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प्रवासी लेखक >> एक कोई दूसरा

एक कोई दूसरा

उषा प्रियंवदा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3100
आईएसबीएन :81-267-0063-7

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उषा प्रियंवदा की श्रेष्ठ कहानियाँ....

EK KOI DOOSRA - Book by Usha Priyamvada

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उषा प्रियवंदा की इन कहानियों को पढ़ना भाषा की एक समतल, शान्त और काँच-सी पारदर्शी सतह पर चलना है। यह सतह अपनी स्वच्छता से हमें आश्वस्ति देती है। लेकिन यह सब भाषा तक ही सीमित है, भाषा के भीतर जो कहानी होती है, वह बेहद बेचैन कर देने वाली है। इन कहानियों को पढ़ते हुए हम एक ऐसे पाठ से गुजरते हैं जो हमें लगातार सम्पूर्ण का आभास कराता हुआ, एक अधूरी, अतृप्त जिंदगी की कसक साथ-साथ देता चलता है

एक कोई दूसरा की नीलांजना, झूठा दर्पण की अमृता कोई नहीं की नमिता, सागर पार का संगीत की देवयानी, पिघलती हुई बर्फ के अक्षय और छवि, चाँदनी में बर्फ़ पर के हेम और मीरा (मेरी) और टूटे हुए की तंत्री त्रिपाठी उर्फ़ टीटी-ये सब पात्र इस भाषा की बर्फ़ की-सी चमकती सतह के नीचे एक अधूरा और यातनाप्रद जीवन जी रहे हैं। अपने देश की मिट्टी से उखड़कर बाहर किसी सम्पन्न और पराये मुल्क में ‘अकेला’ और ‘अलग होकर’ रहना इस यंत्रणा का एक विशिष्ट पहलू है जिसको ये कहानियाँ लगातार रेखांकित करती हैं।


एक कोई दूसरा



मैं अब भी सुंदर हूँ। मेरे होंठों पर वही लाली है, आँखों की पुतलियों में वही चमक और लोग अब भी उसी सराहना-भरी दृष्टि से मुझे देखते हैं। मेरे अंदर बड़ा गहरा संतोष है कि मेरा रूप, मेरा चापल्य, मेरी हँसी किसी रिक्त जीवन का थोड़ा-सा कोना तो भर सकी !
और कुछ महत्त्व नहीं रखता। मँझली भाभी कहती हैं, ‘‘रानी, बचपना न करो ! बहुत अच्छा लड़का है, रंगवालों का वैभव, उनकी कुलीनता, उनकी शालीनता सारी बिरादरी में प्रसिद्ध है ! वह तुम्हें पूजेंगे...’’
‘‘पूजा के ऊँचे आसन पर तो बहुत अकेलापन होता होगा, भाभी !’’
‘‘तुम किसलिए अपने को मिटाए दे रही हो ? तुम्हारा रूप, तुम्हारा रंग धीरे-धीरे खो जाएगा। हर चीज़ की अपनी रुत होती है। हरे पत्ते नोंचकर फेंक देने से ही पतझड़ नहीं आ जाता !’’
‘‘पतझड़ कहाँ ? मेरे ऊपर तो चिर वसंत है !’’ मैं मुसकराती हूँ, मैं सच ही वासंती बयार हूँ। जहाँ जाती हूँ, घर प्रांगण सुगंधित कर देती हूँ-ऐसा ही कभी किसी ने कहा था ! किसने ? अब याद नहीं पड़ता।
‘‘अपने घर जाओ, सुख से रहो।’’ भाभी उसी बात को पकड़े हुए हैं।

