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कविता संग्रह >> अकेली औरतों के घर

अकेली औरतों के घर

मधु बी. जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3165
आईएसबीएन :8126710373

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इस कविता संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कह जाना...

Akeli Auraton Ke Ghar a hindi book by Madhu B. Joshi - अकेली औरतों के घर - मधु बी. जोशी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

समकालीन हिन्दी कविता में अपनी विनम्र और सार्थक उपस्थिति दर्ज करती कवयित्री मधु बी. जोशी अपने पहले काव्य संग्रह ‘अकेली औरतों के घर’ में अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा और प्रखरता के साथ उपस्थित हैं। सरल-सहज भाषा में लिखी ये कविताएँ स्त्रियों के जटिल जीवन-स्थितियों, विडम्बनाओं और उनके जय-पराजय की पड़ताल करती हैं। हालाँकि संग्रह की अधिकांश कविताएँ स्त्रियों पर केन्द्रित हैं लेकिन इनमें आम लोगों की जिंदगी के भी विभिन्न रंग बिखरे हैं, इन्हें मात्र स्त्रीवादी कविता कहना कवयित्री के काव्य परिवेश को संकुचित करने जैसा अन्यायपूर्ण काव्य होगा।

ये कविताएँ अराजक देह-समय में लहुलुहान स्त्रियों की शोक-गीतिका हैं जो अपनी विरल लय में पाठकों को एक रचनात्मक आस्वाद प्रदान करने के साथ समय, समाज, राजनीति के नये प्रभुओं की विन्दुपताओं तथा बाजार की जगर-मगर दुनिया के छल-छद्मों से साक्षात्कार कराती हैं। लेकिन यह पराजित अथवा एकाकीपन के बियाबान में भटकती स्त्री की हताशा की कविताएँ नहीं हैं बल्कि ये एक उम्मीद रचती हैं क्योंकि अभी / हवा, में नमी बाकी है / धूप हमेशा ही हिंसक नहीं रहती / धरती अब भी बहुत उर्वरा है।’’

इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी सम्प्रेषणीयता जो सीधे पाठकों के हृदयस्थल को छू लेती है। कम शब्दों में बड़ी बात कह जाना युवा कवयित्री की अपनी विशिष्ट उपलब्धि है।

 

प्रेम

 

 

वह बाघ है
दबे पाँव पीछे-पीछे आता
अँधेरों में अंगारे-सी आँखें दहकाता
कब तक बचा जा सकता है उससे ?

वह बुखार है
गुनगुनाहट की तरफ शिराओं में सरसराता
यकायक दावानल बन जाता है
कैसे बचा जा सकता है उससे ?
वह नियति है
प्रयासों, व्यवस्थाओं को नकारती
वर्जनाओं को फलाँगकर
औचक गलबहियाँ डाल देती है
कब तक बचोगी प्रेम से ?

 

अपरिचित हो गये तुम

 

 

अब भी तलाशते हो
लुप्त हो गई नदियाँ ?
अब भी झीलों-सागरों की गहराइयाँ नापते हो ?
अब भी नखलिस्तान ढूँढते हो,
या रेत की शुरूआत पर ही ठिठक जाते हो ?

जंगल के झुटपुटों में
जुगुनू तलाशने का बचकानापन
अब भी बाकी है ?
अब भी ग्रहों को प्रदक्षिणा पथों से डिगाते हो ?

अब भी टोहते हो गर्दन के पीछे तिलों को ?
उस देह में भी
माणिक से मस्से अनुसंधानते हो ?
आज भी करते हो बातें,
किन्हीं कलों की ?

 

मॉनसून

 

 

दबे पाँव
रातों में
बेचैन सपनों के बीच
चला आता है मॉनसून
मौसमी भविष्यवाणियों को छकाता

उमसीली दोपहरियों में
आँधी पर सवार
खिड़कियाँ दरवाज़े झँझोड़ता
शाखों के चाबुक फटकारता
गुज़र जाता है मॉनसून
शाहराह पर शाहसवार-सा

 

दिशिगन्धा

 

 

पसीने में पसीजती देहों के समुद्र में
जहाँ से खुशबू फैल रही थी,
उस घेरे के बीचोंबीच
एक औरत थी-
अधेड़, थकी।
(पर इतनी थकी भी नहीं कि ज़ूड़े में गजरा लगाने से बचने की बात न सोचे)

