नारी विमर्श >> अन्ततोगत्वा अन्ततोगत्वाप्रमोद त्रिवेदी
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...
Antatogatvaa
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
किसी और के बच्चे को अपनाकर अपने अभाव की पूर्ती की चाहे कितनी ही कोशिश की जाए, वह एक कोशिश भर होकर रह जाती है। तनाव तब और भी असह्य हो उठते हैं जब वह बच्चा भी सच्चाई को जानकर इस आरोपित सम्बन्ध को मानने से इनकार कर देता है। जुड़वा की यह कोशिश और इस कोशिश की विखराव में परिणित इस उपन्यास की केन्द्रीय भूमि है पर इस बिन्दु से जो निर्मित होता है वह बड़ा व्यापक है।
अन्तोगत्वा’ के सारे पात्र, चाहे वह मुक्ति, विकी, बबली या राहुल हो, अपने-अपने स्तर पर अपने लिए कोई समाधान पाने के लिए प्रयत्नशीलल हैं, पर समाधान इतने सुलभ भी नहीं होते। तमाम तनावों को झेलते हैं और वास्तविकता का यह स्वीकार अन्नतः उन्हें राहत भी देता है
अन्तोगत्वा’ वैयक्तिक आकांक्षाओं और स्वप्नों की अभिव्यक्ति-भर नहीं है। इसके समाजिक सरोकार बड़े व्यापक और गहरे हैं। ‘मुक्ति’ के द्वारा उठाये गए सारे प्रश्न, उसकी अपने-आपसे अन्तहीन जिरह और उसके अपने अन्तर्विरोध आज इस भारतीय नारी के द्वन्द्व को उजागर करते हैं जो आद के समाज में अपने को स्थापित भी कराना चाहती है और इस मूल्यहीनता के बीच भी नहीं बिठा पा रही है।
अन्तोगत्वा’ के सारे पात्र, चाहे वह मुक्ति, विकी, बबली या राहुल हो, अपने-अपने स्तर पर अपने लिए कोई समाधान पाने के लिए प्रयत्नशीलल हैं, पर समाधान इतने सुलभ भी नहीं होते। तमाम तनावों को झेलते हैं और वास्तविकता का यह स्वीकार अन्नतः उन्हें राहत भी देता है
अन्तोगत्वा’ वैयक्तिक आकांक्षाओं और स्वप्नों की अभिव्यक्ति-भर नहीं है। इसके समाजिक सरोकार बड़े व्यापक और गहरे हैं। ‘मुक्ति’ के द्वारा उठाये गए सारे प्रश्न, उसकी अपने-आपसे अन्तहीन जिरह और उसके अपने अन्तर्विरोध आज इस भारतीय नारी के द्वन्द्व को उजागर करते हैं जो आद के समाज में अपने को स्थापित भी कराना चाहती है और इस मूल्यहीनता के बीच भी नहीं बिठा पा रही है।
एक
...हमारी शादी को आज इक्कीस साल पूरे हो गये। अपनी शादी के हर बरस सिर्फ औरत ही क्यों याद रखती हैं ? क्यों औरत ही एक-एक स्मृति को जीती है ? पुरुषों के लिए स्मृतियों में जीना निरी भावुकता है। ज़ाहिरा तौर पर नहीं पर लगभग हर आदमी औरत को, कम से कम अपनी औरत को तो मूर्ख ही समझता है और पति का यह सद्विचार जानना पत्नी के लिए कितना निर्मम है ! शायद हर स्त्री अपनी स्थिति को जानती है और अपने पति की मूर्खताओं को नजरअंदाज करती जाती है। लोग इसी को औरत की समझदारी भी कहते हैं और समझौता भी। क्या ‘समझौता’ और समझदारी से परे औरत की कोई और स्थिति नहीं हो सकती ?
...हमारी शादी को आज इक्कीस साल पूरे हो गये। आश्चर्य होता है-औरत के लिए, शायद हर औरत के लिए अपने पति में निरन्तर आकर्षण बना रहता है और हर औरत, शायद हर औरत अपने पति की दृष्टि में बासी हो जाती है। आज भी औरत हर तरह से (यदि कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो तो काफी हद तक) अपने पति पर निर्भर करती है, सिर्फ वह उसकी पत्नी है इसीलिए ही नहीं बल्कि सहज रूप से। हर स्त्री अपने पति में एक चुम्बकत्व का अनुभव करती है। अपनी उम्र और अपना बासीपन छुपाने के लिए औरतों को क्या कुछ नहीं करना पड़ता है ! फूहड़ से फूहड़तर होते जाना पड़ता है। औरतों की इन सब में और इन्हीं सब में औरतों की बची-खुची ताजगी भी बासीपन में तब्दील हो जाती है, पर यह एक शर्त है, एक अनुबन्ध, जिसका पालन करना ही होता है हर औरत को...
अशिक्षा, असुरक्षा, पराधीनता, संस्कार, पुरुष-प्रधान समाज और उस समाज द्वारा तैयार किया गया मानक हमारी इस स्थिति के लिए उत्तरदायी है ही, पर समान शिक्षा, समता, स्वतन्त्रता, आर्थिक मुक्ति, परम्परा से विद्रोह के बावजूद औरत की स्थिति में इतना भर ही तो अन्तर आ पाया है कि अब नारी-स्वातंत्र्य पर विद्वतापूर्ण बहस होती है, लुभावने प्रस्ताव पास किये जाते हैं, ‘नारी-वर्ष’ घोषित किये जाते हैं, पहनावे, विज्ञापन, पोस्टरों और आकर्षक नारों में औरत खूब-खूब दिखाई देती है, पर सवाल सिर्फ इतना ही है कि उत्तेजक बहस और नयी चलन के कपड़ों से बाहर औरत कितनी बदली है, कितनी आजादी मिली है, उसे अधिक आजादी के बावजूद ? आश्चर्य तो यह है कि औरत खुद अपने संस्कारों के बाहर आना नहीं चाहती। अगर कोई कभी साहस भी करती है तो वह औरतों के ही आक्षेप की सबसे पहले शिकार होती है। अपने दायरे से बाहर आकर इस पुरुष-प्रधान समाज में छल और समझौतों का एक दूसरा सिलसिला शुरू हो जाता है।
शादी के बाईसवें वर्ष में प्रवेश पर यह तिक्तता आश्चर्यजनक नहीं है, पर यह तिक्तता किसके प्रति ?
