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चौधरी साहब

भीष्म पितामह

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :505
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3052
आईएसबीएन :81-8143-009-3

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इस उपन्यास में स्वरूप और शिल्प के अलावा पूरी देहाती भाषा का वर्णन है...

Chaudari Sahab

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘सारा समाज बदल गया, सारे माहौल में उलटफेर हो गया, ऐसे में हमारा गाँव क्यों पीछे रह सकता है, बल्कि इसे तो सारे इलाके का रहनुमा होना चाहिए। देश में लोकराज भले ही आजादी के बाद आया हो, मगर हमारे गाँव की तो नींव ही लोकलाज और भाई चारे की बुनियाद पर पड़ी हुई है।..हर किसी की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझा गया है, भले ही वह किसी भी जात-बिरादरी की हो..यह ऊँच नीच की बात सब ढ़ोंग ढकोसला है। ...जात कभी नीच नहीं होती, नीच होती है आदमी की करतूत...कोई चोरी जारी करे तो वह नीच है और खून पसीने की कमाई खाने वाला भी नेक है।...जब हम एक-दूसरे पर मुनस्सर हैं तो छोटे बड़े कैसे हुए ? मसलन हमारे शरीर में अलग-अलग अंग हैं और उनका काम भी अलग-अलग है।..हर अंग एक-दूसरे पर निर्भर करता है, एक-दूसरे का पूरक है, एक के बिना दूसरा अपाहिज हो जाता है, लेकिन लोभवश हमारी जहनियत ही ऐसी खोटी हो गई है कि किसी बहाने हम सभी सहूलियतों को सिर्फ अपने तक सीमित रखना चाहते हैं। अगर यह बात न हो तो आपकी बिरादरी के मंत्र के घर खाना खाने और उसे अपने घर दावत पर बुलाने की खातिर बड़े-बड़े सेठ-साहूकार और ठाकुर-ठिकानेदार न्यौता लेने और देने की बाट क्यों जोह रहते हैं ?

पुरोवाक्

प्रस्तुत उपन्यास के महत्वपूर्ण पात्र चौधरी नारायण सिंह मैट्रिक फेल हैं, शायद इसीलिए वे वाद-विवाद की विचार-सरणियों से नहीं जूझते। लेखक यद्यपि सुशिक्षित है किन्तु वह भी पात्रानुसार अनजाने या जानबूझकर नए मुहावरे में नए सवालों से टकराए बिना निकल जाता है और इस वृहदाकार कृति के प्रत्येक पन्ने पर सीधी देहाती समझ से लोहा लेता है। वचन का मोल, छोट-बड़े की तहजी़ब, आँख का पानी ... यही ‘चौधरी साहब’ के प्रेमचन्दी सद्-गुण हैं तो अपने ग्रामीण यथार्थ में मानवीय दुर्गुणों को भी रेखांकित करने में वे नहीं चूकते। इस मामले में यह उपन्यास केवल स्वरूप और शिल्प में ही नहीं वरन् अपनी पूरी अपील में देहाती है; आंचलिक है।

