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स्वामी रामतीर्थ जीवन और दर्शन

जयराम मिश्र

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :389
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3084
आईएसबीएन :000000

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इसमें स्वामी रामतीर्थ के जीवन पर प्रकाश डाला गया है.....

Swami Ramtirth Jivan Aur Darshan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

स्वामी रामतीर्थ जैसी दिव्य आध्यात्मिक विभूतियाँ शताब्दियों में यदा-कदा ही अवतीर्ण हुआ करती हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में स्वामी रामतीर्थ ने अपने आध्यात्मिक तेज से समस्त संसार को अभिभूत कर दिया था। वे मंत्र-दृष्टा ऋषि और वेदान्त के मूर्तिमान स्वरूप थे उनकी जीवन-कहानी, भारतीय दर्शन और साधना प्रणाली की जीवन्त कहानी है। तैंतीस वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने जैसी साधना की, वह बहुत कम जीवनों में देखने को मिलती है। वे निष्काम कर्मयोग, राजयोग, भक्तियोग एवं अद्वैत वेदान्त के साकार विग्रह थे। उनके हृदय में देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति एवं मानव सेवा की त्रिवेणी अजस्त्र रूप में प्रवाहित होती थी।

 उन्होंने अपने व्यक्तित्व की अप्रतिम गरिमा से भारत का गौरव समस्त संसार की दृष्टि में बहुत ऊँचा उठाया। इसमें रचनामात्र संदेह नहीं कि उनके जीवन-साधना-प्रणाली और आदर्शों से भारत ‘श्रेयस्’ और ‘प्रेयस’ दोनों प्राप्त कर सकता है। हमारे देश के नवयुवक स्वामी रामतीर्थ के विचारों, उपदेशों एवं शिक्षाओं से बलवती प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं, ऐसी हमारी दृढ़ धारणा है।

 

प्राक्कथन

स्वामी रामतीर्थ जैसी दिव्य आध्यात्मिक विभूतियाँ शताब्दियों में यदा-कदा ही अवतीर्ण हुआ करती हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में स्वामी रामतीर्थ ने अपने आध्यात्मिक तेज से समस्त संसार को अभिभूत कर दिया था। वे मंत्र-दृष्टा ऋषि और वेदान्त के मूर्तिमान स्वरूप थे उनकी जीवन-कहानी, भारतीय दर्शन और साधना प्रणाली की जीवन्त कहानी है। तैंतीस वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने जैसी साधना की, वह बहुत कम जीवनों में देखने को मिलती है। वे निष्काम कर्मयोग, राजयोग, भक्तियोग एवं अद्वैत वेदान्त के साकार विग्रह थे। उनके हृदय में देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति एवं मानव सेवा की त्रिवेणी अजस्त्र रूप में प्रवाहित होती थी। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की अप्रतिम गरिमा से भारत का गौरव समस्त संसार की दृष्टि में बहुत ऊँचा उठाया। इसमें रंचमात्र संदेह नहीं कि उनके जीवन-साधना-प्रणाली और आदर्शों से भारत ‘श्रेयस्’ और ‘प्रेयस’ दोनों प्राप्त कर सकता है। हमारे देश के नवयुवक स्वामी रामतीर्थ के विचारों, उपदेशों एवं शिक्षाओं से बलवती प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं, ऐसी हमारी दृढ़ धारणा है।

महात्मा गांधी एवं महामना मालवीय जी स्वामी राम के इन्हीं गुणों पर उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते थे। लेखक उनकी जीवन-गाथा, दर्शन एवं आध्यात्मिक साधना-प्रणाली का विवेचन करके अपने को कृतकृत्य समझ रहा है। कुछ इस प्रकार की तृप्ति एवं आत्म-संतुष्ट की अनूभूति हो रही है कि वह इस पुस्तक के प्रणयन द्वारा ऋषि-ऋण से बहुत कुछ मुक्त हो गया।

मेरे अग्रज, श्रद्धेय श्री परमात्मा राम मिश्र, एडवोकेट ने मुझे बलवती प्रेरणा देकर पुस्तक लिखने के लिये उकसाया। मेरे दो भतीजों चिरंजीवी डॉ. विभुराम, प्राध्यापक हिन्दी विभाग, राजकीय स्नातकोत्तर कालेज, ज्ञानपुर (वाराणसी) एवं चिरंजीवि अव्यक्तराम प्राध्यापक, प्राचीन इतिहास विभाग, इलाहाबाद डिग्री कालेज, इलाहाबाद ने पाण्डुलिपि आदि देखने में पूर्ण सहायता की है। अतः ये दोनों ही मेरे आशीर्वाद और स्नेह के पात्र हैं।