शादी के बाईसवें वर्ष की पहली भोर में मैंने सोचा, विकी को उस क्षण की सूचना पूरी आत्मीयता से देकर आज के दिन अहसास करवाऊँ पर अगले क्षण भावुकता की जगह परीक्षा-भाव ने ले ली।
...थोड़ी प्रतीक्षा कर मुक्ति ! शादी तेरी ही नहीं विकी की भी हुई थी। विकी को भी तो आज का दिन याद रहना चाहिए। उसकी पहल का इन्तजार कर।
आखिर विकी की नींद टूटी। चाय की फरमाइश हुई। तब तक मैं नहा चुकी थी। मैं आज कुछ जल्दी ही जागी थी। एक उत्साह था। मैं आज कुछ ज्यादा ही तरोताजा लग रही थी। मुझे तो कम से कम आज ऐसा ही लग रहा था।
मुझे देखकर विकी ने कहा-
-कहीं जाना है क्या सुबह-सुबह ?
मैंने कहा-
-नहीं तो।
वे मुझे गौर से देख रहे थे, जैसे मैं आज कोई पहेली हो गई होऊँ उनके लिए और वे उसमें उलझ गये हैं। मैंने सोचा, शायद मेरे माध्यम से ही वे सही मुकाम तक पहुँच जाएँ, पर वे अखबार में उलझ गये। अखबार के जरिये ही उनका ध्यान तारीख पर गया, वे चौंके-
-अरे, तो आज सात तारीख है !
मैंने और स्पष्ट करते हुए कहा-
-हाँ, सात फरवरी। क्यों कोई खास बात ? मेरी धड़कन तेज थी। सारे सूत्र उनके हाथ में थे और मैं हर तरह से तैयार थी, बल्कि प्रस्तुत।
-खास क्या, तुमसे पहले मुझे तैयार होना था। पर, एक घंटा भी नहीं बचा है अब तो, तैयार होकर फटाफट एयर-पोर्ट पहुँचना है।
अखबार फेंक, छलांग लगाते विकी बाथरूम में गायब हो गये, और जब वह बाथरूम से बाहर आये तो आदमी से मशीन में तब्दील हो गये थे...
-इसी को कहते हैं स्मृतियों में जीना। यही है औरत की नियति। इतनी भर है औरत की आधुनिकता। शायद हर औरत की...
विकी के साथ जिन्दगी के इक्कीस बरस, लम्बे तपते रेतीले सफर में सिर्फ तपिश और पानी की तलब ही रही हो ऐसा नहीं है। इस लम्बे सफर में कहीं-कहीं हरियाली के छोटे-छोटे पड़ाव भी मिले हैं। ये पड़ाप तपिश और थकान में राहत अवश्य देते हैं पर इन पड़ावों पर सफर खत्म नहीं होता। ऐसे सुखद पड़ावों में भी यात्रान्त की निश्चिन्तता कहाँ ! और यात्रा आज भी कहाँ खत्म हुई है ! कितनी शेष है, यह भी तो पता नहीं। हरियाली के वे टुकड़े भी आज काफी पीछे छूट गये। रेगिस्तान के सफर में जल का भ्रम बड़ा सुखद लगता है। जिन्दगी के सफर में भी ऐसे भ्रम ही चलने की ताकत देते हैं। ऐसे ही भ्रमों की वजह से यात्रा जारी रहती है। यदि ये भ्रम ही टूट जाएँ तो जिन्दगी का सफर ही थम जाए। हमने कितने भ्रम पाले और कितने-कितने भ्रमों से दंशित हुए, इसका लम्बा सिलसिला है। इक्कीस सालों में जितना ही नहीं उससे कहीं ज्यादा लम्बा, पर शिकायत किससे ? यह चुनाव भी तो हमारा ही है। सफर का...हम सफर का...और सफर के रुख का भी तो...
-विकी न कैसेट-प्लेयर पर रविशंकर का टेप लगा दिया। मुझे मालूम है, संगीत में उनकी जरा भी रुचि नहीं है। शास्त्रीय संगीत तो दूर की बात है, फिल्मी गीतों तक में उनकी रुचि नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे अकाउंट्स में मेरी रुचि नहीं है। कितनी बार उन्होंने मुझे ‘अपना गणित’ ‘अपना जोड़-बाकी’ समझाने की कोशिश की। यह सब समझाने में उन्होंने अपना सिर खपाया। कितनी बार खीझे-झल्लाये, पर उसके आँकड़े कभी मेरे पल्ले नहीं पड़े, पर अपने गणित में उनका डूबना, उनका चिन्तित होना और उनका तृप्त होना मैंने पढ़ा है।
-मुझे मालूम है, रविशंकर का कैसेट उन्होंने मेरे लिए लगाया था। सात फरवरी की स्मृति को विस्मृत कर जाने का अपराध-भाव उन्हें रविशंकर तक ले गया था। पर मैं जानती हूँ, संगीत का उनके लिए एक ही अर्थ है-ऐयाशी और इस ऐयाशी के लिए तो उनकी जिन्दगी में कोई जगह ही नहीं है। उन्होंने कैसे समझ लिया कि उनकी इस धारणा को जानने के बाद भी उनका रविशंकर का सितार सुनवाना मुझे अच्छा लगेगा ? एक उम्र होती है, उस उम्र में हमें हर कुछ अच्छा लगता है। उस उम्र में तो हम अपनी मूर्खताओं पर भी मुग्ध होते हैं। पर अब उन मूर्खताओं पर सोचते हुए हँसी ही नहीं आती, खीझ होती है। सच तो यह है कि विकी ऐसी हरकतों को करते हुए मूर्ख ही लगे। (अगर मेरी डायरी का यह अंश वह पढ़ लें तो दु:खी हो जाएँगे, पर मैं जानती हूँ किसी की व्यक्तिगत डायरी पढ़ना, किसी की चिट्ठी पढ़ना उनकी निगाह में गुनाह है और कम से कम वह अपने इस उसूल के तो पक्के हैं।) दस-बारह बरस पहले तो हर किसी बात का बतंगड़ बन जाया करता था। छोटी-छोटी बातें कितनी खिंच जाया करती थीं। हमारे अपने-अपने अहम् हमेशा ही एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हो जाते थे। कोई झुकने को तैयार नहीं होता था। स्थिति हमेशा ‘खतरनाक किन्तु नियंत्रण में’ रहती थी। चाहे वे तनाव भरे दिन ही क्यों न हों पर वे दिन भी भले ही थे। काश ! उन ‘भले’ दिनों को पकड़ कर रख पाते।
...अब कहाँ फर्क आ गया है ? क्या फर्क आ गया है ? किसमें फर्क आ गया है, मुझमें ? विकी या बबली में ? यों तीनों ही अपनी-अपनी जगह पर सही हैं, पर एक-दूसरे के लिए तीनों गलत हैं। विकी और बबली एक-दूसरे के लिए गलत न भी हों, पर अपने बारे में तो मैं गलत नहीं ही हूँ।
अपनी दिनचर्या का यह अन्तिम कार्य पूरा कर मुक्ति सोने की तैयारी करने लगी। उसके सोच को शायद अभी पूरे शब्द नहीं मिले थे। बड़ी देर तक बिस्तर पर पड़े-पड़े वह अँधेरे को घूरती रही। वह फिर उठी और रोशनी जलाई, अपनी डायरी में इतना और लिखा- सोने की कोशिश बेकार है और नींद का इन्तजार करते यों रात बिताना तो और भी भयानक...
