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मुक्ति

अखिलेश तत्भव

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3056
आईएसबीएन :9788170557418

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अखिलेश का एक और रोचक कहानी संग्रह

Mukti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अखिलेश की कहानियों में चरित्र भी हैं। ये चरित्र कुछ कहानियों में एक हद तक कुछ धारणाओं के ‘पर्सोनिफिकेशन’ तो लग सकते हैं, लेकिन कहानी पढ़ते हुए वे धीरे-धीरे रोचकता और जीवंतता से भर उठते हैं। ‘बड़ी अम्मा’ कहानी पढ़ते हुए गोर्की की ‘मदर’ की हल्की-सी याद आती है और कहानी का अंत एक तरह से नियंत्रित अंत लगता है लेकिन अपने समूचे प्रभाव में यह कहानी इधर की दर्जनों चर्चित कहानियों से ज्यादा सशक्त कहानी सिद्ध होती है।

इस संग्रह की कहानियों का उल्लेख एक और वजह से भी किया जाना चाहिए। अखिलेश की कहानियों में ‘प्रेम’ किसी रुग्ण मानसिक विलासिता या टटपुँजिया रोमांटिकता से भिन्न ठोस सामाजिक जमीन पर खड़ा हुआ एक वास्तविक मानवीय संबंध है। किसी मामूली क्लर्क के बेरोजगार बेटे द्वारा एक बड़े इंजीनियर की बेटी से किया जाने वाला प्रेम अपने मार्मिक, हास्यास्पद और विडंबनामूलक अंत के लिए अभिशप्त है। यहाँ न तो प्रेम को लेकर किसी भोगवादी-आनंदवादी ‘चटखारिता’ का गदगद प्रस्तुतीकरण है, न एक मामूली औसत प्रेम का अपार गौरावान्वीकरण अखिलेश की कहानियों में प्रेम नयी कहानी, अकहानी और प्रगतिवादी कहानी की रूढ़ धारणाओं से मुक्त है। जहाँ प्रेम उतना ही वास्तविक, आलोच्य और वर्गाश्रित है, जितनी कोई भी और चीज। ‘मुहब्बत’ और ‘घालमेल’ जैसी कहानियाँ इसका उदाहरण हैं।

‘मुक्ति’ पिछले दिनों में आया एक ऐसा कहानी संग्रह है जो समकालीन कहानी में अंधकार देखने वाले आलोचकों की आँखों में ‘आर्क लाइट’ की तेज रोशनी डाल सकता है। भले ही उस चकाचौंध में उन्हें कुछ देर फिर से कुछ न दिखाई पड़े।


हाकिम कथा

पुनीत ने तलाक़ क्या दिया, गायत्री काफ़ी कुछ बदल गयी। जैसे कहाँ वह पौधों से बेहद लगाव रखती थी, पर अब उसके पास फटकती भी नहीं। उसे भ्रम होता पौधों में कोई हरा साँप हिल रहा हैं। साँप का ही भय नहीं, वह अपनी चारपाई दीवारों से एक हाथ दूर रखती, छिपकली न गिर पड़े। कभी-कभी वह सारी सामीएं तोड़ देती, गर्मी न पड़ने पर भी आंगन में सोती कि कहीं कमरे की छत न गिर न पड़े। दिन में वह अकेली रहती और यही सब सोचती। दिन में भी चैन नहीं था।

पुनीत ने उसके दो चिढ़ाने वाले नाम रखे थे- गेंद और ग्रामोफ़ोन। ये नाम प्यार के दिनों की सर्जना थे। गायत्री उछलती कूदती ख़ूब थी, इसलिए गेंद, और बातूनी भी कम नहीं, इसलिए ग्रामोफ़ोन।
लेकिन अब उछलना-कूदना और बातूनीपन, सब ग़ायब हो गए थे। सभी का ख़्याल रखने वाली गायत्री को अब किसी से, यहाँ तक कि अर्पणा और संध्या दोनों बेटियों से भी लगाव नहीं रहा। वह मकान और उसके भीतर के क़ीमती सामानों के लिए ही चिन्तित थी।

