| नारी विमर्श >> आपका बंटी आपका बंटीमन्नू भंडारी
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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...
बारह
      सवेरे देर तक की गहरी नींद भी बंटी के मन से ममी और डॉक्टर साहब का नंगापन न
      उतार सकी। आँख खुली तो ममी और डॉक्टर साहब जा चुके थे, पर नीम-अँधेरे में
      लिपटे हुए उनके नंगे शरीर जैसे वहीं लटके हुए थे।
      
      जो कुछ उसने रात में देखा वह सच था ? ऐसा हो सकता है ? एकाएक उसकी नज़र
      ड्रेसिंग-टेबुल पर गई। वह शीशी...जादुई शीशी...और खट से ये शरीर उस शीशी से
      जाकर जुड़ गए। उसे अच्छी तरह याद है, कल तो यह शीशी यहाँ नहीं थी। फिर कैसे आ
      गई...कब आ गई और...
      
      ‘और बंटी भय्या, उसने जो जादू की शीशी सुंघाई तो बस राजकुमार का तो मगज ही
      फिर गया। वह अपने बाप को नहीं पहचाने...माँ को नहीं पहचाने...और तो और वह
      अपने को ही नहीं पहचाने...'
      
      बंटी उछलकर भागा।
      
      बरामदा पार कर रहा था तो खाने के कमरे से ममी की आवाज़ आई, “उठ गया बंटी ?
      जल्दी कर बेटे, स्कूल को देर हो जाएगी।"
      
      बंटी का मन हुआ दो मिनट के लिए ममी के पास चला जाए, पर नहीं, ममी उसे
      पहचानेंगी ? कहीं चाँटा ही मार दें तो ? रात में ममी अपने को नहीं भूल गई
      थीं? 
      
      अमि और जोत तैयार हो रहे थे। उन्हें देखकर ही जाने कैसी तसल्ली मिली। उसने
      जोत का हाथ पकड़ लिया। वह उससे बोलकर, उसे छूकर अपने मन का डर भगाना चाह रहा
      था। कभी अकेले में डर लगे तो ज़ोर-ज़ोर से बोलकर ही कैसी राहत मिलती है। अपनी
      आवाज़ ही कैसा सहारा देती है। 
      
      “तू इतनी देर से उठता है बंटी ! देर नहीं हो जाएगी ? जा बाथरूम में गरम पानी
      रखा है। जल्दी से हाथ-मुँह धोकर तैयार हो जा।"
      
      जोत की बात, जोत की आवाज़, जोत का चेहरा, सबसे उसे बड़ी तसल्ली मिल रही है।
      कल से ही उसे ऐसा लग रहा है। जब-जब उसने जोत को देखा, जोत उसे हमेशा अच्छी
      लगी। जोत की तरफ़ देखते रहना भी उसे अच्छा लगता है।
      
      वह जल्दी से बाथरूम में घुस गया। पर जैसे ही दरवाज़ा बंद किया, एक अजीब-सा डर
      मन में समाने लगा। उसने खाली सू-सू की। छिछू दबा गया और जल्दी से दरवाज़ा खोल
      दिया। कम से कम बाहरवालों के चेहरे दिखते रहें। चेहरों का भी कैसा आश्वासन
      होता है !
      
      नाश्ते की मेज़ पर सब बैठे हैं। ममी टोस्ट में मक्खन लगाकर दे रही हैं।
      डॉक्टर साहब सफ़ेद बुर्राक कपड़ों में ऐसे लग रहे हैं जैसे अभी-अभी लांड्री
      में से निकलकर आए हों। वे खाते भी जाते हैं और बार-बार नेपकिन से हाथ और होंठ
      भी पोंछते जाते हैं। पर बंटी है कि ध्यान न खाने-पीने की चीज़ों पर है, न जोत
      और अमि की बातों पर। सामने बैठे टोस्ट कुतरते हुए डॉक्टर साहब एक क्षण को उसे
      कपड़ों में दिखाई देते हैं तो एक क्षण नंगे, एकदम नंग-धडंग।
      
      मक्खन लगाते-लगाते चाय के घूट लेती ममी के भी मिनट-मिनट में कपड़े उतर जाते
      हैं। एक बड़ा भारी-सा रहस्य था जो उसे एकाएक ही पता लग गया है जैसे ! पहले
      बड़ा डर लगा था फिर अजीब-सी घिन छूटी और अब गुस्से और घिन के साथ-साथ इच्छा
      हो रही है कि बार-बार उसी दृश्य को देखे।
      
      और फिर तो जैसे अजीब स्थिति हो गई उसकी। नहाने लगा तो अपने अंग को लेकर भी
      वैसी थ्रिल महसूस होने लगी। मन ही मन डॉक्टर साहब के साथ अपनी तुलना शुरू हो
      गई। बड़ा होकर वह भी ऐसा ही हो जाएगा। वह सोच रहा है, हाथ में लेकर देख रहा
      है और भीतर ही भीतर एक अजीब-सी सिहरन हो रही है। पहली बार उसे लग रहा है,
      जैसे वह है, उसके भी कुछ है। 
      
      क्लास में टेबुल के सामने खड़े होकर सर पढ़ा रहे हैं और एकाएक बंटी के सामने
      सर के कपड़े उतर जाते हैं। एक अनंत सिलसिला...जोत कभी अपने रूप में और कभी
      ममी के रूप में सामने आती है। वह उसके फ्रॉक में से झाँकने की कोशिश करता है।
      ममी जैसा तो कहीं कुछ नहीं है, शायद बड़े होकर सबकुछ वैसा ही हो जाएगा !
      