....दिन पर दिन, हफ्ते पर हफ्ते, साल पर साल बीत गए इसी तरह रहते-रहते। अब तो हम इस जीवन के भी अभ्यस्त हो गए हैं। इसी तरह रहते-रहते इक्कीस साल भी पूरे हो गए। आज बाईसवाँ साल भी शुरू हो गया बिना किसी नयेपन से बीत जाने के लिए। एक रोमांचहीन उदास अनुभव की स्मृति के साथ जिन्दगी के बाईसवें पड़ाव की ओर हम दोनों ने अपने कदम बढ़ा दिए हैं-साथ-साथ (चाहें तो मान सकते हैं) पर एक-दूसरे के समानान्तर...
इतना भर लिखने के बाद उसने डायरी बन्द की। पूरी तरह अँधेरा किया। और नये सिरे से सो जाने की कोशिश की, एक संकल्प के साथ। जागते-जागते आखिर उसे नींद आ ही गई। खुदा का शुक्र !!
...हमारी शादी को आज इक्कीस साल पूरे हो गये। आश्चर्य होता है-औरत के लिए, शायद हर औरत के लिए अपने पति में निरन्तर आकर्षण बना रहता है और हर औरत, शायद हर औरत अपने पति की दृष्टि में बासी हो जाती है। आज भी औरत हर तरह से (यदि कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो तो काफी हद तक) अपने पति पर निर्भर करती है, सिर्फ वह उसकी पत्नी है इसीलिए ही नहीं बल्कि सहज रूप से। हर स्त्री अपने पति में एक चुम्बकत्व का अनुभव करती है। अपनी उम्र और अपना बासीपन छुपाने के लिए औरतों को क्या कुछ नहीं करना पड़ता है ! फूहड़ से फूहड़तर होते जाना पड़ता है। औरतों की इन सब में और इन्हीं सब में औरतों की बची-खुची ताजगी भी बासीपन में तब्दील हो जाती है, पर यह एक शर्त है, एक अनुबन्ध, जिसका पालन करना ही होता है हर औरत को...
अशिक्षा, असुरक्षा, पराधीनता, संस्कार, पुरुष-प्रधान समाज और उस समाज द्वारा तैयार किया गया मानक हमारी इस स्थिति के लिए उत्तरदायी है ही, पर समान शिक्षा, समता, स्वतन्त्रता, आर्थिक मुक्ति, परम्परा से विद्रोह के बावजूद औरत की स्थिति में इतना भर ही तो अन्तर आ पाया है कि अब नारी-स्वातंत्र्य पर विद्वतापूर्ण बहस होती है, लुभावने प्रस्ताव पास किये जाते हैं, ‘नारी-वर्ष’ घोषित किये जाते हैं, पहनावे, विज्ञापन, पोस्टरों और आकर्षक नारों में औरत खूब-खूब दिखाई देती है, पर सवाल सिर्फ इतना ही है कि उत्तेजक बहस और नयी चलन के कपड़ों से बाहर औरत कितनी बदली है, कितनी आजादी मिली है, उसे अधिक आजादी के बावजूद ? आश्चर्य तो यह है कि औरत खुद अपने संस्कारों के बाहर आना नहीं चाहती। अगर कोई कभी साहस भी करती है तो वह औरतों के ही आक्षेप की सबसे पहले शिकार होती है। अपने दायरे से बाहर आकर इस पुरुष-प्रधान समाज में छल और समझौतों का एक दूसरा सिलसिला शुरू हो जाता है।
शादी के बाईसवें वर्ष में प्रवेश पर यह तिक्तता आश्चर्यजनक नहीं है, पर यह तिक्तता किसके प्रति ?
शादी के बाईसवें वर्ष की पहली भोर में मैंने सोचा, विकी को उस क्षण की सूचना पूरी आत्मीयता से देकर आज के दिन अहसास करवाऊँ पर अगले क्षण भावुकता की जगह परीक्षा-भाव ने ले ली।
...थोड़ी प्रतीक्षा कर मुक्ति ! शादी तेरी ही नहीं विकी की भी हुई थी। विकी को भी तो आज का दिन याद रहना चाहिए। उसकी पहल का इन्तजार कर।
आखिर विकी की नींद टूटी। चाय की फरमाइश हुई। तब तक मैं नहा चुकी थी। मैं आज कुछ जल्दी ही जागी थी। एक उत्साह था। मैं आज कुछ ज्यादा ही तरोताजा लग रही थी। मुझे तो कम से कम आज ऐसा ही लग रहा था।
मुझे देखकर विकी ने कहा-
-कहीं जाना है क्या सुबह-सुबह ?
मैंने कहा-
-नहीं तो।
वे मुझे गौर से देख रहे थे, जैसे मैं आज कोई पहेली हो गई होऊँ उनके लिए और वे उसमें उलझ गये हैं। मैंने सोचा, शायद मेरे माध्यम से ही वे सही मुकाम तक पहुँच जाएँ, पर वे अखबार में उलझ गये। अखबार के जरिये ही उनका ध्यान तारीख पर गया, वे चौंके-
-अरे, तो आज सात तारीख है !
मैंने और स्पष्ट करते हुए कहा-
-हाँ, सात फरवरी। क्यों कोई खास बात ? मेरी धड़कन तेज थी। सारे सूत्र उनके हाथ में थे और मैं हर तरह से तैयार थी, बल्कि प्रस्तुत।
-खास क्या, तुमसे पहले मुझे तैयार होना था। पर, एक घंटा भी नहीं बचा है अब तो, तैयार होकर फटाफट एयर-पोर्ट पहुँचना है।
अखबार फेंक, छलांग लगाते विकी बाथरूम में गायब हो गये, और जब वह बाथरूम से बाहर आये तो आदमी से मशीन में तब्दील हो गये थे...
-इसी को कहते हैं स्मृतियों में जीना। यही है औरत की नियति। इतनी भर है औरत की आधुनिकता। शायद हर औरत की...
