नारी विमर्श >> आपका बंटी आपका बंटीमन्नू भंडारी
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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...
चौदह
बंटी के बाहर का ही नहीं, भीतर का भी जैसे सबकुछ थम गया। थम नहीं गया जैसे
सबकुछ सहम गया। ज़िद, गुस्सा, रोना-चिल्लाना।
स्कूल से लौटकर पोर्टिको में खड़ा-खड़ा वह अमि, जोत और ममी की राह देखता रहता
है, पर जब वे लोग आ जाते हैं तो लगता है, नहीं, वह उनकी राह तो नहीं देख रहा
था। तीनों एक साथ उतरते हैं, पर बुरा नहीं लगता।
“ऐ बंटी, चल रमी खेलें।" तो खेलने बैठ जाता है।
“स्कूल से आए नहीं कि तुम लोगों की ताश शुरू हो गई...आज होमवर्क नहीं करना है
?" ममी झिड़कती है तो चुपचाप पढ़ने बैठ जाता है।
कई बार पेंटिंग करने को मन करता है। पर रंग की बहुत सारी शीशियाँ तो टूट गईं।
सारे रंग बह गए। अब जो बचे-खुचे रंग हैं उनसे कुछ बनता ही नहीं।
ममी जब भी उसे अकेला पाती हैं, आकर कारण-अकारण प्यार करने लगती हैं। उस समय
ममी की आँखों में जाने क्या कुछ तैरता रहता है।
खाने की मेज़ पर बैठते समय नज़र नीची किए रहने पर भी अ ब स त्रिकोण उभर आता
है और उसकी भुजाएँ एक सिरे से दूसरे तक दौड़ती रहती हैं। ममी की आँखें उसकी
प्लेट में चिपकी हुई उसे घूरती रहती हैं। जब तक डॉक्टर साहब घर में रहते हैं,
ममी कहीं भी रहें, कुछ भी करें, उनकी आँखें बंटी के आगे-पीछे ही घूमती रहती
हैं, उसे ही देखती रहती हैं। वह पढ़ता है तब भी, वह खाता है तब भी, सोता है
तब भी-सतर्क, चौकन्नी और घूरती हुई आँखें। पहले बंटी उन आँखों की एक तीखी-सी
चुभन महसूस करता था, अब केवल आँखों का होना-भर महसूस करता है।
सवेरे डॉक्टर साहब के जाते ही ममी की आँखें लौटकर उनके अपने चेहरे पर चिपक
जाती हैं और वे जल्दी-जल्दी कॉलेज जाने के लिए तैयार होने लगती हैं। उस समय
तक वे आँखें बिलकुल बदल जाती हैं।
अच्छा, ममी बिना आँखों के देखती कैसे होंगी ? पर देखती हैं। शायद वैसे ही
जैसे वह आजकल आँखें होने पर भी कुछ नहीं देखता। या कि हो सकता है “बोल बेटे,
मैं गुस्सा नहीं हो रही। सिर्फ़ पूछ रही हूँ। भेजी हैं तूने चिट्ठियाँ ? कैसे
भेजीं, किसके हाथ भेजीं !"
बंटी चुप। क्या बोलने को कुछ है ही नहीं ?
“मैं सोच रही थी, यह उनका अपना आग्रह है, अपनी ही ज़िद है। पर अगर तूने लिखा
है तब तो...” पता नहीं, ममी उससे बोल रही हैं या अपने-आपसे।
एकाएक ममी ने बंटी को खींचकर अपने से चिपका लिया। “क्यों बंटी, क्या तेरा
सचमुच ही मन नहीं लगता ? तू पापा के पास जाना चाहता है, जाएगा ?"
"ठीक है बेटे, तू वहीं चला जा। तेरे पापा तुझे लेने आ रहे हैं। अब मैं भी
नहीं रोकूँगी। जब तू ही खुश नहीं तो...आख़िर अपने पापा से कम ज़िद्दी तो तू
भी नहीं।"
और ममी के हाथ की पकड़ ढीली हो गई।
बंटी तब भी कुछ नहीं समझा।
सारी बात तो सवेरे समझ में आई। नहीं, सारी बात तो अभी भी उसकी समझ में नहीं
आई। बस, मालूम हुआ कि पापा आ रहे हैं। पर सारी बात कुछ इससे ज्यादा है। पिछली
बार भी पापा केवल उससे मिलने नहीं आए थे। और भी बहुत कुछ कर गए थे। उसे तो
बाद में पता लगा था। उसके बाद ममी का रोना...
इस बार क्या करेंगे ? उसने डॉक्टर साहब की ओर देखा। वे सामने सड़क पर नजर
गड़ाए हुए गाड़ी चला रहे हैं। पापा ने डॉक्टर साहब को देखा है कभी ? बिना
जान-पहचान के डॉक्टर साहब घर आने के लिए कैसे कहेंगे ?
