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हास्य-व्यंग्य >> गणतंत्र का गणित

गणतंत्र का गणित

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3134
आईएसबीएन :81-7055-544-2

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इन बत्तीस वर्षों में नरेन्द्र कोहली ने कभी व्यंग्य़ की अवहेलना नहीं की।

Gantatra Ka Ganit

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इन बत्तीस वर्षों में नरेन्द्र कोहली ने कभी व्यंग्य़ की अवहेलना नहीं की। समय के साथ उनका व्यंग्य और प्रखर और पैना हुआ। ‘अट्टाहास’ और ‘चकल्लस’ पुरस्कारों से सम्मानित नरेन्द्र कोहली के व्यंग्य लेखन में पिछले दिनों राजनीति का रंग कुछ गहरा हुआ है। वे दूसरों की बनाई रूढ़ सीमाओं में बँध कर, फैशनेबल नारों का ध्यान में रखकर, रचना नहीं करते, न तो वे साहित्यिक रूढ़िवादियों की मान्यता और स्वीकृति की चिंता करते हैं। इसलिए वे उन विसंगतियों पर भी लिखते हैं, जिन्हें लोगों ने देखा और भोगा तो है, किन्तु जिसके विषय में लिखने का साहस वे नहीं कर पाते।

ऋणी

मुझे आयकर अधिकारी ने बड़ा मधुर-सा पत्र लिख कर बुलाया था। मुझे विश्वास दिलाया गया था कि आजकल हमारे ये अधिकारी कनून पर चलने वाले व्यक्ति को तनिक भी परेशान नहीं करते। मैं मान लेता हूँ कि मुझे सच ही बताया गया होगा। भला कोई झूठ क्यों बताएगा; और मैं तो कानून से तनिक भी हटकर नहीं चलता। इसलिए नहीं कि कानून तोड़ने वाले को दंडित किया जाता है; बल्कि इसलिए की कानून हमारी ही भलाई के लिए बने हैं। उन पर चलना अपना ही भला करना है। वैसे यह दूसरी बात है कि हमारे यहाँ कानून तोड़ने वाले को भी दंडित नहीं किया जाता। यहाँ तो स्थित है कि जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला।

मैंने उस दिन देखा था लाल बत्ती की अवहेलना कर आगे बढ़ जाने वाले एक चालक को सिपाही ने रोका। चालक रूका और पचास रूपए देकर आगे बढ़ गया। सिपाही ने उसे कुछ नहीं कहा। दंडित करने की तो बात ही नहीं आई। एक दूसरे चालक ने लाल बत्ती पर गाड़ी दौड़ाई तो सिपाही ने उसे भी रूकने के लिए संकेत किया, किंतु यह चालक सिपाही की भी उपेक्षा कर आगे बढ़ गया। सिपाही ने उसे कुछ नहीं कहा। दंडित करना तो दूर उससे वे पचास रूपए भी नहीं लिए, जो पहले चालक की परंपरा से उनके बनते थे। इसलिए मेरे मन में दृढ़ बद्ध धारणा है कि अपनी सरकार का सिद्धांत है जो माने उसका भी भला, जो न माने उसका भी भला।

फिर मैं तो मानने वाले में से हूँ। सिपाही को पचास की जगह सौ देकर भी प्रसन्न ही रहता हूँ कि उसने मुझे परेशान नहीं किया। वह यदि सौ रूपए लेकर भी न मानता, तो मैं उसका क्या बिगाड़ सकता था।
तो मैं सहज भाव से आयकर अधिकारी के पास जा पहुँचा। उसने हँसकर मुझसे हाथ मिलाया और बैठने के लिए कहा। मैं बैठ गया तो उसने पूछा, आप ने नया मकान बनवाया है ?’’

