भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी उपन्यास सृजन और सिद्धान्त हिन्दी उपन्यास सृजन और सिद्धान्तनरेन्द्र कोहली
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‘हिन्दी उपन्यास : सृजन और सिद्धान्त’ एक शोधपूर्ण समीक्षात्मक कृति है..
Hindi Upanyas Srijan Aur Siddhant
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘हिन्दी उपन्यासः सृजन और सिद्धान्त’ एक शोधपूर्ण समीक्षात्मक कृति है। इसमें हि्दी के प्रमुख उपन्यासकारों के अपने सिद्धान्तों के प्रकाश में हिन्दी उपन्यास के स्वरूप के विकास को परखने का प्रयत्न ही नहीं किया गया, हिन्दी के अपने उपन्यास शास्त्र की रचना की सम्भावनाओं पर भी पूरा प्रकाश डाला गया है। यह पुस्तक आपके सामने हिन्दी उपन्यास तथा उसके रचनाकारों का वह पक्ष प्रस्तुत करती है, जो आज तक सर्वथा अछूता है। यह उस लेखक की कृति है जो शोधकर्ता तथा व्यावहारिक समीक्षक होने के साथ साथ हिन्दी का प्रतिष्ठित युवा उपन्यासकार भी है। परिणामतः सर्जक साहित्यकार की प्रतिभा के योग के कारण यह पुस्तक रूढ़ तथा शुष्क समीक्षात्मक कृति मात्र न होकर सर्जनात्मक कृति के महत्त्व का दावा भी करती है। विश्लेषण तथा सृजन का यह संगम निश्चित रूप से अत्यन्त आकर्षक है।
आरम्भ
प्रस्तुत पुस्तक में मैंने सन् 1882 ई. से सन् 1965 ई. तक के हिन्दी के प्रमुख उपन्यासकारों के साहित्य सिद्धान्तों का विवेचन करने का प्रयत्न किया है। छूट केवल वे गये हैं जिनकी साहित्य चर्चा संबंधी सामग्री उपलब्ध नहीं हुई अथवा उल्लेख्य नहीं थी। अनेक उपन्यासकार कवि तथा नाटककार भी हैं; उनके केवल उपन्यासकार रूप को ही ग्रहण किया गया है। जिन विषयों का सम्बन्ध उपन्यासकार के चिंतन से नहीं है, उन्हें भी मैंने छोड़ दिया है।
नरेन्द्र कोहली
पूर्व-प्रेमचन्द काल
किशोरीलाल गोस्वामी
कालक्रम की दृष्टि से श्रीनिवासदास के पश्चात् हिन्दी उपन्यास क्षेत्र में किशोरीलाल गोस्वामी का स्थान है। श्रीनिवासदास ने नई चाल की पुस्तक1 लिखकर जिस विधा का श्रीगणेश किया था; किशोरीलाल गोस्वामी ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति उसी पर केन्द्रित कर दी थी। अपने उपन्यासों की भूमिकाओं में उन्होंने अपनी कुछ मान्यताओं को प्रकट किया है।
:1:
अपने समकालीन उपन्यासकारों की अपेक्षा, किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों में सामाजिक तत्त्व का आधिक्य है। वे तिलस्मी-ऐयारी, जासूसी-डकैती उपन्यासों से सम्बद्ध नहीं है; किन्तु घटना वैचित्र्य द्वारा रस-उत्पादन-हेतु उन्होंने भी सामाजिक जीवन का वही पक्ष ग्रहण किया है, जो कथा रस से पाठक के हृदय को जासूसी ऐयारी उपन्यासों के ही समान सम्मोहित करे। अतः यह आवश्यक था कि समाज के उस भ्रष्ट वर्ग का चित्रण किया जाता, जिसमें तथाकथित रस से पूर्ण घटना वैचित्र्य का बाहुल्य था।
इस युग में साहित्य रचना एकमात्र पाठक को ही संवृत्त किये हुए थी; पाठक की रुचि ही मुख्य थी, लेखक का कथ्य गौण था। अतः शास्त्रीय प्रयोजनों के अनुरूप, किशोरीलाल गोस्वामी तथा उनके अन्य समसामयिक उपन्यासकारों के प्रयोजनों को सृजनकर्ता एवं प्रमाता सम्बन्धी विभिन्न शीर्षकों में वर्गीकृत करना सम्भव नहीं है। ये समस्त प्रयोजन पाठक के लिए ही हैं: (क) मनोरंजन, (ख) समाजोत्थान, (ग) तथा (घ) साहित्यिक अभावों की पूर्ति।