         ‘चौधरी साहब’ का हर पन्ना पाठक को ठण्डी बयार-सा लगता है। हिन्दी साहित्य को लगातार और हाल तक पढ़ रहे पाठकों को तो यह ‘नॉस्ताल्ज़िक’ पीड़ा दे सकता है। कारण ? इस उपन्यास में कोई विवाहेत्तर सम्बन्ध नहीं, सत्य की क्षणभंगुरता का याथार्थ नहीं, शब्द का साथ छोड़ते अर्थ का संकट भी नहीं, कोई है तो सीधे-साधे चौधरी साहब ! इनकी भी प्रगतिशीलता और सीधापन देहाती गुड़ की चाशनी में पगे शक्करपारे हैं। बेटी का जन्म चौधरी साहब की खुशी की इन्तहा है, आज के असंतुलित और रूढ़ समाज वालों की तरह मातमी धुन नहीं ! स्त्रीशिक्षा के वे पक्षधर हैं किन्तु ऐसे कि तथाकथित फेमिनिस्टों की भृकुटियों पर दबाव बढ़ा दें। यही इस रचना की विशेषता है। यह नए आलोचकों का ‘वाटरलू’ है।
         हिन्दी उपन्यासों में आंचलिकता का श्रेय मेरीगंज, बावनदास, कालीचरण.... और इस संरचना को निबद्ध करने वाले मसिकर्मी रेणु को है। किन्तु आंचलिकता ने एक लम्बी दूरी तय की है। वह इसलिए भी कि शहर और गाँव के बीच जहाँ जीवन-शैली की भिन्नताएँ कम हुई है वहीं विचार-सारणियों का अन्तराल बढ़ा है। ‘चौधरी साहब’ यदि ठेठ आंचलिक कृति है तो इसलिए नहीं कि चौधरी नारायण सिंह गाँव में बसते हैं वरन् इसलिए कि भीष्म पितामह शहर और उसके नामवरों की सिरे से उपेक्षा कर गाँव की ओर मुख़ातिब हैं—यह जानते कि गाँव ही भारत है और उनके प्रति उदासीन रहकर सिरमौर भारत नहीं बनाया जा सकता। इस उपन्यास की एक और खासियत यह भी है कि आलोचना के मानदण्ड तय करने की सुविधा वे आलोचक को नहीं हथियाने देते। साहित्यिक दलाली को मुँह चिढ़ाती यह कृति खालिस ‘कटिंग एज’ साहित्यिकता है।

         सीमा और धीरज इस सुखान्त रचना के नायक-नायिका हैं, किन्तु वे कुछ नियंत्रित नहीं करते। कथानक में धीरज धीरज धरता है और सीमा सीमा में ही रहती है। और फिर, देहाती मूल्य-विधान इनसे शायद इतनी ही अपेक्षा रखता है। रचना में व्यावहारिकता हर पृष्ठ पर पाखंड और आदर्शवादिता से लोहा लेती है और विजयी भी होती है। घूसखोरी, जातिवाद, रूढ़िबद्धता सबका थोड़ा-थोड़ा स्वीकार है। सिरे से किसी को नकारा नहीं गया। शायद इसी से उपन्यास इतना स्वभाविक बन पड़ा है। पात्रों की गति सहज है। उन्नति की ओर भी पतन की ओर भी। शिखरोन्मुख पात्र सहजता से शिखर पर पंहुचते हैं तो पतनोन्मुख पात्रों का पतन भी अस्वाभाविक नहीं जान पड़ता। जटिलता के शोधन और तनाव की प्रक्रिया में भी लेखक आद्यन्त इस सहजता को बनाए रखता है।

         अपनी प्रथम रचना में अक्सर लेखक आलोचकीय एवं पाठकीय रियासत की अपेक्षा रखते हैं किन्तु ईमानदार पाठ में इस रियासत का कोई अवकाश नहीं होता। मुझे कोई सन्देह नहीं कि ‘चौधरी साहब’ को इसकी आवश्यकता भी नहीं—बशर्ते यह विद्यमान आलोचकीय मानदण्डों पर सराहे जाने के संवरण कर सके। यह उन मानदण्डों के अनुरूप लेखन नहीं है। यह उनसे टकराता, उन्हें चुनौती देता, उनका चौधराहट की पोल खोलता लेखन है। इसमें कोई वाद नहीं, प्रतिवाद या उत्तरवाद का भी अवकाश नहीं। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर बसी यह वैचारिक आंचलिकता दिल्ली से दूर है और इसीलिए यह वह है जो यह है.....।

