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आखिर कब तक

रमाशंकर श्रीवास्तव

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3082
आईएसबीएन :81-7-55-411-X

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‘मैं जानता हूँ कि समय की क्या वास्तविकता है। बड़े-बड़े आदर्शवादी शिक्षकों में देख चुका हूँ। बेचारे इस मँहगाई में छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए तरसते रहते हैं।

Aakhir Kab Tak a hindi book by Ramdarash Mishra - आखिर कब तक - रमाशंकर श्रीवास्तव

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मैं जानता हूँ कि समय की क्या वास्तविकता है। बड़े-बड़े आदर्शवादी शिक्षकों में देख चुका हूँ। बेचारे इस मँहगाई में छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए तरसते रहते हैं। मैंने अपने कई मित्रों को समझाया है कि ज्यादा आइडियल बनने की जरूरत नहीं। मास्टरी के साथ दूसरे धंधे भी कर लेने चाहिए। लोगो की आलोचना पर ज्यादा कान देने का मतलब है, अपने को दुःखी करना। आदर्श के कोहरे में भटक-भटक कर मैं अपने को दुखी करता हूँ, यह मुझे पसंद नहीं। हर आदमी को अच्छा घर चाहिए, बढ़िया वस्त्र चाहिए और स्वादिष्ट भोजन चाहिए। सुख इसी को कहते हैं। दुःख भोगने कोई नहीं आता इस संसार में।’

इस स्कूल में सोलह मास्टर हैं। इन सोलह में केवल पाँच मास्टर पेशे के लायक हैं बाकी लोग अपने दिन काटने आये हैं। कोई राजनीति की शतरंज खेलने आया है। कई इस नौकरी को पेंशन मानकर आया है। कोई थोथे यश की लिप्सा और लिए छात्रों के बीच गाना-बजाना और नाटक नौटंकी करने आया है। एक मास्टर कहते हैं कि वे पत्थर की तरह लुढ़कत हुए आकर यहाँ थम गए हैं।

कथा-बीज


प्रश्न आखिर कब तक’ ?
एक हायर सेकेंडरी स्कूल में मास्टर की जगह खाली थी। इन्टरव्यू देने अनेक प्रत्याशी आए ।
स्कूल का चेयरमैन ग्राम पंचायत का मुखिया भी था। हस्ताक्षर कर लेता था। इन्टरव्यू में कैंडिडेट से चेयरमैन बोला-देख भाई मैं तो पढ़ा लिखा नहीं हूँ, जो तुमसे गिटपिट बोलूँ। मुझे बता, तेरी तरफ आजकल फसल कैसी है। धान, गेहूँ, तिलहन, का हाल बता। मुझे एक बैल खरीदना है। दो दाँत का बछड़ा चाहिए। किफायत में दिला देगा ?
कैंडिडेट को नौकरी लेनी थी। सकपकाते हुए बोला-
‘‘सर मैं कोशिश करूँगा।’’

‘‘तू कोशिश क्या करेगा अपना सिर ! मुझे बता मैं साथ चलूँगा। और एक बात और सुन। अगर तू चुन लिया गया तो तुम्हें मेरे घर रहना होगा। ’’
‘‘आपके घर ?’’ कैंडिडेट फिर चौंका।
‘‘हाँ मेरे घर।  मैं कोई जंगल में रहता हूँ ?’’
‘‘नहीं वो बात नहीं। ’’
‘‘तो बात क्या है, सुन। समय-समय पर मेरा खाना भी बनाना पड़ेगा।, कभी रोटी, कभी भात, कभी खिचड़ी, कभी दलिया। बना लेगा न ?’’  