      और फिर सब जगह वही...वही...।
      
      पर साँझ घिरने के साथ-साथ और सारी भावनाएँ तो गायब हो गईं, रह गई सिर्फ एक
      अपराध-भावना। कुछ बहुत ही गंदा काम करने की अपराध-भावना। क्यों आईं ममी यहाँ,
      क्यों लाईं उसे ? आज एक मिनट भी पढ़ने में मन लगा है उसका स्कूल में ? अब किस
      तरह पढ़ेगा वह ? उसने कसकर उँगलियों का क्रॉस बनाया...नहीं-नहीं, वह अब कभी
      नहीं सोचेगा इन बातों को ! कितना पाप चढ़ा होगा आज उस पर ! क्या करे वह ?
      जैसे अजीब-सी असहायता घिर आई उसके चारों ओर ! और रात आते ही यह अपराध-भावना
      भय में बदलने लगी है। पता नहीं किसका भय, कैसा भय ? पर कुछ है जो उसे दबोचे
      जा रहा है। खाने की  मेज़ पर...'बंटी, यह पुलाव लो बेटे-सलाद नहीं खाते,
      अरे यह तो बहुत फ़ायदा करता है...तुम्हें क्या दें अमि...बंसीलाल, आलू की
      सब्जी...' ये सारे वाक्य, बरतनों की खड़-खड़, चम्मच-प्लेटों की टकराहट, आसपास
      बैठे लोग सब गड्डमड्ड होकर जैसे एक अँधेरे में डूबते जा रहे हैं, और अँधेरा
      है कि बढ़ता ही जा रहा है।
      
      ममी बगल में बैठी बंटी का सिर सहला रही हैं, "सो जा बेटे, मैं तेरे पास हूँ।
      आज बंसीलाल से कह दिया है, वह दरवाजे के पास बरामदे में ही सो जाएगा, बरामदे
      की बत्ती भी जली रहेगी। फिर अमि है, जोत है...राजा बेटा मेरा !"
      
      बड़ी देर तक सिर सहलाने के बाद ममी गई हैं। बत्ती बंद करते ही कमरे का सारा
      अँधेरा बंटी के मन में भर गया, भर ही नहीं गया, जैसे जम गया है। मन में आकर
      अँधेरा जम जाए तो कैसा लगता है, कोई जान सकता है ?
      
      खट, ममी के कमरे का दरवाजा बंद हआ और बंटी की आँख के सामने चारों ओर नीली
      रोशनी फैल गई और फिर वही...फिर उसकी उँगलियाँ कसकर एक-दूसरे से लिपट
      गई...नहीं...नहीं।
      
      रात-भर बंटी किन-किन लोगों के बीच भटकता रहा है...सब अनजाने-अपरिचित
      चेहरे...अनदेखी जगह ! वह कैसे आ गया यहाँ पर ? ढेर सारे नंगे लोग...बिलकुल
      नंग-धडंग। आ रहे हैं, जा रहे हैं...कहीं भी खड़े होकर सू-सू कर रहे हैं। वह
      भी नंगा होकर घूम रहा है। सू-सू आई तो वहीं खड़ा-खड़ा करने लगा। सू-सू है कि
      खत्म ही नहीं हो रही है, कितनी ढेर सारी सू-सू की है उसने।
      
      यह क्या ? सू-सू से सारा बिस्तर भीगा हुआ है। एक क्षण तो जैसे समझ में ही
      नहीं आया कि क्या हो गया ! और जब समझ में आया तो एक दूसरी तरह के भय ने जैसे
      जकड़ लिया। भय नहीं, शरम...सबके बीच नंगे हो जाने जैसी शरम।
      
      खिड़की के पार, सवेरा होने के पहलेवाली फीकी-फीकी रोशनी फैल रही है। अब वह
      क्या करे ? हाथ फेरकर देखा, सारा बिस्तर गीला है, सारे कपड़े गीले हैं। उठकर
      कहाँ जाए, कैसे कपड़े बदले ! और बिस्तर ? सवेरा होते ही सबको मालूम हो जाएगा।
      जोत, अमि, डॉक्टर साहब, बंसीलाल-क्या कहेंगे सब लोग ? क्या सोचेंगे ! शरम,
      दुख, गुस्सा और फिर आँसू-ढेर-ढेर आँसू !
      