‘‘मैं सुखी नहीं हूँ, यह तुम कैसे कहती हो, भाभी ? देखो, कितने आराम से तुम रखती हो, मँझले भैया ने मोटर ख़रीद दी है, जहाँ चाहूँ जाऊँ। मेरे नाम इतना रुपया बैंक में है ! क्या यह सुख नहीं रंगवाले के ? यहाँ मुझे इससे अधिक क्या मिलेगा ?’’
भाभी धीरे से कहती हैं, ‘‘रानी मन के मीत की बात ही और होती है !’’
‘‘तो भाभी, वह रंगवालों के शहज़ादे, तुम यह कैसे जाना कि वह मेरे मन के मीत बन सकेंगे ?’’
भाभी बड़े उत्साह से उत्तर देती हैं, ‘‘वह इतने साल विलायत में रहे हैं, बड़े स्मार्ट हैं, तुमने तो स्वयं देखा है कि कितनी अच्छी अंग्रेज़ी बोलते हैं।’’
‘‘मन के मीत नहीं भाभी, तन के भोक्ता कहो !’’
मेरे मुख से ऐसी बात सुन भाभी सकुचकर चुप हो जाती हैं। मेरी मीठी, भोली भाभी बातें बंद कर कहती हैं, ‘‘बाहर चलो देखो कैसे तारे छिटके हैं ! गंगा के पुल की बिजलियाँ अँधेरे में बड़ी सुंदर लगती हैं !’’

तारों की छाँह में खड़ा होना मुझे अच्छा लगता है। मुँह ऊपर करके आकाश को देखती हूँ। धप-धप करते हुए कितने तारे हैं। मैं पहचानने का प्रयत्न करती हूँ कि कौन सा तारा स्निग्ध दृष्टि से मुझे देख रहा है ? अचानक ही मैं एक उपस्थिति की सुवास से भर उठती हूँ। आकाश से झरती, किरणें, जाग्रत स्पंदित उँगलियाँ बनकर मुझे सहलाने लगती हैं।

उस रात यूनिवर्सिटी में न जाने कौन सी लता फूली थी कि चारों ओर तीव्र सुगंध फैल रही थी। मेरा मन, वहीं खड़े होकर, उस सुवास में लंबी-लंबी साँसें पीने को होने लगा। रात में सबकुछ कितना बदला-बदला सा लग रहा था। दिन-भर मुखरित रहनेवाले क्लासरूम और सड़कें निस्तब्धता को ओढ़ सुस्ता रही थीं। रात्रि के आकाश की पृष्ठभूमि में बुर्जियों और मीनारों की आकृति गाढ़े रंग के धब्बों की तरह लग रही थी। उस विस्तृत नीरवता में श्यामा का स्वर एक फुसफुसाहट सा लगा, ‘‘तुम तो डॉ. कुमार से अभी मिली नहीं ?’’

‘‘नहीं श्यामा, जा ही न सकी। सोचती तो रोज़ रही, पर कुछ विशेष काम भी न हो पाया था, जो लेकर जाती।’’
‘‘मेरे किए चैप्टर की उन्होंने बहुत प्रशंसा की’’, श्यामा बड़े अभिमान से बोली, ‘‘और उन्होंने प्रशंसा की, इससे मुझे बहुत खुशी हुई। इतने सुलझे हुए विचारों और गहन अध्ययन वाले व्यक्ति कम ही होते हैं !’’
मैंने चुपचाप उसकी बात सुन ली। श्यामा की थीसिस उसका जीवन-प्राण बन गई थी। उठते-बैठते सिर्फ़ उसी की चर्चा ! डॉक्टर सिंह के रिटायर होने पर उसे इस बात से अधिक दुःख हुआ था कि नए अध्यक्ष के आने तक थीसिस की प्रगति में बाधा पड़ेगी। डॉ. कुमार हमारे डिपार्टमेंट में आ रहे हैं, यूनिवर्सिटी उन्हें मैक्सिमम सैलरी दे रही है, वह कैंब्रिज के डॉक्टर हैं....ये सब समाचार मुझे श्यामा ने ही समय समय पर दिए थे। एक अध्यक्ष के जाने और दूसरे के नियुक्त होने से मेरे ऊपर कोई असर न पड़ा था। बल्कि उस कुछ समय के अंतराल से मैं प्रसन्न ही हुई थी और अपने क्लब के वार्षिक उत्सव में निश्चिंत होकर भाग ले सकी थी।