मैं प्रसन्न हो गया। इन दिनों जो मेरे नए मकान की चर्चा करता था मुझे वह भला आदमी लगने लगता था। मेरी इच्छा होती थी कि मैं उसे अपने घर की एक-एक दीवार और एक-एक दरवाज़ा दिखाऊँ। फ़र्श और छतें दिखाऊँ। जब किसी को दिखाऊँगा नहीं, तो वह उसकी प्रशंसा कैसे करेगा ? और प्रशंसा मुझे बहुत अच्छी लगती है। अपनी भी और अपने मकान की भी।
मैंने प्रसन्नतापूर्वक कहा, ‘‘जी हाँ, बनवाया तो है। आप देखना चाहेंगे क्या ?’’
वह हँसा, ‘‘अजी हमारे ऐसे भाग्य कहाँ। वह तो डी.डी.ए. वाले या नगरपालिका वाले देखेंगे। हमें तो आप यह बता दीजिए कि उसका खर्च क्या आया है। आपका कितना रूपया लग गया ?’’

मुझे वह अपने भाई-सा प्रिय लगने लगा। बेचारे को कितनी चिन्ता है कि कहीं मेरा सारा पैसा मकान में ही तो नहीं खप गया। कुछ तो बचाकर रखना ही चाहिए। आजकल तो ओपन हार्ट सर्जरी में ही डेढ़-दो लाख रूपया लग जाता है। शायद इसी को दिल खोलकर खर्च करना कहते हैं। जाने कब मेरा भी हृदय खुल जाए।
मैंने हँसकर कहा, ‘‘मैं जितना चाहता था उससे कुछ अधिक ही खर्च हो गया है। आप जानते हैं कि मकान और विवाह में मुट्ठी बंद कर लेने से काम नहीं चलता।’’
‘‘मुझे भी ऐसा ही लगता है।’’ वह बोला, ‘‘फिर भी अंदाजन कितना ख़र्च हो गया होगा ?’’
‘‘मेरी इच्छा तो थी कि पाँच लाख में बन जाए पर उसमें आठ ही ख़र्च हो गए। अब देखिए न, मकान कौन-सा रोज़-रोज़ बनता है। ऐसे में न मैं पत्नी की फरमाइश टाल सकता था, न बच्चों की ज़रूरत की उपेक्षा कर सकता था।’’
‘‘आप ठीक कहते हैं। उसने बड़े घर-बारी तरीके से कहा, ‘‘पत्नी और बच्चे ही प्रसन्न न हों तो फिर मकान बनवाना ही किसके लिए है।’’

‘‘ठीक कहते हैं आप।’’मैं उससे तत्काल सहमत हो गया।
‘‘पर ये पैसा आया कहाँ से ?’’ उसने मुझसे पूछा।
मैं सँभल गया। हमारे सारे मित्रों में यही बड़ा रोग है। टटोल-टटोलकर पूछेंगे कि घर का ख़र्च कहाँ से चलाता हूँ। वैसे मकान बनाने वालों की यह मजबूरी भी है। पैसे होते नहीं और मकान बनवाना होता है, तो कहीं-न-कहीं से तो उधार लेना ही पड़ता है। इसलिए एक दूसरे से पूछते रहते हैं कि पैसा कहाँ से उधार लिया। भविष्य-निधि, बीमा कंपनी इत्यादि-इत्यादि से लिया गया। ऋण बताने में कोई परेशानी नहीं है। किसी की कोई सहायता हो जाए तो क्या बुराई है; किंतु मैंने तो बहुत सारा पैसा अपने ससुराल से लिया था। भला यह भी कोई किसी को बताने की बात है। आयकर अधिकारी की शिष्ट और विनीत मुद्रा भी मुझे पिघला नहीं सकी। मैंने अपनी ओर से बहुत कठोर होते हुए कहा, ‘‘यह मेरा अपना निजी मामला है। आप व्यक्तिगत अथवा सरकारी रूप में उसमें टाँग न ही अड़ाएँ तो अच्छा होगा।’’
उसकी मुद्रा विकृत हो गई। मेरी ओर देखकर बोला, ‘‘आप अपनी आय के साधन हमसे छिपा रहे हैं। कंसीलमेंट ऑफ फैक्ट्स। आपको जेल भी हो सकती है।’’...