सवेरे ममी ने बंटी को अपने हाथ से तैयार किया और खुद यों ही घूमती रहीं तो
डॉक्टर साहब ने पूछा, “तुम स्टेशन नहीं चलोगी ?"
"नहीं।"
"क्यों ?"
"बस यों ही। तुम और बंटी जाओ।"
डॉक्टर साहब एक क्षण देखते रहे। "हूँ ! ठीक है।" फिर उनका चेहरा अख़बार में
छिप गया।
“तुम कॉलेज तो नहीं जा रही हो न ?” अख़बार एक ओर रखकर उन्होंने पूछा तो ममी
ने ऐसे देखा मानो पूछ रही हों-क्या ?
“भई किसी को तो घर में रहना चाहिए। मुझे तो दस बजे एक ज़रूरी मीटिंग में जाना
है।"
“पर वे यहाँ आएँगे नहीं।"
"क्यों नहीं आएँगे ? आइ विल इनसिस्ट। बंटी, तुम भी जोर लगाना बेटे, समझे !"
और बंटी ने तभी सोच लिया कि वह एक बार भी नहीं कहेगा। पापा यहाँ आ गए तो वह
बात कैसे करेगा ? इस घर में तो वह बात कर ही नहीं सकता। कितनी-कितनी बातें
करनी हैं उसे...और फिर जैसे एक सिरे से बातें उभरने लगीं इतनी-इतनी कि सबकुछ
गड़बड़ होने लगा।
पापा घर आ गए तो ? पापा आएँगे ?
पर पापा नहीं आए।
स्टेशन पर बंटी ने ही पापा को पहचाना, देखते ही हमेशा की तरह पापा ने लपककर
उसे बाँहों में भर लिया और गोद में उठाकर ढेर सारे किस्सू दे दिए। फिर ज़ोर
से सीने से चिपका लिया। बंटी बेटाऽऽ...
बाँहों में भिंचे-भिंचे, सीने से चिपके-चिपके बंटी के मन में बहुत दिनों का
जमा हुआ कुछ पिघलने लगा। अनायास ही आँखों में आँसू आ गए। उन्हें भीतर ही भीतर
पीता हुआ वह गोद से नीचे उतर आया। इतना बड़ा होकर वह रोएगा भी नहीं, गोद में
भी नहीं चढ़ेगा। पापा की पहलेवाली बात याद आ गई-लड़कियों की तरह रोते हो...
पापा दोनों कंधों से थामे उसे देख रहे हैं। पर जैसे पहले देखते थे वैसे नहीं,
खूब घर-घूरकर देख रहे हैं। एकाएक लगा, ज़रूर कहीं आगे-पीछे से ममी की आँखें
भी देख रही होंगी। सब लोग उसे इस तरह क्यों देखते हैं ? उसे जाने कैसा-कैसा
लगने लगता है, डर-सा।
पापा उसी तरह देखते हुए उससे कुछ पूछ रहे हैं, कुछ कह रहे हैं और डॉक्टर साहब
एक तरफ़ खड़े हैं चुपचाप।
और अब डॉक्टर साहब हाथ मिलाकर घर चलने के लिए ज़िद कर रहे हैं। खूब-खूब, कुछ
और भी कह-सुन रहे हैं और बंटी एक तरफ़ खड़ा है चुपचाप।
"बंटी, तुम घसीटकर ले चलो पापा को। देखो तो बात ही नहीं मानते !"
बंटी ने पापा की ओर देखा। पापा वैसे मुसकरा रहे हैं, पर बिलकुल नहीं मुसकरा
रहे हैं। ऐसे कहीं मुसकराया जाता है ? सारा चेहरा तो कैसा सख्त-सख्त हो रहा
है। पापा भी कहीं प्रिंसिपल हो गए क्या ? अभी भी नजरें बंटी के चेहरे पर ही
टिकी हुई हैं।
'कहो बेटा, पापा से चलने के लिए।"
"चलिए न पापा !"
उसने सहमे-सहमे स्वर में कहा तो पापा की नज़रों की चुभन और तीखी हो गई। बंटी
और भी ज्यादा सहम गया।
"बात यह है...” पापा डॉक्टर साहब से कुछ कह रहे हैं।
एक क्षण को बंटी की आँखों के सामने धीरे-धीरे रात का अँधेरा फैल गया और उसकी
छोटी-सी हथेली में से पापा का हाथ फिसलता ही चला गया। अपने घर के फाटक पर रह
गए वह और ममी अकेले-अकेले !