कार से उतरते हुए मैंने देखा कि काफी मोटरें पहले से ही आकर खड़ी थीं और पोर्टिको में भी कुछ लोग बातें करते दिख रहे थे। मैं अपने अध्यापकों को नमस्कार करती अंदर चली गई। अंदर हाल में तीव्र प्रकाश था और बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ यूनिवर्सिटी लॉन की ओर खुली हुई थीं। मैं साड़ी सँभालती, अतिथि-अभ्यागतों पर दृष्टि डालकर यह विचार कर ही रही थी कि कहाँ बैठूँ कि एक ओर से धीरेंद्र आता दिखाई पड़ा।
‘‘तुम लोगों के लिए हम लोगों ने जगह रख ली है।’’
‘‘उधर ? मुख्य टेबल के पास ?’’ मैंने पूछा।

‘‘और क्या ? आकर्षण का केंद्र तो तुम ही हो, बेचारे डॉक्टर कुमार तो तुम्हारे सामने फीके पड़ जाएँगे’’ धीरेन्द्र मुसकराया।
‘‘डोंट बी फनी !’’ मैंने धीरेन्द्र को मीठी सी घुड़की दी। ऐसी बाते सुनने का अभ्यास है मेरे लिए ये उद्गार नये नहीं है श्यामा धीरेन्द्र बोली, ‘‘डाक्टर कुमार ने मुझसे कहा कि यदि मैं ऐसे ही श्रम करती रही तो मेरी थीसिस उच्च कोटि की होगी।’’
मैं जानती थी कि आज श्यामा प्रत्येक परिचित से यही कहेगी। मुझे मन में बुरा-सा लग उठा। एक आकांक्षा जग उठी कि मेरे कार्य की भी ऐसी ही प्रशंसा हो। पर मैंने तो सिनॉप्सिस के अतिरिक्त अभी कुछ भी न किया था। मैं वहाँ से कहीं और हटना चाहती थी कि तब तक दीक्षित और स्टड भी मेरे ही पास आ गए।
‘‘हाई !’’ स्टड ने कहा।

‘‘हाई स्टड !’’ उत्तर में मैं मुसकराई। स्टड लौनीगन हमारे विभाग में एक साल से आया हुआ था। विदेशी छात्रों की देख-भाल की जो कमेटी थी, उसकी मैं सदस्या थी और इसी कारण स्टड से मेरा परिचय घना हो गया था।
धीरेंद्र स्टड से मेरी मैत्री के प्रति सदा ईर्ष्यालु रहा है। ‘‘आज तो तुम अपना नाम सार्थक कर रही हो !’’ उसने मुझसे कहा।
‘‘मेरे नाम का यह अर्थ बिलकुल नहीं है !’’ मैं मुसकराई।

डॉक्टर कुमार के स्वागतार्थ दिए गए उस भोज में मैंने नीली साड़ी पहनी थी।....इतने दिनों के बाद भी, मैं अपने को उस रात के परिधान में स्पष्ट रूप से देख रही हूँ। नीली सिल्क की साड़ी, उस पर चटक नारंगी बार्डर। नीला ब्लाउज साड़ी में कुछ ऐसा घुल मिल गया था कि सुनहरे तारों से बुना नारंगी बार्ड़र ही झिलमिला रहा था। बार्डर के रंग की वैसी ही चटक लिपस्टिक। तैयार होकर जब मैं ड्राइवर के गाड़ी लाने की प्रतीक्षा कर रही थी, भाभी बाहर आईं और मेरी बलाएँ लेने लगीं : ‘‘रानी सच बिलकुल परी सी लग रही हो ! तुम तो जो भी पहन लो, उसी में खिल उठती हो। साड़ी का रंग भी कितना सोबर है ! फिर भी बार्डर की शोभा साड़ी पर और चटक लिपस्टिक  का निखा़र चेहरे पर ! पर यह सब यूनिवर्सिटी में पहनने से क्या ? कहीं और पहनती तो लोग देखते भी !’’