तलाक़ हो जाने पर पुनीत गायत्री को इन चीज़ों से बेदखल करना चाहते थे लेकिन उस दिन गायत्री को विषाद ने इतना पवित्र, निश्छल और सुन्दर बना दिया था कि पुनीत के सामने प्रेम के पुराने दृश्य कौंधने लगे और भावुकता में उन्होंने गायत्री को यह सब उपहार दे दिया। मकान, सामान और दो बेटियाँ सौंपकर वह ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये थे।

बेटियाँ भी बाप पर गई थीं। वैसा दिमाग़ और वैसी ही आत्मा। गायत्री महसूस करती शुरू से ही दुनिया में अँधेरा रहा है। यह सही था। दुनिया क्या, खुद उसकी ज़िन्दगी में कभी उजाला था। उसने और पुनीत ने प्रेम-विवाह किया था।

पुनीत एक ज़िलाधिकारी की संतान थे। जिसने ग़ुलाम और आज़ाद दोनों ही सूरतों में भारत सरकार की सेवा अच्छे-बुरे सभी तरीकों से निष्ठापूर्वक की थी। गायत्री अपने पिता की इकलौती संतान थी। बाप ने बनियान के कारोबार में अतुल धनराशि अर्जित की थी। पुनीत ने इस धन के कारण गायत्री से प्यार नहीं किया था। धन नहीं होता। तब भी वह गायत्री से प्यार करते। इतना ज़रूर है कि धन ने उनके प्रेम को टिकाऊ बनाया था, उनमें गायत्री से विवाह करने का लालसा पैदा की थी सोलह साल की गायत्री का विवाह धूमधाम से हुआ।  
पर समय ने पुनीत के साथ बड़ा मज़ाक़ किया। इधर विवाह किया और उधर गायत्री की माँ ने गर्भधारण किया। समय आने पर गोल-मटोल गोरा-चिट्टा सुपुत्र पति को सौंप दिया, पुनीत के सपनों की इमारत चूर-चूर हो गई, उन्हें लगता गायत्री ने उनके साथ धोखा किया है। उसका दिल गायत्री से उखड़ गया।

लेकिन बेटी देकर गायत्री ने पुनीत से क्षमादान पा लिया था। लगभग दो घंटे शब्दकोश देखकर पुनीत ने बेटी का नाम रखा था अपर्णा। दूसरी बेटी हुई संध्या। फिर तलाक़ ही हुआ।

जाड़े का मौसम था। गायत्री के आँगन से धूप का आखिरी टुकड़ा भी खिसक गया। वह बुझे मन से भीतर आई रजाई लपेटकर आराम से लेट गई। एक अजीब-सी गंध से भरने लगी वह। रजाई के भीतर आते ही उसे पास पुनीत की अनुभूति होने लगती थी। अचानक वह भय से सिरह गई। हमेशा ऐसा ही होता रजाई उसे मादकत की नदी में डुबोकर खौफ़ की झाड़ी में फेंक देती थी। वर्तमान का अहसास ख़ौफ की झाड़ी ही था उसके लिए। वह रजाई से डरती थी, लेकिन उसे छोड़ना भी नहीं चाहती थी।
इसी सप्ताह पुनीत का जन्म दिन था। बेटियाँ जाने की ज़िद कर रही थीं, उसका भी मन था, बेटियाँ पिता से मिल आएँ। वैसे उसके न चाहने पर भी कौन रुकनेवाले था। रजाई के भीतर गायत्री का दिल डूबने लगा। बेटियाँ पुनीत की दूसरी बीवी मंदिरा को अपनी माँ बतलातीं। मंदिरा उन्हें लंबे-लंबे भावुक पत्र और क़ीमती सामन भेजकर इस रिश्ते को मजबूत बनाती, क्योंकि वह डरती थी, लड़कियाँ कहीं फिर गायत्री और पुनीत के बीच पुल न बन जाएँ। उसकी रणनीति थी कि बेटियों और गायत्री के बीच दूरी बढ़ती रहे।