वह और डॉक्टर साहब लौट रहे हैं। पापा सरकिट-हाउस उतर गए। उसे उतरने के लिए भी
नहीं कहा, कितनी बातें करनी थीं उसे पापा से, अब ? चार बजे घर आएँगे तो वह
क्या बात कर पाएगा ? बंटी की बात से भी ज़्यादा ज़रूरी पापा का काम है ? पापा
उसके लिए नहीं आए हैं, अपने काम के लिए आए हैं। और थोड़ी देर पहले बंटी के मन
में जो कुछ पिघला था, वह जैसे फिर जमने लगा।
स्कूल भी नहीं गया और पापा भी नहीं ले गए। अब वह क्या करे ? इस कमरे से उस
कमरे में, भीतर से बाहर यों ही आ-जा रहा है। घर में वह और ममी रहें
अकेले-अकेले, ऐसा बहुत कम होता है आजकल। पर जब भी होता है, उसे अच्छा लगता
है। तब ममी उसे प्यार करती हैं और थोड़ी देर के लिए पुरानीवाली ममी हो जाती
हैं।
आज भी तो दोनों ही हैं। वह कुछ न कुछ करता हुआ ममी के पास जाता भी है तो ममी
बस एक बार उसकी ओर देखती ज़रूर हैं और फिर नज़रें हटाकर कुछ करने लगती हैं।
जैसे कटी-कटी फिर रही हों।
वह पापा के पास से आया है, इसलिए ममी नाराज़ हैं, दुखी हैं। अच्छा है, हों
नाराज़, हों दुखी ! अभी क्या है, अभी तो वह यहीं घूमने गया था, जब उनके साथ
कलकत्ता चला जाएगा, तब पता लगेगा ! अब कहकर तो देखें उससे कि मत जा, तब वह
बताएगा ! पर ममी ने कुछ भी नहीं कहा।
साढ़े चार बजे के करीब पापा आए तो ममी ने ऐसे नमस्ते किया जैसे अजनबी को कर
रही हों। जोत भी कैसे देख रही है पापा को ? बंटी का मन हो रहा है कि पापा जोत
से बातें करें, उसे प्यार करें, तभी तो जोत को अच्छे लगेंगे पापा। उसने कहा
था कि मेरे पापा भी खूब अच्छे लगेंगे, पर पापा तो...
चाय की मेज़ पर गए तो ढेर सारी खाने की चीजें फैली हुई थीं। वे लोग जिस दिन
इस कोठी में आए थे ठीक उसी तरह। उस दिन डॉक्टर साहब ममी की खातिर कर रहे थे।
आज क्या ममी पापा की खातिर कर रही हैं ?
बार-बार लग रहा है कि कोई लंबा-सा आदमी आएगा और दहाड़ता हुआ कहेगा-वाह ! आज
खाने की मेज़, खाने की मेज़ लग रही है।
वह, ममी और पापा ! अमि और जोत नए आदमी के सामने कैसे चुपचुप बैठे हैं, जैसे
वह उस दिन बैठा था। पर आज भी तो वह चुप है। उसका बड़ा मन हो रहा है कि वह कुछ
न कुछ बोलता ही रहे जैसे अमि और जोत उस दिन बोल रहे थे, जैसे हमेशा बोलते
हैं, पर पापा की नज़रें इस तरह गड़ी हुई हैं उसके चेहरे पर कि कुछ कहा भी
नहीं जाता। फिर ममी भी तो चुप हैं। मान लो वह कुछ कहे और पापा जवाब ही न दें
तो जोत कहेगी नहीं-कैसे हैं तेरे पापा ?
पापा ही उससे क्यों नहीं कुछ पूछते-बोलते ! अपने ममी-पापा के साथ बैठकर भी
खाने की मेज, खाने की मेज़ लगी ही नहीं।
चाय के बाद ममी पापा को लेकर बैठने के कमरे में घुसी तो वह भी पीछे-पीछे लगा
चला गया। ममी गरदन घुमा-घुमाकर इस तरह कमरे को देख रही हैं जैसे पापा नहीं,
वे खुद बाहर से आई हैं। और पापा हैं कि कमरा देख ही नहीं रहे।
"मुझे ख़बर देर से मिली थी, इसलिए बधाई भी नहीं भेज सका।"
ममी चुप।
बंटी का मन हो रहा है कुछ बात करे, इधर-उधर की कुछ भी-ममी, पापा और उसने एक
साथ नाश्ता किया है। एक साथ कमरे में बैठे हैं। और वह इस समय को, इस स्थिति
को जैसे पूरी तरह महसूस करना चाहता है, भीतर तक। पर अपनी जगह ऐसा जम गया है
कि न हिला-डुला जा रहा है, न कुछ बोला ही जा रहा है।
एकाएक इच्छा हुई कि पापा से कहे, चलिए पापा, हमें घुमा लाइए। यहाँ तो रात तक
भी बैठा रहा तो कुछ नहीं कहा जाएगा। और ढेर सारी बातें...जोत देख तो ले कि
पापा उसे ले जा रहे हैं, वह सारी चीजें लिए चला आ रहा है। अमि उछल-उछलकर,
उसकी चीजें देख रहा है-अरे, यह भी है बंटी भैया।
"वैसे तो मैंने लिखा ही था...यों भी सवेरे से मुझे यह बहुत..." बात अधूरी
छोड़कर पापा बंटी की ओर देखने लगते हैं। ममी एक बार बंटी की ओर देखती हैं,
फिर पापा की ओर। फिर उनकी नज़रें ज़मीन में गड़ जाती हैं। उनका चेहरा कैसा
पीला-पीला हो रहा है !
