नारी विमर्श >> वामा-बोधिनी वामा-बोधिनीनवनीता देव सेन
|
13 पाठकों को प्रिय 350 पाठक हैं |
इस पुस्तक में अतीत और वर्तमान, अंतर्जीवन और ब्राह्य जीवन, वक्तिव्य आदि पर आधारति है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘वामा-बोधिनी’ सिर्फ वामाओं में बोधोदय
रचती है, ऐसा
नहीं है। नवनीता देव सेन की यह उपन्यासिका, उसका व्यक्तिक्रम है जो आधुनिक
बंगाला साहित्य में, निस्सन्देह एक साधारण संयोजन है। उपन्यास का
केन्द्र-बिन्दु हालाँकि औरत ही है, लेकिन इसमें पुरुष-विरोधी हुंकार नहीं
है, बल्कि उसके प्रति ममत्व-भाव है। सोलहवीं शती के मैमनसिंह की एक बंगाली
महिला कवि की जीवनगाथा, बीसवीं शती की तीन अलग-अलग औरतों की कथा में
घुल-मिल गई है। एक चिरंतन मानवी की व्यथा-कथा; जिसमें रचे-बुने गए हैं,
अतल मन की गहराइयों के अनगिनत अहसास !
हम सबकी ज़िन्दगी में परत-दर-परत अनगिनत युद्ध छिड़े हुए हैं-राजनीति बनाम नैतिक सच्चाई; प्रेम बनाम दायित्व; पांडित्य बनाम सृजनात्मक प्रतिभा; पुरुष शासित नीतिबोध बनाम जगत के भीतर मूल्यबोध; सामाजिक सुनीति बनाम मानवीय आवेग-इन तमाम खतरनाक विषयों की लेखिका ने जाँच-परख की है।
कमाल की बात यह है कि इसके बावजूद कहीं रस-भंग नहीं हुआ है, शिल्प ने कहीं भी जीवन के स्वाभाविक प्रवाह का अतिक्रमण नहीं किया है, बल्कि कथा-शैली में विलक्षण रुप से एक अभिनव तत्त्व का समावेश हुआ है। अतीत और वर्तमान, अंतर्जीवन और बाह्य जीवन, वक्तव्य और कथा-बयानी, गद्य और पद्य, यहाँ घुल-मिलकर एकमेक हो गए हैं। रिसर्च के दौरान लिये गए नोट्स, डायरी के पन्ने, प्रेमियों के खत, ग्रामीण बालाओं के गीत, नायिका की विचारधारा, सम्पादक का जवाब-इस सबको मिलाकर इस कथा में, बिलकुल नए रूप में, बेहद सख्त लेकिन बहुमुखी सत्य का सृजन किया गया है, जो कथा के शिल्प में हीरे की तरह जड़ा हुआ है; हीरे की तरह ही शुभ्र-उज्ज्वल कठोर और अखंडित रुप में जगमगाता हुआ।
हम सबकी ज़िन्दगी में परत-दर-परत अनगिनत युद्ध छिड़े हुए हैं-राजनीति बनाम नैतिक सच्चाई; प्रेम बनाम दायित्व; पांडित्य बनाम सृजनात्मक प्रतिभा; पुरुष शासित नीतिबोध बनाम जगत के भीतर मूल्यबोध; सामाजिक सुनीति बनाम मानवीय आवेग-इन तमाम खतरनाक विषयों की लेखिका ने जाँच-परख की है।
कमाल की बात यह है कि इसके बावजूद कहीं रस-भंग नहीं हुआ है, शिल्प ने कहीं भी जीवन के स्वाभाविक प्रवाह का अतिक्रमण नहीं किया है, बल्कि कथा-शैली में विलक्षण रुप से एक अभिनव तत्त्व का समावेश हुआ है। अतीत और वर्तमान, अंतर्जीवन और बाह्य जीवन, वक्तव्य और कथा-बयानी, गद्य और पद्य, यहाँ घुल-मिलकर एकमेक हो गए हैं। रिसर्च के दौरान लिये गए नोट्स, डायरी के पन्ने, प्रेमियों के खत, ग्रामीण बालाओं के गीत, नायिका की विचारधारा, सम्पादक का जवाब-इस सबको मिलाकर इस कथा में, बिलकुल नए रूप में, बेहद सख्त लेकिन बहुमुखी सत्य का सृजन किया गया है, जो कथा के शिल्प में हीरे की तरह जड़ा हुआ है; हीरे की तरह ही शुभ्र-उज्ज्वल कठोर और अखंडित रुप में जगमगाता हुआ।