         वैसे भी, अन्त में एक बात और ! हरियाणा में साहित्य और संस्कृति की चार-पाँच अकादमियों के होने के बावजूद हरियाणवी बोली में साहित्य-सर्जना का काम अधिक नहीं हुआ है। राजकीय स्तर पर हरियाणा की संस्कृति, लोककथाएँ, इतिहास, लोकगीत, स्वांग और लोकोक्ति-मुहावरों पर तो काम हुआ है लेकिन सर्जनात्मक स्तर पर इस जरखे़ज भाषा में उपन्यास, नाटक, कहानी, एकांकी आदि विधाओं पर समर्थ कलम उठाने वाले लेखक कम ही देखने को मिलते हैं। शायद यही वजह है कि हरियाणवी भाषा को ‘लठ्ठमार भाषा’ का तमग़ा देकर हिन्दी-परिवार उसे सर्जनात्मक स्तर पर अपनाने में तीन-पाँच कर रहा है। भीष्म पितामह के इस उपन्यास को पढ़कर शायद यह भ्रमजाल टूटे, ऐसी आशा की जानी चाहिए।

श्री गणपति !


आया है शरण तुम्हारी, एक मूर्ख और नादान !
आनन्द जगत् को दे सके, यह वर दीजे कृपानिधान !!

अपने प्रिय भतीजे दीपक की याद में ...
अपने पिताजी स्व. चौधरी हरदेवा राम कसवाँ को
सादर समर्पित।


प्रकृति विज्ञान का एक ऐसा अक्षय वट है, जिसकी एक-एक डाल विद्या का विश्वकोष है, जिसका प्रत्येक पत्ता ज्ञान और चेतना का आगार है, जिसके कोने-कोने से जीव जगत् के कल्याण हेतु अमृत के स्रोत फूटते रहते हैं। इस जीवन धारा के सतत चलते रहने का नाम ही परिवर्तन है। इस परिवर्तन को स्वयं के पक्ष में ढालने, उससे अधिकाधिक समाज का हित साधने का नाम ही जीवन-संघर्ष है और यह जीवन-संघर्ष न केवल प्रकृति का नियम ही है, अपितु प्रगति की पहली शर्त भी है। अर्थात जो प्रकृति के अधिक अनकूल है, उस के साथ सामंजस्य स्थापित कर लेता है, वही सफल है, सिकंदर है।

         वैसे भी स्थिर एवं गतिहीन जीवन काई से आच्छादित पोखर के समान है, जिसे परिवर्तन रूपी पानी से पखारा जाता है। समुद्र के स्थिर पानी की अपेक्षा नदियों की कल-कल करती जलधारा कितनी आनंददायी एवं पवित्र होती है। जीव-जन्तु आते रहते हैं, जाते रहते हैं, जीवन का क्रम चलता रहता है। इसी क्रम को आगे बढ़ाने, जीवन को नये-नये एवं नाना रूप और आकार प्रदान करने के लिए दिन-रात बदलते हैं। हवापानी और हालात बदलते हैं। मौसम में परिवर्तन आता है और उसी के साथ फूल और पात भी अपनी नई और निराली छटा लेकर आते हैं तथा मानव जीवन को आनंद और उल्लास से भर देते हैं।

कभी के दिन बड़े, कभी की रात। अर्थात् मानव का सामाजिक और भौतिक जीवन एक-सा नहीं रहता, उसमें भी बहुत उल्ट-फेर होते हैं। रेगिस्तान खूबसूरत और लहलहाते खेतों में परिवर्तित हो जाता है, उर्वर एवं हरा-भरा भू-भाग बंजर में बदल जाता है। कभी जहाँ अकाल एवं भुखमरी अपने शिकार खोजती रहती थी, वही धन-धान्य और वैभव का बोल-बाला हो जाता है। महाप्रलय भी एक सुंदर और समृद्ध युग का सूत्रपात कर देती है। मनुष्य की दशा एवं अवस्था में भी ज्वार-भाटा आता रहता है। कभी व्याधियों के भँवर में घिर जाता है, कभी शौर्य के उत्कर्ष पर पहुंच जाता है। उम्र कैदी के माथे पर ताज सुशोभित होने लगता है, नरेश के नसीब को फाँसी के तख्ते पर जाकर दम तोड़ना पड़ता है। भूमिहीन प्रसाद में विहार करने लगता है, भूपति दो गज धरती के लिए मारा-मारा फिरता है। भिखारी धन्नासेठ बन जाता है, भामाशाह का बम बोल जाता है। कभी जिसके नाम से सारा भू-मंडल थर्राने लगता था, वही रणबाँकुरा अपने हाथों में जन्मे शिशु के आगे शीश झुकाकर प्राण-रक्षा के लिए बुरी तरह से गिड़गिड़ाने लगता है। कभी-कभी तो कुदरत ऐसे-ऐसे रंग बदलती है कि व्यक्ति भौंचक्का रह जाता है।

         पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के संगम के इर्द-गिर्द का लंबा-चौड़ा भू-भाग स्वतंत्रता के सुप्रभात तक एक मरूस्थल ही था। जल नहीं था तो जन की संख्या भी थोड़ी थी, किंतु समय ने अंगड़ाई ली और लोगों के भाग्य का सितारा चमका तो दरिद्रता के दलदल में धंसा यह इलाका आज देश के लिए अन्न-धन के भंड़ार के रूप में उभरकर सामने आया है। कभी मरीचिका का पर्याय माने जाने वाले टीलों से अमृत धारा बहने लगी है, कांसे-पीतल के बर्तन-भाँड़ों को माजने के काम में आने वाली बालू सोना-चाँदी उगलने लगी है। कभी जहां हवा के हलके-से झोंके से आदमी को अन्धा कर देने वाली काली-पीली आँधी उमड़ उठती थी, वहीं अब मन को मुग्ध कर देने वाली सौंधी-सौंधी समीर चलती है। कभी जहाँ उल्लू बोलते थे, अब कोयल कूकने लगी है। हरित-क्रांति के फलस्वरूप धरती पर उतर आए स्वर्ग के कारण लोगों की सोच और जीवन-शैली में आए परिवर्तन ने नई-पुरानी मान्यताओं के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर दी है। इस नशीली हवा से अपने को कोई भी अछूता नहीं रख पाया है—बहुत गहरी और पांरपरिक जड़े होते हुए भी। यों तो मानव-स्वभाव, और सोच तथा उसके क्रियाकलाप सारी पृथ्वी पर ही एक समान हैं, किंतु क्षेत्र-विशेष की अपनी विशेषताएँ होती हैं।

         रामगढ़ का चौधरी परिवार।
         चौधरी परिवार के पूर्वज—राम सिंह
         राम सिंह के दो पुत्र-काहन सिंह और केसरी सिंह।

         ज्येष्ठ पुत्र काहन सिंह का पुत्र शिव सिंह, जो कि बड़ा होकर जैलदार की पदवी से सुशोभित हुआ। चौधरी शिव सिंह जैलदार के घर हरि सिंह नामक पुत्र ने जन्म लिया। उन्होंने भी पिता की गरिमा को चार-चाँद लगाए। चौधरी हरि सिंह जैलदार के घर चौधरी नारायण सिंह ने जन्म लिया। जहां चौधरी राम सिंह के ज्येष्ठ पुत्र चौधरी काहन सिंह की संतान में संयोगवश कोई वृद्धि नहीं हुई, वहीं चौधरी राम सिंह के कनिष्ठ पुत्र चौधरी केसरी सिंह को चार पुत्रों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। कलांतर में उनके बहुत से पौत्र-प्रपौत्र हुए, जिनमें से कई पर्याप्त संपन्न, तो कुछेक साधारण किसानों की श्रेणी में आ गए, परन्तु चौधरी नारायण सिंह के पास पैतृक भूमि का बहुत बड़ा भाग अधिशेष घोषित होने के बावजूद आधी पत्ती के अधिपति होने के कारण आज भी पर्याप्त धन-धरती है। समय के साथ चहलकदमी करते हुए ट्रांसपोर्ट कम्पनी के अतिरिक्त शहर में एक तीन-तारा होटल भी बना लिया है।