      अमि और जोत उठे हैं। जोत ने उसे आवाज़ भी दी, पर वह है कि साँस तक रोके पड़ा
      है। वे दोनों तो चले गए, पर वह कैसे उठे ?
      
      "बंटी, उठ बेटा, स्कूल नहीं जाना ?" पर बंटी ज्यों का त्यों पड़ा है। वह नहीं
      उठेगा। आज भी नहीं, कल भी नहीं...सारी ज़िंदगी नहीं उठेगा। जैसे वह सो नहीं
      रहा है, बस बिस्तर में जम गया है।
      
      ममी ने पास आकर रजाई उठाई तो उसने और कसकर आँखें मूंद लीं। कोई ऐसा जादू नहीं
      हो सकता कि बिस्तर सहित गायब हो जाए ?
      
      “अरे यह क्या, ओह !” 
      
      “गुड मार्निंग किड्स !" दरवाजे पर डॉक्टर साहब की आवाज़ सारे कमरे में फैल
      गई। अमि-जोत तो चले भी गए, उसे देखने के लिए ही तो आए हैं।
      
      ममी ने जल्दी से उस पर फिर रजाई डाल दी। 
      
      “तुम ज़रा उधर चलो।" और फिर उसे गीले कपड़ों के साथ ही ऊपर से नीचे तक अपने
      शॉल में लपेट दिया और उसके गीले बिस्तर पर रजाई ढक दी। बंटी को कँपकँपी छूट
      रही है, पता नहीं सर्दी से या डर से। ममी बचाएँगी, पर आख़िर कितनी देर तक।
      
      अपने कमरे में लाकर ममी जल्दी-जल्दी उसके कपड़े बदलवा रही हैं। चेहरे पर
      ढेर-ढेर परेशानी है। 
      
      "सू-सू करके नहीं सोया था बेटा ? रात में आया था तो बंसीलाल को क्यों नहीं
      जगा लिया ?"
      
      पर बंटी से कुछ नहीं बोला जा रहा है। मन का सारा भय और आवेश केवल हिचकियों
      में फूटा पड़ रहा है। 
      
      “अब रो मत ! रोता हआ देखेंगे तो क्या कहेंगे सब लोग ? मैं किसी को पता भी
      नहीं लगने दूँगी। चुप हो जा एकदम।" 
      
      और ड्रेसिंग-टेबुल के सामने लाकर उसके बाल बनाने लगी तो फिर वही शीशी...वह
      भीतर तक काँप गया।
      
      नाश्ते की मेज़ पर बैठा तो उसकी नज़र नहीं उठ रही है। सब जल्दी-जल्दी नाश्ता
      कर रहे हैं। सब कुछ न कुछ बोल भी रहे हैं, पर बंटी को लग रहा है कि जैसे सब
      चुप हैं और कुछ नहीं कर रहे हैं, केवल उसी की ओर देख रहे हैं। जैसे सबको
      मालूम हो गया है कि उसने बिस्तर में सू-सू कर दिया है। बिना देखे ही वह देख
      रहा है, ममी के चेहरे पर परेशानी है, डॉक्टर साहब के चेहरे पर उपेक्षा है,
      जोत के चेहरे पर दया और अमि के चेहरे पर शैतानी...चिढ़ानेवाला भाव। टोस्ट
      सेंक-सेंककर देता हुआ बंसीलाल मुसकरा रहा है कि देखो, इतना बड़ा बच्चा और...
      
      बस, बंटी ही है कि बेहद-बेहद शर्मिंदा, अपनी ही नज़रों में गिरा, सबसे तुच्छ
      बना, जैसे-तैसे दूध के घूट निगल रहा है। दूध से ज़्यादा आँसू के छूट निगल रहा
      है।
      
      ममी परेशान हो-होकर पूछ रही हैं और हाथ में वही जादुई शीशी, जो बिलकुल खाली
      है।
      
      "तुमने शीशी खोली थी जोत ?" 
      "नहीं ममी, मैं तो आपके कमरे में गई ही नहीं।" 
      “अमि, तुमने तो नहीं गिराया बच्चे ?"
      "नहीं," बिना ममी की ओर देखे, बड़ी लापरवाही से उसने जवाब दिया। 
      "गिराया हो तो बता दो बेटे, गिराया नहीं हो, मान लो गलती से गिर गया हो तो
      बता दो। मैं कुछ नहीं कहँगी।"
      
      “नहीं, हमने खोली ही नहीं शीशी...हम क्या सेंट लगाते हैं ?" 
      
      "बंटी, तुमसे गिरा बेटे ?''
      
      "नहीं," पर बंटी को ख़ुद लगा जैसे अमि की तरह दबंग ढंग से वह 'नहीं' नहीं कर
      सका। और ये ममी हैं कि उसे ही घूरे जा रही हैं ! जोत और अमि को क्यों नहीं
      घूरती ऐसे ? एक मैं ही तो हूँ फालतू !
      