विकी के साथ जिन्दगी के इक्कीस बरस, लम्बे तपते रेतीले सफर में सिर्फ तपिश और पानी की तलब ही रही हो ऐसा नहीं है। इस लम्बे सफर में कहीं-कहीं हरियाली के छोटे-छोटे पड़ाव भी मिले हैं। ये पड़ाप तपिश और थकान में राहत अवश्य देते हैं पर इन पड़ावों पर सफर खत्म नहीं होता। ऐसे सुखद पड़ावों में भी यात्रान्त की निश्चिन्तता कहाँ ! और यात्रा आज भी कहाँ खत्म हुई है ! कितनी शेष है, यह भी तो पता नहीं। हरियाली के वे टुकड़े भी आज काफी पीछे छूट गये। रेगिस्तान के सफर में जल का भ्रम बड़ा सुखद लगता है। जिन्दगी के सफर में भी ऐसे भ्रम ही चलने की ताकत देते हैं। ऐसे ही भ्रमों की वजह से यात्रा जारी रहती है। यदि ये भ्रम ही टूट जाएँ तो जिन्दगी का सफर ही थम जाए। हमने कितने भ्रम पाले और कितने-कितने भ्रमों से दंशित हुए, इसका लम्बा सिलसिला है। इक्कीस सालों में जितना ही नहीं उससे कहीं ज्यादा लम्बा, पर शिकायत किससे ? यह चुनाव भी तो हमारा ही है। सफर का...हम सफर का...और सफर के रुख का भी तो...
-विकी न कैसेट-प्लेयर पर रविशंकर का टेप लगा दिया। मुझे मालूम है, संगीत में उनकी जरा भी रुचि नहीं है। शास्त्रीय संगीत तो दूर की बात है, फिल्मी गीतों तक में उनकी रुचि नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे अकाउंट्स में मेरी रुचि नहीं है। कितनी बार उन्होंने मुझे ‘अपना गणित’ ‘अपना जोड़-बाकी’ समझाने की कोशिश की। यह सब समझाने में उन्होंने अपना सिर खपाया। कितनी बार खीझे-झल्लाये, पर उसके आँकड़े कभी मेरे पल्ले नहीं पड़े, पर अपने गणित में उनका डूबना, उनका चिन्तित होना और उनका तृप्त होना मैंने पढ़ा है।
-मुझे मालूम है, रविशंकर का कैसेट उन्होंने मेरे लिए लगाया था। सात फरवरी की स्मृति को विस्मृत कर जाने का अपराध-भाव उन्हें रविशंकर तक ले गया था। पर मैं जानती हूँ, संगीत का उनके लिए एक ही अर्थ है-ऐयाशी और इस ऐयाशी के लिए तो उनकी जिन्दगी में कोई जगह ही नहीं है। उन्होंने कैसे समझ लिया कि उनकी इस धारणा को जानने के बाद भी उनका रविशंकर का सितार सुनवाना मुझे अच्छा लगेगा ? एक उम्र होती है, उस उम्र में हमें हर कुछ अच्छा लगता है। उस उम्र में तो हम अपनी मूर्खताओं पर भी मुग्ध होते हैं। पर अब उन मूर्खताओं पर सोचते हुए हँसी ही नहीं आती, खीझ होती है। सच तो यह है कि विकी ऐसी हरकतों को करते हुए मूर्ख ही लगे। (अगर मेरी डायरी का यह अंश वह पढ़ लें तो दु:खी हो जाएँगे, पर मैं जानती हूँ किसी की व्यक्तिगत डायरी पढ़ना, किसी की चिट्ठी पढ़ना उनकी निगाह में गुनाह है और कम से कम वह अपने इस उसूल के तो पक्के हैं।) दस-बारह बरस पहले तो हर किसी बात का बतंगड़ बन जाया करता था। छोटी-छोटी बातें कितनी खिंच जाया करती थीं। हमारे अपने-अपने अहम् हमेशा ही एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हो जाते थे। कोई झुकने को तैयार नहीं होता था। स्थिति हमेशा ‘खतरनाक किन्तु नियंत्रण में’ रहती थी। चाहे वे तनाव भरे दिन ही क्यों न हों पर वे दिन भी भले ही थे। काश ! उन ‘भले’ दिनों को पकड़ कर रख पाते।
...अब कहाँ फर्क आ गया है ? क्या फर्क आ गया है ? किसमें फर्क आ गया है, मुझमें ? विकी या बबली में ? यों तीनों ही अपनी-अपनी जगह पर सही हैं, पर एक-दूसरे के लिए तीनों गलत हैं। विकी और बबली एक-दूसरे के लिए गलत न भी हों, पर अपने बारे में तो मैं गलत नहीं ही हूँ।
अपनी दिनचर्या का यह अन्तिम कार्य पूरा कर मुक्ति सोने की तैयारी करने लगी। उसके सोच को शायद अभी पूरे शब्द नहीं मिले थे। बड़ी देर तक बिस्तर पर पड़े-पड़े वह अँधेरे को घूरती रही। वह फिर उठी और रोशनी जलाई, अपनी डायरी में इतना और लिखा- सोने की कोशिश बेकार है और नींद का इन्तजार करते यों रात बिताना तो और भी भयानक...
....दिन पर दिन, हफ्ते पर हफ्ते, साल पर साल बीत गए इसी तरह रहते-रहते। अब तो हम इस जीवन के भी अभ्यस्त हो गए हैं। इसी तरह रहते-रहते इक्कीस साल भी पूरे हो गए। आज बाईसवाँ साल भी शुरू हो गया बिना किसी नयेपन से बीत जाने के लिए। एक रोमांचहीन उदास अनुभव की स्मृति के साथ जिन्दगी के बाईसवें पड़ाव की ओर हम दोनों ने अपने कदम बढ़ा दिए हैं-साथ-साथ (चाहें तो मान सकते हैं) पर एक-दूसरे के समानान्तर...
इतना भर लिखने के बाद उसने डायरी बन्द की। पूरी तरह अँधेरा किया। और नये सिरे से सो जाने की कोशिश की, एक संकल्प के साथ। जागते-जागते आखिर उसे नींद आ ही गई। खुदा का शुक्र !!