इस युग का सर्वप्रमुख साहित्य प्रयोजन मनोरंजन ही है। घटना बहुल साहित्य से, मनोरंजन से अधिक किसी प्रयोजन की अपेक्षा की भी नहीं जा सकती। किशोरीलाल गोस्वामी आजीवन इसी प्रयोजन से लिखने की कामना करते हैं, आशा है कि ईश्वरानुग्रह से हम इसी प्रकार जीवन पर्यन्त अपने उपन्यासों से आप लोगों (पाठकों) का मनोरंजन किया करेंगे।’’2
भारतीय काव्यशास्त्र रस प्रधान रहा है; अतः साहित्य का पात्र सहृदय अथवा रसज्ञ ही हो सकता है। असहृदय अथवा अरसिक के सम्मुख साहित्य चर्चा अभिशाप
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1. श्रीनिवासदास ने ‘परीक्षागुरु’ की भूमिका में उसे ‘नई चाल’ की पुस्तक कहा है।
2. ‘लवंग लता वा आदर्श बाला, ‘‘द्वितीय संस्करण का निवेदन
है।1 उसी स्वर में (कदाचित् असहृदय समीक्षक के विषय में) किशोरीलाल गोस्वामी की कतिपय उक्तियाँ भी उपलब्ध हैं : ‘‘कतिपय सज्जनों ने ‘तारा’ पर कुछ वक्र दृष्टि भी की थी पर उस तीखी चितवन की हम कुछ भी पर्वा नहीं करते और रसज्ञ एवं मर्मज्ञ पाठकों के सम्मुख तारा का द्वितीय संस्करण उपस्थित करते हैं। आशा है कि हमारे रसीले पाठक इस संस्करण का भी यथेष्ट आदर करेंगे। पाठकों के लिए प्रयुक्त ‘रसज्ञ’ तथा ‘रसीले’ विशेषण रस-परम्परा का आभास अवश्य देते हैं, किन्तु ‘मनोरंजन’ तथा ‘रस’ को समान धरातल पर प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है-वैसे भी, ‘रसीले’ शब्द में गरिमा का स्पष्ट अभाव है।
घटना वैचित्र्य द्वारा पाठकों को आकृष्ट करने वाले उपन्यासकारों से रस-निष्पत्ति अथवा रस सिद्धान्त की ओर उन्मुखता अपेक्षित भी नहीं है। अतः किशोरीलालगोस्वामी को साहित्य प्रयोजन के रूप में मनोरंजन ही स्वीकार्य हो सकता है, जो रस की अपेक्षा अत्यन्त निम्न कोटि का प्रयोजन है।
समाज के पतित-भ्रष्ट वर्ग का चित्रण प्रत्येक देश के साहित्यकार विभिन्न प्रयोजनों से करते आए हैं। पापाचार के तामसी आस्वाद सदृश कृत्यों के वर्णन में भी हीन कोटि का सुख मिलता है। कतिपय साहित्यकार इन वर्णनों में रुचि भी लेते हैं; और उन वर्णनों का अध्ययन कर पाठक भी उत्तेजित हो, स्नायविक उत्तेजना के विचित्र सुख का आस्वादन करता है।
किशोरीलाल गोस्वामी ने इस हीन प्रयोजन से साहित्य का सृजन नहीं किया। यह स्पष्टीकरण भी उन्होंने आवश्यक समझा है, कि इस प्रकार का चित्रण व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष पर किसी आक्षेप हेतु नहीं, वरन् वस्तु स्थिति से अवगत हो, उसके संशोधन एवं प्रतिकार के यत्न के लिए हैं।3
भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय प्रयोजनों-कांता सम्मित उपेदश एवं शिक्षण से इस प्रयोजन की तुलना की जा सकती है; किन्तु इसे ठीक उसी रूप में ग्रहण करना सम्भव नहीं है। कांता सम्मित उपदेश अथवा ‘शिक्षण’ से पाठक स्वयं अपना सुधार करता है। इस प्रक्रिया का प्रथम प्रतिबन्ध है कि साहित्य पाठक को द्रवित करे; ताकि पाठक में साहित्य के उपदेश को ग्रहण करने की मनःस्थिति प्रस्तुत हो। किन्तु, किशोरीलाल गोस्वामी न पाठक को द्रवित करते हैं, न अप्रत्यक्ष अथवा ‘कांता सम्मित’ उपदेश देते हैं, वे पाठक-वर्ग में से कतिपय नेताओं को इस स्थिति का ज्ञान मात्र करा देना चाहते हैं, ताकि नेतागण अपने अधिकार अथवा शक्ति से समाजोत्थान करें। अतः समाज सुधार करनेवाली शक्ति साहित्यिक न होकर नेतागण की सामाजिक अथवा राजनीतिक शक्ति है।
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1. ‘अरसिकेषु कवित्व निवेदनम् शिरसि मा लिख, मा लिख, मा लिख’
2. तारा वा क्षत्र कुल कमलिनी, निवेदन पृ. ‘घ.’