उसके हो़ठों पर
सुर्खी की एक फालतू परत थी
आँखों का काजल कुछ ज्यादा ही धारदार
रह रहकर मुस्कराती थी वह
बिना किसी की तरफ देखे
(शायद खुद के खुद को सुनाए चुटकुले पर / या कौन जाने किस बात पर)

कोई दुख-चिन्ता नहीं सता रही थी इसे
दिन की इन बीतती उदास घड़ियों में ?
कैसी औरत होगी यह ?
नानी मेरे कान में फुफकारी-पातर है यह,
वेश्या
और मैंने देखा,
न रोने और हँसने की जिद में
औरत बिल्कुल माँ पर गई थी

 

यूँ ही : सपने की मौत

 

 

उन दिनों भी
घूमती रहती है पृथ्वी
अपनी धुरी पर

नहीं गड़बड़ाते
नक्षत्रों के प्रदक्षिणा पथ
निरभ्र रहता है आकाश
नीलोत्पल, सुनील

संध्याएँ वैसे ही झुक आती हैं।
स्निग्धा, वत्सला
आँचल की छाँह-सी
और दोपहरियाँ भी यूँ ही सी
इस सब के बीच
मर जाता है सपना
अनसुना, अनकहा

 

शहर की एक शाम

 

 

संजयपुरी की झोपड़ियों से
जयपताका-सी उठती है
लम्बी पूँछवाली नीली पतंग

अधनंगे लड़के की
चमकीली आँखों में
सहस्त्रों सूर्य दमकते हैं

पेट्रोली धुएँ से, धूसरित आकाश पर
सगुनपाखी उड़ते हैं
आई.टी.ओ. पुल के नीचे से
बह जाता है कुछ और पानी

 

अनुष्ठान

 

 

ठंडी अँधेरी कोठरियों में
बूढी औरतें
मर्तबान सहेजती हैं

दपदपा उठती हैं
धुँधलाती आँखें
मसालों की गन्धें
चक्रवात-सी घूमती हैं

पानी, हवा, रोशनी
बच्चों, और अपवित्रता की छाया से परे
सुरक्षित बन्द कोठरियों में
चुकी हुई औरतें
अचार सहेजती हैं

 

रेशमी धार

 

 

वह रेशमी धार वाला चाकू
जिसने मुझे अलग किया था
माँ की किशोर देह से
घुल गया मेरे रक्त में

मेरे रक्त के नमक ने
कुछ और धार दी उसे
मेरी हड्डियों ने
कुछ और फौलाद

आज मैं घूमती हूँ
खुद में उस चाकू को समोये
सुक्तियों की तलाश में

हर तट पर, हर सीपी से
निकाल लेती हूँ मोती
हर मोती के साथ कुछ और सँवरता है
रेशमी धारवाला चाकू

 

तर्क

 

 

तुम्हारे घर में
अब किताबें ही किताबें होंगी
तुम्हारे चेहरे पर
धुआँ

धुएँ से दम घुटता था
उसका
जो तुम्हारी किताबों पर
लिख देती थी/अपना नाम

तुमने बताया था उसे
कि चाँद नहीं रुका रहता
उसकी खिड़की के बाहर
सारी रात;
फूल खिलते हैं
कीड़ों और वनस्पतियों के कंकालों पर;
सपने परियों की किताबें नहीं हैं
निर्दोष कुँवारियों को अता फरमाई गई,
दढ़ियल फ्रायड के
सिद्धान्तों के प्रमाण हैं;

किताबों से आया था
यह हिंसक ज्ञान
इसलिए
निष्कासित हो गईं थीं किताबें
छूट गए थे तुम भी
धीरे-धीरे
तुम्हारे और किताबों के बिना भी
आई ही हिंसा
उसके जीवन में
तुम्हारे जीवन में
आने चाहिए
सपने और फूल,
वैपरीत्य के समीकरण से।

 

विहंगम दृश्य

 

 

धरती की देह पर
चकत्ते बस्तियाँ
बादल का फाहा
नाकाफी

थक गई है/ नदी
क्लान्त देह
छोड़ दी है शिथिल
बादल की छाँह में

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