अच्छा है, अब ममी को पता लगेगा। बता दे पापा को कि ममी यहाँ आने के बाद उसे
मारने भी लगी हैं, कभी उसके साथ नहीं सोतीं, और-और-खट उँगलियों का क्रास बन
जाता है।
"बंटी, तू अमि और जोत के साथ खेल बेटा !"
हुँह ! उसे हटा देना चाहती हैं, डर रही होंगी न कि बंटी सब बता देगा। वह
बिलकुल नहीं जाएगा और पापा को सारी बात बताएगा। पापा उसी के लिए तो आए हैं।
ममी की तो पापा से कुट्टी है, फिर ?
वह टस से मस नहीं हुआ।
पापा उसे देख रहे हैं पर जैसे उसका चेहरा नहीं देख रहे, चेहरे के भीतर और कुछ
देख रहे हों। और ममी सहमी-सहमी पापा को देख रही हैं।
फिर अ-ब-स...
“जाओ बेटे, बाहर खेलो !'' इस बार पापा ने कहा तो बंटी भन्नाता हुआ चला गया।
स्टेशन पर गया तो-'बेटे, इस समय हमें कुछ ज़रूरी काम है, शाम को हम आएँगे। अब
की बार आए तो 'बेटे बाहर खेलो।' फिर आए किसलिए हैं यहाँ पर ? कहीं अमि
टिलिलिलि करता हुआ हवा में तैर गया।
पर गुस्सा पापा पर नहीं, ममी पर आ रहा है। पहले ममी नहीं थीं तो सारे दिन
पापा ने उसे कितना घुमाया था। आज ज़रूर ममी ने कुछ...और फिर जैसे पुराना सारा
गुस्सा भी एक साथ उभर आया। कुछ ऐसा करे कि ममी को पता लगे।
और जब थोड़ी देर बाद बुलाकर, पापा ने प्यार से अपनी गोद में बिठाकर पूछा,
'बेटा, हमारे साथ कलकत्ता चलोगे न ? मैं तुम्हें लेने आया हूँ।' तो ममी की ओर
देखते-देखते ही गुस्से में ऐसे बोला जैसे पापा को नहीं, ममी को जवाब दे रहा
हो, “जरूर चलूँगा, मैं यहाँ बिलकुल नहीं रहूँगा।" यह बात उसने हज़ारहज़ार बार
ममी को ही तो कहनी चाही है। अच्छा है, ममी भी सुन लें।
पापा ने उसे अपनी बाँह में समेट लिया तो बंटी के मन में अभी का जमा हुआ
गुस्सा जैसे बह आया। पापा से चिपका-चिपका ही वह रो पड़ा।
पापा ने कसकर उसे सीने से चिपका लिया, "रो मत बेटे, बंटी रो मत..." और उनकी
अपनी आवाज़ भी भीग गई।
जाने कहाँ से देखती हुई ममी की आँखें बिलकुल सूख गईं। बिना आँसू की भीगी-भीगी
आँखें। सफ़ेद चेहरा। अब पता लगेगा ममी को।
पापा उसे घुमा रहे हैं। कलकत्ते के बारे में बता रहे हैं। पर बंटी कुछ सुन ही
नहीं रहा। वह सोच रहा है, सोच ही नहीं रहा, देख रहा है-ममी उसके पलंग पर बैठी
रो-रोकर कह रही हैं, “मत जा बंटी, मत जा ! मैं तेरे बिना रह नहीं सकूँगी। आज
तक कभी..."
और मन ही मन में वे शर्ते तैरती हैं जो ममी के सामने वह रखेगा। ममी सब
मानेंगी तो वह रहेगा। पक्कावाला प्रॉमिस, झूठ-झूठ का बहकावा अब नहीं चलेगा।
वह क्या जानता नहीं कि ममी उसके बिना रह नहीं सकतीं। डॉक्टर साहब, अमि, जोत,
कोठी-वोठी सब ठीक है, पर बंटी...