मैं चकरा गया। जाने क्या बात है कि जब भी मैं अपने कुछ संबंधों को बताता या छिपाता हूँ तो मेरे लिए कोई-न-कोई संकट खड़ा हो ही जाता है...
पहले भी एक बार भविष्य-निधि अधिकारी ने मुझसे एक फॉर्म भरवाते हुए पूछा था, ‘‘आपका नाम ?’’
मैंने अपना नाम बता दिया था; क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि मेरे माता-पिता ने मेरा नाम इसलिए रखा था कि मैं उसे लोगों को बताऊँ। अब उस नाम को छिपाकर मैं अपने माता-पिता से विश्वासघात तो नहीं कर सकता। उस अधिकारी ने पूछा, ‘‘आपके उत्तराधिकारी का नाम ?’’ मैं थोड़ी देर चिन्ता में पड़ गया। सामान्यतः उत्तराधिकारी तो पुत्र ही होता है किंतु मैं नहीं चाहता था कि मेरे बाद मेरे भविष्य-निधि की राशि मेरे पुत्र को मिले। मैं तब भी मानता था; और आज भी यही मानता हूँ कि उस पर पहले मेरी पत्नी का अधिकार है। मैं नारी-जाति की उपेक्षा सहन नहीं कर सकता। इसलिए उत्तराधिकारी के रूप में मैं अपनी पत्नी का नाम बता दिया। भविष्य-निधि अधिकारी ने मेरी ओर देखा और पूछा, ‘‘संबंध ? रिलेशनशिप ?’’

मुझे क्रोध आया। वह कौन होता है मेरी और मेरी पत्नी के संबंधों पर संदेह करने वाला अथवा उन पर प्रश्न उठाने वाला। मैंने बलपूर्वक कहा, ‘‘वैरी कॉर्डियल। बहुत अच्छे संबंध हैं हमारे।’’ उसने भी तमककर मेरी ओर देखा और बोला, ‘‘मुझे इससे क्या लेना-देना है कि आपके संबंध अच्छे हैं या नहीं। मुझे तो यह बताइए कि वह आपकी लगती क्या है ?’’
इच्छा तो हुई कि उसे एक थप्पड़ लगा दूँ। भला आदमी मेरी पत्नी के विषय में मुझसे पूछ रहा है कि वह मेरी क्या लगती है। पर क्रोध को संयत करके ही उसे बता ही दिया कि वह मेरी पत्नी है। उसे इतने पर ही संतोष नहीं हुआ। बोला, ‘‘किन परिस्थितियों में आप चाहेंगे कि आपका प्रॉविडेंट फंड आपकी पत्नी को न दिया जाए।’’ मेरी कल्पना ने सहस्रों परिस्थितियों का भ्रमण किया; किंतु ऐसी कोई परिस्थिति मैं खोज नहीं पाया, जिसमें भविष्य-निधि की राशि मेरी पत्नी को न मिलकर उस अधिकारी की पत्नी को मिल सके। हताश होकर मैंने उसी से प्रश्न किया कि क्या कोई ऐसी परिस्थित हो सकती है, जिसमें मैं अपनी भविष्य-निधि अपनी पत्नी को न देना चाहूँ ?

उसने मुझे इस प्रकार देखा जैसे मैंने कोई बेहद मूर्खतापूर्ण प्रश्न किया हो और बोला, ‘‘यदि आपकी पत्नी दूसरा विवाह कर ले तो क्या आप अपनी भविष्य-निधि उसे देना चाहेंगे ?’’
वह एक विजेता के समान मुझे देख रहा था और मैं सोच रहा था कि क्या उसको यह कह दूँ कि ऐसा संकट उसे हो सकता है मुझे क्यों होगा। मुझे लगा कि उस अधिकारी की पत्नी किसी और के साथ भाग गई है; इसलिए अब वह हर व्यक्ति से ऐसे प्रश्न करने लगा है।...किन्तु वह सरकारी अधिकारी था। मैं उसे सांत्वना भी नहीं सकता था। सोचा : कहीं इस विषय में अधिक चर्चा हो गई तो बेचारा कहीं रो ही न पड़े। मैं बात टाल गया बोला, ‘‘यदि मेरे जीवनकाल में मेरी पत्नी दूसरा विवाह करेगी, तो मैं उस समय उत्तराधिकारी का नाम बदलने के लिए जीवित बैठा होऊँगा अभी से अपनी पत्नी पर ऐसा संदेह क्यों करूँ।’’