धनी ठेकेदार की बेटी मेरी भाभी, यूनिवर्सिटी प्रोफेसर और रिसर्च को हेय समझती हैं। उनके अनुसार मैं अपना समय नष्ट कर रही हूँ; मुझे भी किसी धनी व्यवसायी या मिल मालिक के घर की शोभा बढ़ानी चाहिए।
आत्मविश्वास की मुझमें कमी नहीं, पर भाभी की बातों से मन में थोड़ी सी खुशी और भर गई..श्यामा की बौद्धिकता के प्रभाव में न आ, धीरेंद्र दीक्षित और स्टड जिस प्रकार मुझे घेरे खड़े थे, वह मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मादक द्रव्यों के सेवन से कैसा लगता होगा यह मैं नहीं जानती, पर पुरुषों की चाहना भरी दृष्टि की मदिरा मुझे सदा गुदगुदा जाती है। यदि मेरे पास अथाह रत्न राशि भी होती, तब भी मुझे सदा गुदगुदा जाती है। यदि मेरे पास अथाह रत्नराशि भी होती, तब भी ऐसा न लगता, जैसा कि धीरेंद्र के मुख पर प्रीतिमय दास-भाव देखकर लग रहा था।...कितना कुछ था मेरे पास देने को, पर वह सब मुट्ठी में भींच किसी को कुछ न देने का निश्चय करके भी, मैं सबको ललचा रही थी। पूर्ण विकसित पुष्प को कैसा लगता होगा, यह मैं उस समय जान पा रही थी।

भोज प्रारंभ हो गया। किसी ने मेरे हाथों में खाद्य पदार्थों से भरी प्लेट पकड़ा दी।
‘‘तुम छुट्टी में यहीं रहोगी ?’’ स्टड ने पूछा।
‘‘यह यहाँ रहेंगी तो नैनीताल सूना हो जाएगा !’’ श्यामा ने कहा।
बेचारी श्यामा ! डॉक्टर कुमार भले ही उसकी थीसिस की प्रशंसा करें, पर उसका समवयस्क कोई भी युवक उसे दुबारा मुड़कर नहीं देखता।
‘‘कैसी जगह है नैनीताल ?’ स्टड ने मुझसे पूछा।
‘‘पानी ?’’ धीरेंद्र ने पूछा और गिलास मेरे हाथ में पकड़ा दिया।
मैं स्टड की ओर मुड़ गई और उसे नैनीताल के बारे में बताने लगी। मैं उससे बातें करने में ऐसी लीन थी कि अपनी ओर जाते हुए लोगों को मैं देख ही नहीं पाई। जब स्टड एकदम गंभीर हो गया और धीरेंद्र, श्यामा सादर, संभ्रम एक ओर हट गए तो मैंने देखा, डॉक्टर कुमार ठीक मेरे सामने खड़े हैं। वह डॉक्टर कुमार ही होंगे, यह मैंने उनके साथ विमाग के दो सीनियर प्राध्यापकों को देखकर अनुमान लगाया।

डॉक्टर प्रसाद ने उन्हें हम सब का परिचय देते हुए कहा : ‘‘मि. स्टड लौनीगन हमारे विभाग में फुलव्राइट स्कॉलर हैं। वर्जीनिया से आए हैं।....और ये तीनों अब आपके पथ-प्रदर्शन में शोध कार्य करेंगे !’ कहकर उन्होंने हमारी ओर संकेत किया।
डॉक्टर कुमार श्यामा और धीरेंद्र से पहले ही मिल चुके थे। वह मेरी ओर सीधी, स्थिर दृष्टि से देख रहे थे। मैं एक हाथ में पानी का गिलास और दूसरे में प्लेट पकड़े खड़ी थी और इस उलझन में पड़ी थी कि उन्हें नमस्कार कैसे करूँ ? मेरे विचार उस आकस्मिक आघात से टूटकर बिखर गए थे और इस अवसर के उपयुक्त कोई भी शब्द मैं नहीं सोच पाई। उस क्षण मुझे लगा कि खिड़कियाँ खुली होने के बावजूद हॉल में बड़ी घुटन और गर्मी सी है, जिससे मेरी हथेलियाँ पसीज उठी हैं। हॉल का तेज़ प्रकाश अनेक कंठों के वार्तालाप के सम्मिलित स्वर,  चम्मचों-प्लेटों की खनक एकाएक उमड़ आई लहर की तरह मुझे डुबाने लगे। तभी किसी के हाथ से छूटा काँच का गिलास झन्न से टूट गया और उसने मेरी डूबती चेतना को झकझोर दिया।