      पर गुस्सा है कि टिक नहीं पा रहा है। एक डर है...कहीं यह शीशी ही नहीं बोलने
      लगे-मैं बताती हूँ असली चोर !
      
      कल जब पीछे के मैदान में उँडेलकर ढेर सारी मिट्टी ऊपर से डालकर हाँफता-हाँफता
      वह आया था तो ठीक सिनेमा में देखे कार्टून-फ़िल्म की तरह उस शीशी के हाथ-पैर,
      आँख-नाक निकल आए थे और वह बड़ी देर तक उसके आगे-पीछे नाचती रही थी।
      
      "कमाल है ! सारी की सारी शीशी उलट गई और कमरे में कहीं खुशबू का नाम तक नहीं।
      तुम लोगों ने नहीं गिराई, बंसीलाल ने सफ़ाई करते समय नहीं गिराई। गिरती तो
      सारा कमरा गमक जाता। कहाँ गया सारा सेंट ? यह तो जैसे कोई जादू हो गया।"
      
      'जादू' शब्द से ही जैसे एक बार ऊपर से नीचे तक फिर से एक सुरसुरी-सी दौड़ गई।
      बंटी ने दोनों हाथों से कसकर कुर्सी पकड़ ली।
      
      शेव करने के बाद तौलिए से मुँह को खूब ज़ोर-ज़ोर से रगड़ते हुए डॉक्टर साहब
      बोले, “अरे छोड़ो अब ! इतवार के दिन क्यों सवेरे-सवेरे यह पचड़ा लेकर बैठ
      गईं। जो हुआ सो हुआ और मँगवा लेंगे।" 
      
      "मँगवाने की बात नहीं है, पर आख़िर जा कहाँ सकती है ?" ममी जैसे अपने से ही
      बोल रही हैं। स्वर में खीज और परेशानी है और चेहरे पर जैसे कोई गहरी चिंता
      उभर आई है।
      
      "...कहा न, फारगेट अबाउट इट !" डॉक्टर साहब ने ममी का कंधा थपथपा दिया। “एक
      सेंट की शीशी ही तो उलट गई है न, कोई दुनिया-जहान तो नहीं उलट गया।"
      
      "तुम्हारी दी हुई चीज़ थी-बुरा नहीं लगेगा ? सवेरे-सवेरे मूड खराब हो गया।"
      
      हुँह ! तो इसलिए परेशान हो रही थीं ममी ! और इसके साथ ही भय की जगह एक संतोष
      जागा और एकाएक नज़र ममी की जगमगाती हुई अँगूठी पर चली गई-यह भी डॉक्टर साहब
      ने ही पहनाई थी।
      
      शादी का सारा का सारा दृश्य फिर आँखों के सामने घूम गया। मन में फिर कहीं कुछ
      कुलबुलाने लगा।
      
      कोठी के दरवाजे में घुसते ही बाईं ओर को दो कमरे और एक बरामदा है। सवेरे आठ
      बजे से साढ़े बारह बजे तक डॉक्टर साहब यहीं रोगियों को देखते हैं। बरामदे के
      खम्भे पर परिवार नियोजन का एक बड़ा-सा बोर्ड लगा है। डॉक्टर की सलाह मानिए-दो
      या तीन बच्चे बस-
      
      बंटी बरामदे के एक कोने में बस्ते के ऊपर बैठा हुआ बस की राह देख रहा है।
      बरामदे की बेंचें रोगियों से भरी हैं, दो-एक ज़मीन पर भी बैठे हैं। बंटी बड़े
      कौतूहल से उन्हें देख रहा है। कमरे में डॉक्टर साहब बैठे हैं। यहाँ से बंटी
      को वे भी दिखाई दे रहे हैं। शायद रोगी बारी-बारी से अंदर जाते हैं। कैसे देखा
      जाता है रोगियों को ? कैसे पता चल जाता है कि किसको क्या बीमारी है ?
      
      “नहीं है हालत तो बच्चे मत पैदा करो भाई ! इस देश के लोगों को तो तीन भी
      नहीं, कुल दो बच्चे पैदा करने चाहिए। खाने की कमी-कपड़े की कमी-जगह की
      कमी-नौकरियों की कमी..."
      
      पों...पों...बंटी बस्ता लेकर भागा।
      
      "क्यों रे बंटी, तू गाड़ी में क्यों नहीं आता यार ?" 
      
      "क्यों आऊँगा गाड़ी में ? घर से निकलो और सीधे स्कूल पहुँच जाओ। न किसी से
      बोल सको न कुछ। बस में कितना मज़ा रहता है। गाड़ी में तो मैं शाम को घूमता
      हूँ।"
      
      पर भीतर से कोई बोल रहा है। झूठ-झूठ ! 'नहीं बेटे, बच्चे लोग यहाँ सोएँगे।'
      एक कमरा उभरता है और ढह जाता है। फिर एक कमरे में जैसे-तैसे ठूसा हुआ
      सामान-अपने घर का सामान-उदास-उदास-सा-और उतना ही उदास-सा बंटी उसे उस सामान
      के बीच खड़ा दिखाई देता है..
      