         ‘योगी था सो उठ गया आसन रही भभूत’ की तर्ज पर आजादी के बाद जमींदारी जल्वे का काम जरूर तमाम हो गया, परन्तु पुरानी प्रतिष्ठा और रोब-दाब के अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं। प्रायः डेढ़ सदी पूर्व चौधरी राम सिंह द्वारा बसाये गये रामगढ़ गांव और उसके चौधरी परिवार का अपना एक अलग ही महत्त्व और प्रभुत्व है। भले ही पुरखों जैसा तेज-तप न रहा हो परन्तु आज भी इस द्रोणमुख रूपी गंडग्राम और सुप्रतिष्ठित परिवार के साथ पूरे भू-भाग के लोग रिश्ता-नाता जोड़ना बड़े गर्व और गौरव की बात समझते हैं। गाँव के बीचों-बीच लंबे-चौड़े हिसार में एक बहुत बड़ी और आलीशान हवेली है, जिसका निर्माण चौधरी शिव सिंह जैलदार ने करवाया था। आज कल इस ईर्ष्या-उत्पादक भवन में उनका पोता, चौधरी नारायण सिंह, अपनी पत्नी, लक्ष्मी तथा इकलौती बेटी, सीमा के साथ निवास कर रहे हैं। उनकी दो बहिनों में गंगा उनसे बड़ी तथा गीता काफी छोटी है। उनकी एकमात्र बुआ हरदेई अभी जीवित हैं।

         माता-पिता का एकमात्र नूरेचश्म होने का अपना एक अलग ही आनंद और मस्ती है। ईर्ष्यालु अपवादों के अतिरिक्त अपने-पराये सभी स्नेह की दृष्टि से देखते हैं, आँखों में जगह देते हैं।। चौधरी नारायण सिंह का बचपन भी खूब लाड़-प्यार और खेलकूद में बीता था, इसलिए अधिक नहीं पढ़-लिख पाए। मैट्रिक में दो बार फेल होकर वापस घर की राह पकड़ ली थी। भूमि हदबंदी के कानूनों ने उनके पिता चौधरी हरि सिंह जैलदार को घर और कचहरी के बीच ‘शटलकॉक’ बना दिया था। खेती-बाड़ी का काम हर्ज होने के कारण उन्होंने भी बेटे की पढ़ाई-लिखाई की अधिक चिंता न करते हुए उन्हें घर-द्वार देखने का काम-काज सौंप दिया। एकमात्र सुपुत्र के ब्याह के चाव के चलते जैलदार साहब ने उनकी जीवन-डोर यौवन कि प्रथम सोपान पर पाँव रखते ही एक खूबसूरत और खानदानी किशोरी के साथ जोड़ दी। पर्याप्त शिक्षित न होते हुए भी पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने, रेडियो और दूरदर्शन देखने-सुनने, कोर्ट-कचहरी की खाक छानने तथा एक बार गाँव का सरपंच चुने जाने जैसा कड़वे-मीठे अनुभवों ने उन्हें अच्छा-खासा माँज-सँवार दिया है।

         लंबा कद, चौड़े कंधे, बड़ी आँखे, उन्नत मस्तक पर शौर्यसूचक तेज, पुष्ट एवं लम्बी भुजाएँ, सुहावना गेहुआँ रंग तथा भरे हुये चेहरे पर छोटी-छोटी मूँछें तैतालिसवें साल में भी चौधरी नारायण सिंह के खूबसूरत चेहरे पर जवानों जैसी चमक-दमक दर्शाती हैं। सुंदर पोशाक तथा लजी़ज पकवान के शौकीन होते हुए भी बुरी लत के शिकार कभी नहीं हुए। अकेले या गाँव-परिवार के लोगों के बीच बैठ कर कभी-कभार हुक्का जरूर गुड़गुड़ा लेते हैं। लड़कपन में फिल्में देखने और मधुर संगीत सुनने का चाव कमोबेश आज भी बरकरार है। उनका कसरती शरीर यौवन में अच्छे-अच्छों को जमीन सुँघा देने का आज भी पुख्ता साक्षी है, परन्तु यार-दोस्तों के बीच पालथी मार कर चौपड़ की बाजी लगाना तथा घर में बेटी सीमा के साथ शतरंज पर दिमागी घौड़े दौड़ाना प्रौढ़ावस्था के शगल हो गये हैं।