जगद्गुरु शंकराचार्य, ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वामी शान्तानन्द जी सरस्वती, राम के अनन्य प्रशंसक हैं। वे मुझे पुस्तक लिखने में निरन्तर प्रेरणा और आशीर्वाद देते रहे। श्रीमद्भागवद्गीता के अप्रतिम भाष्यकार ब्रह्मलीन दण्डीस्वामी श्री भागवतानन्द जी सरस्वती का यह उपदेश ‘संयम, नियम एवं दृढ़ संकल्प से बड़े-बड़े काम भी सहज ही सम्पन्न हो जाते हैं’—पुस्तक लेखन-कार्य में बहुत बड़ा संबल हो गया। मेरे पूज्यतम पिताजी ब्रह्मलीन श्री पं. रामचन्द्र मिश्र ने स्वामी रामतीर्थ के उपदेशों की लोरियाँ बाल्यकाल से ही सुना-सुना कर मुझे पुस्तक लिखने में समर्थ बनाया है। उन्होंने कतिपय अंशों को बड़े मनोयोग से सुनकर बहुमूल्य सुझाव भी दिये हैं। अतः मैं उपर्युक्त तीनों महापुरुषों का रोम-रोम से आभारी और ऋणी हूँ।

स्वामी रामतीर्थ की अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठित कवि, डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने किया है, जिनका लेखक ने स्थान-स्थान पर उपयोग किया है। लेखक उनका आभारी है।

स्वामी रामतीर्थ-सम्बन्धी-साहित्य जुटाने के मेरे मित्र श्री नाराणस्वरूप अग्रवाल, लखनऊ एवं श्री पन्नालाल नायर, इलाहाबाद ने मुझे अत्यधिक सहायता पहुँचायी है मैं दोनों सज्जनों का बहुत उपकृत हूँ लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, के संचालकों के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ जिन्होंने पुस्तक इतने सुन्दर ढंग से प्रकाशित की।

हिन्दी-भाषा-भाषियों को ‘स्वामीरामतीर्थ’ पुस्तक देने में मैं परम आह्लादित हो रहा हूँ, अन्त में मेरी यह शुभकामना है कि हमारे देश के नागरिक इस पुस्तक से प्रेरणा ग्रहण कर अपने जीवन को समुन्नत बनावें तथा राष्ट्र के उत्थान में सहायक हों।

 

जयराम मिश्र


प्रथम अध्याय

 

 

जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा

 

 

(1873 ई. से 1888 ई.तक)


भारत की ऋषि-परम्परा निराली रही है। ऋषि मंत्रद्रष्टा होते थे। मंत्रद्रष्टा वह होता है, जिसने परमात्मा सम्बन्धी किसी विशिष्ठ मंत्र का अपने जीवन में मनसा, वाचा, कर्मणा साक्षात्कार कर लिया हो। स्वामी रामतीर्थ आधुनिक मंत्रद्रष्टा ऋषि थे। उनके श्वास-प्रश्वास में ‘ऊँ’ महामंत्र बस गया था। यही ‘ऊँ’ उनकी सर्वस्व था। इसी की अजस्र संगीत-लहरी उनके मुख से निरन्तर प्रवाहित होती रहती थी। उनके समीप स्थित जो भी व्यक्ति उस-संगीत लहरी को सुनता था, वह भी आत्मविभोर हो आध्यात्मिक राज्य में विचरण करने लगता था। स्वामी रामतीर्थ का जीवन परम आदर्श और अनुकरणीय रहा। उनके दिव्य जीवन से न मालूम कितने व्यक्तियों ने प्रेरणा ग्रहण की है, कितने ग्रहण कर रहे हैं और कितने भविष्य में ग्रहण करेंगे।