“अच्छा बंटी, ये डॉक्टर साहब तुम्हें कैसे लगते हैं ?'' अचानक पापा ने पूछा,
और नज़रें बंटी के चेहरे पर गड़ा दीं तो बंटी की समझ में ही नहीं आया कि क्या
कहे। बस, कहीं हलके से डॉक्टर साहब का चेहरा उभर आया। फिर धीरे से बोला,
“अच्छे हैं।"
“और उनके ये बच्चे ?"
“जोत तो बहुत अच्छी है। मुझे बहुत प्यार करती है, मुझसे कभी झगड़ा भी नहीं
करती..."
अरे, ये पापा ऐसे क्यों देख रहे हैं ? लगा जैसे कहीं कोई गलती हो गई। पर उसने
तो किसी के बारे में कोई भी बुरी बात नहीं की।
“अच्छा, कांजी पिओगे तुम ?" पापा ने उसके बाद कुछ नहीं पूछा।
रात में बंटी अपने पलंग पर लेटा-लेटा बराबर राह देख रहा है कि कब ममी आती हैं
और कब रो-रोकर उसके सामने गिड़गिड़ाती हैं। रास्ते में सोची हुई सारी शर्तों
को उसने फिर एक बार मन ही मन दोहरा लिया।
जोत अपनी एक सहेली के यहाँ गई है। अमि साथ-साथ टँगा हुआ चला गया। अकेले
लेटे-लेटे बंटी का समय ही नहीं कट रहा है। यों सामने एक किताब खोल रखी है, पर
ध्यान तो सारा...
ममी अपने कमरे में हैं डॉक्टर साहब के साथ। ज़रूर रो रही होंगी। हो सकता है
डॉक्टर साहब से कह रही हों कि वे समझाएँ। सोचती होंगी कि मैं उनसे डर जाऊँगा।
अब तो पापा हैं। अब तो मैं कहूँगा-यह सब नहीं चलेगा। मैं बर्दाश्त नहीं
करूँगा।
अगर कहीं डॉक्टर साहब समझाने आ ही गए तो ? उनको क्या जवाब देगा ? यह तो सोचा
ही नहीं। नहीं, उन्हें कोई जवाब नहीं देगा।
पर कोई आ ही नहीं रहा। हिम्मत ही नहीं हो रही है आने की शायद ! इतने में जोत
और अमि आए और सीधे ममी के कमरे में घुस गए। ये लोग कैसे उनके कमरे में घुस
जाते हैं। जाने क्यों वह इस तरह कभी उस कमरे में घुस ही नहीं पाता। या तो कभी
ममी ले गई हैं तो गया है या फिर छिपकर।
थोड़ी देर बाद जोत आई और पूछा, “तू कल अपने पापा के साथ कलकत्ते जा रहा है ?"
तो उस कमरे में यही सब बात हो रही है ?
“हाँ, मेरे पापा लेने आए हैं, जाऊँगा नहीं मैं ?" बंटी इतनी जोर से बोला कि
ममी अपने कमरे में भी सुन लें।
पता नहीं ममी ने सुना या नहीं पर जोत ने सुन लिया और कपड़े बदलने चली गई।
कहाँ तो ममी की आँखें उसके आगे-पीछे घूमा करती थीं, उसके भीतर तक का जैसे
सबकुछ देखती रहती थीं, अब आज क्या हो गया ? उसकी आँखें भी इस तरह घूम-फिर
सकतीं तो वह भी देखता कि ममी क्या कर रही हैं, क्या कह रही हैं ?
थोड़ी देर बाद एकाएक ममी कमरे के दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गईं। बंटी ने भरपूर
नज़रों से ममी को देखा और फिर किताब पढ़ने लगा, जैसे उसे किसी का कोई इंतज़ार
नहीं। धीरे-धीरे ममी पास आकर बैठ गईं। बंटी ने मन ही मन में जल्दी से एक बार
सब दुहरा लिया। कहीं ऐसा न हो कि ममी रोने लगें तो वह खुद भी रो पड़े। नहीं,
रोना-वोना बिलकुल नहीं है इस बार।
पर ममी कुछ नहीं बोलीं। बस, उसका सिर सहलाने लगीं। उसने एक बार फिर ममी की ओर
देखा। नहीं, ममी रो तो नहीं रहीं। अब रोएँ शायद ! पर जब नहीं रोईं तो बंटी ने
कहा, "मैं कल पापा के साथ कलकत्ते जा रहा हूँ।"
ममी एकटक उसकी ओर देखती रहीं। जैसे उसकी बात का अर्थ समझने की कोशिश कर रही
हों, या कि जैसे उस पर विश्वास नहीं हो रहा हो। पर रो तो नहीं रहीं।
"मैं फिर कभी तुम्हारे पास आऊँगा भी नहीं। पापा के पास ही रहूँगा, हमेशा...”