      कहीं कोई और कुछ न पूछे इसलिए बंटी बाहर सड़क की ओर देखने लगता है। अचानक
      फूफी की याद आ गई...झूठ बोलने से भगवान के घर बड़ी कड़ी सज़ा मिलती है, बंटी
      भय्या-चोरी करने से पाप लगता है।
      
      वह कितना झूठ बोलने लगा है आजकल ! सब गंदे-गंदे काम करता है, गंदी-गंदी बातें
      सोचता है। क्या होगा अब उसका ?
      
      ड्राइंग की क्लास हो रही है। सर ने बोर्ड पर एक बोतल और एक प्लेट-प्याला खींच
      दिया-बनाओ अपनी-अपनी कापियों में।
      
      क्लास में शोर होने लगा। कोई किसी से रबड़ माँग रहा है, तो कोई किसी से
      शार्पनर। कुछ लड़कों के बीच क्रास-ज़ीरोवाला खेल शुरू हो गया। 'चुप-चुप करो
      !' थोड़ी-थोड़ी देर बाद सर सारे पीरियड तक इसी तरह चिल्लाएँगे।
      
      "बताओ तुमने खोली शीशी-तुमने खोली शीशी-तुमने खोली..."
      
      बोर्ड पर प्लेट-प्याले की जगह ममी का चेहरा घूमने लगता है। वह क्या समझता
      नहीं, ममी उसी पर शक कर रही हैं, करें, उसका क्या जाता है ? उससे कहकर देखें
      !
      
      फिर बोर्ड पर बनी बोतल एकाएक, डॉक्टर साहब की टाँगों के बीच में आकर उलटी लटक
      गई। छी-छी, फिर वही सब बातें। उसने मन ही मन प्रॉमिस किया था कि वह अब कभी
      ऐसी गंदी बात नहीं सोचेगा, पर बात है कि फिर भी मन में आ ही जाती है।
      
      उसने उँगलियों का क्रॉस बनाया-अब कभी नहीं, अब कभी नहीं।
      
      भूगोल की क्लास चल रही है। गंगा की यात्रा-'गंगा हिंदुओं की पवित्र और
      हिंदुस्तान की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण नदी है। यह हिमालय पर्वत के गंगोत्री
      नामक ग्लेशियर से निकलती है...'
      
      सर स्केल से बोर्ड पर लटके मैप में गंगोत्री दिखा रहे हैं- “पहाड़ी मार्ग में
      ही इसमें अलकनंदा और मंदाकिनी नामक नदियाँ आकर मिलती हैं, तो इसकी धारा मोटी
      और गति तेज़ हो जाती है। हरिद्वार पर आकर इसका मैदानी मार्ग शुरू हो जाता है।
      हरिद्वार हिंदुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थान है...''
      
      और सर ने स्केल से नक्शे में हरिद्वार दिखा दिया। पर नक्शे के हरिद्वार से
      बंटी के मन में हरिद्वार की कोई तसवीर नहीं उभरती है। 
      
      गंगा तो आगे चली जाती है, पर बंटी के मन में हरिद्वार ही अटककर रह जाता है।
      नदी के किनारे कोई जगह है, पता नहीं कौन-सी। पर वहीं फूफी आँखें मूंदे माला
      फेर रही है। बंटी झपटकर माला छीन लेता है। फूफी चिल्ला रही है-अरे बंटी
      भय्या, पाप लगेगा। पूजा में विघन डालते हो, कइसे पापी हो !
      
      और बंटी आँखें मूंदकर माला फेरने लगता है। जोर-जोर से बोलकर 'धरमी करे धरम,
      फल पापी के होय।' फूफी उसके पीछे दौड़ती है। वह माला पानी में फेंकने लगता है
      कि अचानक माला शीशी में बदल जाती है। वह खड़ा-खड़ा शीशी में से पानी में कुछ
      उलट रहा है...बताओ, तुमने खोली शीशी, तुमने खोली...
      
      "लोगों का ऐसा विश्वास है कि संगम में नहाकर सारे पाप धुल जाते हैं।" संगम
      कैसे जाया जाता होगा ? वह भी एक बार ज़रूर जाएगा-बंटी का पाप भी ज़रूर धुल
      जाएगा।
      
      "बंगाल में आकर इसका नाम हुगली हो जाता है। कलकत्ता इसके किनारे एक बहुत बड़ा
      बंदरगाह है।"
      
      कलकत्ता...और ढेर सारे बंदरों के बीच उसे पापा का चेहरा दिखाई देने लगता है।
      पापा के तरह-तरह के चेहरे।
      
      कितनी बार उसने सोचा, पर पापा को चिट्ठी नहीं लिखी। अच्छा, पापा ही लिख देते।
      उन्हें क्या मालूम नहीं कि ममी उसे लेकर दूसरे घर में आ गई हैं ! वकील चाचा
      भी कितने दिनों से नहीं आए ? 
      
