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मोबाइल

क्षमा शर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3157
आईएसबीएन :81-267-0881-6

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यह उपन्यास आज के युग के एक आत्मनिर्भर लड़की कहानी है...

Mobile

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मोबाइल-मोबाइल गर्ल। ग्लोबल लड़की...। छोटे शहर की लड़कियाँ बड़े शहर से आकर चुनौतियाँ झेलतीं, आगे बढ़ती, लड़ती-झगड़ती, ईर्ष्या-द्वेष से दो-चार होतीं, जीवन के रास्ते तलाशतीं...छोटे शहर की लड़कियाँ जिनके पास संसाधन नहीं हैं, आत्मनिर्भरता का विचार तो पनप रहा है, लेकिन नौकरियां न के बराबर हैं। इसलिए उनकी लड़कियों को संघर्ष, चुनौतियाँ और जिजीविषा तथा खुद निर्णय लेने की क्षमता भी बहुत अधिक है। इस सदी की तेजी से बदलती दुनिया में यह लड़की भी अछूती कैसे रह सकती है !

इस लड़की के लिए महासागर एक रक्षक की तरह है जो उसे न केवल रोजी-रोटी देता है बल्कि तमाम तरह की बेड़ियों और पिछड़े हुए विचारों से मुक्त करता है।
यह उपन्यास इसी आत्मनिर्भरता लड़की की कहानी है जिसकी आकांक्षाओं और सपनों के समाने आसमान क्या, पूरा सोलर सिस्टम छोटा है।

सच कहाँ है, इसे कहाँ पाया जा सकता है ? क्या वह भी बिन लादेन की तरह उन गुफाओं में छिपा बैठा है, जहां की ऑक्सीजन सोखने अमरीका बम लिए दौड़ा चला आ रहा है ? हम सब अमरीकियों की तरह सच ढ़ूँढ़ रहे हैं।
सच क्या इस फब्वारे के उछलते पानी में छिपा बैठा है और नहाते कबूतरों का एक जोड़ा चोंच से चोंच भिड़ाकर उसे ढ़ूँढ़ रहा है !
या कि बिजली के खम्भे पर बैठी वह गुरसल...अशोक के वृक्ष पर साधु की तरह टकटकी लगाए वह गिद्ध।
कौन ढ़ूँढ़ रहा है सच को ?
प्यार...प्यार....चाहत.....केयर !
किसी की आँखों में हँसते-हँसते झाँकना। अकेले सड़क पर चलते हुए सिमिलरटीज को ढ़ूँढ़ना।

किसे कहते हैं प्यार ! लद गए हैं दिन। स्वार्थ या घृणा जिन्हें छिपाने के लिए प्यार का नाम दिया जा सकता है। जिसे हम सबसे ज्यादा घृणा करते हैं  प्यार उसी के लिए उपजता है।
प्यार क्या है ? भावना !

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बारिश के बाद हवा में नमी घुल गई थी और सड़क पर घुटनों तक पानी था। रोज के रास्ते पर भी डर-डरके चलना पड़ रहा था, पता नहीं कहाँ गड्ढ़ा हो।
‘‘चल औरों की तरह तूँ भी अब मेरे सामने शब्दों को बहुत सावधानी से बोलने लगी है। नहीं ?’’ फरहत ने अपनी काजल लगी बड़ी आँखें मधु पर टिकाते हुए कहा।
‘‘क्या मतलब ?’’ मैंने पूछा तो वह बनावटी मुस्कान से सराबोर होते बोली, ‘‘मधु, तू इतनी पागल नहीं है जो मेरी बात को न समझ सके। ऐसा लगता है ग्यारह सितम्बर से पहले हम एक-दूसरे को नहीं जानते थे। डब्ल्यू.टी.सी. टूटने से पहले के दिन कहीं गुम हो गए हैं।’’
नई बनी इमारत की छह फुट ऊँची दीवार पर बैठे बन्दर आते-जाते लोगों के मुँह ताक रहे थे। घात लगाए थे कि कब किसके हाथ से कुछ छीन सकें।