3. क्योंकि यहाँ पर जो सामाजिक चित्र अंकित किया गया है वह किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर व्यर्थ आक्षेप करने की इच्छा से नहीं लिखा गया है, वरन सच्ची घटना का अवलम्बन करके इसलिए लिखा गया है कि समाज के नेतागण इन बुराइयों से समाज को मुक्त करने का प्रयत्न करें।’’ माधवी-माधव वा मदन-मोहिनी (प्रथम भाग) विशेष वक्तव्य’
सामाजिक सुधार एक ओर रीति-रिवाजों में हो सकता है और दूसरी ओर सामाजिक समृद्धि के स्तर में। सामाजिक समृद्धि के साथ आर्थिक प्रश्न संलग्न है। किशोरीलाल गोस्वामी ने आर्थिक पक्ष को भी पर्याप्त महत्त्व दिया है, ‘‘......वरन् एक दीन-हीन परिवार की शोचनीय स्थिति के साथ वर्तमान, शिथिल, उच्छृंखल और बंध विहीन समाज-चित्र इस इच्छा से यथावत् चित्रित किया गया है कि हमारे आर्य भ्राता लोग इस विश्रृंखल समाज को सुश्रृंखलाबद्ध करने के लिए मनसा वाचा, कर्मणा प्रयत्न करने में तत्पर हों और केवल नौकरी ही पर निर्भर न रहकर विद्योपार्जन पूर्वक शिल्प, वाणिज्य, कला-कौशलादि के विस्तार से रसातलगत दीन भारत का उद्धार करें।’’
साहित्य के प्रयोजन के रूप में ‘समाजोत्थान के लिए शिक्षा’ में कोई नवीनता नहीं है; किन्तु इस उत्थान से तात्पर्य मात्र सामाजिक अथवा मानसिक उत्थान ही होता है। प्रयोजन के रूप में अर्थ की चर्चा पहले भी हुई है2 परन्तु पाठकों के आर्थिक उत्थान की चर्चा इससे पूर्व कदाचित् ही कहीं हो। मार्क्स ने सर्वप्रथम सामाजिक उत्थान के मूल में अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया था। कदाचित् उसी विचारधारा का यह अप्रत्यक्ष प्रभाव है।
सर्वांगीण, सर्वपक्षीय तथा सर्वधरातलीय उन्नति अज्ञ समाज में सम्भव नहीं है, प्रबुद्ध समाज ही इस ओर अग्रसर हो सकता है। अतः साहित्य का यह भी दायित्व है कि वह अपने पाठकों को तत्त्वज्ञान ही नहीं, वस्तुस्थिति का भी परिचय दे। किशोरीलाल गोस्वामी ने अपने कतिपय उपन्यासों का यह प्रयोजन भी स्वीकार किया है, ‘‘इसी (गयासुद्दीन बलबन) के समय की घटना का अवलम्बन करके यह उपन्यास लिखा है। आशा है कि इसके पढ़ने से पाठक उस पुराने जमाने के आचार, व्यवहार, राजनैतिक और सामाजिक तत्त्व तथा देश-दशा के परिचय को भी भली-भाँति पा सकेंगे। एक उपन्यासकार के लिए साहित्य का यह प्रयोजन अनपेक्षित नहीं है।
स्कॉट जेम्स ने उपन्यास के प्रयोजनों में इसे मुख्य स्थान दिया है: The novel has been made a vehicle for teaching of history….।’’4 परन्तु किसी प्रकार की सूचना देना मात्र साहित्य का प्रयोजन नहीं हो सकता और न ही यह साहित्य के क्षेत्र के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। यदि कोई साहित्यिक कृति सूचनाओं से अवगत कराती है, शुद्ध ज्ञान प्रदान करती है, तो भी ज्ञान के साहित्य से वह भिन्न है, अतः उसकी विधि और प्रकार में अन्तर भी अपेक्षित है। इस अन्तर का किंचित्