भूमिका के बहाने
इस उपन्यास की विषय-वस्तु और रचना-वस्तु और रचना-पद्धिति-दोनों ही
एक-दूसरे पर निर्भर हैं, एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। कथा का ढाँचा,
कथा-बयानी का अटूट हिस्सा बन गया है। यह उपन्यास बंगला उपन्यास-लेखन की
परम्परा के मुताबिक नहीं लिखा गया। उसकी गढ़न-बुनावट बिलकुल अलग है,
चलन-धरण भी अभ्यस्त सीमा-रेखा से जरा बाहर है। इस उपन्यास में जिन्दगी की
सैकड़ों वास्तविक जटिलताओं को, मैंने गहराई तक टटोलने की कोशिश की है।
समाधान की जिम्मेदारी लेना, मेरे लिए मुमकिन नहीं था। यह भी तो सच है कि
समस्या की ठीक-ठीक पहचान हो जाए, तो समाधान आसान हो जाता है। ज्यादातर हम
अपनी आँखों मूँदे रहना चाहते हैं। बहुत बार, आईना भी तो सच की गवाही देता
है। मेरी यह छोटी-सी कोशिश, अगर किसी एक भी इंसान की ज़िन्दगी में काम आ
सके, तो मैं समझूँगी, मेरा लिखना सार्थक हुआ.....
नवनीता देवसेन
वामा–बोधिनी
1
घड़ी पर नज़र डालकर, अंशु उठ खड़ी हुई। चार बज गए। चाय की बेहतर तलब जाग
उठी। आँखें धुँधलाने लगीं। जाने कब तो आकर बैठी थी, दोपहर बाहर बजे ! उस
वक्त कमरे से बाहर, काफी उजाला था। बहरहाल, अंशु ने खाता-पत्तर समेटकर,
मेज़ की एक ओर रख दिए, सिर्फ पेंसिल उठा ली। आजकल, यहाँ भी छोटी-मोटी
चोरियाँ होने लगी हैं। अपने भरसक बिलकुल बेआवाज़ मुद्रा में, उसने कुर्सी
खिसकाई और उठ खड़ी हुई। मगर, बगल की सीट से, वेंडी ने मुस्कराते हुए, उसकी
आँखों में झाँका।
‘अरे, तुम उठ गईं ? उसने दरयाफ़्त किया।
जवाब में अंशू ने पलटकर सवाल किया, ‘क्यों ? चलती है चाय पीने ?’
अपनी कलाई–घड़ी पर नज़र डालकर, वेडीं ने पल भर सोचा और उठ खड़ी हुई !
वह, अंशुमाला से भी पहले आ गयी थी। तब से अंशु, वेंडी का चेहरा पढ़ती रही थी। वह दत्तचित्त होकर, दक्षिण भारत में मन्दिरों की वास्तुकला पर किताबें उलट-पुलट रही थी और नोट्स लेते हुए कार्ड पर कार्ड भरती रही। यह वेंडी भी अजब है। एक-एक वक्त, एक-एक विषय में मगन हो जाती है और जब एक बार मगन हो जाए तो खैर नहीं। उसकी रात-दिन की तपस्या शुरू हो जाती है। सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद, वेंडी के सिर पर यही एक भूत सवार हो गया था। किताबें ! किताबें। और किताबें ! सुना है, कुछ दिनों पहले, उसने देवदासी के बारे में कोई लेख पढ़ा था, तभी से उसके मन में देवदासियों के बारे में दिलचस्पी जाग उठी। देवदासी प्रथा पर उसने सैकड़ों किताबें पढ़ डाली। मन्दिरों की शिल्प-कला के प्रति उसका यह आकर्षण, उसी का एक हिस्सा है।