व्यक्ति के चरित्र, संस्कार, भाव, विचार आदि के निर्माण में वंश-परम्परा का विशिष्ट महत्त्व होता है। गोस्वामी रामतीर्थ की उत्पत्ति कुलीन गोस्वामी ब्राह्मण वंश में हुई थी। गोस्वामी लोग अपने वंश का सम्बन्ध वशिष्ठ ऋषि से जोड़ते थे। यह वशिष्ठ वही विवेक वैराग्य एवं ब्रह्मज्ञान सम्पन्न, शक्तियुक्त और प्रसिद्ध ऋषि थे, जिन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र का अज्ञानान्धकार ‘योगविशिष्ठ’ के प्रचण्ड ज्ञान-भास्कर से दूर किया था। इसी गोस्वामी वंश से सन्त तुलसीदास अवतीर्ण हुए, जो पंजाब के अत्यन्त प्रसिद्ध अध्यात्मवादी और रहस्यवादी कवि हुए। उनकी आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर पंजाब में बहुत से लोग उनके शिष्य बन गए। पाकिस्तान के चितराल के समीप ‘रचात’ नामक स्थान में उनकी प्रसिद्धि के कारण एक बड़ी भारी गद्दी स्थापित हो गई। कहना न होगा कि सन्त तुलसीदास के कारण गोस्वामी-वंश की पवित्रता और धार्मिकता में चार चाँद लग गये।

कालान्तर में उन गोस्वामियों के वैभव और समृद्धि में कमी आने लगी और वे छिन्न-भिन्न होकर समस्त भारत में फैल गये। गोस्वामी वंश के कुछ लोग गुजराँवाला जिले में आकर बस गये। उनमें से कुछ व्यक्ति उसी जिले के मुरालीवाला गाँव में आकर रहने लगे। इन्हीं में से एक व्यक्ति—हीरानन्द जी। वे बहुत ही निर्धन थे और पुरोहिती वृत्ति से अपनी अजीविका अर्जित करते थे। उन्हें अपनी निर्धनता पर कोई ग्लानि नहीं थी, बल्कि इसके विपरीत वे इसे ब्राह्मणों का आभूषण समझते थे।

इन्हीं गोसाईं हीरानन्द जी की धर्मपत्नी के गर्भ से 22 अक्टूबर, बुधवार के दिन एक शिशु जन्मा। उसका नाम तीर्थराम रखा गया। तीर्थराम के पिता रामचन्द्र (किसी-किसी के अनुसार राममल) अनुभवी ज्योतिषी थे। उन्होंने बालक तीर्थराम की कुण्डली बनाई। कहा जाता है कि कुण्डली की ग्रहदशा पर मनन करके वे पहले तो रो पड़े और कुछ क्षणों के अन्तर में हँसने लगे। समीपस्थ लोगों ने इसका कारण पूछा, तो थोड़ी देर मौन रहने के बाद उन्होंने इस प्रकार कहा, ‘‘मैं रोया इसलिए कि या तो यह बालक शीघ्र ही मर जायेगा, अथवा इसकी माता का ही देहान्त हो जायेगा। और हँसा इसलिए हूँ कि यदि जीवित रहा, तो यह परम् विद्वान और महान् धार्मिक नेता होगा। इसका सुयश दिग्-दिगान्तर में व्याप्त होगा।’’
बालक तीर्थराम की कुण्डली की ग्रहदशा इस प्रकार थी—

विक्रम संवत् 1930; शालिवाहन शाक 1775, दक्षिणायन सूर्य, शरद ऋतु, कार्तिक शुक्ल पक्ष 1, बुधवार 25 घड़ी, 55 पल; स्वाति-नक्षत्र, 31 घड़ी 25 पल; प्रीति योग, 29 घड़ी, 49 फल; बवकरण 24 घड़ी, 48 पल, सूर्योदय के अनन्तर; लग्न मीन, हीरानन्द (आत्मज रामचन्द्र) के गृह बालक (तीर्थराम) की उत्पत्ति, राशिनाम ताराचन्द।

तीर्थराम की जन्मकुण्डली देखने के बाद अन्य ज्योतिष्यों ने भी कुछ इसी प्रकार का भविष्य बतलाया—‘वह बालक अपनी युवावस्था में संसार से वीतराग होकर संन्यास ग्रहण कर लेगा। सत्, चित्, आनन्द के अपार सागर में निमज्जित होकर दिव्य प्रेम स्वरूप हो जाएगा। यह विदेशों की यात्रा करके अपनी मातृभूमि के अतीत गौरव की अभिवृद्धि करेगा। यह विस्तृत और गम्भीर ज्ञान प्राप्त करेगा। अपने वैभव युक्त सांसारिक जीवन को तिलांजलि देकर परमात्म-साक्षात्कार के लिए जंगलों की ओर उन्मुख होगा। संसार के समस्त भागों में इसकी पावन कीर्ति व्याप्त हो जाएगी। तीस और चालीस वर्ष की आयु में इसका देहान्त जल में डूबने से होगा।’’