‘‘आपकी रिसर्च का विषय क्या है ?’’
‘‘आधुनिक काव्य में प्रतीकवाद’’, मैंने उत्तर दिया।
उनका मंद स्वर शीतल उँगलियों की भाँति था, जिससे कि मैं अस्पष्ट विचारों में कुछ स्पष्टता आई।
‘‘आपका कितना काम हो गया है ?’’
‘‘इसी साल आरंभ किया है। अभी तो शब्दों और पुस्तकों के सागर में डूब-उतरा रही हूँ।’’
डॉक्टर कुमार आगे बढ़ गए। स्टड ने मेरे हाथ से गिलास और प्लेट ले ली। मैं रूमाल से अपनी हथेलियाँ पोंछने लगी। डॉक्टर कुमार युवा हैं या प्रौढ़, सुंदर अथवा अंसुदर, मैं नहीं बता सकती। मेरी समस्त चेतना उस सीधी, गहन, तल तक जाती दृष्टि में केंद्रीभूत हो गई थी। उनके चले जाने के बाद भी मैं कुछ खा न सकी। मैं न जाने किन अदृश्य तंतुओं में उलझकर रह गई थी। डॉक्टर कुमार का मेरे प्रति विचार कुछ अच्छा नहीं बना होगा मैं किस प्रकार उजड्ड की तरह चुप खड़ी रह गई थी, बार-बार याद कर मैं खिन्न हो गई। मुझे एकाएक अपनी साड़ी का रंग बहुत शोख और उस अवसर के लिए अनुपयुक्त सा लग उठा। मुझे खीझ हुई कि श्यामा की तरह सफेद साड़ी मैंने भी क्यों नहीं पहनी ! स्टड ने कौतुक भरी दृष्टि से देखते हुए मुझे खिझाया : ‘‘हाँ, तो नैनीताल...’’

सबकुछ वैसा ही है, जैसा एक वर्ष पहले था। ऊँचाई पर हमारा घर जिसके बरामदे से झील दिखाई देती है। सफेद पालवाली नावों को मैं घंटों बैठकर देख सकती हूँ। कभी-कभी दृष्टि भटककर ढलानों पर उगे हरे, युवा, शक्तिशाली वृक्षों में उलझ जाती है। उनके नीचे धूप और छाया मिलकर चटक और फीके रंगों से धरती रँगती रहती है। मैं प्रसन्न हूँ। गरमी के कुछ और बढ़ने पर नीचे से जो लोग आए हैं, उनमें से बहुत अपने परिचित हैं। उनके साथ कभी-कभी पार्टी, चाय सिनेमा और बोटिंग का प्रोग्राम बनाने लगा और मेरे दिन काफी व्यस्तता से बीतने लगे। एक बक्से में मैं पुस्तकें भी भरकर लाई थी, पर उन्हें पढ़ेगा कौन ? बेकार ही बोझ बढ़ाया। मैं बुक स्टाल से ‘वुमन एंड होम’, अर्ल स्टैनली गार्डनर की कुछ किताबें, कुछ चित्रमय पत्रिकाएँ ले आई और उन्हीं के पृष्ठ उलटते हुए दिन बिता देने लगी।

स्टड के कुछ दिनों के लिए नैनीताल आने पर मेरे मनोरंजन का साधन बढ़ा। कभी-कभी श्यामा को याद करती हूँ। वह उसी गरमी में तपते रिसर्च रूम में बैठकर काम करती होगी। उस ठंडक और चहल-पहल में अपने जीवन का रूप बहुत दूर लगता है। कभी-कभी मन कुछ आँसने-सा लगता है कि जब रिसर्च के लिए नाम लिखाया है तब कुछ तो करना ही चाहिए। डॉक्टर सिंह के साथ तो निभ गई, पर डॉक्टर कुमार दूसरी ही प्रकृति के जान पड़ते हैं।...पर अभी तो नीला आकाश है, स्टड है, नृत्य-संगीत है ! स्टड को बोटिंग का बड़ा शौक है, वक़्त-बेवक़्त जब मन हुआ तभी चल दिए।