दो
-विवेक-विकी के साथ मेरे भी कुछ साल उसी तरह बीते जैसे किसी भी औरत के अपने मर्द के साथ बीतते हैं। ये साल हमने भी मर्द-औरत की तरह ही जिए। एक खूँखार और आक्रामक प्रेम। एक अनन्त अतृप्ति, पर तृप्त होने की निरन्तर कोशिश। आकर्षण और एकरसता से ऊब और इस ऊब के बाद दुगुना आकर्षण। यह दौर जब बीत जाता है तब एक ठहराव आता है। एक नई शुरूआत होती है। जो पहले अच्छा लगता था या बुरा लगकर भी अच्छा लगता रहा, उस सबका अब हम विश्लेषण करने लगे। अपनी पसंदगी और नापसंदगी पर स्वतन्त्र रूप से सोचने लगे। बहस होने लगी। बहस से आगे बढ़े तो झगड़ने लगे। झगड़ते तो हम पहले भी थे पर तब मानमनव्वल था। मानमनव्वल में जो रस मिलता था, उसके तो कहने ही क्या ! अब वह सुख कहाँ ! पहली बार कब हमने शादी की तुक ‘बरबादी’ से जोड़ी, पहले किसने जोड़ी, हम दोनों में से पहले शादी करके कौन पछताया, यह तो अब ठीक से याद नहीं रहा, पर जल्दी ही हम दोनों ही अपने को पछताया मानने लगे। कारण दोनों के अलग-अलग हो सकते हैं, पर हमारे निष्कर्ष समान थे।
-व्यावहारिक किस्म की या कहूँ व्यावसायिक किस्म की मानसिकता है विकी की। इसी बिन्दु पर विकी से मेरा सामंजस्य नहीं हो पाया। उनके लिए तो मैं, अब एक घाटे का सौदा हूँ, ऐसा घाटा जिससे वे आजीवन उबर नहीं पाएँगे। बेचारे ! पर दूसरों की निगाहों में हम सुखी ही नहीं, सुख से मगरूर भी हो गए हैं। जिस-जिस की निगाह में हम जैसे भी हैं, बस हैं। जिनको जो भ्रम है, जिनकी जैसी धारणाएँ हैं, उन्हें हम क्यों तोड़े ? किस-किस को कैफियत दें और क्यों ?
-विकी कई मामलों में ठेठ भारतीय हैं। उनकी मानसिकता, उनके संस्कार ठेठ भारतीय हैं। इन तमाम वर्षों में साथ रहते-रहते अब मैं इसी नतीजे पर पहुँची हूँ कि-विकी के लिए शादी का अर्थ सन्तानोत्पत्ति और सन्तानोत्पत्ति का अर्थ पितृ-ऋण से मुक्ति भर है। उनके लिए सुखी जीवन का आदर्श बच्चों की लदर-पदर और चिल्लपों है। उनकी दृष्टि में वे ही लोग सुखी हैं, जो बच्चों से लदे-फँदे हैं। जिसे वे मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा सुख मानते हैं, वही सुख उनके भाग्य में नहीं है। यही उनका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। एक गहरी उदासी सदा उनकी आँखों में पढ़ी जा सकती है। अकेले हों या चहल-पहल में, एक वेदना, हँसी-खुशी के अवसरों पर भी एक अलगाव, एक सोच भरी चुप्पी उन्हें सहज ही नहीं होने देते। एक प्रकार की आत्महीनता के बोध ने उन्हें असामान्य बना दिया है। मैं कई बार सोचती हूँ कि ज्यादा परेशान वे इसलिए भी होते हैं कि मरकर वे अपने पितृ-पितामहों की आत्मा को क्या मुँह दिखाएँगे, जब उनकी संतान के अभाव में वे तर्पण से वंचित प्यासे और विकल होंगे। वे उनके शाप के भय से त्रस्त हो जाते हैं। सच कहूँ, उन्हें देखकर मुझे भी हँसी आती है। कई बार अपनी संतान के प्रति उनकी यह आसक्ति मुझे भी मंथ देती है। काश ! मैं उनका मनचाहा उन्हें दे पाती। उन्हें मुझसे यह माँगने का पूरा अधिकार भी है। पर जो मेरे पास नहीं है, मेरे वश में नहीं है, वह मैं उन्हें कहाँ से दूँ ? अब तो मुझे दृढ़ विश्वास हो चला है कि यदि उन्हें उनका इच्छित मिल जाए तो भारतीय परम्परा का अनुसरण कर सब कुछ अपनी संतान को सौंपकर तप करने हिमालय चले जाएँगे। जब-जब वे अपनी इस आकांक्षा की अति पर पहुँचे हैं, मेरी इच्छा हुई है कि उन्हें किसी मनोचिकित्सक को दिखाकर उनकी मनोग्रंथि को समझूँ।
-पहले मुझे स्वयं से हिकारत होती थी। आखिर मैं क्या हूँ, विकी के लिए, सिर्फ एक माध्यम भर ? मानती हूँ, माध्यम का भी महत्त्व होता है। मेरा भी, उनकी दृष्टि में सिर्फ इतना भर ही महत्त्व रहा है। पर क्या हमारा सम्बन्ध इतना भर ही है ? एक स्त्री की, एक पत्नी की अपने पति से अपेक्षा क्या कोई अर्थ नहीं रखती ? कोई ऐसी स्त्री भी है या आज तक हुई है जो अपनी पूर्णता नहीं चाहती ?...पर पुरुष कभी अपनी पत्नी को साथ लेकर नहीं सोचता। वह अपनी इस लालसा को इतना फूहड़ बना देता है कि स्त्री अपमानित अनुभव करने लगती है। मैंने भी अपने को कई-कई बार अपमानित अनुभव किया है। पति-पत्नी के रूप में हमारे बीच एक सहज, आत्मीय और प्रगाढ़ सम्बन्ध विकसित होना था, वह हो नहीं पाया। होता भी कैसे, साधन, साध्य कैसे हो सकता है भला ? हो ही नहीं सकता।
-इक्कीस साला सफर का एक ‘ओएसिस’-कितने खुश थे विकी उन दिनों, जैसे सारी मुरादें पूरी होने जा ही रही हों। उनके लिए सारी मुरादों का अर्थ था-‘एक ही मुराद’। उन्हें समझ में ही नहीं आता था वे क्या करें, क्या न करें। एक जुनून सा सवार था उन पर। वे जितना खुश थे, मैं उनके लिए उतनी ही चिन्तित थी। मेरी चिन्ताओं को वे आने वाले ‘खास दिनों’ की चिन्ता समझ रहे थे। क्या बतलाऊँ मेरी चिन्ता से भी वे खुश थे, जब कि मेरी चिन्ता वैसी नहीं थी जैसी वे समझ रहे थे। मैंने कहा था-
-विकी पागल मत बनो। थोड़ा इंतजार करो। जैसा तुम समझ रहे हो अगर वैसा ही है और मैं भी चाहती हूँ कि वैसा ही हो, तो भी अपनी खुशियों को सही समय के लिए सहेज रखो।