कैंडिडेट चुप था, क्या कहे, क्या न कहे। थोड़ा सोचकरक जवाब दिया -‘‘सर मुझे नमक का अंदाज नहीं मिल पाएगा।’’
‘‘नमक डालने के लिए दूसरे मास्टर को बुला लूँगा। अब बोल ?’’
कैंडिडेट को अपनी नौकरी हाथ से छूटती नजर आई। धर्म-संकट में पड़ गया। पिछले आठ मौके हाथ से निकल चुके थे। घर में पत्नी सीधे मुंह बात नहीं करती थी। तीन बच्चें जन्म ले चुके थे। अजीविका की चिन्ता अखिल ब्रह्मांड के शाश्वत सत्य पर एक बार फोकस मारा। एम० ए० की डिग्री रद्दी अखबार न बन जाए। सभीत कैंडिडेट ने उत्तर दे दिया-‘‘सब कर लूँगा, सर।’’
‘‘बूढ़ा आदमी हूँ कुएँ से पानी भरकर कभी-कभी नहला देना भाई। भगवान तेरा भला करेगा।’’
कैंडिडेट का आत्मबल बढ़ा-‘‘सर पहले आप मेरे भला कीजिए भगवान तो बाद में भला करता ही है।’’
चेयरमैन के इशारे पर कैंडिडेट को मास्टर बना दिया गया। उत्तर-‘आखिर कब तक’ ?

आर-7, वाणी विहार
उत्तर नगर, नयी दिल्ली-59
-रमाशंकर श्रीवास्तव


एक


इतनी बड़ी दुनिया !
इतने लोग !
इतने धंधे ! तरह-तरह के धंधे !
सब देख और सोच कर विस्मय होता है।
जब अपने पेशे पर गौर करता हूँ तो मुझे और आश्चर्य होता है। लोग कैसे इतना कर लेते हैं। मैंने भी चाहा कि इसी मास्टरी से कुछ धन बटोर लूँ। लेकिन असफल रहा। दिनेश कुमार को देखकर अपने भाग्य को कोसता हूँ। यदि इच्छाशक्ति और परिश्रम ही सब कुछ है तो उसके अनुसार मुझे परिणाम क्यों नहीं मिला ? परिणाम भी भाग्य के हाथों कठपुतली है शायद !
आप मुझे कुंठित कह सकते हैं। असफल आदमी अंततः कुंठित हो जाता है। लेकिन मैं बिल्कुल निरास  नहीं हो गया हूँ। देखता हूँ, कब तक मेरा भाग्य सोया रहता है।
एक दिन मेरे मित्र शहर की एक साहित्यिक गोष्ठी में ले गए। बोले-रामेश्वर जी, आपका मन मास्टरों की  दुनिया से बाहर कभी नहीं निकलता कभी दूसरे समाज में भी बैठा कीजिए। मन लगेगा।
गोष्ठी में शहर के अनेक साहित्यकार और श्रोता मौजूद थे। कविताएँ सुनाई गईं और इधर-उधर की चर्चा हुई। उसी में एक सज्जन ने कहा-हमारा पूरा जीवन एक चेष्ठा है। अपनी अस्मिता की खोज की चेष्ठा। हम एक-दूसरे से इसलिए भिन्न हैं क्योंकि चेष्ठा हमारी निजी सामर्थ का निर्धारण करती है।
गोष्ठी से लैटते समय रास्ते में यही विचार मेरे मन में गूँजता रहा। तो क्या मेरी ही चेष्टा में कोई खोट है ‍? क्या मैं दिनेश कुमार नहीं बन सकता था ? शायद अपनी असफलता से निराशा को मैं चेष्टा और सामर्थ्य के दर्शन से ढँक देना चाहता हूँ। क्योंकि दर्शन दुख को कम करता है।