‘‘फरहत, ग्यारह सितम्बर से मेरा और तेरा क्या ताल्लुक ? जिसकी समस्या है, वे भुगतेंगे।’’ मधु ने कहा।
‘‘काश, कि ऐसा ही होता। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है। डब्ल्यू.टी.सी. में जो लोग मारे गए, उन्होंने भला किसके लिए क्या समस्या क्रिएट की थी। यहाँ मैंने किसी के साथ क्या किया है ? लेकिन तूने सुना आदित्य ने कैसे कह दिया कि जब देश का बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ था तो इन सोलह करोड़ साँपों को हमने यहाँ क्यों रहने दिया। और तूने देखा कि किसी ने उसका खास विरोध नहीं किया।’’

‘‘तू आदित्य की बात का क्यों बुरा मानती है। वह तो है ही ऐसा। कुछ भी कह देता है फिर रिपेंट भी करता है।’’ मधु ने कहा तो फरहत दाँत किटकिटाते हुए बोली, ‘‘कैसे कुछ भी कह देगा। मैं भी इस देश की उतनी ही नागरिक हूँ। मैं भी यहाँ पैदा हुई हूँ। मैं भी मुसल्मानों की कट्टरता से उतनी ही नफरत करती हूँ जितना वह। तू जानती है कट्टरता किसने बढ़ाई है। उन्होंने जो कहते हैं सारे धर्म मानवता, प्रेम और भाईचारा सिखाते हैं। यह झूठ है। धोखा है। कोई धर्म भाईचारा नहीं सिखाता। नफरत सिखाते हैं। हम एक-दूसरे से नफरत करते हैं तभी तो अपनी-अपनी अलग पहचान के प्रश्न उठाते हैं। अन्यथा मनुष्य, मनुष्य ही है। वह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई क्यों है ? हम कोई कुत्ते-बिल्ली नहीं हैं।’’
फरहत इतनी जोर से बोल रही थी कि पूरी बस सुन रही थी। ऐसा लगता था कि ग्यारह सितम्बर के बाद का डेढ़ महीना उसके लिए बहुत भारी बीता था।

सब उसके सामने बहुत सँभल-सँभलकर बोलने लगे थे। इस डेढ़ महीने में कितना कुछ बदल गया था। इसे आदित्य और उस जैसे अनेक लोगों के रिएक्शंस से समझा जा सकता था।
पहले कुछ दिन आदित्य ने खुशी में बिताए थे। उसे लगता था कि अमरीका तालिबानों को मदद देने के कारण पाकिस्तान को तहस-नहस कर देगा और कश्मीर समस्या सुलझ जाएगी। दुनिया भर में आतंकवाद निपट जाएगा।
लेकिन जैसे ही अमरीका ने परवेज मुशर्रफ को शान्ति का मसीहा माना था, आदित्य का उत्साह ठंडा पड़ गया था, ‘‘लो हमने अनकंडीशनल सपोर्ट की बात कही और किसी ने पूछा तक नहीं।’’
‘‘कोई क्यों पूछे जब तुम बिना कहे बिछ गए। तुम्हें लगा अमरीका देवदूत की तरह तुम्हारी सारी प्राब्लम हल कर देगा। वह तुम्हारा कब हुआ जो अब होगा। कश्मीर हमेशा से उसके लिए डिस्प्यूटेड टेरिटरी रहा है। अरे छोटे से छोटा देश अपनी शर्तें लगा रहा है और आप हैं कि तलवे चाट रहे हैं अगर पहले ही दिन कहते कि हम आतंकवाद के खिलाफ हैं मगर कश्मीर पर कोई बात नहीं तब देखते क्या होता ?’’