      “अच्छा अरूप, बताओ गंगा कहाँ से निकली है ?"
      
      बंटी खड़ा हो गया। गंगा, नक्शा, हरिद्वार, फूफी, बंदर, पापा, संगम-जाने कितने
      नाम हैं, जाने कितने चेहरे हैं कि भीड़-सी लग जाती है और सब गड्डमड्ड हो जाते
      हैं, एक के ऊपर एक, और पता नहीं लगता कि गंगा कहाँ से निकली ?
      
      बंटी स्कूल से लौटा तो ममी घर में ही मिलीं। अमि-जोत नहीं लौटे थे और ममी
      अकेले ही थीं। बंटी को अच्छा लगा। अकेली ममी हों तो घर भी अपना लगने लगता है।
      
      "तुम आज कॉलेज नहीं गईं ममी ?"
      
      “नहीं बेटे ! सब सामान ज़माना था इसलिए दो दिन की छुट्टी ले ली।" ममी ने बंटी
      के हाथ से बस्ता ले लिया। कमरे में आया तो देखा जोत की और अमि की अलमारी के
      बगल में एक और लंबी-सी अलमारी खड़ी है। 
      
      “देख बंटी, तेरे लिए यह अलमारी लगवा दी है। दो खानों में तेरे कपड़े हैं और
      दो में तेरे खिलौने। अब ठीक से रखना अपनी अलमारी को।"
      
      ममी इस समय कैसी लग रही हैं ! टीटू की अम्मा काम करते हुए जैसी लगती थीं,
      वैसी ही।
      
      बंटी ने अलमारी खोली। दवाइयों की बदबू का एक भभका-सा उड़कर आया।
      
      “यह क्या, इनमें से कैसी दवाई-दवाई की-सी बदबू आ रही है ?" बंटी छिटककर पीछे
      हट गया।
      
      "कुछ नहीं बेटा, डॉक्टर साहब की दवाइयों की अलमारी मैंने तेरे लिए खाली करवा
      ली। दो-चार दिन में यह महक उड़ जाएगी।"
      
      "नहीं चाहिए हमें ऐसी अलमारी ! घर का सारा आलतू-फालतू सामान मेरे लिए ! अपने
      लिए कैसा बढ़िया कमरा, कैसी बढ़िया अलमारी..."
      
      ममी एकदम पलटकर खड़ी हो गईं, एक क्षण बंटी का चेहरा देखती रहीं फिर पास आकर
      दोनों हाथ पकड़े और खींचकर पलंग पर बैठ गईं-“क्या कह रहा है, यह आलतू-फालतू
      सामान है ? पता है डॉक्टर साहब के कितने काम की थी यह अलमारी-मैंने ख़ासतौर
      से तेरे लिए खाली करवाई और तू है कि..."
      
      “तो क्यों खाली करवाई ? दे दो डॉक्टर साहब की अलमारी उन्हें..." 
      
      "बंटी !" और ममी एकटक उसका चेहरा देख रही हैं। क्या है उसके चेहरे पर जो ऐसे
      देख रही हैं।
      
      “एक बात कहूँ बेटे, मानेगा ?" 
      
      अब बंटी की आँखें ममी के चेहरे पर टिक गईं। 
      
      "तू डॉक्टर साहब को पापा क्यों नहीं कहता ?" 
      
      बंटी चुप। आँखों के आगे कहीं अपने पापा की तसवीर तैर गई। 
      
      "बोल, कहेगा न अब से ?" 
      
      "नहीं !" 
      
      "क्यों ?" 
      
      "मेरे पापा तो कलकत्ते में हैं।" 
      
      ममी एक क्षण चुप। चेहरा कहीं हलके से सख्त हो आया। 
      
      "ठीक है, हैं। पर जोत और अमि भी तो मुझे ममी कहते हैं।" 
      
      "उनकी ममी मर गई हैं इसलिए कहते हैं, मैं क्यों कहूँ ?"
      
      ममी उसे देखती रहीं और वह भी ममी को देखता रहा। एकटक, बिना नज़र हटाए, बिना
      झिझके।
      
      इतने में पोर्टिको में कार के रुकने की आवाज़ आई तो ममी बंटी के हाथ छोड़कर
      उठ पड़ीं- "ठीक है बंटी, जो तेरी समझ में आए कर !" स्वर में सख्ती नहीं थी,
      गुस्सा भी नहीं था। शायद दुख था।
      
      जोत और अमि अपना-अपना बस्ता उठाए गाड़ी से उतरे।
      
      'बंटी, तू गाड़ी में क्यों नहीं आता यार ?' यह वाक्य कहीं से मन में कौंधा और
      डूब गया।
      
      “आ गए तुम लोग ? चलो, जल्दी से हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलो। मैं नाश्ता लगवाती
      हूँ। देखो, बंटी को भी रोक रखा था अभी तक !"
      
