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सूखी रेत

जीलानी बानो

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3163
आईएसबीएन :81-267-0282-6

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सूखी रेत कहानियाँ स्त्री-जीवन के उस मरुस्थल को प्रतिबिम्बित करने की कहानियाँ हैं...

Sookhi Ret

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जीलानी बानो के उपन्यासों और कहानियों से आज के समय के बदलते जीवन-मूल्यों और सामाजिक अन्तर्विरोधों की जो तस्वीर बनती है वह बहुत संजीदा तो है ही साथ पूरी तरह दोमूँही सोच की असलियत को बेपर्दा करते हुए समाज और जीवन से तआल्लुक रखने वाली हर चीज को अपने में शामिल करती चलती है।

सूखी रेत की कहानियाँ स्त्री-जीवन के उस मरुस्थल को भी प्रतिबिम्बित करती हैं, जो सदियों से विस्तारित होता चला आया है और उसकी तपिश और खलिश से वह न तो उकताती है और न ही हार मानती है। नारी का यही अन्तर्विरोध एक प्रतिकार बनने से कैसे, कहाँ चूक जाता है, इस मसले की दास्ताँ है सूखी रेत, जहाँ ढेर सारे बहलावे हैं और खूब सारे अपने, जो पूरी तरह मृगमरीचिका बन जाते हैं। वह हमेशा इत्मीनान करती है कि अब पानी पास ही है, वहाँ तक पहुँचने की जद्दोजहद और फिर प्यासे रह जाने की तड़प।

लेकिन जीलानी बानों की कहानियों के नारी-पात्र बार-बार प्यासे रह जाने और अपनी तकमील की तलाश के नाकाम हो जाने को अपनी किस्मत नहीं मानते, वे सब न तो छिछला विद्रोह करते हैं और न ही अपनी गरिमा से च्युत होते हैं बस वे सुलग रहे हैं भीतर ही भीतर। इस रेगिस्तान से निकलने की मुकम्मल राह तलाशते हुए।


रजाए के नाम !

धुनक में कितने रंग घुले हैं ?
सात सुरों का भेद है क्या ?
अलिफ़ लैला में कितने दर (द्वार) खुलते हैं ?
ग़ालिब दिल को क्यों छूता है ?
इन भेदों को जान लो, रजाए वरना !  
आनेवाले वक़्त के जब्र से
अपने ज़मीर को बचा न सकोगी.....

बानो

ज्वाए


ज्वाए मिक़्नातीस का ऐसा टुकड़ा था, जिस पे (पर) घर के बिखरे हुए सब ज़र्रे चिमट जाते थे। ‘भौं.....भौं.....भौं.....’ इस घर में सुबह का यक़ीन ज्वाए की आवाज़ से आता है।
मेरा घर.....जहाँ सब एक दूसरे से मुँह फेरकर जी रहे थे, एक दूसरे का जी जलाकर अपना जी
खुश करते थे। बाहर मिलने वाली सारी नाकामियों, नाइंसाफियों का इन्तक़ाम (बदला) एक दूसरे से लेते थे।
मगर ज्वाए उन्हें कुछ करने भी दे ! अब तो सिर्फ घर में ज्वाए की मर्जी़ चलती है। किसी को प्यार आता है, तो ज्वाए पर। हँसी जाती है, तो ज्वाए की हरकतों पर। उसका मूड, उसकी सेहत, उसकी पसन्द-नापसन्द....कभी-कभी मुझे ऐसा लगता, जैसे सदर ख़ानदान की कुर्सी पर मेरी बजाय ज्वाए बैठा हो इस घर में। ज्वाए हर काम की निगरानी करता है। बाहर जाने वालों को गेट तक छोड़ता। अन्दर आने वालों को पहले शक व शुबहे से देखता और फिर उनके किरदार के बारे में पूरी तरह मुत्मईन (सन्तुष्ट) होने के बाद ही उन्हें अन्दर आने की इजाज़त देता है। फिर किचन की निगरानी करना, दीवारों से झाँकनेवाली बिल्लियों, दरख़्तों पर शोर मचाने वाले कौए और दरवाजे़ पर बेल बजाने वाले अजनबी चेहरों से निबटने में वह ख़ूब थक जाता है।