मेरे अन्तर में कोई पुकारता है-रामेश्वर ! इस दौड़ में तुम अध्यापक के आदर्श का झंडा थामें आगे नहीं निकल सकते। आगे बढ़ना चाहते हो तो फेंको यह झंडा। झंडे की मर्यादा तभी बढ़ती है जब दुनिया देखती है कि वह किसके हाथों में है। कमजोर हाथों का झंडा ऊँचा नहीं उठता।
दिनेश कुमार इस सत्य को जानते हैं और मैं अनभिज्ञ रहा। मास्टरी का पेशा मैंने इसलिए अपनाया कि मैं इसमें सुख और शांति से रहूँगा। उसकी खोज आज तक करता रहा। या तो मुझे ही आज तक सुख समझ में नहीं आया। जो समझ में नहीं आता, वह भीतर तक कहाँ धँस पाता है। इसलिए मन आज भी इस डाल से उस डाल पर उड़ता रहता है। मुझ जैसे लोग होंगे दुनिया में जो उड़ते ही रह जाते हैं। जो उपलब्धियों के स्वामी बन जाते हैं, वे भला क्यों उड़ेगे। उनमें से ही एक हैं दिनेश कुमार। वे भी स्कूल के शिक्षक हैं। लेकिन उनके बारे में मैं स्वयं नहीं कहूँगा। दीवार के भी कान होते हैं। कान और काने भला किसको चैन से बैठने देते हैं ?


दो



मैं रामेश्वर प्रसाद नहीं हूँ। ऐसी उदारता और सरलता में मैं विश्वास नहीं करता कि आदमी अपना सबकुछ सामने रख दे। कुछ बातें ऐसी होती हैं जो अपने अंतरंग से भी नहीं कहीं जातीं।
लोग मुझे कहते हैं कि दिनेश कुमार बड़ा भाग्यशाली है। थोड़े ही दिनों में वह इतनी बड़ी सम्पत्ति का स्वामी बन बैठा। लोग चढ़ते सूरज को नमस्कार करते हैं। किंतु मैंने अपना सौभाग्य अपने परिश्रम से पाया है। परिश्रम और चातुर्य मनुष्य को बड़ी-बड़ी ऊँचाइयों तक पहुँचा देते हैं। लोगों को इस बात पर आश्चर्य है कि एक हाई स्कूल का मास्टर इतनी तरक्की कैसे कर बैठा। कोई पूछे उनसे-मास्टरी क्या दीन-हीन लोगों का ही पेशा है ? क्या वे देखते नहीं कि इस पेशे में भी बड़ी-ब़डी हस्तियाँ हैं ! वह युग बीत गया जब पाठशाले के गुरूजी को आदर्श माना जाता था। लोग उनकी चरण-वंदना करते थे। ऐसे गुरुओं का आशीष पाकर शिष्य अपने भाग्य की सरहाना करता था। गुरू एक अनुकरणीय जीव था।
अब वे मान्यताएँ ढहने लगी हैं। शिक्षा राजनीति की सहेली बन गयी है। अध्यापन अपना लक्ष्य और सिद्धांत बदलने लगा है। ज्ञान का द्वार खटखटाने पहले लोग स्वयं जाते हैं ? अपना ज्ञान आप अपने पास रखिए। जिसके पास लक्ष्मी होगी उसके सामने ज्ञान सेवक की भाँति हाथ जोड़ विनती करेगा। अब बडी-बड़ी संस्थाओं, राजनेताओं और उद्योगपतियों के भ्रू-संकेत पर ज्ञान पुनजीवन पाता है।

लोगों का विचार है कि अध्यापन-कार्य उन्हें ही करना चाहिए जिनका छात्र-जीवन आदर्श रहा है। अथवा जिन्होंने उच्च अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण की है। उनके इस भ्रम को मैं तोड़ देना चाहता हूँ। अध्यापन-कार्य के लिए उच्च अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण होना अब आवश्यक नहीं।
मैं स्वंय एक सामान्य छात्र था। पिता लिख-लोढ़ा पढ़ पत्थर थे। विद्या का महत्त्व उन्हें मालूम नहीं था। जब भी मैं स्कूल में मास्टरों के उपदेश सुनने जाता है ?

