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कुछ विचार

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3149
आईएसबीएन :9788128400070

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प्रेमचन्द्र के विचारोत्तेजक भाषण एवं लेखों का संग्रह...

Kuch Vichar

कथाकार प्रेमचंद सिर्फ रचनाकार ही नहीं धारदार चिंतक भी थे। इस पुस्तक में उनके विचारोत्तेजक भाषण, लेख का संग्रह है। इसमें साहित्य का उद्देश्य, कहानी कला, जीवन में साहित्य का स्थान, उर्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तानी तथा राष्ट्र भाषा को लेकर उठी तात्कालिक समस्याओं पर विचारक प्रेमचंद ने अपने जीवनानुभवों के प्रकाश में विचार प्रकट किये हैं।

साहित्य के मर्मज्ञ इसके बहाने प्रेमचंद की साहित्य दृष्टि से सीधे साक्षात्कार कर सकेंगे। अध्येताओं के लिए एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं संग्रहणाय पुस्तक...

प्रगतिशील विचारक प्रेमचंद


प्रेमचंद एक ऐसे रचनाकार हैं जो अपने से जुड़ने के लिए भी बनी-बनायी तिरपाल का भरोसा नहीं करते। वे खुद अपनी ज़मीन गोड़ते हैं। उसमें से पात्र तलाशते हैं। यही वजह है कि वे पात्र को उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए उसे खींचतान कर निर्दोष साबित करने पर उतारू नहीं होते। यदि अपनी सहज जीवन-यात्रा में कोई पात्र निर्दोष है तब तो ठीक है और नहीं तो उससे पात्र के समग्र जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे कहा जाता है कि इतिहास में सब कुछ जस का तस है, फिर भी असत्य लगता है और कहानी में ज्यादातर काल्पनिक होता है, फिर भी सच लगता है। प्रेमचंद समय के गतिशीलता के रचनाकार हैं, इसलिए जस का तस लेखन उनका ध्येय नहीं है। उनकी कोशिश यह भी है कि समाज का वर्तमान चेहरा बदले और वह जीने लायक बन सके। लेकिन इसके लिए वे धर्म और नीति का दामन थामकर समता लाने के लिए आंगन नहीं लीपते। उनकी भाषा में ‘हरकत’ और ‘गर्मी’ का पैदा होना एक जरूरी प्रत्यय है। इसके बिना कविता भी निरर्थक है। सिर्फ भावोत्तेजना क्षणिक गुब्बार भर है। इससे कुछ होता नहीं। सिर्फ दोस्तोवस्की जैसी मनोभावों की दुर्वसता प्रकट होती है। लेकिन प्रेमचंद के पात्रों में, वातावरण में दैन्य भले हो, क्योंकि वह परिवेश की मांग है, पलायन नहीं है। चाहे ‘निर्मला’ हो ‘होरी’ हो कोई हो। प्रेमचंद का पात्र आपकी मुट्ठियों में तनाव भरता है और जूझने की ताकत भी भरता रहता है। स्थितियों की लाचारी और व्यवस्था के खिलाफ हवा से गुजरते भी प्रेमचंद प्राचीन आदर्शवाद के समर्थक हैं। उनकी नवीन है कि बदलाहट के लिए गांधी की अहिंसा से बेहतर कोई रास्ता नहीं है। 1931 में हंस में उन्होंने लिखा था - ‘हिंसा का भूत हमारे सिर पर सवार हुआ और हमारा सर्वनाश हुआ। केवल भौतिक अहिंसा से भी काम नहीं चलेगा। हमें मनसा, वाचा और कर्मणा अहिंसा को अपनाना होगा। वे कहते रहे गांधी का उद्देश्य यही है कि मजदूर और किसान सुखी हो। वे आंदोलन चला रहे हैं और मैं उन्हें लिखकर उत्साह दे रहा हूं। गांधी हिन्दू-मुसलमानों में एकता चाहते हैं और मैं हिन्दी-उर्दू को मिलकर हिन्दुस्तानी बनाना चाहता हूँ।

कथाप्रदेश को लेकर, कथाकर्म और कथा-काया पर भी प्रेमचंद की सोच अलग थी। वे इस बात के खिलाफ थे कि यूरोपीय लेखन के वतर्ज भारतीय लेकन भी चले। इसे वे कहानी लेखन की सहजता में बाधा मानते थे। इसी वजह से डिकेन्स, हार्डी और ब्रांटी आदि की तुलना में मोपांसा, बालजक और पीयरसोटी जैसे रचनाकार उनके लिए महत्वपूर्ण थे। तोलस्तोय उनके लिए जरूरी कथाकार है।

‘प्रेमचंद कुछ विचार’ दरअसल, उनके कुछ निबंध हैं। इसमें उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी, कहानी-कथा, राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्याएं जैसे विषयों पर अलग-अलग स्थान पर कहा है। वे अपनी कहन में भी चुन्नटी नहीं थे। बहुत साफ तरीके से अपनी बात रखते हुए प्रेमचंद हिचकिचाते नहीं। उन्होंने लखनऊ में हुए प्रगतिशील लेकर संघ के सभापतित्व से बोलते हुए ‘प्रगतिशील’ शब्द पर ही आपत्ति दर्ज कराई थी। उनका कहना है वह रचनाकार हो ही नहीं सकता जो प्रगतिशील नहीं है। उनका वह भाषण भी इसी पुस्तक में है।
- प्रदीप पंडित


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