तीर्थराम की अवस्था एक वर्ष से कुछ ही दिन अधिक हुई थी कि (कुछ लोगों से कुछ महीनों बाद) उनकी माता का देहान्त हो गया। इनके पिता हीरानन्द बड़ी विषम स्थिति में पड़ गये। तीर्थराम की बड़ी बहिन तीर्थदेवी उनसे केवल एक वर्ष बड़ी थीं। दो-दो बच्चों का भार सँभालना पिता के लिए बहुत कठिन था। उन्होंने अपनी बहिन धर्मकौर से अनुनय-विनय की कि बच्चों के पालन-पोषण का भार वह अपने ऊपर ले लें। परिणामस्वरूप धर्मकौर अपने पति, गोसाईं ठाकुर के साथ जंडियाला को छोड़कर मुरालीवाला आ गईं और दोनों बच्चों को पालने लगीं।

धर्मकौर अत्यन्त धर्मपराण महिला थीं। वे प्रतिदिन क्षीणकाय शिशु तीर्थराम को लेकर मन्दिरों में भगवद्-दर्शन करती थीं। बालक तीर्थराम पर वहाँ के वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। तीर्थराम का मन्दिरों में ध्वनित शंख-ध्वनि से अगाध प्रेम हो गया। इस शंख-ध्वनि से उनका इतना दृढ़ अनुराग हो गया कि यदि वे फूट-फूट कर रोते भी तो शंखनाद सुनकर एकदम शान्त हो जाते। क्या वह बालयोगी अपने पूर्व संस्कारों के अभ्यासानुसार इस शंख-ध्वनि में ‘अनाहत नाद’ सुना करता था, जिससे वह इस नश्वर जगत् से विस्मृत होकर उसी के श्रवण में तन्मय हो जाता था ?

हीरानन्द राम ने कथा-श्रवण-प्रेम की एक अत्यन्त मनोरंजक घटना इस प्रकार बतायी थी, ‘‘राम का तीसरा वर्ष था। एक दिन सन्ध्या समय मैं उसे लेकर एक कथा में गया। उसके लिए कथा समझना एक प्रकार से असम्भव था, किन्तु वह अत्यन्त शान्त मुद्रा में बैठकर कथावाचक पण्डित की ओर अपलक दृष्टि से देख रहा था। दूसरे दिन जब वह कथा के प्रारम्भ हेतु शंखध्वनि हुई, तो राम फूट-फूट कर रोने लगा। उसे चुप कराने के लिए मिठाइयाँ और खिलौने दिये गये, परन्तु उसने सारी वस्तुएँ फेंक दीं और उसका रोना-चिल्लाना पूर्ववत जारी रहा। अन्त में मैं उसे गोद लेकर कथावाले स्थान की ओर बढ़ा। ज्यों-ज्यों मैं उस स्थान की ओर बढ़ता, त्यों- त्यों वह शान्त होता जाता था। किंतु ज्यों ही मैं रुक जाता, उसका रोना-चीखना फिर प्रारंभ हो जाता। अन्त में निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचने पर वह अत्यधिक आह्लादित हो गया और एकदम शान्त हो गया। वह शान्त मात्र ही नहीं हुआ, बल्कि टकटकी लगाकर कथावाचक की ओर देखने भी लगा।’’

बालक तीर्थराम का कथा-प्रेम निरन्तर बढ़ता गया। चार वर्ष की आयु में तो वे अकेले कथा सुनने चले जाया करते थे। उनकी बुद्धि कुशाग्र थी और धारणाशक्ति भी अपूर्व थी। मन्दिर में निरन्तर पुराणों की, विशेषतः श्रीमद्भागवत्, रामायण, महाभारत की अनेक कथायें  सुनने के अनन्तर वे हूबहू उसी रूप में दूसरों को सुना सकते थे। श्रीमद्भागवतगीता का प्रवचन भी जब-तब हुआ करता था। राम उसे भी तन्मयतापूर्वक सुना करते थे और कुछ श्लोक उन्हें कण्ठस्थ भी हो गये थे। इतनी अल्पायु में ही वे कथा-सम्बन्धी जिज्ञासाओं का समाधान ठीक-ठीक कर देते थे। उनकी वृत्ति बचपन से ही अन्तर्मुखी थी। एकान्त से उन्हें परम अनुराग था। जब उनकी अवस्था के अन्य बालक खेल-कूद में व्यस्त रहते थे, तब वे प्रायः एकान्त में बैठकर चिन्तन में निमग्न हो जाते थे।


 




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