बड़ी आसानी से मैं पढ़ता रहा। विद्यार्जन संस्कार में तपस्या कभी नहीं बना। विद्योपार्जन तपस्या है, यह सिद्धांत भी पुराना है। परीक्षाओं में नकल-कार्य को मैं वर्णित नहीं मानता। उससे मुझे सहायता मिली है। बी० ए० तक आते-आते मैंने अनुभव किया कि अच्छी श्रेणी पाने के लिए केवल किताबी पन्नों पर ही भरोसा करना भारी मूर्खता है। शिक्षकों और समाक्षकों से सम्पर्क साधने का कार्य ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। मैंने वह सब किया और स्नातक बन गया। नौकरियों में मुझे सबसे आरामदायक नैकरी स्कूल की मास्टरी लगी।
हँसी आती है जब बड़ों के मुँह सुनता हूँ कि गुरु प्रकाश होता है। वह अंधकार को भगाता है और अपने शिष्यों में मानवीय भावों और सद्गुणों का संचार करता है। मैं डंके की चोट पर कहता हूँ-आप चिराग लेकर ढूँढ़ लीजिए। शिष्यों के जीवन को प्रकाशित करने वाले गुरु की नजर आज केवल वेतन, मँहगाई,-भत्ते और ट्यूशन की फीस पर टिकी रहती है। अर्थ ही उनके लिए प्रकाश  है।

 मैं भी यह कैसा गुरु-शष्य का व्याकरण ले बैठा।  सच पूछिए यह नौकरी मेरे लिए एक सामाजिक प्रतिष्ठा है। आदमी को अपने समाज में एक पहचान चाहिए। जिधर घूम आऊँ उधर ही लोग मुझे-‘मास्टर साहब।’ नमस्कार !’ कहते हैं। समाज में सबसे ज्यादा अभिवादन मास्टरों को ही मिलता है।  
मेरा यह दृढ़ मत है कि आदमी को दबंग बनकर रहना चाहिए। नहीं तो कोई पूछेगा नहीं। वाणी में तेज़ हो, झूठ-साँच कहकर दूसरों को प्रभावित कर देने की क्षमता हो, अवसर के अनुसार सिद्धांत को गढ़ने या तोड़ देने का कौशल हो तो फिर देखिए, आप सर्वत्र पूजे जाएँगें।
पूजा बहुत बड़ी प्रतिष्ठा है। उसके अधिकारी देवता हैं। किंतु आज देवता से अधिक मनुष्य पूजा पाते हैं। जो समर्थ हैं, पूजा-अर्चना उनकी दासी है। प्रत्येक युग में ऐसी हस्तियाँ आती हैं। प्रतिष्ठा के ऐसे आलोक से आज जो प्रकाशित हैं उनका ही जीवन सफल है।

सफलता के मार्ग में भी कुछ कदम बढ़ा हूँ। दबंग नहीं होता तो इस स्कूल का हेडमास्टर मुझे न मालूम कब मिटा चुका होता।  हेडमस्टर साहब जानते है कि दिनेश कुमार अपने मन के बादशाह हैं। स्कूल का कोई टाइम-टेबल उन्हें नहीं बाँध सकता है। जब इच्छा होगी तभी पढ़ाएँगे। कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
शिक्षक के रूप में मैं जब नियुक्त हुआ था तब लगा कि विद्यालय के शिक्षक-मंडल में मेरी स्थिति नगण्य है। एम० ए० हूँ तो क्या, ज्ञान में उनसे पिछड़ा हूँ। कक्षा में छात्र मुझसे प्रभावित नहीं हो पाते। अनुशासनहीनता को मैं दबा नहीं पाता। विद्यार्थी पीठ पीछे मुझ पर फबतियाँ कसते हैं। मेरे पहनावें और चाल-ढ़ाल की आलोचना होती है। कुछ सहयोगी शिक्षक मेरी दुर्गति से हर्षित हैं। यहीं आकर मैंने अनुभव किया कि सामन पेशे में ईर्ष्या बड़ी सजग रहती है। यहाँ एक मानहानि दूसरे की प्रतिष्ठा मानी जाती है।