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1. चपला वा नव्य समाज चित्र (चौथा भाग), ‘निवेदन’
2. (क) ‘यशसेऽर्थ कृते...’ सम्मट
(ख) This is the book that not only makes money for the book sellers, but is carried to distant lands and ensures a lasting fame for its author. Classical literary criticism, p.91
(3) मल्लिकादेवी वा बंग सरोजनी (प्रथम भाग), उपोद्घात
4. The making of literature, p. 363
आभास इस पंक्ति से उपलब्ध होता है: ‘‘इसलिए लिख दिया है कि जिसमें इतिहास के सिलसिले में गड़बड़ न हो और पढ़नेवाले उपन्यास के साथ-ही-साथ कुछ-कुछ इतिहास का भी आनन्द लें।’’1 उपन्यास तथा इतिहास के आनन्द की अनुलग्नता से स्पष्ट है कि किशोरीलाल को ज्ञानप्रद साहित्य में भी आनन्द अपेक्षित है, ऐतिहासिक उपन्यास में इतिहास के तथ्यों के साथ आनन्द भी अनिवार्य है अर्थात् साहित्यिक कृति का ज्ञान भी सरस है।
एक अन्य प्रयोजन साहित्यिक अभावों की पूर्ति की स्वीकृति, गोस्वामी जी ने इन शब्दों में दी है : ‘‘जिससे हिन्दीभाषा में जो इतिहास का बिलकुल अभाव है, वह मिटे।’’2 अतः उन्होंने कतिपय उपन्यासों की रचना मात्र इस उद्देश्य से की है कि हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यासों के अभाव की पूति को सके। इस प्रयोजन को हम सहज ही पाश्चात्य प्रयोजन ‘कला कला के लिए’ के अन्तर्गत रख सकते हैं। किशोरीलाल साहित्य को स्वतन्त्र, स्वतः पूर्ण बनाने के समर्थक प्रतीत होते हैं, अतः उसे सर्वांगपूर्ण एवं समृद्ध बनाने की ओर सचेष्ट हैं।
किशोरीलाल गोस्वामी के चारों साहित्य प्रयोजन मनोरंजन, समाजोत्थान, ज्ञान तथा साहित्यिक अभावों की पूर्ति-किसी अविकिसत साहित्य तथा अवनत समाज के ही प्रयोजन हो सकते हैं। इन प्रयोजनों से स्पष्ट है कि जिस समाज के लिए उस साहित्य की रचना की जा रही थी, वह मनोरंजन को महत्त्व देता था, ‘रस’ को नहीं; वह अवनत तथा पतित था, अतः, उत्थान की आवश्यकता थी; समाज अज्ञ था, अतः शास्त्र के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ होने के कारण साहित्य के माध्यम से ज्ञान प्राप्ति का अपेक्षी था।3 हमारा साहित्य अभावग्रस्त था, अतः हिन्दी के प्रत्येक स्वाभिमानी साहित्याकार का कर्तव्य था कि वह इन अभावों की पूर्ति करे और वही किशोरीलाल गोस्वामी ने किया।
इस युग में साहित्य रचना एकमात्र पाठक को ही संवृत्त किये हुए थी; पाठक की रुचि ही मुख्य थी, लेखक का कथ्य गौण था। अतः शास्त्रीय प्रयोजनों के अनुरूप, किशोरीलाल गोस्वामी तथा उनके अन्य समसामयिक उपन्यासकारों के प्रयोजनों को सृजनकर्ता एवं प्रमाता सम्बन्धी विभिन्न शीर्षकों में वर्गीकृत करना सम्भव नहीं है। ये समस्त प्रयोजन पाठक के लिए ही हैं: (क) मनोरंजन, (ख) समाजोत्थान, (ग) तथा (घ) साहित्यिक अभावों की पूर्ति।