पर विकी तो जमीन से तीन इंच ऊपर चल रहे थे। कितने-कितने मंसूबे बाँध रहे थे। कितनी-कितनी योजनाएँ बना रहे थे। मित्रों और आत्मीयजनों के लिए उनकी यह उत्फुल्लता अचरज का विषय थी। लोग जान गये थे। लोग जान रहे थे। कितनों-कितनों से वे क्या-क्या वादे किए जा रहे थे। मुझ पर हर तरह के प्रतिबंध लागू हो गए थे-क्या खाओ, क्या न खाओ। कितना आराम करो, कितना घूमो-काम करो। क्या सोचो, क्या न सोचो। मैं खुश थी चलो विकी तो खुश हैं। मेरे लिए अब उनके पास फुरसत ही फुरसत है। ढेर सारी किताबें खरीद लाये विकी, कुछ मेरे लिए भी कुछ अपने लिए भी। मैं तो नहीं पर वे उन किताबों में खो गए। जो किताबें मेरे लिए थीं वे भी उन्होंने पढ़ डालीं। चलो ! माध्यम भी महत्वपूर्ण हो गया।
...पर जब तक भ्रम है, सुख भी तब तक ही है। भ्रम के टूटने पर सुख की तीव्रता की अपेक्षा दु:ख की तीव्रता कहीं अधिक होती है। विकी का भ्रम भी एक दिन टूट गया। विकी की उड़ान भी ऊँची थी और अनियंत्रित भी इसलिए ‘दुर्घटना’ भी भीषण ही हुई। मैं अपराधिनी हो गई। मैंने ही तो उन्हें भ्रम दिया था। भ्रम को तो विकी ने महत्व दिया पर मेरी चेतावनी पर उन्होंने जरा भी तवज्जो नहीं दी। यदि वे तवज्जो देते तो दुर्घटना इतनी भीषण नहीं होती। कुल मिलाकर वे अपने मित्रों-आत्मीयजनों को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे और न मैं विकी को मुँह दिखाने लायक रही। आत्मग्लानि के चरम क्षणों में एक बार तो मैंने सोच लिया कि विकी के लिए रास्ता ही साफ कर देना चाहिए, पर इस कार्य को करने के लिए जिस साहस की आवश्यकता अपेक्षित होती है, वैसा और उतना साहस मुझ में नहीं है। उस जीवट के लोग अलग ही होते हैं। मैं मर नहीं सकती। मैं चाहकर भी मर नहीं जाऊँगी। विकी के लिए कभी भी रास्ता साफ हो नहीं पाएगा। आई कांट हेल्प...तभी एक दुष्ट विचार मेरे मन में आया-क्या विकी को पितृत्व प्रदान न कर पाने के लिए सिर्फ मैं ही दोषी हूँ ? छि: ! कितना गन्दा और ओछा ख्याल मेरे दिल में आया था। घृणित ही नहीं बल्कि अश्लील भी ! पर सच कहूँ इस विचार के बाद मैं मानसिक थकान से हमेशा के लिए मुक्त हो गयी।
...इस हादसे के बाद विकी पूरी तरह से टूट गये। विकी की परेशानी दोहरी थी। घने अंधकार और घोर निराशा के बीच रोशनी की लकीर का उन्हें जो भ्रम हो गया था, इस अँधेरे में सहारे का जो भ्रम हुआ था, उस भ्रम के टूटने पर उनके जीवन का अंधकार और प्रगाढ़ हो गया। मित्रों के बीच वे हास्यास्पद हो गये। वे तरह-तरह के तानों और गन्दे चुटकुलों के केन्द्र में होने लगे। ऐसे में उन्हें एक आत्मीय सहारे की आवश्यकता थी। मैं हो सकती थी उनके लिए वह सहारा; पर वे तो मुझे ही दोषी मान रहे थे, तो मेरा सहारा वे कैसे पाते ? मैं फिर भी उनके लिए कुछ करती, उनकी तकलीफ में हिस्सा बँटाती, पर मुझे लगा मेरा अपनत्व इन क्षणों में उनके लिए और त्रासद हो जाएगा। स्थितियाँ और भी जटिल हो सकती थीं। दुर्भाग्य से यदि हो गया तो मेरा दोष और बढ़ जाएगा। सोचिए ! इन्हीं परिस्थितियों में क्या मुझे सहानुभूति की आवश्यकता नहीं थी ? पर मुझे कौन देता सहानुभूति ? मेरे बारे में सोचता भी कौन ? विकी ने अपने सपनों में मेरे सपने कभी सम्मिलित ही नहीं किए, बल्कि अपने सुख-दु:ख का उन्होंने तो मुझे शत्रु ही माना। आप ही बतलाइए, यह विकी की ट्रेजडी है या मेरी ? विकी की ट्रेजडी से मेरी यह ट्रेजडी क्या छोटी है ? पर यह सब विकी को समझाता भी कौन ? इस हादसे के बाद हम दोनों के बीच एक रेखा-सी खिंच गई। एक डेंजर लाइन, जिसे पार करने का साहस हम दोनों में से कोई नहीं कर पाया। इस सीमा में बद्ध होकर हम कभी एक-दूसरे के सुख-दु:ख में आत्मीयता से सम्मिलित नहीं हो सके। हमारे बीच जो दूरी निर्मित हो गई थी वह कम नहीं हो सकी। हम जी रहे थे पर अपनी-अपनी सीमाओं में, यही जीने की शर्त थी। लोग हमें तब भी सुखी ही समझ रहे थे। पर हमारे जीने की बाध्यता कितनी दारुण थी!
यह था हमारे इक्कीस साला सफर का ओएसिस। शायद हर यात्रा, हरएक की यात्रा ऐसी ही तपन भरी होती है। हरएक के पाँवों में छाले और बिवाइयाँ होती हैं। हरएक की यात्रा में ओएसिस मिलते हैं और पीछे छूट जाते हैं। यात्रा में भ्रम भी निर्मित होते हैं और ये टूटते भी हैं। आदमी चलता है, लड़खड़ाता है, गिरता है और फिर उठ खड़ा होता है। नई चोट सहलाता है और पिछली चोट भूल जाता है। इसी तरह जिन्दगी का सफर जारी रहता है। सबसे मजेदार तो यह है कि सहयात्रा में अपने-अपने रास्ते पर चलते हुए दूसरों की यात्रा झील-झरने के किनारे-किनारे जाती हुई पगडंडी की सुखद यात्रा लगती है जिसमें हिमानी शिखर को छूकर आती ठंडी हवाएँ हैं, वन-फूलों की तीखी गन्ध है, हरे जंगल, खुला आकाश और एक मनोरम दृश्य है अर्थात् पूरा एक कल्पनालोक। पर यह कल्पनालोक सिर्फ खयालों में ही होता है। हरएक जीवन-यात्रा या तो तपते रेगिस्तान में होती है या यह हिमांधियों के बीच भटकता दिशा-भूला सफर होता है। दूसरे ही क्यों, हम भी तो दूसरों की यात्रा की ऐसी ही रूमानी कल्पना करते हैं। यों यह ईर्ष्या का भाव भी आवश्यक है जीवन में वर्ना कोई स्पर्धा ही नहीं होगी परस्पर और सफर बेमजा हो जाएगा।
-व्यावहारिक किस्म की या कहूँ व्यावसायिक किस्म की मानसिकता है विकी की। इसी बिन्दु पर विकी से मेरा सामंजस्य नहीं हो पाया। उनके लिए तो मैं, अब एक घाटे का सौदा हूँ, ऐसा घाटा जिससे वे आजीवन उबर नहीं पाएँगे। बेचारे ! पर दूसरों की निगाहों में हम सुखी ही नहीं, सुख से मगरूर भी हो गए हैं। जिस-जिस की निगाह में हम जैसे भी हैं, बस हैं। जिनको जो भ्रम है, जिनकी जैसी धारणाएँ हैं, उन्हें हम क्यों तोड़े ? किस-किस को कैफियत दें और क्यों ?