‘‘और यदि वह आपकी मृत्यु के पश्चात् दूसरा विवाह कर ले तो‍ ?’’ उसने इस प्रकार मुस्करा कर पूछा, जैसे मुझे चारों खाने चित करने में पूर्णतः सफल हो गया हो।
मैं फिर खीझ उठा...यह मेरी पत्नी को इतना मूर्ख क्यों समझता है कि वह मेरी मृत्यु के पश्चात् भविष्य-निधि की राशि लिए बिना ही किसी और से विवाह कर लेगी; और यह भविष्य-निधि की राशि उसे देने से मना कर सकेगा। पर यह सब मैंने उससे कहा नहीं। बोला, ‘‘यदि मेरी मृत्यु के पश्चात् वह मेरी भविष्य-निधि ले ले, और इसके पश्चात् दूसरा विवाह कर ले, तो क्या आप उससे वह राशि लौटा ले सकते हैं ?’’

इस बार उसने भौचक होकर मुझे देखा और बोला, ‘‘नहीं, ऐसा तो कोई नियम नहीं है।’’ अब तक मैं उपदेशक की मुद्रा में आ चुका था। बोला, ‘‘अब तुम मेरी नहीं, अपनी बात सोचो। कल जब तुम मर जाओगे और तुम्हारी पत्नी निश्चित रूप से दूसरा विवाह चाहेगी तो उसको दहेज की आवश्यकता होगी, जोकि उसके पिता के न रहने के कारण जुटाया नहीं जा सकेगा। ऐसे में वह तुम्हारी भविष्य-निधि से ही नहीं, जीवन-बीमा की राशि से भी अपने दूसरे विवाह का दहेज बनाएगी। अतः इस प्रकार का प्रावधान होना चाहिए कि वह भविष्य-निधि उसको पति की ओर से दिया गया दहेज माना जाए, और वह राशि प्रत्येक अवस्था में पत्नी को ही मिले।’’

मेरी इन उदार बातों से वह अधिकारी तनिक भी प्रसन्न नहीं हुआ। बोला, ‘‘तुम चाहो तो तुम्हारे इन तर्कों के कारण यहाँ मैं एक टिप्पणी लिख दूँ कि इस व्यक्ति का मानसिक संतुलन ठीक नहीं है। अतः इसे अपनी संपत्ति, भविष्य-निधि तथा पेंशन इत्यादि के संबंध में कोई निर्णय करने का अधिकार न दिया जाए।’’

मुझे लगा, मैं उसकी पत्नी का भविष्य सुधारते-सुधारते अपना भविष्य बिगाड़ रहा था।...आज फिर कुछ वैसी ही स्थित मेरे सामने आ गई थी। मैं इस आयकर अधिकारी को शिष्टाचार के नियम सिखा रहा था कि इस स्वतंत्र गणतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजी बातों को गोपनीय रखने का पूरा अधिकार था; और वह मुझे कारावास के गुप्त जीवन की धमकी दे रहा था। अब मैं जेल तो जाने से रहा। मेरे ससुराल वालों को अच्छा लगे या बुरा मैं उनके और अपने मधुर संबंधों को अब और गुप्त नहीं रख सकता। मुझे आयकर अधिकारी को बताना ही होगा कि मैं अपने ससुराल का कितना ऋणी हूँ।