मुट्ठी भर बजरी आकर मेरे कमरे के शीशों पर गिरती है, और मैं झुककर झाँकती हूँ, तो देखती हूँ, स्टड नीचे खड़ा मुसकरा रहा है। मैं चुपचाप नीचे उतर आती हूँ और हम दोनों साथ चल देते हैं।....स्टड नाव खेता है और मैं झुककर पानी में हाथ डाले बैठी रहती हूँ। उँगलियों से झिरकर गिरती पानी की बूँदें.....उन्हीं गीले हाथों से कभी-कभी बाल सँवार लेती हूँ और स्टड मेरी आँखों में देखकर मुसकरा देता है और कोई गीत गुनगुनाने लगता है।....नाव किनारे से लगी और स्टड उतर गया, उसने हाथ बढ़ाया और उसकी मज़बूत पकड़ के सहारे मैं भी नीचे सूखी भूमि पर कूदी और उससे टकरा गई। फिर हँसते हुए हम दोनों अलग हो गए। स्टड नाववाले को पैसे देने लगा और मेरी दृष्टि यों ही भटककर ऊपर सड़क की ओर चली गई जहाँ लोग प्रायः खड़े होकर झील की ओर देखा करते हैं। मेरी दृष्टि का अनुसरण कर स्टड ने भी ऊपर देखा और उसकी भौंहें ऊपर गईं।
सीढ़ियाँ चढ़कर हम लोग ऊपर आए। तब तक डॉक्टर कुमार वैसे ही रेलिंग के सहारे खड़े थे। हमने उन्हें अभिवादन किया।
‘‘आप कब आए ?’’ मैंने पूछा।
‘‘दो तीन दिन हुए आया हूँ।’’

‘‘ठहरेंगे ?’’
‘‘हाँ।’’
मैं दोनों हाथ मरोड़ती, नर्वस-सी खड़ी रही। काश, मेरे साथ स्टड न होता ! क्या सोच रहे होंगे डॉक्टर कुमार ?....इस अलस दोपहरी में मैं स्टड के साथ लौटी हूँ, मेरे रूखे बाल उड़ रहे हैं, मेरी बिंदी ज़रूर फैल गई होगी। डाक्टर कुमार ने सोचा होगा कि मैं बड़ी ही फ़्लाइटी लड़की हूँ, विदेशियों के साथ घूमा करती हूँ...शायद उन्हें यह भी लगा हो कि मैं जान-बूझकर ही स्टड के ऊपर गिरी थी।
लौटते समय मैं बहुत चुप थी। स्टड मंद स्वर से सीटी बजाता चल रहा था, मेरे अंदर की हलचल से अनभिज्ञ। मैंने एक पत्थर को ठोकर मारी और जब तक वह नीचे नहीं गिर गया, उसे देखती रही।
मैं बुरी नहीं हूँ, केवल पूरी तरह जीने का प्रयत्न कर रही हूँ। मुझे किसी भी प्रकार की आर्थिक चिंता नहीं है, मेरे लिए उपयुक्त वर की तलाश जारी है। यदि इस अंतराल को मैं हँसी-खुशी से जिंदगी को बिलकुल सीरियसली न लेकर बिता रही हूँ, तो कुछ बुरा नहीं कर रही। पर मेरी यह फ़िलासफ़ी औरों को कैसी लगती होगी ? डॉक्टर कुमार के मन में अवश्य ही मेरे प्रति कुछ अरुचि उपज आई होगी। उनके सामने पड़कर मुझमें बौनेपन की भावना क्यों आती है ? और मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं डाक्टर कुमार को दिखा दूँगी कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ। पर थीसिस का चैप्टर लिखना पुरुषों को आकर्षित करने के समान सहज नहीं।
वे कोरे पृष्ठ मेरे लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गए थे। कितनी ही बार मैं लिख-लिखकर पृष्ठ फाड़ चुकी थी। एक स्थल पर आकर मस्तिष्क रिक्त-सा हो जाता था। मैं कभी अपने पर खीझती, कभी सारी दुनिया पर।