क्या-क्या नहीं हुआ मेरे साथ ? छः महीने के भीतर शिक्षा जगत् के बहुत से अनुभव मैंने प्राप्त कर लिए। मन-ही-मन मैंने अपना मार्ग सुनिश्चित कर लिया। प्रभुनाथ बाबू पूरे दिन स्टाफरूप में राजनीति की  बातें करते-रहते थे। डेडमास्टर की आलोचना, शिक्षकों के बीच दल-निर्माण अथवा छात्र नेताओं को उकसाना, यही सब उनके कार्य थे। कोई उनसे मुँह लगने का साहस नहीं करता था। भरोसा नहीं था कि वे कब किस की प्रतिष्ठा गिरा देंगे। दंभी एक नंबर के। अपने विचारों के प्रति घोर कट्टर। कुर्ता-धोती पहनते थे और हमेशा नेताओं के अंदाज में चलते थे। आवाज मोटी थी। मेरे अवचेतन में शायद प्रभुनाथ सिंह ही आ बैठे थे। वे ज्यादा दिनों तक स्कूल में नहीं रहे। उनके साले ने बिजनेस करने के लिए उन्हें बम्बई बुला लिया। आज अगर प्रबुनाथ सिंह होते तो इस स्कूल में अगिया बैताल का काम करते। उनका विरोध करने की किसी में हिम्मत नहीं होती।

मैंने भी कुछ ही दिनों में अपनी स्थिति मजबूत कर ली। जो निडर स्वच्छंदता अब तक मेरे भीतर संकोच बनकर छिपी थी, वह सामने आ गयी। लोग मानने लगे की दिनेश कोई साधारण आदमी नहीं है। स्टाफ में मेरी पूछ होने लगी। सभा-बैठकों में मुझसे जरूर बोलने को कहा जाता। हेडमास्टर अथवा प्रशासन के विरोध में जो भी आवाज उठायी जाती, उसका अगुआ मुझे ही बनाया जाता। गिरधारी लाल आर्य उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय, गोरखपुर के परिसरक में आज बड़ा नेता मुझे ही माना जाता है। इसलिए कहता हूँ कि प्रतिष्ठा पाने के लिए दबंग बनना जरूरी है। नरम चारा बनने पर कोई भी चबा डालेगा।
एक दिन हरिनाथ पांडेय ने मुझसे कहा- स्कूल की आडिट कमिटी ने व्यंग्य पर कई आपत्तियाँ उठाई हैं। संभव है इस बार स्कूल के शिक्षकों की तनख्वाह रोक ली जाए।  
सुनते ही मेरा ब्राह्मांड गरम हो गया। मुँह में ढेरों गालियाँ भर आईं। देखूँ किसकी मजाल है जो हम मास्टरों की तनख्वाह रोकता है। हम असेम्बली से लेकर पार्लियामेंट तक की ईंट-ईंट बजा देंगे। गरम आवाज उठने भर की देर थी। स्कूल कमिटी और शिक्षा अधिकारी बगलें झांकने लगे। बिना रोक टोक के हमें तनख्वाह मिल गयी। कुछ भी पाने के लिए पहले अपने को मजबूत बनाना होता है। गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं मिलता।

हमारे प्रधानाचार्य विद्याधर राय का जैसा आतंक पहले था, वैसा अब नहीं रहा। परिस्थितियों ने उन्हें भी बदल दिया है। वे मुझे अच्छी तरह जानते हैं कि मैं क्या हूँ। एक बार उन्होंने मुझे टोका था कि दो महीने से मैंने दसवीं क्लास को कुछ नहीं पढ़ाया है। मेरा जवाब था-क्या हो गया, नहीं पढ़ाया तो ? मैं स्कूल तो आता हूँ ! ऐसा नहीं है कि मैं अपने घर पर बैठा रहता हूँ। और छात्रों का क्या, परीक्षा के दो-चार दिन पहले उन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न चाहिए। उन्हें कौन-सा विद्याधर या डा० राजेन्द्र प्रसाद बनना है। देश की गाड़ी के साथ शिक्षा विभाग की गाड़ी भी बंधी है। चाल बराबर है। इंजन से तेज रेलडब्बा नहीं दौड़ सकता।