         सात बजे का संकेत
रामलुभाया ने मुझे भोजन के लिए निमंत्रित किया।
‘‘अपने घर का रास्ता तो समझा दो।’’ मैंने कहाँ।
‘‘घर का रास्ता क्या करोगे।’’ वह बोला, ‘‘पार्टी तो होटल में है।’’
‘‘क्यों तुम्हारे घर में स्थान नहीं है क्या ?’’
‘‘स्थान क्यों नहीं है।’’ वह बोला, ‘‘पर घर में वैसा भोजन हो नहीं सकता, जैसा मैं खिलाना चहता हूँ।’’
‘‘तुम्हारी पत्नी वैसा भोजन पका नहीं सकती तो होटल से मँगवा लो।’’ मैंने परामर्श दिया, ‘‘पार्टी तो घर में ही रखो। तुम्हारे परिवार से भेंट हो जाएगी।’’
रामलुभाया की आँखों में क्षोभ झलका, ‘‘मैं पार्टी उन लोगों को नहीं दे रहा, जिनके बीच रहता हूँ, उन लोगों को दे रहा हूँ जिनके मध्य रहना चाहता हूँ।’’
‘‘जिन लोगों के मध्य रहते हो, उनसे प्रेम नहीं है तुम्हें ?’’ मैं चकित था।
‘‘नहीं ! जिनसे प्रेम करता हूँ, उनके मध्य रह नहीं सकता।’’ रामलुभाया ने बताया, ‘‘वे धनी लोग हैं और महँगे मुहल्लों में रहते हैं।’’

मैं चुप रह गया। रामलुभाया कोई नई बात तो कह नहीं रहा था। वही पुरानी बात थी।
‘‘कुमुदिनी जल में बसै, चंदा बसै, अकास।
जो जाहि को भावता, सो ताहि के पास।।’’
‘‘ठीक है होटल में ही आ जाऊँगा।’’ मैं बोला, ‘‘क्या समय रखा है ?’’
‘‘सात बजे !’’
 ‘‘सात बजे !’’ मैं चकित था, ‘‘सात बजे कौन खाना खाता या खिलाता है ?’’
‘‘खाना तो साढ़े नौ बजे खाएँगे।’’ वह बोला, ‘‘सात बजे तो बुलाने का समय है।’’
‘‘सात बजे कौन आएगा।’’ मैं हताश हो रहा था।

‘‘तो मैं ही कौन-सा आऊँगा।’’ रामलुभाया ने कहा, ‘‘ब्यूटी पार्लर से आते-आते ही मेरी पत्नी आठ बजा देगी।’’
‘‘तो लोगों को सात बजे बुलाने का ही क्या शौक है तुम्हें ? मैंने कहा आठ बजे ही बुला लो।’’
‘‘नहीं ! नहीं !!’’ वह मुझ पर झपट पड़ा, ‘‘समझते हो नहीं बोलते जाते हो। आठ बजे बुलाने से लोग मान लेंगे कि आठ बजे उन्हें खाना मिल जाएगा। उस बात को तो समझ ही नहीं पाएँगे।’’
‘‘किस बात को ?’’
‘‘जो मैं सात बजे के माध्यम से समझाना चाहता हूँ।’’ वह भोजन के लिए बुला रहा है, इतना तो मैं समझ ही गया था। तो फिर वह और क्या समझाना चाहता है ?
‘‘नहीं समझे ?’’ उसने पूछा।
‘‘नहीं’’
‘‘अरे भोजन से पहले कुछ पेय पदार्थ। तुम कुछ शर्बत-वर्बत पी लेना।’’
‘‘सात से साढ़े नौ बजे तक शर्बत पीऊँ और साढ़े नौ से दस बजे तक भोजन।’’ मैं बोला,
‘‘मैं पागल नहीं हूँ।’’