-विकी कई मामलों में ठेठ भारतीय हैं। उनकी मानसिकता, उनके संस्कार ठेठ भारतीय हैं। इन तमाम वर्षों में साथ रहते-रहते अब मैं इसी नतीजे पर पहुँची हूँ कि-विकी के लिए शादी का अर्थ सन्तानोत्पत्ति और सन्तानोत्पत्ति का अर्थ पितृ-ऋण से मुक्ति भर है। उनके लिए सुखी जीवन का आदर्श बच्चों की लदर-पदर और चिल्लपों है। उनकी दृष्टि में वे ही लोग सुखी हैं, जो बच्चों से लदे-फँदे हैं। जिसे वे मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा सुख मानते हैं, वही सुख उनके भाग्य में नहीं है। यही उनका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। एक गहरी उदासी सदा उनकी आँखों में पढ़ी जा सकती है। अकेले हों या चहल-पहल में, एक वेदना, हँसी-खुशी के अवसरों पर भी एक अलगाव, एक सोच भरी चुप्पी उन्हें सहज ही नहीं होने देते। एक प्रकार की आत्महीनता के बोध ने उन्हें असामान्य बना दिया है। मैं कई बार सोचती हूँ कि ज्यादा परेशान वे इसलिए भी होते हैं कि मरकर वे अपने पितृ-पितामहों की आत्मा को क्या मुँह दिखाएँगे, जब उनकी संतान के अभाव में वे तर्पण से वंचित प्यासे और विकल होंगे। वे उनके शाप के भय से त्रस्त हो जाते हैं। सच कहूँ, उन्हें देखकर मुझे भी हँसी आती है। कई बार अपनी संतान के प्रति उनकी यह आसक्ति मुझे भी मंथ देती है। काश ! मैं उनका मनचाहा उन्हें दे पाती। उन्हें मुझसे यह माँगने का पूरा अधिकार भी है। पर जो मेरे पास नहीं है, मेरे वश में नहीं है, वह मैं उन्हें कहाँ से दूँ ? अब तो मुझे दृढ़ विश्वास हो चला है कि यदि उन्हें उनका इच्छित मिल जाए तो भारतीय परम्परा का अनुसरण कर सब कुछ अपनी संतान को सौंपकर तप करने हिमालय चले जाएँगे। जब-जब वे अपनी इस आकांक्षा की अति पर पहुँचे हैं, मेरी इच्छा हुई है कि उन्हें किसी मनोचिकित्सक को दिखाकर उनकी मनोग्रंथि को समझूँ।
-पहले मुझे स्वयं से हिकारत होती थी। आखिर मैं क्या हूँ, विकी के लिए, सिर्फ एक माध्यम भर ? मानती हूँ, माध्यम का भी महत्त्व होता है। मेरा भी, उनकी दृष्टि में सिर्फ इतना भर ही महत्त्व रहा है। पर क्या हमारा सम्बन्ध इतना भर ही है ? एक स्त्री की, एक पत्नी की अपने पति से अपेक्षा क्या कोई अर्थ नहीं रखती ? कोई ऐसी स्त्री भी है या आज तक हुई है जो अपनी पूर्णता नहीं चाहती ?...पर पुरुष कभी अपनी पत्नी को साथ लेकर नहीं सोचता। वह अपनी इस लालसा को इतना फूहड़ बना देता है कि स्त्री अपमानित अनुभव करने लगती है। मैंने भी अपने को कई-कई बार अपमानित अनुभव किया है। पति-पत्नी के रूप में हमारे बीच एक सहज, आत्मीय और प्रगाढ़ सम्बन्ध विकसित होना था, वह हो नहीं पाया। होता भी कैसे, साधन, साध्य कैसे हो सकता है भला ? हो ही नहीं सकता।
-इक्कीस साला सफर का एक ‘ओएसिस’-कितने खुश थे विकी उन दिनों, जैसे सारी मुरादें पूरी होने जा ही रही हों। उनके लिए सारी मुरादों का अर्थ था-‘एक ही मुराद’। उन्हें समझ में ही नहीं आता था वे क्या करें, क्या न करें। एक जुनून सा सवार था उन पर। वे जितना खुश थे, मैं उनके लिए उतनी ही चिन्तित थी। मेरी चिन्ताओं को वे आने वाले ‘खास दिनों’ की चिन्ता समझ रहे थे। क्या बतलाऊँ मेरी चिन्ता से भी वे खुश थे, जब कि मेरी चिन्ता वैसी नहीं थी जैसी वे समझ रहे थे। मैंने कहा था-
-विकी पागल मत बनो। थोड़ा इंतजार करो। जैसा तुम समझ रहे हो अगर वैसा ही है और मैं भी चाहती हूँ कि वैसा ही हो, तो भी अपनी खुशियों को सही समय के लिए सहेज रखो।
पर विकी तो जमीन से तीन इंच ऊपर चल रहे थे। कितने-कितने मंसूबे बाँध रहे थे। कितनी-कितनी योजनाएँ बना रहे थे। मित्रों और आत्मीयजनों के लिए उनकी यह उत्फुल्लता अचरज का विषय थी। लोग जान गये थे। लोग जान रहे थे। कितनों-कितनों से वे क्या-क्या वादे किए जा रहे थे। मुझ पर हर तरह के प्रतिबंध लागू हो गए थे-क्या खाओ, क्या न खाओ। कितना आराम करो, कितना घूमो-काम करो। क्या सोचो, क्या न सोचो। मैं खुश थी चलो विकी तो खुश हैं। मेरे लिए अब उनके पास फुरसत ही फुरसत है। ढेर सारी किताबें खरीद लाये विकी, कुछ मेरे लिए भी कुछ अपने लिए भी। मैं तो नहीं पर वे उन किताबों में खो गए। जो किताबें मेरे लिए थीं वे भी उन्होंने पढ़ डालीं। चलो ! माध्यम भी महत्वपूर्ण हो गया।