         हँसमुख एवं मिलन सार होते हुए भी अपनी खानदानी का आत्माभिमान उन्हें जरूर है, किंतु अभिमान उनके पास कभी फटक नहीं पाया। छोटों को हाथों लिये रहना और बड़े-बुजुर्गों को हुक्का-पानी पिलाना उनके घुट्टी में पड़े हुए गुण हैं। लंबे-चौड़े आँगन में एक भी पुत्र का न खेलना खलता उन्हें अवश्य है, किंतु दुःखी कतई नहीं होते। अच्छे-बुरे को परमात्मा का प्रसाद समझते हैं।

         यौवन के सम्मोहन और ताज़गी से भरपूर, लक्ष्मी, सुकाय होने के साथ-साथ एक सुघड़ गृहिणी भी है। जीवन में आए चालीस चोर उसके चारू चेहरे की चमक को चुराकर अभी चंपत नहीं हो पाए हैं, अपितु उन्हें ठेंगा दिखाता थोड़ा भरा बदन उसके व्यक्तित्व में और निखार ले आया है। आठवीं तक शिक्षित लक्ष्मी एक सीधी-सादी एवं धर्म-परायण महिला है। पूजा-पाठ करना तथा व्रत त्यौहार रखना जीवन के अभिन्न अंग हो गए हैं। प्रौढ़ एवं अनुभवी होने के बावजूद नारी का सहज स्वभाव कभी-कभार अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहता। इसका मुख्य कारण पारिवारिक परिवेश एवं रीति-रिवाज ही हैं। व्यवहार कुशल तथा खुले हाथ की होने कारण गाँव की बहू-बेटियों में अच्छी-खासी लोकप्रिय है। ‘पीला ओढ़ना’1 न ओढ़ पाने का दुःख लक्ष्मी को कुछ अधिक ही है, किंतु बेटी के सयाने हो जाने के कारण उसके हाथ पीले करने की फिक्र ने कुछ सीमा तक उसे दबा लिया है। फिर भी हर उर्वरा औरत की भाँति अभी भी वह पुरउम्मीद है।

         जहाँ तक नजाकत और आकार-प्रकार की कसौटी पर कसा जाने का प्रश्न है, सीमा साँचे से भी सवाई उतरती है। मिठास माँ की पाई है तो मिजाज बाप-दादा पर गया है। सुतवाँ नाक, कमल-कटोरों-से सुरमई लोचनों का शील-संकोच, गुलाबी गालों पर लाज की लाली, पतली कमर पर अठखेलियाँ करते लंबे-काले रेशमी बाल तथा अल्हड़पन के पहले पड़ाव पर पाँव रखती चटक-मटक एवं चंचलता बरबस ही हर किसी की दृष्टि अटका लेती है। हँसमुख, मिलनसार और सुबोध सीमा में गर्व-गुमान की गंध तो लेने पर भी नहीं मिलती। बचपन में रामू चमार की बेटी, सावित्री, के साथ खूब खेलती-कूदती थी और आज भी वह उसकी अंतरंग सहेली है। नवपरिवेश में पली-बढ़ी होने का उसके चरित्र पर बड़ा ही सुन्दर और सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। नई दुनिया को समझती है, उसमें रमण करती है, परंतु उसके प्रबल प्रवाह में बहती नहीं। नये संस्कारों से सरोकार होते हुए भी कुल-मर्यादा के प्रति पूरी तरह निष्ठावान है।