‘‘पागल तो नहीं हो; किन्तु मूर्ख हो।’’ वह बोला।
‘‘इसमें मूर्खता की क्या बात है।’’ मैं कुछ रुष्ट हो गया था।
‘‘मैं उस शर्बत की बात कर रहा हूँ जो धीरे-धीरे पीया जाता है।’’ वह बोला, ‘‘ढाई घंटे में तो दो-तीन प्याले भी नहीं पी पाओगे।’’
‘‘तुम मदिरा की बात कर रहे हो ?’’ मैं उखड़ गया, ‘‘मैं मदिरा नहीं पीता।’’
‘‘इसीलिए तो तुम हाई सोसायटी का अंग नहीं बन पाते।’’ वह हँसा, ‘‘सदा वही रहोगे-पोंगा-पंथी। पिछड़े हुए बैकवर्ड क्लास।’’
क्रोध तो मुझे बहुत आया कि वह मदिरा जैसी घटिया चीज़ को गौरवान्वित करने का प्रयत्न कर रहा है; किन्तु लड़ना उचित नहीं समझा। बोला, ‘‘चलो बैकवर्ड ही सही। मुझे पिछड़े वर्गों का आरक्षण दिला दो। कुछ तो लाभ हो।’’

बात का रूख बदलने से वह कुछ हतप्रभ हुआ; किंतु तत्काल सँभल गया, ‘‘कल सात बजे आ जाना। यदि ऊँची सोसायटी का लाभ लेना हो तो अंग्रेजी पी लेना। यदि पिछड़ेपन का लाभ लेना हो तो देशी पी लेना। कोई लाभ न उठाने की मूर्खता करनी हो तो नैतिकता का झंडा लिये साढ़े नौ बजे आना और खाना खाकर चुपचाप घर लौट जाना।

सैक्यूलर


लड़की सुन्दर थी, पढ़ी-लिखी थी, अच्छी नौकरी में लगी हुई थी; और रामलुभाया की मंगेतर थी। फिर भी रामलुभाया ने संबंध अस्वीकार कर दिया। सगाई तोड़ दी। मुझे रामलुभाया का यह निर्णय अच्छा नहीं लगा। मेरा उस पर कोई अधिकार नहीं था, जिससे मैं उस पर कोई दबाव डाल सकता। पर पूछ तो मैं सकता ही था। जिस देश में राह चलते व्यक्ति की पूरी जन्म-कुण्डली बाँच ली जाती है, उसमें एक परिचित भले मानस से यह क्यों नहीं पूछा जा सकता कि एक अच्छी-भली लड़की से विवाह करना अस्वीकार कर वह उसका तिरस्कार क्यों कर रहा था।

उसने मुझे कारण नहीं बताया। कहानी सुनाई। बोला, ‘‘हम दोनों, मैं और तुम्हारी वह भली लड़की-मेरी मंगेतर-अपनी गाड़ी में जा रहे थे। लाल बत्ती पर मेरी गाड़ी रुके हुए भी दो-तीन मिनट हो चुके थे कि पीछे से किसी ने लाकर अपनी गाड़ी ठोंक दी। यद्यपि टक्कर बहुत जोर की नहीं हुई थी और कोई विशेष क्षति भी नहीं हुई थी; पर कोई खड़ी गाड़ी को इस प्रकार दे मारे, यह मुझे अच्छा नहीं लगा। और फिर वह भला मानस न नीचे उतरा, न उसने मुझसे अपने इस कृत्य के लिए क्षमा-याचना ही की। अपनी जगह पर बैठा सिगरेट पीकर धुआँ उड़ाता रहा और उस उड़ते हुए धुएँ पर मुग्ध होता रहा।
जब मैं स्वयं को रोक नहीं सका, तो गाड़ी का दरवाजा़ खोल कर नीचे उतरा।...