‘भौं.....भौं....भौं....’ उठो, उठो.....वह उजाला होने से पहले मुझे झँझोड़ डालता है।
कोई अच्छा ख़्वाब तो तुम्हारे नसीबों में है नहीं.....तो फिर चलो, नीचे सड़क पर कोई ख़ूबसूरत ख़याल, दिलचस्प हादसा ढूँढ़ें।
ऊँह...मैं अपने चेहरे पर ज्वाए के प्यार की नमी पोंछकर करवट बदल लेता हूँ।
कूँ....कूँ....कूँ.....ज्वाए अब मेरे बिस्तर पर आ गया।
मेरी बीवी रमा नींद की गोली खाकर सोती है, और ज्वाए यह बात जानता है कि इस जुर्रत पर उस वक़्त वह रमा की लात नहीं खाएगा।

तू दरवाज़ा खोलकर अन्दर कैसे आ जाता है ? मैं उसकी गर्दन पकड़कर नीचे धकेल देता हूँ। हम दोनों सोने से पहले अपने-अपने मौसम बदलते रहते हैं.....कभी मुझे गर्मी लगती है। कभी रमा को सर्दी...फिर दिनःभर के शिकवें शिकायतें.....एक दूसरे पर इल्ज़ामों की बौछार और उनसे बचने के लिए कंटरवाले तार हमने अपने चारों तरफ़ फैला रखे हैं। जब मैं रमा की तरफ बढ़ता हूँ, तो कितने स्विच ऑन और ऑफ़ करने पड़ते हैं।
मगर ज्वाए उन्हें एक ही छलाँग में पार करके मुझे प्यार करने आ जाता है।
इस अदा पर उसका मुँह न चूमें, तो क्या करें !

मगर उसके बाद रमा की नफ़रत-भरी छी-छी...थब...थू....
और थोड़ी देर बाद जब रमा बिस्तर पर बैठी जम्हाइयाँ लेती थी, तो ज्वाए उसकी गोद में चढ़कर भी अपना प्यार वसूल कर लेता है.....और चोरी पकड़े जाने पर वह ऐसे सिर झुका लेती है, जैसे मैंने किसी आशिक़ के साथ रँगे हाथों पकड़ लिया हो।
मैं एक नाकाम बिज़नेसमैन हूँ। ब्योपार (व्यापार) में घाटा मेरा ब्लड़प्रेशर बढ़ा देता है, मगर सुबह टी.वी पर बढ़ती कीमतों का निशान मुझे पुर-सुकून कर देता है। ऐसे वक़्त इंसान का जी चाहता है, आँखें बन्द किए रातोरात लखपति बनने का ख़्वाब देखे।
लेकिन डॉक्टर ने मुझे सुबह सवेरे चलने का हुक्म दिया है, और यह बात सब भूल जाएँ, लेकिन ज्वाए नहीं भूलता। सड़क पर आने के बाद में मेरे हाथ में ज्वाए की ज़ंजीर होती है, मगर ज्वाए तो जैसे ज़ंजीर मेरे गले में डालकर मनमाने रास्तों की ओर चल निकलता है।

चार मंज़िलों की सीढ़ियाँ उतरने के बाद मेरा जी चाहता है कि लॉन की बेंच पर ही बैठा रहूँ, मगर ज्वाए के लिए तो सुबह के उजाले में बेशुमार वायदे और उम्मीदें जगमगाती हैं।
रात को उस राह में गुज़रने वाली कुत्तियाँ यहाँ अपनी खुशबू बिखेर गई हैं।
ज्वाए अपने नथने फैलाकर, मुँह उठाकर हवा में कुछ सूँघता है और अनजानी राहों पर भगाने लगता है। कभी-कभी बिज़नेस के दम घुटा देने वाले फन्दों से जान छुड़ाकर मेरा जी चाहता है, मैं एक नज़्म लिखूँ। खुली हवा में बैठकर किसी नए खयाल को पकड़ूँ।
मगर ज्वाए भी एक ख़्वाब देखने वाली आर्टिस्ट है, जो अपनी नई तख़्लीक़ (रचना) की खोज में आगे-ही-आगे दौड़ना चाहता है।