गायत्री बेचैन हो गई। उसे गर्मी-सी लगने लगी। वह रज़ाई से बाहर आ गई। लेकिन बेचैनी का क्या करें ? वह आँगन में पहुँचकर चहल-कद़मी करने लगी। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। पास के कमरे में आकर सोचने लगी, ‘‘पुनीत को जन्मदिन पर क्या उपहार भेजा जाएं ?’ महँगा सामान भेजकर साबित कर दे कि वह किसी से कम नहीं। या कोई मामूली चीज़ भेजकर वह दिखलाए कि उसे पुनीत में कोई दिलचस्पी नहीं, या कुछ भी न भेजकर उसके गालों पर तमाचा जड़ दे। उसे वे ज़्यातियाँ याद आने लगीं, जिसके कारण उसे पुनीत से घृणा हुई थी। और जिन्हें अस्वीकार करने पर पुनीत से उसे उसके संबंध बिगड़े थे। पुनीत उसकी शालीनता और भोलेपन पर रीझे थे और उन्हीं की वजह से उन्होंने संबंध तोड़ा।

पुनीत को जल्दी-जल्दी प्रमोशन मिले थे। क्लब, पार्टियाँ वगै़रह उनके लिए हवा-पानी की तरह ज़रूरी हो गए। वह दूसरों की बीवियों पर रीझने लगे चाहते, दूसरा भी उनकी बीवी पर रीझे। किसी सहकर्मी,  अफ़सर को गायत्री का सान्निध्य देकर उसकी लिप्सा को जगाते फिर हटा लेते। इस खेल में वे असीम  आन्नद का अनुभव करते थे। लेकिन बड़े अफ़सरों के लिए वे उदार थे। इतना की गायत्री की अनुदारता उन्हें काट खाती थी।

गायत्री नारीसुलभ गालियाँ देते हुए थककर कुर्सी पर बैठ गई। अहसास हुआ कि अब तक कल्पना की दुनिया में थी। पर अभी उसकी घृणा खत्म नहीं हुई। उसका चेहरा लाल होने लगा और वह फिर कल्पना की दुनिया में खो गई ‘‘मुझे डांस नहीं आता था...चिपटना-सटना नहीं आता था.....’’

पोस्टमैन की आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी। बेटियों के आने का वक़्त हो गया था। वह उठ खड़ी हुई। अर्पणा के कमरे का चादर ठीक करने लगी। उसे लगा पायल बज रही है। उसने अपने को पायल की रुनझुन को पकड़ने में व्यस्त कर लिया। इस पायल पर एक विशेष ध्यान देती थी। गोया यह बताना चाहती थी कि पुनीत का स्थान अब उसके पैरों में है। उसका दिल थोड़ी देर पायल की आवाज़ पकड़ने में लगा रहा, फिर वह पानी लाने के लिए बोली। नौकरानी पानी लेकर आई, तो वह अलमारी में लगी किताबें गिन रही थी। घूँट भर पानी मुँह में रखकर चबाने लगी जैसे बच्चे खेल-खेल में करते हैं। इस काम में मन लगाने की कोशिश कर रही थी पानी लगे के नीचे उतर गया। वह नाखून कुतरने लगी। कुछ देर कुतरा होगा कि बाहर से लेटरबाक्स खुलने की आवाज़ सुनाई पड़ी अपर्णा थी।

छोटे क़द अच्छे-नाक-नक्श की अपर्णा गोरी, कुलीन और होशियार थी। वह भाँति-भाँति के कपड़े पहनती थी। डाक टिकटों का संग्रह करना उसकी हॉबी थी। युनिवर्सिटी से आकर घर में घुसने के पहले उसने लेटर बाक्स का ताला खोला। एक साइंस की पत्रिका थी, जिनका चन्दा उसके पापा ने जमा किया था और जिसे वह कभी नहीं पढ़ती थी। उसने डाक लेकर ताला लगाया। वह चाहती थी। माँ को उसकी चिट्ठियाँ कभी न मिले और माँ की हर चिट्ठी की जानकारी उसे हो। इस प्रबंध के लिए वह डाकिया प्रतिमाह पन्द्रह रुपये देती थी।
घर में आकर उसने किताबें फेंक दीं और बिस्तर पर गिर पड़ी। उसकी भवें सिकुड़ गयीं,’’ चादर महक रहा है,’’ आवाज़ में व्यंग्य था।
उसकी बात को अनसुनी करते हुए गायत्री कमरे के बाहर आ गयी। जाते ही संध्या पहुँची। वह युनिवर्सिटी से जल्दी लौटती थी।