मैं भी अपने-आपको रोक नहीं सका तो उसकी बात काटकर बोला, ‘‘मैंने गाड़ी टकराने की कथा बाँचने के लिए नहीं कहा था। मैंने तो मात्र यह पूछा था कि तुम उस लड़की से विवाह क्यों नहीं कर रहे हो ?’’
‘‘वही बता रहा हूँ।’’ रामलुभाया बोला, ‘‘मैं पिछली गाड़ी के पास पहुँचा तो उस ड्राइवर ने कुछ इस अन्दाज़ से देखा, जैसे उसका कोई दोष तो है ही नहीं, कोई बात भी नहीं हुई है। मैंने उससे पूछा, ‘तुमने गाड़ी क्यों मारी ?’ ‘ओह ! वैरी सिम्पल।’ वह बोला, ‘दिल्ली की सड़कों पर हो ही जाता है। इतनी गाड़ियाँ हैं कहीं-न-कहीं रगड़ ही जाती हैं।’ ‘तुम्हारी गाड़ी की ब्रेक खराब हैं ?’ मैंने पूछा। ‘ब्रेक खराब होगी तुम्हारी’ उसने भौंहें चढ़ाकर कहा, और तुम्हारा तो दिमाग भी खराब है, जो इतनी-सी बात पर उठकर लड़ने चले आए। कभी गाड़ी चलाई नहीं क्या दिल्ली की सड़कों पर।’ ’’ उसने धुआँ मेरे मुँह पर उछाल दिया।

मैं हक्का बक्का रह गया। कोई इतना भी दुष्ट हो सकता है, मैं कल्पना नहीं कर सकता था। मेरे क्रोध ने मेरी चिंतन और वाक्-शक्ति को इस प्रकार से लुप्त कर दिया। मैं सोच ही रहा था कि कोई सख्त बात कहूँ कि मेरी मंगेतर बोली, ‘‘चलो रामलुभाया। वह ठीक ही कह रहा है। दिल्ली की सड़कों पर यह हो ही जाता है।’’
मैं जैसे आकाश से गिरा। वह मेरी वाग्दत्ता थी। मेरे साथ मेरी गाड़ी में थी। उसने देखा था कि मेरी खड़ी गाड़ी को पीछे से ठोंका गया था। उस पर वह ड्राइवर इतने अभद्र ढंग से बोल रहा था और वह उसका समर्थन कर रही थी। मैं चुपचाप अपनी गाड़ी में लौट आया। वह भी मेरे साथ आ गई। गाड़ी चली और मैंने किसी प्रकार स्वयं को संयत कर, पूछा, ‘‘तुम मेरे उस विरोधी का समर्थन क्यों कर रही थीं ?’’ रामलुभाया चुप होकर मेरी ओर देखने लगा, ‘‘अब आप बताइए उसने क्या कहा होगा ?’’

‘‘उसने कोई कारण बताया ?’’ मैंने पूछा।
‘‘हाँ ! उसने कहा कि वह सैक्यूलर है। और सौक्यूलर वही होता है जो न्याय-अन्याय नहीं देखता, अपने पक्ष का विरोध कर विरोधी का समर्थन करता है।’’
मैं हँसा, ‘‘विनोद कर रही होगी। और यदि सैक्यूलर है भी तो उससे क्या। तुम तो विधर्मी लड़की से भी विवाह करने को प्रस्तुत थे।’’
‘‘विधर्मी लड़की से तो मैं अब भी विवाह कर लूँ।’’ रामलुभाया बोला, ‘‘उसके विषय में यह तो पता होगा कि वह क्या है। सैक्यूलर तो वह होगी, जो वह है नहीं; और जो वह है, वह होगी नहीं। अपने देश, अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने इतिहास-सबका अपमान करेगी; क्योंकि अपना विरोध करना ही सैक्यूलरिज़्म है। हर क्षण अपने घर को आग लगाएगी और स्वयं को संसार का सबसे बुद्धिमान जीव समझ कर इतराती रहेगी।