इस युग का सर्वप्रमुख साहित्य प्रयोजन मनोरंजन ही है। घटना बहुल साहित्य से, मनोरंजन से अधिक किसी प्रयोजन की अपेक्षा की भी नहीं जा सकती। किशोरीलाल गोस्वामी आजीवन इसी प्रयोजन से लिखने की कामना करते हैं, आशा है कि ईश्वरानुग्रह से हम इसी प्रकार जीवन पर्यन्त अपने उपन्यासों से आप लोगों (पाठकों) का मनोरंजन किया करेंगे।’’2
भारतीय काव्यशास्त्र रस प्रधान रहा है; अतः साहित्य का पात्र सहृदय अथवा रसज्ञ ही हो सकता है। असहृदय अथवा अरसिक के सम्मुख साहित्य चर्चा अभिशाप
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1. श्रीनिवासदास ने ‘परीक्षागुरु’ की भूमिका में उसे ‘नई चाल’ की पुस्तक कहा है।
2. ‘लवंग लता वा आदर्श बाला, ‘‘द्वितीय संस्करण का निवेदन
है।1 उसी स्वर में (कदाचित् असहृदय समीक्षक के विषय में) किशोरीलाल गोस्वामी की कतिपय उक्तियाँ भी उपलब्ध हैं : ‘‘कतिपय सज्जनों ने ‘तारा’ पर कुछ वक्र दृष्टि भी की थी पर उस तीखी चितवन की हम कुछ भी पर्वा नहीं करते और रसज्ञ एवं मर्मज्ञ पाठकों के सम्मुख तारा का द्वितीय संस्करण उपस्थित करते हैं। आशा है कि हमारे रसीले पाठक इस संस्करण का भी यथेष्ट आदर करेंगे। पाठकों के लिए प्रयुक्त ‘रसज्ञ’ तथा ‘रसीले’ विशेषण रस-परम्परा का आभास अवश्य देते हैं, किन्तु ‘मनोरंजन’ तथा ‘रस’ को समान धरातल पर प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है-वैसे भी, ‘रसीले’ शब्द में गरिमा का स्पष्ट अभाव है।
घटना वैचित्र्य द्वारा पाठकों को आकृष्ट करने वाले उपन्यासकारों से रस-निष्पत्ति अथवा रस सिद्धान्त की ओर उन्मुखता अपेक्षित भी नहीं है। अतः किशोरीलालगोस्वामी को साहित्य प्रयोजन के रूप में मनोरंजन ही स्वीकार्य हो सकता है, जो रस की अपेक्षा अत्यन्त निम्न कोटि का प्रयोजन है।
समाज के पतित-भ्रष्ट वर्ग का चित्रण प्रत्येक देश के साहित्यकार विभिन्न प्रयोजनों से करते आए हैं। पापाचार के तामसी आस्वाद सदृश कृत्यों के वर्णन में भी हीन कोटि का सुख मिलता है। कतिपय साहित्यकार इन वर्णनों में रुचि भी लेते हैं; और उन वर्णनों का अध्ययन कर पाठक भी उत्तेजित हो, स्नायविक उत्तेजना के विचित्र सुख का आस्वादन करता है।
किशोरीलाल गोस्वामी ने इस हीन प्रयोजन से साहित्य का सृजन नहीं किया। यह स्पष्टीकरण भी उन्होंने आवश्यक समझा है, कि इस प्रकार का चित्रण व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष पर किसी आक्षेप हेतु नहीं, वरन् वस्तु स्थिति से अवगत हो, उसके संशोधन एवं प्रतिकार के यत्न के लिए हैं।3
भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय प्रयोजनों-कांता सम्मित उपेदश एवं शिक्षण से इस प्रयोजन की तुलना की जा सकती है; किन्तु इसे ठीक उसी रूप में ग्रहण करना सम्भव नहीं है। कांता सम्मित उपदेश अथवा ‘शिक्षण’ से पाठक स्वयं अपना सुधार करता है। इस प्रक्रिया का प्रथम प्रतिबन्ध है कि साहित्य पाठक को द्रवित करे; ताकि पाठक में साहित्य के उपदेश को ग्रहण करने की मनःस्थिति प्रस्तुत हो। किन्तु, किशोरीलाल गोस्वामी न पाठक को द्रवित करते हैं, न अप्रत्यक्ष अथवा ‘कांता सम्मित’ उपदेश देते हैं, वे पाठक-वर्ग में से कतिपय नेताओं को इस स्थिति का ज्ञान मात्र करा देना चाहते हैं, ताकि नेतागण अपने अधिकार अथवा शक्ति से समाजोत्थान करें। अतः समाज सुधार करनेवाली शक्ति साहित्यिक न होकर नेतागण की सामाजिक अथवा राजनीतिक शक्ति है।