विनय ने कहा तो आदित्य बच्चों की तरह बोला, ‘‘मगर यार अमरीका हम पर अटैक कर देता तो ?’’
‘‘क्यों उसके बाप का राज है ? एक विएतनाम तो उससे सँभला नहीं और अभी देख लो। दुनिया की इतनी बड़ी-बड़ी ताकतें किसे ढूँढ़ रही हैं, एक बिन लादेन को।’’ विनय अपनी ही बात पर हँसा था तो फरहत ने कहा था, ‘‘बात तो सही है। मीडिया ने जितना बिन लादेन के खिलाफ प्रचार किया उतना ही वह हीरो बना। इन्हीं बुश साहब के अब्बा हुजूर थे न जो अफगानिस्तान के मदरसें में जाकर अल्ला हो अकबर चिल्लाए थे। तीन मिलियन कलाश्निकोव का तोहफा दिया था। अब वे ही अल्ला हो अकबर वाले उनके बेटे खून के प्यासे हो रहे हैं तो नानी याद आ रही है।’’
‘‘बात तो फरहत ठीक कह रही है। हम प्रश्नों से टकराते तभी क्यों हैं जब वे बिल्कुल खूनी पंजे फैलाए सामने खड़े होते हैं। क्यों मानवीय मूल्य सबके लिए बराबर नहीं है। एक मारने वाला मरने वाले के बराबर कैसे हो सकता है ?’’
‘‘मैं कुछ समझा नहीं।’’ आदित्य बोला।

‘‘समझोगे कैसे ? तुम्हें अमरीका में कभी खोट नजर आता है ? जिसे आज इस्लामिक आतंकवाद कह रहे हो वह किसका पाला-पोसा बच्चा है ? सारी दुनिया की तानाशाहियों को चाहे वे इस्लामिक हैं, बुद्धिस्ट या कोई और, अमरीका ही सपोर्ट करता रहा है,’’ मैंने कहा।
‘‘गड़े मुर्दे उखाड़ने का क्या फायदा ?’’ विनय ने फरहत की ओर आँख से इशारा करते हुए कहा था।
फरहत ने इसे देखा था। लेकिन फिर भी बोली थी, ‘‘ये जो हर देश में लादेन के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं ? न जाने क्यों लोग इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि सरकारें यदि अमरीका के साथ हैं तो जनता बिन लादेन के।’’
‘‘लेकिन यार यह बात भी है कि सारे मुसलमान धर्म के नाम पर एक सुर में बोलते हैं,’’ आदित्य बोला।
उसकी बात सुनकर फरहत के ओठ फड़फड़ाए मगर वह बोली नहीं।

मधु ने ही कहा, ‘‘आदित्य, यह तो हिस्ट्री को झुठलाना हुआ। यदि तालिबान मुसलमान हैं तो नार्दन एलांसवाले क्या हैं ? पाकिस्तान ने बांग्लादेश के साथ क्या किया था। यदि इराक मुस्लिम देश है तो कुवैत क्या था ? और ईरान, इराक, जो इतने वर्षों तक लड़ते रहे ? बात यह है कि जो ऊँची आवाज में बोलता है, उसी को सुना जाता है। शाहबानो के मुकाबले कट्टरपंथियों की आवाज ज्यादा तेज़ थी इसलिए शाहबानों को कहना पड़ा कि उसके पक्ष में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देकर बहुत बड़ी गलती की। बकरी ने कसाई से कहा कि रे कसाई तू इतनी बड़ी गलती क्यों कर रहा है ? मुझे क्यों नहीं काट रहा ?’’
‘‘मगर बकरी तो बाद में कटेगी यह बारिश कब रुकेगी ?’’ आदित्य बोला।
उसका यह कहना था कि सब हँसने लगे और बारिश भी धीरे-धीरे रुक गई थी।
तभी मधु और फरहत निकल पाए। मधु, फरहत, आदित्य, विनय। दफ़्तर में इन चारों का ग्रुप था। सबके विचार अलग थे फिर भी चारों इकट्ठे रहते थे।

सड़क कहीं अंधेरे में डूबी थी तो कहीं जगमगा रही थी। मटमैले नीले धुएँ की एक चादर धीरे-धीरे नीचे उतर रही थी। यह प्रदूषण तो था ही सर्दी आने का पता भी था।
नम हवा शरीर से टकराकर हल्की-सी सिहरन पैदा कर रही थी। सुबह पाँच बजे से रात बारह बजे तक भीड़ थमती नहीं थी। हर एक को कहीं न कहीं पहुँचने की जल्दी पड़ी रहती थी। जल्दी भी ऐसी कि कहीं पहुँचने के लिए अपने ही आसपास के किसी को पीछे, बहुत पीछे छोड़ देना था।