कभी मैं आगे-आगे चलता हूँ, और ज्वाए एक सआदतमन्द (आज्ञाकारी) बच्चे की तरह मेरे साथ-साथ मेरे मूड़ को देखते हुए चलता है। फिर अचानक सड़क का कोई नज़ारा उसे दौड़ाने पर मज़बूर कर देता है और मैं उसके पीछे-पीछे भागते में हाँप जाता हूँ। मैं एक नाकाम बिज़नेसमैन, मामूली सा शायर,......सारी ज़िन्दगी ऊँचा उड़ने के ख़्वाब देखता रहा।
‘‘डैडी, आपने बिज़नेस की लाइन अपनाने से पहले किसी से मशविरा क्यों नहीं किया ?’’
‘‘डैडी, आपके क्लास-फैलो कितने मशहूर डॉक्टर हैं। आपने मैडीसन में एडमिशन की कोशिश क्यों नहीं की ?’’ अपने बच्चों के ऐसे सवालों पर मैं घबरा जाता हूँ।

‘‘अरे, इन्होंने तो ज़िन्दगी-भर जिस सौदे में हाथ डाला, घाटा-ही-घाटा रहा !’’
रमा ठंडी साँस भरकर अपना माथा पीट लेती है।
और मुझे चारों तरफ़ धुआँ-ही-धुआँ नज़र आता था। गुलाब जामुन जैसी उसकी मोहिनी लड़की पर मैं अपना सब-कुछ लुटा चुका था। फिर जिस दिन अपनी गिरह में उसका पल्लू बाँधकर मैं अपने घर की सीढ़ियाँ चढ़ा था, तो जैसे किसी पहाड़ पर चढ़ता गया। रमा मुझसे दूर-ही-दूर खड़ी हँसती रही। उसने मेरे गले में एक रस्सी डालकर डुगडुगी बजा दी थी।

अब मैं ज्वाए के गले में ज़ंजीर डालकर भाग रहा हूँ। हम दोनों हाँप रहे हैं, मैं जानता हूँ, वह जिस रास्ते पर जा रहा है, वहाँ आगे कुछ नहीं है, मगर खोज और किसी अनहोनी ख़ुशी से मुठभेड़ उसे दीवाना बनाए रखती है।
क़रीब से गुज़रने वाले लोगों, कारों और स्कूटरों को वह बड़े गौर से देखता है और पसन्द न आने वाले चेहरों पर भौंकने लगता है।

‘‘अरे, अहमक़ ! यह तो किसी मिनिस्टर की कार थी। तुझे क्या ज़रूरी था उस पर भौंकना ?’’
यह सुनकर ज्वाए रुका और पास वाले खम्भे की तरफ़ टाँग उठाकर पेशाब करने की एक्टिंग की। इससे पहले वह हर पसन्द न आने वाले चेहरे को देखकर यही काम करता रहा है।
अब आसमान पर वहम की तरह नज़र आनेवाला उजाला, आनेवाले दिन का यक़ीन बनकर फैल रहा है। वह अभी तक नहीं आई। हम दोनों एक साथ दूर तक देखते हैं।
रात को वह इस राह से गुज़री थी। नथड़े चौड़े करके ज्वाए उसकी खुशबू सूँघता है। फिर अचानक दूर से आनेवाली रोज़ी की भौं-भौं उसे रोक देती है।

वह मुँह ऊपर उठाकर ‘आशियाना के मकीनों (वासियों) से कहता है, ‘‘भौं.....भौं....भौ.....छोड़ दो रोज़ी को। सलाखों के पीछे मत बन्द करो। रोज़ी डियर, नीचे आओ।’
‘‘निरा अहमक़ है तू !’’ मुझे गुस्सा आ जाता है।
‘‘वह तो बन्द दरवाजों के पीछे कैद है। उसकी मोटी मालकिन को टहलने के नाम से चिढ़ है। इसलिए वह नाज़ुक-अन्दाम (कोमलकान्त) कुत्तिया को आशिक़-मिज़ाज कुत्तों से दूर रखती है....सलाखोंवाली खिड़की के पीछे बिठा देती है कि ज्वाए जैसे कुत्ते भौंकते-भौंकते बेहाल हो जाएँ।’’
‘‘चिल्लाओ मत यार...’’