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1. ‘अरसिकेषु कवित्व निवेदनम् शिरसि मा लिख, मा लिख, मा लिख’
2. तारा वा क्षत्र कुल कमलिनी, निवेदन पृ. ‘घ.’
3. क्योंकि यहाँ पर जो सामाजिक चित्र अंकित किया गया है वह किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर व्यर्थ आक्षेप करने की इच्छा से नहीं लिखा गया है, वरन सच्ची घटना का अवलम्बन करके इसलिए लिखा गया है कि समाज के नेतागण इन बुराइयों से समाज को मुक्त करने का प्रयत्न करें।’’ माधवी-माधव वा मदन-मोहिनी (प्रथम भाग) विशेष वक्तव्य’
सामाजिक सुधार एक ओर रीति-रिवाजों में हो सकता है और दूसरी ओर सामाजिक समृद्धि के स्तर में। सामाजिक समृद्धि के साथ आर्थिक प्रश्न संलग्न है। किशोरीलाल गोस्वामी ने आर्थिक पक्ष को भी पर्याप्त महत्त्व दिया है, ‘‘......वरन् एक दीन-हीन परिवार की शोचनीय स्थिति के साथ वर्तमान, शिथिल, उच्छृंखल और बंध विहीन समाज-चित्र इस इच्छा से यथावत् चित्रित किया गया है कि हमारे आर्य भ्राता लोग इस विश्रृंखल समाज को सुश्रृंखलाबद्ध करने के लिए मनसा वाचा, कर्मणा प्रयत्न करने में तत्पर हों और केवल नौकरी ही पर निर्भर न रहकर विद्योपार्जन पूर्वक शिल्प, वाणिज्य, कला-कौशलादि के विस्तार से रसातलगत दीन भारत का उद्धार करें।’’
साहित्य के प्रयोजन के रूप में ‘समाजोत्थान के लिए शिक्षा’ में कोई नवीनता नहीं है; किन्तु इस उत्थान से तात्पर्य मात्र सामाजिक अथवा मानसिक उत्थान ही होता है। प्रयोजन के रूप में अर्थ की चर्चा पहले भी हुई है2 परन्तु पाठकों के आर्थिक उत्थान की चर्चा इससे पूर्व कदाचित् ही कहीं हो। मार्क्स ने सर्वप्रथम सामाजिक उत्थान के मूल में अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया था। कदाचित् उसी विचारधारा का यह अप्रत्यक्ष प्रभाव है।
सर्वांगीण, सर्वपक्षीय तथा सर्वधरातलीय उन्नति अज्ञ समाज में सम्भव नहीं है, प्रबुद्ध समाज ही इस ओर अग्रसर हो सकता है। अतः साहित्य का यह भी दायित्व है कि वह अपने पाठकों को तत्त्वज्ञान ही नहीं, वस्तुस्थिति का भी परिचय दे। किशोरीलाल गोस्वामी ने अपने कतिपय उपन्यासों का यह प्रयोजन भी स्वीकार किया है, ‘‘इसी (गयासुद्दीन बलबन) के समय की घटना का अवलम्बन करके यह उपन्यास लिखा है। आशा है कि इसके पढ़ने से पाठक उस पुराने जमाने के आचार, व्यवहार, राजनैतिक और सामाजिक तत्त्व तथा देश-दशा के परिचय को भी भली-भाँति पा सकेंगे। एक उपन्यासकार के लिए साहित्य का यह प्रयोजन अनपेक्षित नहीं है।