 भारत सपनों और आदर्शों का देश है। यहाँ उन लोगों की संख्या अधिक है जो ऊपर टकटकी बाँधे आकाश-कुसुम तोड़ने की लालसा में छटपटाते रहते हैं ऐसी लालसा हम आज की छात्र-पीढ़ी में पैदा करेंगे तो फिर इस देश का क्या होगा। इसलिए मैं अपने छात्रों को ऋषि-मुनि, दार्शनिक-चिन्तन और महापुरुषों की बातें कम बताता हूँ। यथार्थ की धरती पर पाँव टिकाकर वे अपने भोजन के लिए एक पाव आटे का इन्तजाम करने लायक बन जाएँ, यहीं बहुत है।

रामेश्वर जी जैसे शिक्षक व्यर्थ के भ्रमजाल में पड़े रहते हैं। लगता है, ईश्वर ने उन्हें सिखा-पढ़ा कर धरती पर भेजा है कि वे शिक्षा-जगत् में क्रांति ला दें। प्रत्येक शिष्य को आदर्शवादी बना दें। लेकिन वे जनाब सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के जाल में फँसकर आज तक न तो अपना मकान बनवा सके और न ही अपनी जिम्मेदारीयों से मुक्त हो सके। उनके चेहरे पर देखिए तो लगेगा, हमेशा बारह बजे हैं। ऐसे लोग जिस संस्था में भी रहेंगे, दूसरों को धर्म-संकट में डालते रहेंगे। जिन्दगी की जिस मौज की जरूरत है वह उनके पास कहाँ। हर सुबह उनके लिए शाम है। वे कभी कोई क्लास नहीं छोड़ेंगे और छात्रों को बाँधकर रखेंगे। एक दिन ये ही छात्र जब विद्रोही बन जाएँगे तब उन्हें शांत कराने हमें आना पड़ेगा। अनुशासन जब अस्वाभाविक बंधन बन जाता है, तब असंतोष की चिनगारी फूटने लगती है। इस सत्य को रामेश्वर प्रसाद क्या जानें।
मैं जानता हूं कि समय क्या वास्तविकता है। बड़े-बड़े आदर्शवादी शिक्षको को मैं देख चुका हूँ। बेचारे इस महँगाई में छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए तरसते रहते हैं। मैंने अपने कई मित्रों को समझाया है कि ज्यादा आइडियल बनने की जरूरत नहीं। मास्टरी के साथ दूसरे धंधे भी कर लेने चाहिए। लोगों की आलोचना पर ज्यादा कान देने का मतलब है, अपने को दुखी करना। आदर्श के कोहरे में भटक-भटक के मैं अपने को दुःखी करता रहूँ, यह मुझे पसन्द नहीं। हर आदमी को अच्छा घर चाहिए। बढ़िया वस्त्र चाहिए। और स्वादिष्ट भोजन चाहिए। सुख इसी को कहते हैं। दुःख भोगने कोई नहीं आता इस संसार में।

मेरे शरीर पर कीमती कपड़े, चमचमाते जूते, विदेशी घड़ी-चश्में और मेरा सुख-चैन देखकर बहुत लोग मुझसे ईर्ष्या करते हैं। कुंठित होते हैं। यह उनका दुर्भाग्य है। ऐसे दुर्भाग्य के जो मारे हैं, वे कभी प्रसन्न नहीं रह सकते। उनमें ही एक यह रामेश्वर प्रसाद हैं।