गिलास में  आधुनिकता


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गिलाश तो मेरे हाथ में भी था; किंतु उन्होंने अपना गिलास पेपर-नैपकिन से ढँक रखा था, जैसे छोटे बच्चें को बोतल से दूध पिलाते समय वहमी माताएँ उसे कपड़े से ढाँप लेती हैं। उनकी आँखों में थोड़ी लज्जा भी थी, किंतु उस पर भी उन्होंने आक्रामकता का झीना आवरण डाल रखा था।
‘‘दो-एक पेग लेने में कोई बुराई नहीं है।’’ उन्होंने बात आरम्भ की।
तब मेरी समझ में आया कि उनके गिलास में ऐसा क्या था, जिसे छिपाने का वह प्रयत्न कर रहे थे।
‘‘तो फिर खुलकर क्यों नहीं पीते ?’’ मैंने पूछा।

‘‘छिपकर कौन पी रहा है। वे बोले, ‘‘जब तक लोग खुलकर नहीं पिएँगे, भारत एक आधुनिक देश नहीं बन सकता।’’
मैं समझ गया कि गिलास में उनकी आधुनिकता थी, जिसे वह गटकने का प्रयत्न कर रहे थे; किंतु प्रत्येक घूँट उनके गले में अटक रहा था। स्पष्ट है कि जब कोई देश आधुनिकता को गिलास में भरकर इस प्रकार गटकने का प्रयत्न करेगा तो उसके गले को कष्ट तो होगा ही। संभव है कि उसका यकृत भी विद्रोह करने लगे और उस देश को लिवर कैंसर हो जाए।
‘‘तो गिलास में आपकी आधुनिकता है।’’ मैं बोला, ‘‘यह पेपर-नैपकिन क्या है ?’’  
‘‘यह हमारी परंपरा है।’’ उन्होंने निर्लज्ज होकर मुस्कराने का प्रयत्न किया, ‘‘इस पार्टी में मेरे पिताजी भी हैं न।’’
‘‘आधुनिक होने का आपको क्या सुख होगा।’’ मैंने कहा, ‘‘यदि परंपरा से उसे ढाँपना ही पड़ा।’’
‘‘तुम नहीं समझोगे’’। वे बोले, ‘‘ये सब बिजनेस की बातें हैं।’’

मैं तो ख्याति-प्राप्त नासमझ हूँ। कई बार इच्छा भी हुई कि अपना तखल्लुस ‘नासमझ’ रख लूँ; किंतु कविता ही नहीं हुई, तो तखल्लुस का क्या करता। फिर भी उस दिन एक मित्र की पुत्री ने भी कह दिया, ‘‘अंकल। आप यह सब नहीं समझेंगे।’’
हमारे यहाँ एक प्रचलन है, ‘माइयां पड़ने’का ! वह भी अपने विवाह से दो दिन पहले से मैले कपड़े पहने घर में बैठी थी। मेहंदी लगी हुई थी। कलाइयों में कलीरे बँधे हुए थे।...और ठीक विवाह के दिन वह ‘वधू-श्रृंगार’ कराने के लिए एक ब्यूटी-पार्लर तक पहुँचने के लिए, कनॉट प्लेस की सड़कों पर भागती दौड़ती दिखाई दे रही थी।
‘‘इस स्थिति में तुम्हें घर में ही रहना चाहिए था।’’ मैंने उसे टोक दिया, ‘‘ऐसे में बाहर सड़कों पर भागना दौड़ना अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘ ‘ब्राइडल मेक-अप तो कराना ही पड़ता है न’’ वह बोली, ‘‘घर में बैठी रहती तो वह कैसे होता ?’’
होने को तो होता ही। नाइन घर पर आ जाती। पर शायद उसे कनॉट प्लेस की किसी ब्यूटीशियन के पास ही जाना था। न जाती तो उसकी आधुनिकता खतरे में पड़ जाती। ‘‘तो बेटी ! फिर इन कलीरों से ही मुक्ति पा लेतीं।’’ मैं अपना मत व्यक्त किए बिना नहीं रह सका।
‘‘यह तो हमारा इंडियननेस है हमारी आइडेंटिटी।’’ उसने मुझे समझाया, ‘‘आप यह नहीं समझेंगे।’’  

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