स्कॉट जेम्स ने उपन्यास के प्रयोजनों में इसे मुख्य स्थान दिया है: The novel has been made a vehicle for teaching of history….।’’4 परन्तु किसी प्रकार की सूचना देना मात्र साहित्य का प्रयोजन नहीं हो सकता और न ही यह साहित्य के क्षेत्र के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। यदि कोई साहित्यिक कृति सूचनाओं से अवगत कराती है, शुद्ध ज्ञान प्रदान करती है, तो भी ज्ञान के साहित्य से वह भिन्न है, अतः उसकी विधि और प्रकार में अन्तर भी अपेक्षित है। इस अन्तर का किंचित्
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1. चपला वा नव्य समाज चित्र (चौथा भाग), ‘निवेदन’
2. (क) ‘यशसेऽर्थ कृते...’ सम्मट
(ख) This is the book that not only makes money for the book sellers, but is carried to distant lands and ensures a lasting fame for its author. Classical literary criticism, p.91
(3) मल्लिकादेवी वा बंग सरोजनी (प्रथम भाग), उपोद्घात
4. The making of literature, p. 363
आभास इस पंक्ति से उपलब्ध होता है: ‘‘इसलिए लिख दिया है कि जिसमें इतिहास के सिलसिले में गड़बड़ न हो और पढ़नेवाले उपन्यास के साथ-ही-साथ कुछ-कुछ इतिहास का भी आनन्द लें।’’1 उपन्यास तथा इतिहास के आनन्द की अनुलग्नता से स्पष्ट है कि किशोरीलाल को ज्ञानप्रद साहित्य में भी आनन्द अपेक्षित है, ऐतिहासिक उपन्यास में इतिहास के तथ्यों के साथ आनन्द भी अनिवार्य है अर्थात् साहित्यिक कृति का ज्ञान भी सरस है।
एक अन्य प्रयोजन साहित्यिक अभावों की पूर्ति की स्वीकृति, गोस्वामी जी ने इन शब्दों में दी है : ‘‘जिससे हिन्दीभाषा में जो इतिहास का बिलकुल अभाव है, वह मिटे।’’2 अतः उन्होंने कतिपय उपन्यासों की रचना मात्र इस उद्देश्य से की है कि हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यासों के अभाव की पूति को सके। इस प्रयोजन को हम सहज ही पाश्चात्य प्रयोजन ‘कला कला के लिए’ के अन्तर्गत रख सकते हैं। किशोरीलाल साहित्य को स्वतन्त्र, स्वतः पूर्ण बनाने के समर्थक प्रतीत होते हैं, अतः उसे सर्वांगपूर्ण एवं समृद्ध बनाने की ओर सचेष्ट हैं।
किशोरीलाल गोस्वामी के चारों साहित्य प्रयोजन मनोरंजन, समाजोत्थान, ज्ञान तथा साहित्यिक अभावों की पूर्ति-किसी अविकिसत साहित्य तथा अवनत समाज के ही प्रयोजन हो सकते हैं। इन प्रयोजनों से स्पष्ट है कि जिस समाज के लिए उस साहित्य की रचना की जा रही थी, वह मनोरंजन को महत्त्व देता था, ‘रस’ को नहीं; वह अवनत तथा पतित था, अतः, उत्थान की आवश्यकता थी; समाज अज्ञ था, अतः शास्त्र के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ होने के कारण साहित्य के माध्यम से ज्ञान प्राप्ति का अपेक्षी था।3 हमारा साहित्य अभावग्रस्त था, अतः हिन्दी के प्रत्येक स्वाभिमानी साहित्याकार का कर्तव्य था कि वह इन अभावों की पूर्ति करे और वही किशोरीलाल गोस्वामी ने किया।
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