अंशु को अक्सर लगा है, वह वेंडी की दीदी है। उस लड़की के दिल में इतनी उत्तेजना, ऐसा ताज़ा विस्मय उमड़-घुमड़ रहा है कि....! ज़िन्दगी उसे हर दिन नए-नए उपहार देती है। वैसे ज़िंदगी उसे खुद देती है या छीन लेती है ? नया ज्ञान ! नया अहसास ! उसके बच्चे भी अब हो चुके हैं। उसका शादी-ब्याह भी हो चुका है। सब अपनी-अपनी गृहस्थी में रम गए हैं। पति दिवंगत हो चुके हैं। माँ किसी वृद्धाश्रम में रहती हैं। इधर, सर्व-बन्धन मुक्त वेंडी के मन में, ज़िन्दगी के प्रति आग्रह का ज्वार उमड़ पड़ा है।
‘व्हाट ए डिसपल डे ! कैसा खूबसूरत दिन है।’
तेज़-तेज़ बहती हुई हवा ! हड्डियाँ कँपा देनेवाली उत्तरी वातास ! अभी से ही आसमान में अँधेरा हो आया था, जबकि अभी कुल चार ही बजे हैं। इस वक्त को शाम नहीं कहा जा सकता। हालाँकि इसे गोधूलि कहना भी आसान नहीं है। घड़ी चाहे जो भी कह रही हो, शाम को राह देते हुए, सूरज क्षितिज के तट उतर चुका है। वैसे सूरज यहाँ जमींदार ठाठ में, अपनी मनमर्जी से उदय होता है। उदय होने के बाद, उसकी भंगिमा हमेशा ऐसी होती है। मानो वह इस कशमकश में हो कि ‘इस पार उतरूँ’ या ‘उस पार ?’ कलकत्ता के सरकारी दफ्तर के मालिकों की तरह, इस शहर में सूरज का भी, अपनी सीट पर मिलना, बेहद मुश्किल है। हाँ, दिन के उजाले का जैकेट, कुर्सी की पीठ पर हमेशा झूलता रहता है।
टोकन जमा कर, अंशु ने अपना झोला-बैग, बरसाती, छाती, शाल वापस ले लिया। वेंडी ने भी अपनी चीजें वापस ले लीं।
‘हाँ, तो आज हम कहाँ जा रहे हैं ?’
‘टी-पॉट चलें या किंग्सहेड ?’
‘टी–पॉट के लिए तो कुछ दूर चलना पड़ेगा....’
‘तो, चलो, किंग्स ही चलते हैं। वहाँ तरह-तरह की पेस्ट्री होती हैं। बेहद टेस्टी ! स्वाद भरी !’
पेस्ट्री के प्रति वेंडी का लोभ, अंशु के लिए अनजाना नहीं था।
‘किंग्सहेड’ पब ज़रूर है, लेकिन उस पब के एक कमरे में दिन के दस बजे से शाम छह बजे तक चाय-काफी भी सर्व की जाती है। उस कमरे में छात्रों की भीड़ लगी रहती है। अंशुमाला खुद तो पेस्ट्री-भक्त नहीं थी, लेकिन कभी-कभार जब कार्निश पेस्ट्री मिल जाती है, तो उसे ‘समोसा’ समझ कर खुश-खुश हजम कर जाती थी। लेकिन कार्विश पेस्ट्री शायद ही कभी नज़र आती है।
‘आज एक ग़ज़ब का वाकया हुआ-’ वेंडी ने चाय की चुस्की लेते हुए, बात शुरू की।
खै़र, वेंडी साहिबा को हर रोज़ ही किताबों के पन्ने में सैकड़ों तरह के महा-अचरज नज़र आते हैं। जब तक इस बारे में अंशु से कह सुन नहीं लेती, उसे चैन नहीं आता। चूँकि वह किसी शिक्षा प्रतिष्ठान से जुड़ी हुई नहीं है, इसलिए ऐसा कोई नहीं है, जो इन सब गपशप में वेंडी का साझीदार हो। ऐसा कोई उपयुक्त साथी भी नहीं है, जिससे वह किताबों के बारे में वैचारिक आदान-प्रदान कर सके। वह तो शहर के धुर छोर पर रहती है, जहाँ अमीर गृहणियाँ रहती हैं।