‘‘देखो न भाभी, कैसा दुरूह विषय मुझे दे दिया है। कुछ समझ में नहीं आता कि कैसे लिखूँ। उधर श्यामा है कि आधुनिक उपन्यासकारों पर चैप्टर के चैप्टर लिखे जा रही है।’’
‘‘तो तुम यह रिसर्च का किस्सा ही खत्म करो न ! तुमने यह जान का जंजाल बेकार ही पाल रखा है।’’
मैंने आहत दृष्टि से भाभी को देखा : ‘‘तुम यह सब नहीं समझोगी।’’
बात ही ऐसी थी कि मैं स्वयं नहीं समझ पाती थी। मेरे अंदर एक तीव्र हठीली भावना जम आई थी कि मैं डॉ. कुमार के समक्ष अपनी योग्यता सिद्ध कर दूँगी। ऐसा क्यों था, क्यों मैं उनकी दृष्टि में ऊँचा उठना चाहती थी, यह सब मैं स्वयं नहीं जान पा रही थी। मैंने एम.ए. कर जब रिसर्च के लिए नाम लिखाया तो मेरा मतलब गंभीरतापूर्वक काम करने का नहीं था, मैं तो विश्वविद्यालय के संपर्क में रहना चाहती थी। पर अचानक मुझे यह क्या हो गया ? अब मैं इस बात पर तुली हुई थी कि मैं ऐसा अध्याय लिखूँगी, जो कि श्यामा के लिखे अध्याय से उत्तम ही हो।...कितनी बार सूर्य उदय होकर ढला, इसकी मुझे गिनती नहीं थी। सुबह से शाम तक दत्तचित्त बैठी रहती। सोते जागते, उस अध्याय में सामग्री कैसे प्रस्तुत की जाए, मुझे यही चिंता लगी रहती। कभी-कभी झुँझलाहट में मन होता कि यह सब छोड़ दूँ, पर तभी यह भाव जग उठता कि तब तो डॉक्टर कुमार मुझे वैसी ही लड़की समझेंगे।

अपने लिखे पृष्ठों को मैंने कितनी बार दोहराया। कितनी बार कई पैराग्राफ काट-काटकर फिर लिखे। भाषा सँवारी। फिर भी, चैप्टर पूरा लिख चुकने के बाद भी, मैं डॉक्टर कुमार के पास न जा सकी। तीव्र ज्वर उतर जाने के बाद की-सी शिथिलता मेरे मन पर व्याप गई थी। आख़िर एक दिन साहस बटोर मैं उनके घर जाने निकल ही पड़ी। मुझे बड़ा संकोच हो रहा था और लगता था कि मैं कहीं से बहुत ही अपूर्ण हूँ। मेरा परिवेश देखकर भाभी मुसकराईं।
मैंने हलके पीले रेशम की सादा-सी साड़ी पहनी थी, जिसके आँचल के छोर पर पीले ही फुँदने लटक रहे थे। साड़ी से कुछ ही गहरा ब्लाउज, बाल बिलकुल सादे और पीछे जूड़ा। लिपस्टिक और दिनों से बहुत हल्की थी और वह गुलाबीपन मुझे अच्छा लगा। मुझे दर्पण में अपना मुख कुछ अनचीन्हा-सा लगा। जूडे में खोंसने के लिए जंगली गुलाब का फूल तोड़ने को हाथ बढ़ाया पर छूते ही उसकी पंखुरियाँ बिखर गईं। मैंने दूसरा फूल नहीं तोड़ा। फाइल को कसकर पकड़े मैं ऊपर की चढ़ाई पर चल दी। उस समय मुझे केवल अपने वेग से धड़कते हृदय का ही ज्ञान था। धूप हरियाली पक्षियों का गान, यह सब मेरे हृदय की गति में डूब गया था।