ममी उसके बाल और गाल ही सहलाती रहीं। फिर धीरे से बोलीं, "बंटी!"
बंटी जैसे अगले वाक्य के लिए तैयार ! अब कहो कि मत जा !
“तेरे लिए क्या-क्या लाऊँ बेटे, तू अपनी पसंद की चीजें बता दे। वही सब..."
तो क्या ममी उसे रोक नहीं रही हैं ? उसे सचमुच ही भेज रही हैं। उसके भीतर ही
भीतर कुछ ऐंठने लगा।
"मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं तुम्हारी कोई चीज़ नहीं लूँगा।" उसने जलती नज़रों
से ममी को देखा, मानो कह रहा हो...अब, अब बोलो, अब रोओ !
पर इस पर भी ममी नहीं रोईं। सूखी आँखें और उससे भी ज़्यादा सूखा चेहरा।
डॉक्टर साहब हैं न घर में इसीलिए नहीं रो रहीं। डरती जो हैं। कल देखना। और
नहीं रोईं तो क्या है, वह तो चला जाएगा। पापा के साथ खूब घूमेगा कलकत्ते में,
नई-नई चीजें देखेंगे। इतना बड़ा शहर। घूमते-घूमते मर भी जाओ तो ख़त्म ही न
हो।
रात में वह पापा के साथ घूमता रहा अजीब-अजीब जगहों में। अचानक कहीं से ममी आ
गईं और उसे गोद में उठाकर रोने लगीं, फूट-फूटकर। वह, ममी और पापा लौट रहे
हैं...चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं और जैसे ही घर के दरवाज़े पर पहुँचते
हैं, पापा डॉक्टर साहब में बदल जाते हैं। वह घर भी पता नहीं कौन-सा था। सवेरे
आँख खुली तो वह अपने बिस्तर में था।
दसरे दिन भी ममी नहीं रोईं। उससे एक बार भी नहीं कहा कि तू मत जा तो बंटी खुद
रो पड़ा। छिपकर, बाथरूम में।
नाश्ते की मेज़ पर सब चुप। जोत और अमि उसे ऐसे देख रहे हैं, जैसे जानते ही
नहीं हों। डॉक्टर साहब और ममी मेज़ पर नज़रें गड़ाए हुए भी जैसे उसे ही देख
रहे हों। सब देखो, पर कोई मत कहो कि मत जा, सब शायद यही चाहते हैं कि मैं चला
जाऊँ। ममी भी ?
और जैसे मन में कुछ उफनने लगा। गले में आकर कुछ ऐसा फँस गया कि खाते नहीं
बना। बस, अँसुआई आँखों के सामने से एक बार फिर लाल तिकोन तैर गया।
न ममी कॉलेज गईं, न उसे स्कूल भेजा। बहुत मन हुआ कि कह दे वह स्कूल क्यों
नहीं जाएगा ? कल भी नहीं गया, आज भी नहीं ? उसे पढ़ना नहीं ? उसे पढ़ना नहीं
है ? पर कुछ भी नहीं कहा गया। गला जैसे किसी ने भींच दिया है। गला नहीं, कहीं
कुछ और जैसे भिंच गया है।
ममी चुपचाप उसका सामान जमा रही हैं। उसके कपड़े, उसके खिलौने। मन हुआ
भड़भड़ाता जाए और एक-एक कपड़ा बाहर निकाल डाले। नहीं जाएगा वह कलकत्ते, क्यों
जाएगा, कैसे जाएगा ? एक महीने बाद इम्तिहान नहीं हैं उसके ? वह रहा है कभी
ममी के बिना ?
पर कुछ नहीं, कुछ भी नहीं कहा गया उससे। वह आँसू पीता हुआ इधर-उधर घूमता रहा।
ममी सामान जमाती रहीं। जैसे-जैसे समय बीतता गया, आँसू भी जैसे भीतर जाकर जम
गए।
और जब सबकुछ जम-जमा गया तो ममी उसके सामने आकर खड़ी हो गईं। उसके दोनों कंधों
को पकड़कर पूछा, "बंटी, वहाँ जाकर मुझे बिलकुल भूल तो नहीं जाएगा ? चिट्ठी
लिखेगा मुझे ? और देख बेटे, यदि वहाँ..."
"मैं बिलकुल याद नहीं करूँगा, मैं कभी भी चिट्ठी नहीं लिखूगा। तुम मेरी..."
बाकी शब्द जैसे भीतर ही घुटकर रह गए।
अब बोलो, अब रोओ...रोओ !