         आज अलक सलोरी सीमा की सोलहवीं सालगिरह का उत्सव मनाया जा रहा है। यूँ तो प्रतिवर्ष ही उसका जन्म-दिन बड़े रंगचाव के साथ मनाया जाता रहा है, परंतु इस बार धूमधाम जरूरत से कुछ ज्यादा है। कारण—उसका मैट्रिक की परीक्षा में ‘मेरिट’ में स्थान पाना। सभी रिश्तेदारों, मित्र-परिचितों के अतिरिक्त गाँव-गवाँड के भी अनेक गण्यमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित किया गया है। सीमा की गाँव-स्कूल की सखी-सहेलियाँ भी आई हुई हैं। अवसर को रंगीन पुरलुत्फ बनाने के लिए नामचीन कलावंत और गवैयों को भी न्यौता गया है। मानसून के पहले मेह ने मिट्टी की सौंधी गंध में मस्ती का आलम भर दिया है, जिसका प्रभाव उपस्थित जन समूह पर स्पष्ट परिलक्षित है।

         अग्रगण्य अतिथियों के सुआगमन का समय हो चुका है। घर-परिवार के सभी सदस्य बाहर खुली बाखल में एकत्रित हो गए। आज अप्रत्याशित रूप से लक्ष्मी समय से ही सज-सँवर गई। सुपुत्री की सोलहवीं साल गिरह पर उसके सोलहों सिंगार देखते ही बनते हैं। आकर्षक लहगाँ-जम्फर एवं सुच्ची जरी की चुनरी तथा जड़ाऊ आभूषणों के साथ सोने का बोरला गजब ढा रहे हैं। उसकी सजधज में चार चाँद लगा रहे हैं। उसके सौंदर्य का सूर्य थोड़ा उतार पर होते हुये भी ऐसा आभास दे रहा है जैसे वही रौनके-महफिल हो।                        
        
1.    इस अँचल में स्त्री जब तक पुत्र वती नहीं हो पाती, पोमचा ओढ़ती है। पुत्रवती होने के पश्चात ही उसे पीला औढ़ने का पुण्य प्राप्त होता है।

         चौधरी साहब अभी संगीत सभा में नहीं आये हैं। दरअसल आयोजन की निजी निगरानी के चलते थोड़े विलंब से भीतर गए थे। नहा-धोकर सिंगार मेज के सामने खड़े होकर नोकपलक की अंतिम सजधज कर ही रहे थे कि लक्ष्मी पहुँच गई। चूड़ियों की खनक और पायल का झनक कानों में पड़ते ही पलटा खाया तो रूपसी के रूप-सिंगार को देखकर दंग रह गये। संभलकर प्रिया की प्रशंसा में कोई पद गुनगुनाते, उससे पहले ही लक्ष्मी का मीठा-मादक किन्तु शोख स्वर कानों में गूँज उठा, ‘वाह ! आज तो बड़ा बनवा-सिंगार हो रहा है, किस पर डोरे डालने के इरादे हैं ?’
         लकदक लक्ष्मी की जबानी अपने बनाव-सिंगार की बात चौधरी साहब को बड़ी अटपटी लगी। केवल उन्हें ही क्यों, किसी भी पुरुष को अटपटी लगेगी, किंतु अगले ही क्षण भीनी सुगंध से सराबोर रूप की रानी को रंगे हाथों पकड़ते हुए बोले, ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ?’ कंधे उचकाते हुए, ‘बिजली तुम गिरा रही हो, तोहमत की तोप मुझ पर दाग रही हो।’
         रंगे हाथों पकड़ा जाने पर भी शातिर चोर जल्दी से अपना अपराध स्वीकार नहीं करता।       
         लक्ष्मी ने भी कुछ ऐसा ही अकड़ू अंदाज अपनाया, ‘बेचारे चोर की क्या मजाल जो कोतावाल को डांटे, उस पर तोप दागे। फिर सच्ची बात तो कड़वी लगती ही है।’
         ‘चोरी और सीनाजोरी,’ कोतवाल ने कसकर चोट की। ‘यानी झूठ भी मैं ही बोल रहा हूँ।’
         ‘जनाब, पहले भी कभी सच बोले हो, जो आज बोलोगे।’

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