कदाचित् दासी को इसकी चिंता नहीं थी। उसने तो कुंती को भी किसी सम्मानजनक शब्द से संबोधित नहीं किया था। ‘महारानी’ अथवा राजपरिवार-संबंधित किसी अन्य आदरसूचक संबोधन की आवश्यकता तो उसने नहीं ही समझी थी; उसने तो ‘आर्ये’ या ‘भद्रे’ जैसे सामान्य संबोधन भी अनावश्यक मान लिये थे। कुंती स्तब्ध थी: राजप्रासाद की एक साधारण दासी को इतना साहस कैसे हुआ कि वह भूतपूर्व सम्राट् की पत्नी तथा भावी सम्राट् की माता की इस प्रकार अवज्ञा करे। यह न तो उसका अज्ञान हो सकता है, न अपना दुस्साहस।...वैसे उसे इसकी आवश्यकता भी क्या है ? जिसकी जिह्ना दिन-भर ‘स्वामी’, ‘अन्न-दाता’ आदि सबोधनों को रटती रहती हो, उसे कुंती को इस प्रकार अपमानित करके क्या मिलेगा ?...यह अवश्य ही किसी और की इच्छा है ; और दासी के पीछे उसी व्यक्ति का बल भी है। कौन है वह ?
कुंती ने अपना आक्रोश प्रकट नहीं होने दिया। शांत स्वर में बोली, ‘‘किसे ढूँढ रही हो तुम-किसी मोटे लड़के को अथवा भीम को ?’’
‘‘क्यों ? भीम मोटा नहीं है क्या ?’’
‘‘नहीं !’’ कुंती स्थिर वाणी में बोली, ‘‘वह बलिष्ठ है और इस वय में भी तुम जैसी अशिष्ट दासियों की ग्रीवा मरोड़ देने में समर्थ है।’’
दासी न भयभीत हुई, न लज्जित। वह मौन भी नहीं रही। तुनककर बोली, ‘‘जानती हूँ ! अब कोई भी सुरक्षित नहीं है यहाँ। किसी की ग्रीवा मोड़ी जायेगी और किसी का सिर फोड़ा जायेगा। तुम लोग आ जो गये हो।’’
‘‘अपनी मर्यादा के भीतर रह।’’ कुंती का स्वर कुछ प्रखर हुआ।
‘‘मर्यादा ! ऊँह !’’ दासी और भी ऐंठकर बोली, ‘‘जाने क्या समझते हैं स्वयं को ! कहाँ से आकर गले पड़ गये ; और स्वयं को स्वामी ही समझने लग गये ! राजप्रासाद की सारी मर्यादाएँ ही नष्ट हो गई।’’ उसने घूरकर कुंती को देखा, ‘‘मैं कहे देती हूँ, अपने उस मोटे लड़के को समझा लो। अब यदि कभी उसने मेरे सुशासन पर हाथ उठाया, तो मैं भी उसका सिर फोड़ दूँगी। किसी की चिंता नहीं है मुझे।’’
‘‘तुम सुशासन की दासी हो ?’’ कुंती का स्वर धीमा हो गया।
‘‘मैं उसकी धात्री हूँ। दूध पिलाया है उसको मैंने अपना। उसका रक्त बहते नहीं देख सकती। हाँ ! किसी गुमान में मत रहना।’’
दासी बड़ी ठसक से मुड़ी और चली गई। दासी चली गई और कुंती को दोहरी चिंता ने दबोच लिया: क्या सचमुच भीम ने सुशासन का सिर फोड़ दिया है ? कुंती के मन में गांधारी के पुत्रों के व्यवहार को लेकर चाहे कितना भी आक्रोश और विरोध हो ; किंतु यह उसने कभी नहीं चाहा कि उनमें इस प्रकार की शत्रुता पनपे कि वे एक-दूसरे के सिरफोड़ दें। इससे तो उनमें भाइयों का-सा स्नेह और सौहार्द कभी भी विकसित नहीं हो पाएगा। उल्टे दो पक्ष बन जायेंगे; वैर-विरोध बढ़ेगा। और यदि स्थिति मार-पीट की ही आई तो भीम किस-किससे लड़ेगा ? वे लोग तो अनेक हैं; फिर उनके दास-दासियाँ भी उनके साथ हैं। भीम के पक्ष से कौन लड़ेगा-युधिष्ठिर ? उसकी तो वैर-विरोध, लड़ाई-झगड़े में वैसे भी कोई रुचि नहीं है।...अर्जुन, नकुल और सहदेव अभी छोटे हैं।...बेचारा अकेला भीम किस-किससे लड़ेगा ?...पर यह भीम इतना ऊधम मचाता ही क्यों है ? इस प्रकार तो वह किसी-न-किसी झंझट में फँस ही जाएगा...
कुंती ऋष्य श्रृंग से अपने घर आई थी। किंतु यह उसका घर है क्या ? उसे चारों ओर अपने विरोधी-ही-विरोधी दिखाई पड़ते हैं।...एक सम्राट् पांडु के न रहने से संसार में उसका अपना कोई नहीं रहा। यदि वे होते तो कुंती के पुत्र इतने असुरक्षित होते ? इस दासी का इतना साहस होता कि आकर वह महारानी कुंती को अपमानित कर ऐसे धमका जाती, जैसे कोई किसी चांडाल को भी नहीं धमकाता...आज एक दासी ने इस प्रकार का व्यवहार किया है, कल दूसरी भी करेगी। और फिर... कुंती अपने ऊहा-पोह में बैठी रह गई: वह भीम की सुरक्षा का प्रबंध करे या उसके लौटने पर उसको धमकाए कि वह गांधारी के पुत्रों से न लड़ा करे ? किंतु क्या भीम सचमुच किसी से लड़ता है ? वह तो इतना अबोध है कि जैसे शुद्ध शैशव ही हो-सशरीर ! किसी से वैर नहीं, विरोध नहीं। सब कुछ क्रीड़ा ही क्रीड़ा है। वह तो जैसे निश्छल पवन का एक झकोरा है, जो एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। सदा गतिमान है। मार्ग में कोई आ जाये, तो वह दुलरा भी सकता है, धकिया भी सकता है। कुंती नहीं चाहती कि उसके मन में वैमन्स्य का अंकुर जड़ जमाये....
तभी अपनी सदा की मुद्रा में भीम भागता-दौड़ता आया: स्वेद से गीला और हाँफता हुआ, ‘‘माँ ! माँ ! जानती हो, आज सुशासन का सिर फट गया। उसे खेलना भी नहीं आता माँ ! दौड़ता भी है तो न धरती देखता है, न आकाश ! वन्य-शूकर के समान सिर झुकाकर भागता है और भागता ही चला जाता है। आज भी दौड़ा और वृक्ष की निचली शाखा से अपना सिर मार लिया। और फिर कितना रोया माँ !....’’
कुंती मुग्ध भाव से चुपचाप उसे देखती रही: वह सचमुच ही निर्दोष है अथवा झूठी कहानियाँ गढ़ने में दक्ष हो गया है ?
‘‘ऐसे क्या देख रही हो माँ ? क्या तुम्हें मेरा विश्वास नहीं है ?’’
‘‘तूने नहीं मारा सुशासन को ?’’
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