और ममी की आँखें सचमुच ही छलछला आईं। पर वे कुछ नहीं बोलीं। चुपचाप लौट गईं।
पापा को लेने के लिए कार गई हुई है। बंटी का सारा सामान तैयार है। सामान के
ऊपर तीन-चार पैकेट रखे हुए हैं। ममी ने लाकर रखे हैं। वह बिलकुल नहीं ले
जाएगा। ममी कहेंगी तब भी नहीं। डॉक्टर साहब भी आ गए हैं।
"बंटी तू गरमी की छुट्टियों में यहीं आ जाना। हम लोग फिर चाची अम्मा के पास
चलेंगे!"
वह एक क्षण तक जोत का चेहरा देखता है। फिर कहता है, “नहीं, मैं क्यों आऊँगा
यहाँ, मुझे नहीं जाना कहीं। मैं तो वहीं घूमँगा छुट्टियों में।"
और उसे लगता है, जैसे वह जोत से नहीं कह रहा है, अपने-आपसे कह रहा है। अब तो
सचमुच-सचमुच वह कभी नहीं लौटेगा, कभी नहीं। क्या समझ रखा है ममी ने उसे !
“आपने तो बड़ी देर कर दी। हम तो कभी से राह देख रहे थे। आपके साथ बैठने का तो
बिलकुल समय मिला ही नहीं।"
पापा भीतर नहीं आ रहे, “आइ एम सो सॉरी। बस कुछ ऐसा ही हो गया कि...” फिर कोट
की बाँह सरकाकर घड़ी देखते हुए बोले, “अब तो एकदम गाड़ी का समय हो गया। बंटी,
तैयार हो न बेटे ?"
तो बंटी दौड़कर पापा के पास जाकर खड़ा हो गया। भीतर ही भीतर सहमा हुआ, पर ऊपर
से जैसे सधा हुआ। सब देख लें कि उसे भी खूब-खूब प्यार करनेवाले पापा हैं, जो
उसे ले जा रहे हैं अपने साथ ! कोई मत रखो उसे यहाँ।
ममी अभी भी नहीं आ रहीं ? पापा की नज़रें भी शायद उन्हीं को ढूँढ़ रही हैं।
ममी क्या निकलेंगी ही नहीं ?
बंसीलाल सामान जमाने लगा तो बंटी ने वे पैकेट निकालकर अलग कर दिए।
“अरे, ये तो तुम्हारे लिए ही लाए हैं बेटा, तुम ले जाओ।"
बंटी कुछ नहीं बोला, चुपचाप उन डिब्बों को सीढ़ियों के एक किनारे पर रख दिया।
पापा ने एक बार घूरकर डॉक्टर साहब को देखा। डॉक्टर साहब का चेहरा जाने
कैसा-कैसा हो आया।
तभी भीतर से ममी निकलकर आईं। उन्होंने एक बार पापा की ओर देखा, फिर बंटी की
ओर और फिर पैकेट की ओर। फिर धीरे से आगे बढ़कर उन्होंने बंटी को पकड़कर अपनी
ओर खींचा और प्यार किया, पर बोलीं कुछ नहीं।
बंटी छिटककर पापा के पास चला गया और उनकी बाँह पकड़कर खड़ा हो गया। जैसे वह
पूरी तरह यह दिखा देना चाहता हो कि वह पापा का बंटी बन गया है और अब पापा के
पास ही जा रहा है।
गाड़ी में सब बैठे। डॉक्टर साहब, अमि, जोत। बस ममी बाहर ही खड़ी रहीं। पापा
ने डॉक्टर साहब की ओर देखा...
“अंड शी इज़ वेरी अपसेट।" और उन्होंने गाड़ी स्टार्ट कर दी।
न चाहते हुए भी बंटी की नज़र ममी की ओर चली ही गई। उनका एक हाथ हिल रहा था और
वे शायद रो रही थीं।
रोती हुई ममी पीछे छूट गईं। कोठी, कोठी का उजड़ा हुआ अहाता, कोठी के बाहर लाल
तिकोन, सब-सब पीछे छूट गए।
स्टेशन और स्टेशन की भीड़। गाड़ी में बैठा खिड़की से झाँकता बंटी।
प्लेटफ़ार्म पर खड़े हुए डॉक्टर साहब, पापा, अमि, जोत ! और भी ढेर सारे लोग।
डॉक्टर साहब के टूटे-टूटे वाक्य, “आप इसकी खबर देते रहिएगा...यू नो शी
इज...अगर बहुत परेशान हो तो..."
"बंटी भैया, हम भी कलकत्ता घूमने आएँगे !"