डॉक्टर कुमार के बँगले के फाटक पर मैं ठिठक गई। चारों ओर बड़ी प्रीतिकर नीरवता व्याप्त थी और गेट के अंदर फूलते हुए डहेलिया के रंग मुझे बड़े आकर्षक लगे। तभी डॉक्टर कुमार बाहर बरामदे में निकल आए और मैंने उन्हें अभिवादन किया। उस समय मेरा दर्प और मेरा आत्मविश्वास जाने कहाँ चला गया ! अपने अज्ञान के बोध से बोझिल मैं उनके समक्ष अपने को बहुत ही नगण्य पा रही थी। वह मुझे सामने के ही कमरे में ले गए, जिसे वह स्टडी की तरह इस्तेमाल करते होंगे। मेरी दृष्टि शेल्फ में रखी किताबों, मेज़ पर रखे हुए प्रूफ, उनके पढ़ने के चश्मे और पेन पर घूमती हुई उन पर टिक गई। वह मुझे कुछ खिन्न और चिंतित से लगे। मैंने फाइल मेज़ पर रख दी। जिस दृष्टिकोण को लेकर मैंने अध्याय लिखा था, उस पर वे मुझसे बातचीत करने लगे। उनके आचरण की सहजता से मेरे शरीर का कसाव अनायास ही ढीला हो गया और मेरा आत्मविश्वास धीरे-धीरे लौट आया। उन्होंने दोनों हाथों की उँगलियाँ एक-दूसरे में फँसा लीं और उन पर दृष्टि टिका ली। उन्होंने मुझे कुछ पुस्तकें पढ़ने को बताईं, फिर छोटी-सी मुस्कान से कहा : ‘‘अभी तो तुम छुट्टी में आई हो। पढ़ाई की फ़िक्र न करो। यहाँ तुम्हें वे पुस्तकें भी नहीं मिलेंगी।’’ फिर उन्होंने नौकर को भेज अपनी पत्नी को बुलवाया। मिसेज कुमार तुरंत ही आ गईं। पहली झलक में ही वह बड़े हँसमुख स्वभाव की लगीं। चटक रंग की साड़ी उनके खूब गौरवर्ण पर बड़ी फब रही थी। होंठ पान से लाल थे। डॉक्टर कुमार ने मेरा परिचय करा चुकने के बाद कहा, ‘‘इन्हें कुछ चाय वग़ैरा पिलाओ।’’
‘‘चाय तो बन गई है, वहीं ले जाकर पिला दूँगी। यहाँ बैठकर बात करूँगी तो तुम्हारे काम में हर्ज होगा।’’ और फिर रुककर पूछा, ‘‘तुम पियोगे ?’’

उस प्रश्न में कितना ममत्व और नैकट्य था ! मैं मन-ही-मन सोच उठी कि यह प्रसन्नचित्त, पान खानेवाली स्त्री डॉक्टर कुमार के जीवन का कितना अभिन्न भाग है। दोनों के बीच कितना खुलापन, साथ ही बरसों से साथ रहते आए व्यक्तियों की तरह एक-दूसरे के प्रति कितनी पूर्ण स्वीकृति है ! पर वह क्या अपने गंभीर चिंतनशील प्रखर, बुद्धिवाले पति को पूर्ण रूप से संतुष्ट कर सकी होंगी ? क्या उस मन का एक कोना अछूता ही न रह गया होगा ?
मिसेज कुमार मुझे अपने साथ दूसरे कमरे में ले आई। मेरे सामने फल काटकर रखते हुए उन्होंने मेरे बारे में अनेक बातें पूछ डालीं। फिर वह हँसती हुई बोलीं, ‘‘तुम्हें वहाँ से इसीलिए ले आई थी। डॉक्टर साहब मेरी बेमतलब की बातों से बहुत खीझते हैं। पर तुम्हीं बताओ, क्या, करूँ ! एक लड़का है, उसे भी उन्होंने बोर्डिंग में रख दिया है और कोई भी नहीं मन लगाने को। सारा दिन खाली रहती हूँ। जो सामने पड़ा, उसी से बोल लिया। डॉक्टर साहब को तो अपना ही काम बहुत है। नई किताब के प्रूफ आए हुए हैं, पर कई दिन से उनके सिर में बड़ा दर्द है।’’


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