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उपन्यास >> भीम अकेला

भीम अकेला

विद्यासागर नौटियाल

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3075
आईएसबीएन :81-7055-359-8

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‘भीम अकेला’ में हमारे देश की कई छायाएँ एक साथ उभरती हैं-इन छायाओं में जातीय स्मृति की कौध है और अपनी सामाजिक आस्थाओं के मलीन पड़ते जाने का दर्द भी।

Bheem Akela a hindi book by Vidyasagar Nautiyal - भीम अकेला - विद्यासागर नौटियाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘भीम अकेला’ में हमारे देश की कई छायाएँ एक साथ उभरती हैं-इन छायाओं में जातीय स्मृति की कौध है और अपनी सामाजिक आस्थाओं के मलीन पड़ते जाने का दर्द भी। यह एक यात्रा है जो उपन्यास में ढल गयी है। जाहिर है कि यात्रा में सिर्फ रास्ते नहीं होते,यात्री के साथ चल रहा एक पूरा परिवेश भी होता है अनुभवों के बदलते हुए रंग भी होते हैं और स्मृतियों की एक पोटली भी होती है। इस उपन्यास में भी एक स्मृति है। शहीद भोलाराम सरदार और तेजसिह सरदार की स्मृति जिसके साथ कई पीड़ाएँ जुड़ी है। आजाद हिन्दुस्तान में शहीदों को भुला देने का जो चलन चल पड़ा है उसकी तकलीफ इस उपन्यास में है। इसके अतिरिक्त गाँव, देश और पहाड़ की कई मुश्किलों और विसंगतियों से यह पुस्तक हमारा सामना कराती है। भीम अकेला अपने छोटे कलेवर में एक बड़े कैनवस का चित्र हमारे सामने रखता है।

 

भूमिका

‘भीम अकेला’ दो दिन की यात्रा का वर्णन है। यह यात्रा वर्षों पहले की गई थी जबकि मैं उत्तर प्रदेश विधान सभा में सदस्य के रूप में कार्यरत था। इसे लिखने की प्रेरणा मुझे अपने बन्धु नेत्रसिंह रावत की पुस्तक ‘पत्थर और पानी’ को पढ़ने से मिली। वह भी एक यात्रा-संस्मरण था। उस पुस्तक ने मुझे बेहद प्रभावित किया।
‘भीम अकेला’ को मैं सुबह चार बजे उठकर लिखता था। मेरे पास समय की कमी रहती। लिखने में समय बीत गया। दिल्ली के एक मित्र के पास एक दैनिक पत्र के साप्ताहिक साहित्यिक संस्मरण में प्रकाशित करने हेतु यह संस्मरण करीब एक साल तक पड़ा रहा। एक प्रति रावत जी के पास थी। उन्होंने इसे पढ़कर इसकी प्रशंसा की और यह भी कहा कि दिल्ली के दैनिक में इसे स्थान नहीं मिल पायेगा चूँकि हमारे मित्र को अपनी नौकरी का भी बड़ा ध्यान रखना पड़ता है। मैं ‘भीम अकेला’ को उनके पास से वापस ले आया।

नैनीताल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘पहाड़’ के सम्पादक का पत्र आया कि उन्हें मेरी कोई रचना चाहिए। मैंने ‘भीम अकेला’ भेज दिया। बाद में यह भी लिखा कि वे चाहें तो इसे संक्षिप्त कर उसी रूप में छाप लें। ‘पहाड़’ के 1989 के तीसरे अंक में यह छपा। शेखर जोशी में उस रूप में उसे पढ़कर अपनी सम्मति इस तरह प्रकट की-‘भीम अकेला’ जातीय स्मृति का अद्भुत दस्तावेज है। मेरे लिए यह वाक्य एक प्रमाणपत्र है। व्यक्तिगत भेंट होने पर अनेक साहित्य प्रेमियों ने संस्मरण की प्रशंसा की।

नेत्रसिंह रावत हमें छोड़कर चले गए। मुझे तो सपने में भी यह आभास नहीं था कि ऐसा होगा। उनकी बिदाई का मुझ पर बहुत बुरा असर पड़ा। बेहद धीमी गति से जो कुछ लिखता था वह भी ठप्प हो गया। बाद में ‘भीम अकेला’ को देहरादून से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘युगवाणी’ ने आद्योपान्त छापा। कुछ पाठकों ने उसकी तारीफ की।
अब इसे पुस्तक के रूप में छापा जा रहा है। इस संस्मरण के लिए जाने के बाद शहीद मोलाराम की विधवा के साथ प्रदेश के शासन द्वारा किया गया हृदयहीन, घृणित व्यवहार लगातार मेरे मन पर चोटें मारता रहा। मैं सूरमा देवी को एक जीवित शहीद मानता आया हूँ। शासन के नाम लिखी उनकी चिट्ठी जिसका अंश यथावत् छापा जा रहा है, अपने में एक दस्तावेज है। यह अंधी वीरांगना समाज के कुल जहर को घोल-घोल कर पी गयी है। महाशिवरात्रि के दिन मैं उसकी गाथा लिखने बैठा हूं। गरल पीकर शिव नीलकंठ हो गये, सतुरी अंधी। सतुरी देवी (सूरमा देवी) की यह कथा ‘भीम अकेला’ का उपसंहार है।

 

10-2-93

 

-विद्यासागर नौटियाल

 

वृहस्पतिवार, ता. 1 फरवरी, 1984 :

17.55 मैंने अपना मग पानी की उस धारा के नीचे रख दिया है जो इस राह से गुजरते यात्रियों के लिए धारी से सेरा तक प्यास बुझाने का एक मात्र सहारा है। धारा से पानी लगातार गिर रहा है, बूंद-बूंद करके नहीं, पर पानी की धार बहुत बारीक है। राह सूनी है। जंगली राह। पेड़ व वनस्पति सभी तरह के हैं जो पहाड़ की गर्म घाटियों में पैदा हो सकते हैं। एक आम, पीपल का पेड़ भी पानी के पास ही खड़े क्लान्त पथिक को छांह देने का दायित्व निभा रहे हैं। इस मुकाम पर नदी की ओर से ऊपर चढ़ता हुआ पथिक तो निश्चित तौर पर बैठ जाता है। अनायास बैठता है। प्यास भी बुझाता है और घनी छाँह में अपनी थकान भी मिटाता है। लेकिन सिर्फ वे ही नहीं बैठते जो चढ़ाई चढ़ते रहते हैं। चोटी से नदी की ओर उतराई में लुढ़कते हुए यात्री को भी काफी दूर से इस स्थान पर बैठकर सुस्ताने की तलब शुरू हो जाती है। यह पहाड़ है। यहाँ चढ़ो या उतरो। रास्ता चढ़ाई का है। लगातार चढ़ाई और लौटते समय लगातार उतराई। ऐसी उतराई कि घुटनों की टोपियाँ दर्द करने लगें। कभी इस विकट राह पर पांडव भी चढ़े होंगे जरूर चढ़े होंगे वे हिमालय में गलने आए थे। अपने पापों का प्रायश्चित करने आए थे। बन्धु-बान्धवों का महावध करने के बाद आये थे।

 

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबधिनिस्तथा।

 

सबका वध करने के बाद उन्होंने अपनी ओर देखा था। जीवन निस्सार लगा। उपदेशक कृष्ण के उपदेशों का भण्डार चुक गया था। अर्जुन ने पहले ही कहा था-

 

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नोऽपि मधुसूदन।

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