वे औरतें दक्षिण भारत के मन्दिरों के स्थापत्य में बूँदभर भी दिलचस्पी नहीं रखतीं। वे सब बागवानी करती हैं, कुत्ते पालती हैं समाज-सेवा करती हैं टी.वी देखती हैं। एरोबिक्स करती हैं योगा भी करती हैं। वेंडी के आवेग भरे आविष्कारों के किस्से सुनने की उन्हें फुरसत कहाँ है ? वेंडी के रंग-ढंग, भाव-मुद्राएँ पढ़ते हुए, अंशु को ख़ासा मज़ा भी आता है। उसका अपने रिसर्च का विषय, बेहद सीमित था और विशिष्ट और काठ जैसा नीरस है कि उसे भी इत्मीनान से गपशप करने का विशेष मौका नहीं मिलता। उसके रिसर्च का विषय है-‘बाल्मीकि रामायण की उत्पत्ति के स्रोत’। उसका काम है, वाल्मीकि की कथावस्तु का शब्द-शब्द ढाँचागत विश्लेषण करना। जो लोग संस्कृत नहीं जानते या महाकाव्य के शिल्प से अनजान हैं, उन्हें इस बातचीत में खींच लाना, सचमुच मुश्किल हैं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि विषय काफी सरस है। लेकिन, कामकाज की शैली ऐसी है कि शोध करते-करते, इसका नशा सवार हो जाता है। इसलिए अंशुमाला, वेंडी के सामने अपने कामकाज की बात कभी नहीं छोड़ती, बल्कि उसी का कामकाज समझने की कोशिश करती है। इसी वजह से दोंनो के बीच सहज ही एक रिश्ता क़ायम हो गया है।
यहाँ आकर अंशु ने अपनी डाक्टरेट की थीसिस को ही काट-छाँटकर, एक किताब तैयार कर डाली है। इसके लिए अपने छह महीने की स्कालरशिप जुटा ली। अमेरिका और कनाडा में उसके जो तीन निबन्ध छपे थे और काफी प्रशंसित भी हुए थे उन्हीं के दम पर, उसे यह स्कॉलरशिप मिल गई और किताब लिखने का आमन्त्रण भी। हालाँकि अपने देश में भी उसके दो लेख प्रकाशित आमन्त्रण हुए थे, लेकिन यहाँ के विद्वान बिरादरी ने उनके बारे में ख़ास प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की, न तारीफ, न आलोचना ! उनकी निगाहों में सिर्फ विदेशी पत्र-पत्रिकाओं की ही क़द्र है ?
वेंडी उसे दक्षिण भारत और उत्तरी भारत के मन्दिरों की भास्कर-कला के फर्क़ समझा रही थी। दोनों प्रान्तों के फर्श की परिकल्पना में भी कितना फर्क़ है ! असल में, ये ख़बरे वेंडी के लिए जितनी नई हैं, अंशुमाला के लिए कतई नहीं है। चाय पीते-पीते वह कुछ-कुछ सुन रही थी, कुछ-कुछ अनसुना भी कर रही थी। बस हुकांर भर रही थी। वेंडी के श्वेत-शुभ्र बाल, पेज-ब्वाय फ़ैशन में कटे-छटे थे, नाक पर चढे़ लाल फ्रेम के चश्मे तले, बच्ची की तरह उजली-धुली एक जोड़ी आँखें ! रेत पर रेंगते हुए सफेद केकड़ों के पंजों की महीन-महीन रेखाओं जैसी, उसके चेहरे पर महीन-महीन धारियाँ ! ट्रिकलटार्ट खाते-खाते, वेंडी उत्साह से झलमलाती हुई, अपने आज के आविष्कार की दास्तान सुनाती रही। अंशु की आँखें अलस मुद्रा में, समूचे कमरे का मुआयना करती रहीं।
दूसरी मेज़ पर, नौजवान मर्दों का एक जोड़ा बैठा हुआ था।
‘अरे, तुम उठ गईं ? उसने दरयाफ़्त किया।
जवाब में अंशू ने पलटकर सवाल किया, ‘क्यों ? चलती है चाय पीने ?’
अपनी कलाई–घड़ी पर नज़र डालकर, वेडीं ने पल भर सोचा और उठ खड़ी हुई !