मधु और फरहत जब बस स्टैंड पर उतरीं, उस वक्त रात हो ही गई थी। छोटे शहर में क्या कोई लड़की शाम के सात बजे इस तरह अकेली घर लौट सकती थी। अगर लौटती भी तो कितने सवालों का जवाब उसे देना पड़ता।
सड़क से नीचे उतरकर वे गली की सड़क पर चलने लगी थीं। ऑफिस से भागमभाग में इस वक्त थोड़ी सी कमी तो आती ही थी।
कमरे में पहुँचने पर मधु ने दरवाजा खोला तो फर्श पर चिट्ठी पड़ी थी। घर यानी कि आगरा से आई थी। मम्मी की चिट्ठी। अभी कल ही तो मम्मी से बात हुई थी। मधु ने सोचा और चेंज करने के लिए बाथरूम में घुस गई।
फरहत उसका बाहर निकलने का इन्तजार करने कुर्सी पर बैठ गई और अखबार पलटने लगी। अखबारों में हर तरफ युद्ध छाया हुआ था। उसने अखबार एक ओर पटक दिया और फ्रिज खोलकर देखा। सुबह की कोई सब्जी या दाल बची हुई नहीं थी। ‘क्यों न जब तक मधु निकले दाल ही चढ़ा दूँ। एक काम ही निपटेगा।’ फरहत ने सोचा।
‘लेकिन कौन-सी दाल ? लाल मसूर।’ सोचते हुए उसने दो मुट्ठी दाल बीनकर धोकर कुकर में डालकर चढ़ा दी। सिंक में सुबह के एक-दो बर्तन भी रखे थे, उन्हें साफ किया कि मधु बाहर निकली।

‘‘अरे तूने काम शुरू भी कर दिया। पहले फ्रेश हो ले।’’ कहती हुई मधु रसोई की तरफ बढ़ी। चाय का पानी चढ़ाकर, परात में आटा निकालकर गूँथने लगी। फिर याद आया कि सुबह तो राजमा-चावल खाने का मन था। लेकिन अब तो आटा गीला हो चुका था।
जब तक फरहत बाहर आई, चाय तैयार थी। आटा गूँथा जा चुका था। उसे देख मधु ने कहा, ‘‘यह क्या किया। रात में सिर धो लिया। ठंड लग जाएगी।’’
‘‘नहीं लगती ठंड, अभी ड्रायर से सुखा लूँगी। तू कभी-कभी मेरी अम्मा की तरह बोलने लगती है।’’
‘‘और नहीं तो क्या, हम दोनों एक-दूसरे की अम्मा ही तो हैं।’’ यह कहते-कहते मधु एकाएक खड़ी हो गई। उसके प्याले की चाय छलकते-छलकते बची। उसे झपटकर अपनी माँ का पत्र उठाया और एक साँस में पढ़ गई। फिर जोर-जोर से हँसने लगी। उसे देखकर फरहत भी हँस दी। साथ-साथ की हँसी।
फरहत के बिना कुछ पूछे ही मधु बोली, ‘‘मेरी माँ चिट्ठी क्या लिखती है, पूरी कविता लिखती है। जरा पढ़ तो।’’
‘‘नहीं बाबा, दूसरों की चिट्ठियाँ नहीं पढ़नी चाहिए।’’ फरहत ने बिस्कुट काटते हुए चाय का आखिरी घूँट भरा।
‘‘ज्यादा बन मत। यह कौन से मेरे बॉयफ्रेंड की चिट्ठी है। माँ की ही तो है। मैं टी.वी. खोलती हूँ। देखे युद्ध के फ्रंट पर क्या हुआ ?’’

फरहत चिट्ठी पढ़कर हँसने लगी।
‘‘आंटी की चिट्ठी पढ़कर तो ऐसा लग रहा है कि कोई क्रूज मिसाइल रास्ता भटककर बस हमारे इसी कमरे पर गिरेगी।’’
मधु रिमोट से चैनल बदल रही थी। हर चैनल युद्ध के उद्घोषों से गूँज रहा था। टैंक दौड़ रहे थे। दस-दस साल के बच्चों के कन्धों पर बन्दूकें लटकी थीं। उनके बस्ते कहाँ थे, पता नहीं। औरतें बुर्कों में लिपटी थीं और ईमान की बातें करतीं अपने प्रति बरसती नफरत से उबरने की कोशिश करती थीं।


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