संध्या की इच्छा हुई कि वह भी बिस्तर पर गिर पड़े  लेकिन यह अपर्णा का बिस्तर था। उसे अपनी इच्छा दबानी बड़ी। दोनों बहनों के बीच विशेष यह था कि अपर्णा संध्या को तुच्छ समझती और संध्या अपने को वैसा महसूस भी करती, क्यों क़द में छोटी होने के बावजूद अपर्णा उससे अधिक सुंदर थी।

क़द की कमी से भी कभी-कभी अपर्णा को बहुत दुख होता था। लेकिन अपने को यह दिलासा देकर संतोष कर लेती कि नई फ़िल्मी नायिकाएं भी कुछ ख़ास लंबी नहीं। फिर रामबाण ऊँची हीलवाली चप्पलें तो कहीं गई नहीं थीं।
नौकरानी दोनों के लिए काफ़ी रख गई अपर्णा ने संध्या से कहा तू अपनी काफ़ी उठाकर अपने कमरे में जा।’’

एकान्त पाकर अपर्णा ने अलमारी से परीक्षित की तसवीर निकाली और ग़ौर से देखने लगी। परीक्षित कुछ दिन पहले तक उससे मूक प्रेम करता था। और उसे देखकर कभी पसंद नहीं आया था। लेकिन समय की ताकत, वह आई.पी.एस. अफ़सर बनने वाली परीक्षा में पास हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अपर्णा को उसका प्रेम अर्थवान लगने लगा। अपर्णा ने यह भी गणित लगाया कि सुंदरता की दृष्टि से उसकी लम्बाई परीक्षित से बहुत ज्यादा है, इसलिए वह दबेगा। आई. पी. एस. पति दबेगा। वह अपने सामने दरोग़ाओं को एड़ियाँ उठाकर जयहिंद बोलते हुए देखने लगी। उसने परीक्षित की तसवीर अलमारी में उझाल दी और खुद मंसूबों के कुलाबे भरने लगी।
वह देर तक बेखुदी में रहती लेकिन गायत्री की आवाज़ ने दिक्कत पैदा कर दी। वह नौकरानी से कह रही थी कि अपर्णा के मन की सब्जी पूछ ले, तब बाज़ार जाए।

नौकरानी आई, तो अपर्णा झुंझला उठी। मगर वह फ़ैशन को जड़ से जज्ब कर चुकी थी। वह जानती थी कि झुँझलाहट में चेहरा ख़राब हो जाता है इसलिए उसने ज़बान पर रख लेना चाहिए, ‘‘सभी मम्मी लोग अपने बच्चों की पसन्द जानती है लेकिन मेरी मम्मी भई वाह ! क्या कहने  हैं...’’

नौकरानी के चेहरे पर रीझ की रेखाएँ उभर आईं। वह झोला झुलाती हुई चली गयी। गायत्री अकेली हो गई। अपर्णा के व्यंग्य से पैदा हुई तिलमिलाहट से भरी थी वह। यकायक उसमें प्रश्न कौंधा, किसलिए जीवित है ‍‍? उसे लगा इस संसार में कोई नहीं। और बड़ी गहराई तक डर गई।
अजीब बात थी एक तरफ उसमें अकेलापन का ज्वार-भाटा तेज़ हो रहा था, दूसरी तरफ़ भीतर पुनीत और बेटियों के साथ बीते हुए सुखद दृश्यों की बरसात भी ज़ोरों पर थी। बादलों में बिजली की तरह माँ-बाप की स्मृतियाँ चमकती-बुझती थीं।
पुनीत नायक और खलनायक दोनों की तरह याद आ रहे थे, कभी-कभी चेहरे का एक हिस्सा नायक और दूसरा खलनायक की तरह लगता। धीरे-धीरे सब कुछ गड़मड़ हो गया। उसे लगने लगा, पुनीत उसके लिए सिर्फ़ पति हैं।

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