वह, अंशुमाला से भी पहले आ गयी थी। तब से अंशु, वेंडी का चेहरा पढ़ती रही थी। वह दत्तचित्त होकर, दक्षिण भारत में मन्दिरों की वास्तुकला पर किताबें उलट-पुलट रही थी और नोट्स लेते हुए कार्ड पर कार्ड भरती रही। यह वेंडी भी अजब है। एक-एक वक्त, एक-एक विषय में मगन हो जाती है और जब एक बार मगन हो जाए तो खैर नहीं। उसकी रात-दिन की तपस्या शुरू हो जाती है। सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद, वेंडी के सिर पर यही एक भूत सवार हो गया था। किताबें ! किताबें। और किताबें ! सुना है, कुछ दिनों पहले, उसने देवदासी के बारे में कोई लेख पढ़ा था, तभी से उसके मन में देवदासियों के बारे में दिलचस्पी जाग उठी। देवदासी प्रथा पर उसने सैकड़ों किताबें पढ़ डाली। मन्दिरों की शिल्प-कला के प्रति उसका यह आकर्षण, उसी का एक हिस्सा है।
अंशु को अक्सर लगा है, वह वेंडी की दीदी है। उस लड़की के दिल में इतनी उत्तेजना, ऐसा ताज़ा विस्मय उमड़-घुमड़ रहा है कि....! ज़िन्दगी उसे हर दिन नए-नए उपहार देती है। वैसे ज़िंदगी उसे खुद देती है या छीन लेती है ? नया ज्ञान ! नया अहसास ! उसके बच्चे भी अब हो चुके हैं। उसका शादी-ब्याह भी हो चुका है। सब अपनी-अपनी गृहस्थी में रम गए हैं। पति दिवंगत हो चुके हैं। माँ किसी वृद्धाश्रम में रहती हैं। इधर, सर्व-बन्धन मुक्त वेंडी के मन में, ज़िन्दगी के प्रति आग्रह का ज्वार उमड़ पड़ा है।
‘व्हाट ए डिसपल डे ! कैसा खूबसूरत दिन है।’
तेज़-तेज़ बहती हुई हवा ! हड्डियाँ कँपा देनेवाली उत्तरी वातास ! अभी से ही आसमान में अँधेरा हो आया था, जबकि अभी कुल चार ही बजे हैं। इस वक्त को शाम नहीं कहा जा सकता। हालाँकि इसे गोधूलि कहना भी आसान नहीं है। घड़ी चाहे जो भी कह रही हो, शाम को राह देते हुए, सूरज क्षितिज के तट उतर चुका है। वैसे सूरज यहाँ जमींदार ठाठ में, अपनी मनमर्जी से उदय होता है। उदय होने के बाद, उसकी भंगिमा हमेशा ऐसी होती है। मानो वह इस कशमकश में हो कि ‘इस पार उतरूँ’ या ‘उस पार ?’ कलकत्ता के सरकारी दफ्तर के मालिकों की तरह, इस शहर में सूरज का भी, अपनी सीट पर मिलना, बेहद मुश्किल है। हाँ, दिन के उजाले का जैकेट, कुर्सी की पीठ पर हमेशा झूलता रहता है।
टोकन जमा कर, अंशु ने अपना झोला-बैग, बरसाती, छाती, शाल वापस ले लिया। वेंडी ने भी अपनी चीजें वापस ले लीं।
‘हाँ, तो आज हम कहाँ जा रहे हैं ?’
‘टी-पॉट चलें या किंग्सहेड ?’
‘टी–पॉट के लिए तो कुछ दूर चलना पड़ेगा....’
‘तो, चलो, किंग्स ही चलते हैं। वहाँ तरह-तरह की पेस्ट्री होती हैं। बेहद टेस्टी ! स्वाद भरी !’