      हाँ, बंटी तो है ही फालतू। अभी ये लोग घंटा-भर और नहीं आते तो तुम और रोके
      रखतीं बंटी को-बंटी को भूख थोड़े ही लगती है। 
      
      'अरे बंटी भैया, तुम पहले कुछ खा लो, सवेरे के गए हो, तुम्हें भूख नहीं लगती
      ? हमारा तो यहाँ जी कलपता रहता है तुम्हारे मारे...' उसे फूफी याद आ जाती है।
      
      ममी मेज़ लगाती हुई कैसी लग रही हैं ? वहाँ तो बस, एकदप प्रिंसिपल बनी रहती
      थीं। 
      
      “यह लंबूतरी अलमारी बंटी भैया की है ?” वही हनुमानवाले लाल कपड़े पहन आया है
      अमि। लंबूतरी-कबूतरी-बंदर कहीं का ! ऐसी फालतू-सी चीज़ उसे दे दी है तो मज़ाक
      नहीं उड़ाएँगे सब लोग ! 
      
      खाने की मेज़ पर बैठे कि कॉलेज का माली आ गया और ज़मीन तक झुककर सलाम किया।
      
      “नमस्ते बंटी भैया, कैसे हो ?" हाथ जोड़े-जोड़े ही उसने पूछा तो बंटी उछलकर
      माली के पास आ खड़ा हुआ।
      
      “माली दादा, कैसा है मेरा बगीचा ? तुम ठीक से पानी तो देते हो न ? उस पीले
      गुलाब की कलियाँ खिल गईं', कितनी बातें उसे पूछनी हैं। माली क्या आया जैसे
      उसके साथ बंटी का घर चला आया, बंटी का बगीचा चला आया।
      
      एक के बाद एक फूलों के नाम लिए जा रहा था बंटी और उत्साह है कि जैसे मन में
      समा नहीं रहा है। 
      
      “माली, अब उससे भी अच्छा बगीचा यहाँ लगाओ बंटी के लिए। पहले यहाँ की सफ़ाई
      करके खाद-वाद डाल दो। फिर जो गमले और पौधे ज्यों के त्यों आ सकें उन्हें वैसे
      ही ले आना, बाकी..."
      
      “एकदम नहीं आएँगे पौधे। मेरे बगीचे को हाथ नहीं लगाएगा कोई। मैं अभी से कह
      देता हूँ। माली दादा, तुम बिलकुल नहीं छूना।" स्वर में आवेश भी है, और आदेश
      भी। यह उसके अधिकार की सीमा है। तुमने कमरा नहीं दिया, लंबूतरी अलमारी लगा
      दी, बहुत चाहने पर भी वह जैसे कुछ बोल ही नहीं सका। पर उसका बगीचा...
      
      माली की गिजगिजी आँखों में जैसे कुछ तैरने लगा।
      
      “इसे बनाए न तू अपना बगीचा !" ममी ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखकर जैसे
      मनुहार की।
      
      "नहीं, बिलकुल नहीं है यह मेरा बगीचा ! बीज और कलम लगा-लगाकर बनाओ, अपना
      बगीचा तो पता लगेगा कैसे बनता है बगीचा !"
      
      “ऐसा ही होता है बहूजी, ऐसा ही होता है। अपने बोए-सींचे पौधों से ऐसा ही मोह
      होता है, बिलकुल संतान-जैसा। जहाँ एक बार लगाओ वहाँ से उखाड़ा नहीं जाता।" और
      फिर थरथराते गले से बोला, “तुम एक बार आकर देख जाना बटी भैया ! तुम्हारे
      बगीचे को तो मैं जान से भी ज़्यादा रखता हूँ।" 
      
      बंटी माली के हाथ से झूम गया। माली के हाथ को छूकर लग रहा है, जैसे वह अपना
      बगीचा छू रहा है...उस पर हाथ फेर रहा है। कल-परसों वह किसी दिन ज़रूर जाएगा।
      
      ममी जब तक बताती रहीं कि यहाँ क्या-क्या करना होगा, बंटी वैसे ही उसके हाथ पर
      झूलता रहा। जब माली जाने लगा तो उसे गेट तक छोड़ने गया।
      
      “कल फिर आना माली दादा...रोज़ आया करना !" और जब तक माली दिखता रहा, बंटी उधर
      ही देखता रहा।
      
      बच्चे पढ़ाई करने बैठे तो एक महाभारत छिड़ गया। अमि अपनी मेज़ पर से बंटी की
      किताबें उठा-उठाकर फेंक रहा है और चिल्ला रहा है, “किसने हटाई मेरी किताबें
      यहाँ से ? यह मेरी मेज़ है, किसी को नहीं दूंगा मैं अपनी मेज़।"
      