तीन



प्रतिमा की प्रबल इच्छा है कि शहर में हम लोगों का एक अपना मकान हो। छह वर्ष पहले एक प्लाट खरीदा था। किन्तु साधन नहीं जुटा की मकान बनवा सकूँ। कई बार सोचा कि पूरा नहीं तो कम से कम दो ही कमरे बनवा कर किराए के मकान से मुक्ति पाऊँ। पर इतना भी पाना इस मास्टरी में कठिन लगता है।

प्रतिमा बार-बार मेरे सामने दिनेशकुमार का उदाहरण देती है। वह मुझ पर हँसती है। क्या मास्टर होना उसकी निगाह में हास्यपद है ? मैने उसे कई बार समझाया है और अपनी स्थिति स्पष्ट की है किन्तु वह क्यों समझ सकेगी। पत्नी यदि पति को ठीक-ठीक समझने लगे तो फिर जिन्दगी के आधे कलह अपने आप खत्म हो जाएँ। वह कहती है कि दिनेश कुमार जी अधिक सूझ-बूझ वाले आदमी हैं। इस शहर में उनके दो मकान हैं। तीसरा बनवा रहे हैं। अपने गाँव में खेत-जमीन खरीदते हैं। उनकी एक फ्रैक्ट्री भी है।
ये सब सुनते-सुनते मेरे कान पक गए हैं। अपनी पत्नी को मैं कैसे समझाऊँ कि दिनेश कुमार जैसे शिक्षक संसार के सारे धंधे करते हैं सिर्फ-पढ़ने-पढ़ाने का काम छोड़कर।

अधर वैज्ञानिक होना अपने को कष्ट में डालना है। इसी भय से प्रतिमा को मैं नहीं समझा पाता। यदि वह समझने को तैयार होती तो मैं कहता-तुम मेरी पत्नी हो मेरी सीमीएँ भली-भाँति जानती हो।, तुम लालसाओं में आकाश को छूना चाहती हो किंतु  तुम्हारी स्थिति एक ऐसे मास्टर से बँधी है जो धरती पर खड़ा है। समय आयेगा तो मकान भी बन जाएगा। अभाव को कष्ट मत मानो। अभाव मनुष्य को कर्मठ बनाता है।
घर में उन दिनों ये ही बातें चल रही थी एक दूसरी समस्या आ खड़ी हुई। मेरे बड़े बेटे का चुनाव नागपुर में एक इंजीनियरिंग कालेज में दाखिले के लिए हो गया था। प्रतिमा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आलोक खुश था। मैं भी प्रसन्न था किंतु चिन्ता के साथ। अपने पुत्र की सफलता पर कौन पिता प्रसन्न नहीं होगा !
मेरा ध्यान तत्काल रुपए-पैसे की व्यवस्था की ओर गया। आलोक को सप्ताह भर भीतर नागपुर जाकर अपना नाम लिखना होगा। वहाँ होस्टल में रहना होगा। सात हजार रुपए की जरूरत थी। चिन्ता हुई, इतनी राशि का इन्तजाम इतने थोडे समय में कैसे हो पाएगा।

लोग मुझे बधाई दे रहे थे। आलोक के चेहरे पर गर्व झलक रहा था। प्रतिमा उत्साह में थी। चिंतित केवल मैं था। परिवार के प्रधान की चिन्ता की नींव पर ही परिजनों की प्रसन्नता का प्रसाद खड़ा होता है।
पाँच रोज में सात-आठ हजार की व्यवस्था करनी थी। प्रतिमा के पास जो आभूषण थे उन्हें मैंने अपने छोटे बेटे की बीमारी में बेंच दिया था। आभूषण देकर बेटा मिला था। कई मित्रों को टटोला। संकट के समय मित्र भी मुस्कराना छोड़ देते हैं। अपने अभाव के फावड़े से दूर घरों को खोदा तो पाया कि वहाँ भी अभाव पहले से ही जड़ जमाए हुए है। केवल दो-ढाई हजार मिलने की उम्मीद बनी।

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