...पर जब तक भ्रम है, सुख भी तब तक ही है। भ्रम के टूटने पर सुख की तीव्रता की अपेक्षा दु:ख की तीव्रता कहीं अधिक होती है। विकी का भ्रम भी एक दिन टूट गया। विकी की उड़ान भी ऊँची थी और अनियंत्रित भी इसलिए ‘दुर्घटना’ भी भीषण ही हुई। मैं अपराधिनी हो गई। मैंने ही तो उन्हें भ्रम दिया था। भ्रम को तो विकी ने महत्व दिया पर मेरी चेतावनी पर उन्होंने जरा भी तवज्जो नहीं दी। यदि वे तवज्जो देते तो दुर्घटना इतनी भीषण नहीं होती। कुल मिलाकर वे अपने मित्रों-आत्मीयजनों को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे और न मैं विकी को मुँह दिखाने लायक रही। आत्मग्लानि के चरम क्षणों में एक बार तो मैंने सोच लिया कि विकी के लिए रास्ता ही साफ कर देना चाहिए, पर इस कार्य को करने के लिए जिस साहस की आवश्यकता अपेक्षित होती है, वैसा और उतना साहस मुझ में नहीं है। उस जीवट के लोग अलग ही होते हैं। मैं मर नहीं सकती। मैं चाहकर भी मर नहीं जाऊँगी। विकी के लिए कभी भी रास्ता साफ हो नहीं पाएगा। आई कांट हेल्प...तभी एक दुष्ट विचार मेरे मन में आया-क्या विकी को पितृत्व प्रदान न कर पाने के लिए सिर्फ मैं ही दोषी हूँ ? छि: ! कितना गन्दा और ओछा ख्याल मेरे दिल में आया था। घृणित ही नहीं बल्कि अश्लील भी ! पर सच कहूँ इस विचार के बाद मैं मानसिक थकान से हमेशा के लिए मुक्त हो गयी।
...इस हादसे के बाद विकी पूरी तरह से टूट गये। विकी की परेशानी दोहरी थी। घने अंधकार और घोर निराशा के बीच रोशनी की लकीर का उन्हें जो भ्रम हो गया था, इस अँधेरे में सहारे का जो भ्रम हुआ था, उस भ्रम के टूटने पर उनके जीवन का अंधकार और प्रगाढ़ हो गया। मित्रों के बीच वे हास्यास्पद हो गये। वे तरह-तरह के तानों और गन्दे चुटकुलों के केन्द्र में होने लगे। ऐसे में उन्हें एक आत्मीय सहारे की आवश्यकता थी। मैं हो सकती थी उनके लिए वह सहारा; पर वे तो मुझे ही दोषी मान रहे थे, तो मेरा सहारा वे कैसे पाते ? मैं फिर भी उनके लिए कुछ करती, उनकी तकलीफ में हिस्सा बँटाती, पर मुझे लगा मेरा अपनत्व इन क्षणों में उनके लिए और त्रासद हो जाएगा। स्थितियाँ और भी जटिल हो सकती थीं। दुर्भाग्य से यदि हो गया तो मेरा दोष और बढ़ जाएगा। सोचिए ! इन्हीं परिस्थितियों में क्या मुझे सहानुभूति की आवश्यकता नहीं थी ? पर मुझे कौन देता सहानुभूति ? मेरे बारे में सोचता भी कौन ? विकी ने अपने सपनों में मेरे सपने कभी सम्मिलित ही नहीं किए, बल्कि अपने सुख-दु:ख का उन्होंने तो मुझे शत्रु ही माना। आप ही बतलाइए, यह विकी की ट्रेजडी है या मेरी ? विकी की ट्रेजडी से मेरी यह ट्रेजडी क्या छोटी है ? पर यह सब विकी को समझाता भी कौन ? इस हादसे के बाद हम दोनों के बीच एक रेखा-सी खिंच गई। एक डेंजर लाइन, जिसे पार करने का साहस हम दोनों में से कोई नहीं कर पाया। इस सीमा में बद्ध होकर हम कभी एक-दूसरे के सुख-दु:ख में आत्मीयता से सम्मिलित नहीं हो सके। हमारे बीच जो दूरी निर्मित हो गई थी वह कम नहीं हो सकी। हम जी रहे थे पर अपनी-अपनी सीमाओं में, यही जीने की शर्त थी। लोग हमें तब भी सुखी ही समझ रहे थे। पर हमारे जीने की बाध्यता कितनी दारुण थी!
यह था हमारे इक्कीस साला सफर का ओएसिस। शायद हर यात्रा, हरएक की यात्रा ऐसी ही तपन भरी होती है। हरएक के पाँवों में छाले और बिवाइयाँ होती हैं। हरएक की यात्रा में ओएसिस मिलते हैं और पीछे छूट जाते हैं। यात्रा में भ्रम भी निर्मित होते हैं और ये टूटते भी हैं। आदमी चलता है, लड़खड़ाता है, गिरता है और फिर उठ खड़ा होता है। नई चोट सहलाता है और पिछली चोट भूल जाता है। इसी तरह जिन्दगी का सफर जारी रहता है। सबसे मजेदार तो यह है कि सहयात्रा में अपने-अपने रास्ते पर चलते हुए दूसरों की यात्रा झील-झरने के किनारे-किनारे जाती हुई पगडंडी की सुखद यात्रा लगती है जिसमें हिमानी शिखर को छूकर आती ठंडी हवाएँ हैं, वन-फूलों की तीखी गन्ध है, हरे जंगल, खुला आकाश और एक मनोरम दृश्य है अर्थात् पूरा एक कल्पनालोक। पर यह कल्पनालोक सिर्फ खयालों में ही होता है। हरएक जीवन-यात्रा या तो तपते रेगिस्तान में होती है या यह हिमांधियों के बीच भटकता दिशा-भूला सफर होता है। दूसरे ही क्यों, हम भी तो दूसरों की यात्रा की ऐसी ही रूमानी कल्पना करते हैं। यों यह ईर्ष्या का भाव भी आवश्यक है जीवन में वर्ना कोई स्पर्धा ही नहीं होगी परस्पर और सफर बेमजा हो जाएगा।
..इसके आगे पुस्तक में देखें..
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