‘‘वह मिल जाएगी, तो और पछताओगे, बेटा।’’
मगर ज्वाए अपनी मुहब्बतों के सुराग न जाने कहाँ-कहाँ खोजता फिरता है।
जगह-जगह रुककर वह पंजों से ज़मीन खोद डालता है। अपनी मुँहज़ोर ख़्वाहिशों से बेताब होकर छलाँगें लगाता है।
मुझे उकताहट होने लगती है। उसे आगे-ही-आगे दौड़ती हुई सड़क पर मेरे लिए कोई दिलचस्पी नहीं है। ज्वाए की ज़ंजीर थामकर उसके पीछे-पीछे चलना ही मेरा काम है।
डॉक्टर ने कहा है कि रोज़ पाँच किलोमीटर चलना चाहिए। उस फ़ासले को कई बार मैंने दिल में नापा। पेट्रोल-पम्प से आगे.....आइसक्रीम पार्लर के पास...

मगर ज्वाए के लिए कोई हद, कोई सीमा आती ही नहीं।
रोज़ी के लिए चिल्लाते-चिल्लाते एक परिन्दे का उड़ता हुआ पर उसके लिए नई ख़ुशियों का सामान ले आया। वह भी जी-भरकर उछला-कूदा, गुर्राया और फिर उस पर को मुँह में दबोचकर मेरी गोद में डाल दिया।
ज्वाए के लिए इस दुनिया में कितनी खुशियाँ थीं, और मैं खाली हाथ गोद में रखे फुटपाथ पर बैठा हूँ।
एक औरत की गुस्से भरी नज़रें उसे फिर आगे की तरफ दौड़ाने लगती हैं। अपने गले में पड़ी हुई ज़ंजीर को वह अब नहीं मानता, जैसे ज़ंजीर उसने मेरे गले में डाल दी हो, सड़क पर जितनी खूबसूरत औरतें जा रही हैं, वे ज्वाए को देखकर हँसती हैं। रास्ता चलनेवाले बच्चे उसे देखकर सीटी बजाते हैं। चमकीली धूप उसके लिए निकली थी। उसे ठँडी हवाएँ मिल रही थीं। मज़ेदार ख़ुशबुएँ अनोखे मंज़र, दिलचस्प खिलौने, और मेरे हाथ सिर्फ तेज़ धूप है। आज आनेवाले बिज़नेस की उलझनें और हर पल ज़्यादा गरम पड़ने वाला सूरज !

सड़क पर चहलक़दमी करने वाले सब लोग ज्वाए को विश करते हैं। कुत्ते के सिर पर हाथ फेरना मुहज़्ज़ब (सभ्य) होने की निशानी है, और मुझे जैसे फालतू आदमी से सड़क पर बात करना ऊँची सोसायटी में अच्छा नहीं समझा जाता। इसलिए ज्वाए जब मेरे साथ हो, तो लोगों को वह अकेला ही नजर आता है और जब मैं सड़क पर अकेला हूँ, तो लोग मुझे एक आदमी की तरह नज़रअन्दाज़ कर देते हैं।
हम दोनों अब सिर झुकाएँ अब घर की तरफ चल रहे थे कि अचानक सड़क पर दूर पिंकी अपनी माँ के साथ नज़र आई और हम दोनों के दिलों की कली खिल उठी।

ज्वाए... ज्व... ज्व.... ज्व.....
वह सड़क पर मिले, तो ज्वाए के लिए सीटियाँ बजाती हैं। ज्वाए उसकी आवाज़ सुनते ही भागती हुआ पिंकी की गोरी पिंडलियों से लिपट जाता है। उसकी फ्रॉक पकड़कर झूलता, उसे धक्के देकर आसपास मँडलाता है। पिंकी हम दोनों को पसन्दीदा नज़रों से देखती है। उसने एक बार टी.वी. पर मेरी नज़्म सुनी थी और मुझे आटोग्राफ लेने आई थी।

पिंकी की मुस्कराहट की ठंडक...उसके क़ुर्ब (समीपता) की आँच, उसकी नज़रों की पसन्द मेरी थकन भी उतार देती है।


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