      “ऐ अमि, क्या पागलपन कर रहा है ? ममी ने तेरी किताबें मेरी मेज़ पर रख दी
      हैं, यहाँ बैठकर पढ़ ले।" पर जोत अमि को रोकती-रोकती इतने में बंटी घुसा और
      “ले...ले और फेंक मेरी किताबें, और फेंक..." और अमि की किताबें हवा में
      कलाबाज़ी खाती हुई ज़मीन पर लोट गईं, और फिर दोनों गुंथ गए... घूसे-मुक्के।
      बंटी ने खींचकर-खींचकर दो थप्पड़ जड़े तो अमि ज़ोर से चीखा और बंटी की बाँह
      पर दाँत भरकर काट लिया।
      
      “मार डाला रेऽ...”
      
      ममी दौड़ी हुई आईं... “यह क्या हो रहा है ?" उन्होंने झपटकर दोनों को अलग
      किया। बिना कुछ किए ही जोत एक ओर को अपराधी-सी खड़ी हो गई।
      
      “मैं मारूँगा इसको...मारूँगा, देखो क्या किया है इसने !" और गुस्से से काँपते
      हुए बंटी ने अपनी बाँह आगे कर दी। दो दाँत माँस के भीतर तक गड़ गए थे और खून
      छलक आया था। 
      
      “अमि, यह क्या किया है तूने ? इस तरह काटते हैं बड़े भैया को ?" ममी ने बहुत
      सख्त आवाज़ में कहा।
      
      अमि रोता जा रहा है और घर-घूरकर बंटी को देखता जा रहा है।
      
      बस, हो गया डाँटना ? लगाती न थप्पड़ ! अभी वह ऐसे काट लेता तो ? बंसीलाल अमि
      को बाहर ले गया तो ममी ने बहुत प्यार से बंटी को बाँह में भर लिया, "चल टिंचर
      लगा देती हैं।"
      
      "नहीं लगाना मुझे टिंचर, मुझे कुछ नहीं करवाना।” पता नहीं उसकी आवाज़ में
      गुस्सा था या दुख कि ममी की आँखें छलछला आईं... “चल बेटे, शाम को डॉक्टर साहब
      से डाँट पड़वाऊँगी अमि को।"
      
      हाँ, डॉक्टर साहब से डाँट पड़वाएँगी ! जैसे ख़ुद नहीं डाँट सकती थीं न ? और
      बंटी हाथ छुड़ाकर भाग गया। उसने टिंचर भी नहीं लगवाया। उस रात बंटी ने खाना
      भी नहीं खाया। डॉक्टर साहब ने अमि को डाँटा, कान खींचा। बंटी को प्यार किया,
      समझाया कि दो दिन बाद ही तुम्हारी मेज़ बनकर आ जाएगी-एकदम नई और इन सबसे
      बढ़िया। पर बंटी अपने पलंग पर से हिला तक नहीं।
      
      “तुम तो बहुत जिद्दी हो यार !'' डॉक्टर साहब लौट गए। और जाने कैसे पापा आकर
      बैठ गए-तुम हमारे साथ कलकत्ते चलोगे बंटी-खूब घुमाएँगे-फिराएँगे।
      
      वह कल ही पापा को चिट्ठी लिखेगा।
      
      बंटी बस के लिए खड़ा है। रोज़ की तरह डॉक्टर साहब रोगियों को देख रहे हैं, पर
      वह किसी की भी तरफ़ नहीं देख रहा। रात वाला गुस्सा अभी भी भरा है मन में।
      सवेरे उसने किसी से बात नहीं की, अब वह किसी से नहीं बोलेगा, कभी नहीं
      बोलेगा। सामने लगे लाल तिकोन को घूर-घूरकर देख रहा है बंटी। डॉक्टर साहब के
      शब्द तैर जाते हैं इस देश में तो तीन भी नहीं, दो, बस दो बच्चे पैदा करने
      चाहिए।
      
      तीसरा बच्चा फालतू बच्चा-तीसरा बंटी, फालतू बंटी... 
      
      'अब तू कार में क्यों नहीं आता यार ?'
      
      अमि और जोत की अलमारियाँ- 'यह लंबूतरी अलमारी बंटी भैया की है ?' अमि और जोत
      की मेज़-'किसी को नहीं दूंगा मैं अपनी मेज़-यह मेरी है-।'
      
      अपना-अपना बस्ता लिए, कार में बैठे हुए अमि और जोत सर्र से निकल जाते हैं, सर
      से घुस जाते हैं।
      
      ड्राइवर, जाओ, डॉक्टर साहब को ले आओ। 
      
      ड्राइवर, जाओ, कॉलेज से मेम साहब को ले आओ। 
      
      बस, फालतू बंटी बस के लिए खड़ा है।
      			
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