"बंटी, मुझे चिट्ठी लिखना।"
और इसके साथ ही बहुत सारा शोर, तरह-तरह का। और एकाएक ही सारे शोर के ऊपर
उभरता है-बंटी, मत जा बेटे, मैं तेरे बिना नहीं रह सकूँगी। दौड़ती-दौड़ती ममी
चली आ रही हैं, बदहवास, लाल आँखें। पर ममी जैसे उस तक पहुँच नहीं पा रही हैं,
सिर्फ उनकी आवाज़ उसके इर्द-गिर्द घूम रही है।
तभी गाड़ी चल दी और जो लोग आए थे वे भी छूट गए। हाथ हिलाते हुए डॉक्टर साहब,
अमि और जोत। धीरे-धीरे सबके चेहरे घुल-मिल गए और फिर एक बिंदु में बदलकर ओझल
हो गए। फिर प्लेटफ़ार्म की भीड़ और शोर, शहर का हिस्सा, जाना-पहचाना, सब-कुछ
सरकता चला गया, छूटता चला गया। और थोड़ी ही देर में गाड़ी खेत-खलिहानों और
मैदानों की अनंत सीमाओं के बीच दौड़ने लगी।
बंटी ने गरदन भीतर की ओर मोड़ ली-सब अपरिचित चेहरे। इतने अपरिचित चेहरों के
बीच जाने कैसी दहशत बंटी को हुई कि वह उठकर पापा के पास चला गया और उनसे एकदम
सट गया। पापा ने बहुत दुलार से उसकी पीठ सहलाई, "बंटी !"
तो अपने-आप ही जैसे आगे के शब्द तैर गए, “वहाँ अपना घर होगा, तुझे बहुत अच्छा
लगेगा बेटा !''
पर पापा पूछ रहे थे, “बिस्तर लगा दें, तुम लेटोगे ?''
इतने अपरिचितों के बीच जैसे वह अपने-आपसे अपरिचित हो आया। बस, बार-बार नज़र
पापा की ओर उठ जाती है। इतने नए-नए चेहरों के बीच पापा का जाना-पहचाना,
परिचित चेहरा ही जैसे आश्वस्त करता है। मन हो रहा है कि उन्हें ही कसकर पकड़
ले। कहीं ऐसा न हो कि पापा भी छूट जाएँ ! थोड़ी-थोड़ी देर बाद कोई न कोई
बहाना बनाकर वह उन्हे छू लेता है, कभी हाथ पकड़ लेता है।
लेकिन रात में बंटी फिर उन्हीं परिचित चेहरों और परिचित जगहों के बीच ही
घूमता रहा। घूरती हुई ममी या उदास-उदास ममी, चिढ़ाता हुआ अमि, प्यार करती
जोत, गंभीर-गंभीर डॉक्टर साहब। सवाल समझाते हुए सर...साइलेंस...
साइलेंस...विभू, कैलाश, टीटू...यार बंटी कहाँ चला गया ? बंसीलाल...लाल तिकोन
...माली दादा...आम का पौधा...सभी कुछ तो उसके आसपास, उसकी पहुँच के भीतर,
रोज़ की तरह।
पर सवेरे आँख खुली तो फिर चारों ओर नए चेहरे। वह एकदम पापा के पास चला गया।
और दूसरे दिन जब हावड़ा पर उतरा तो लगा जैसे अपरिचितों के एक छोटे-से दायरे
में से उठाकर किसी ने उसे अपरिचितों के एक बड़े-से समुद्र में ही फेंक दिया
है।
कितनी भीड़ कितना शोर-सबकुछ कितना अनजाना, अनचीन्हा।
उसका मन एक अजीब-सी दहशत से भर गया। उसने कसकर पापा की उँगली पकड़ ली।
धक्के-मुक्के के बीच में बराबर यही खटका लगा रहा कि अगर पापा की उँगली छूट गई
तो फिर कहीं उसका पता नहीं लगेगा।
पापा टैक्सी के लिए क्यू में जाकर खड़े हो गए। बंटी की कुछ समझ में नहीं आ
रहा है। बस, भकुवाई-सी आँखों से वह पापा को देखे जा रहा है।
"तुम यहाँ बैठ जाओ।" उसे शायद थका समझकर पापा ने उसे एक बॉक्स पर बिठा दिया।
आसपास देखने को कितना कुछ है इस नई जगह में, पर वह तो जैसे सब ओर से सुन्न हो
आया है। बस, नज़र इस तरह पापा पर टिकी हुई है, मानो उसे किसी ने वहाँ कील
दिया हो। धूप में पापा की लंबी-सी परछाई लेटी है-खूब लंबी-सी। वह बैठा हुआ
पापा को देख रहा है, पर मन हो रहा है कि जाकर हाथ ही पकड़ ले। पापा का हाथ
छूटने से ही अजीब-सी घबराहट हो रही है।
आख़िर वह उठा। पापा की बगल में जाकर, उनसे एकदम सटकर उसने उनका हाथ पकड़
लिया।
और उसकी छोटी-सी परछाँई पापा की लंबी-सी परछाँई में ही घुल-मिल गई।
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