पेस्ट्री के प्रति वेंडी का लोभ, अंशु के लिए अनजाना नहीं था।
‘किंग्सहेड’ पब ज़रूर है, लेकिन उस पब के एक कमरे में दिन के दस बजे से शाम छह बजे तक चाय-काफी भी सर्व की जाती है। उस कमरे में छात्रों की भीड़ लगी रहती है। अंशुमाला खुद तो पेस्ट्री-भक्त नहीं थी, लेकिन कभी-कभार जब कार्निश पेस्ट्री मिल जाती है, तो उसे ‘समोसा’ समझ कर खुश-खुश हजम कर जाती थी। लेकिन कार्विश पेस्ट्री शायद ही कभी नज़र आती है।
‘आज एक ग़ज़ब का वाकया हुआ-’ वेंडी ने चाय की चुस्की लेते हुए, बात शुरू की।
खै़र, वेंडी साहिबा को हर रोज़ ही किताबों के पन्ने में सैकड़ों तरह के महा-अचरज नज़र आते हैं। जब तक इस बारे में अंशु से कह सुन नहीं लेती, उसे चैन नहीं आता। चूँकि वह किसी शिक्षा प्रतिष्ठान से जुड़ी हुई नहीं है, इसलिए ऐसा कोई नहीं है, जो इन सब गपशप में वेंडी का साझीदार हो। ऐसा कोई उपयुक्त साथी भी नहीं है, जिससे वह किताबों के बारे में वैचारिक आदान-प्रदान कर सके। वह तो शहर के धुर छोर पर रहती है, जहाँ अमीर गृहणियाँ रहती हैं।
वे औरतें दक्षिण भारत के मन्दिरों के स्थापत्य में बूँदभर भी दिलचस्पी नहीं रखतीं। वे सब बागवानी करती हैं, कुत्ते पालती हैं समाज-सेवा करती हैं टी.वी देखती हैं। एरोबिक्स करती हैं योगा भी करती हैं। वेंडी के आवेग भरे आविष्कारों के किस्से सुनने की उन्हें फुरसत कहाँ है ? वेंडी के रंग-ढंग, भाव-मुद्राएँ पढ़ते हुए, अंशु को ख़ासा मज़ा भी आता है। उसका अपने रिसर्च का विषय, बेहद सीमित था और विशिष्ट और काठ जैसा नीरस है कि उसे भी इत्मीनान से गपशप करने का विशेष मौका नहीं मिलता। उसके रिसर्च का विषय है-‘बाल्मीकि रामायण की उत्पत्ति के स्रोत’। उसका काम है, वाल्मीकि की कथावस्तु का शब्द-शब्द ढाँचागत विश्लेषण करना। जो लोग संस्कृत नहीं जानते या महाकाव्य के शिल्प से अनजान हैं, उन्हें इस बातचीत में खींच लाना, सचमुच मुश्किल हैं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि विषय काफी सरस है। लेकिन, कामकाज की शैली ऐसी है कि शोध करते-करते, इसका नशा सवार हो जाता है। इसलिए अंशुमाला, वेंडी के सामने अपने कामकाज की बात कभी नहीं छोड़ती, बल्कि उसी का कामकाज समझने की कोशिश करती है। इसी वजह से दोंनो के बीच सहज ही एक रिश्ता क़ायम हो गया है।
यहाँ आकर अंशु ने अपनी डाक्टरेट की थीसिस को ही काट-छाँटकर, एक किताब तैयार कर डाली है। इसके लिए अपने छह महीने की स्कालरशिप जुटा ली। अमेरिका और कनाडा में उसके जो तीन निबन्ध छपे थे और काफी प्रशंसित भी हुए थे उन्हीं के दम पर, उसे यह स्कॉलरशिप मिल गई और किताब लिखने का आमन्त्रण भी। हालाँकि अपने देश में भी उसके दो लेख प्रकाशित आमन्त्रण हुए थे, लेकिन यहाँ के विद्वान बिरादरी ने उनके बारे में ख़ास प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की, न तारीफ, न आलोचना ! उनकी निगाहों में सिर्फ विदेशी पत्र-पत्रिकाओं की ही क़द्र है ?
वेंडी उसे दक्षिण भारत और उत्तरी भारत के मन्दिरों की भास्कर-कला के फर्क़ समझा रही थी। दोनों प्रान्तों के फर्श की परिकल्पना में भी कितना फर्क़ है ! असल में, ये ख़बरे वेंडी के लिए जितनी नई हैं, अंशुमाला के लिए कतई नहीं है। चाय पीते-पीते वह कुछ-कुछ सुन रही थी, कुछ-कुछ अनसुना भी कर रही थी। बस हुकांर भर रही थी। वेंडी के श्वेत-शुभ्र बाल, पेज-ब्वाय फ़ैशन में कटे-छटे थे, नाक पर चढे़ लाल फ्रेम के चश्मे तले, बच्ची की तरह उजली-धुली एक जोड़ी आँखें ! रेत पर रेंगते हुए सफेद केकड़ों के पंजों की महीन-महीन रेखाओं जैसी, उसके चेहरे पर महीन-महीन धारियाँ ! ट्रिकलटार्ट खाते-खाते, वेंडी उत्साह से झलमलाती हुई, अपने आज के आविष्कार की दास्तान सुनाती रही। अंशु की आँखें अलस मुद्रा में, समूचे कमरे का मुआयना करती रहीं।
दूसरी मेज़ पर, नौजवान मर्दों का एक जोड़ा बैठा हुआ था।
|
लोगों की राय
No reviews for this book