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शादी

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :527
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3039
आईएसबीएन :81-7055-276-1

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ताजिक जीवन पर आधारित एक क्रान्तिकारी उपन्यास...

Shadi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1. प्रारम्भ

बसन्त था......!
गुलिस्तान गाँव सचमुच ही फुलवाड़ी जैसा हो रहा था। कल शाम को अच्छी वर्षा हुई थी, जिससे सभी जगह तरो-ताजा हो गई। आज सूर्य की प्राण देनवाली किरणें गाँव के ऊपर एक छोर से दूसरे छोर तक वर्षा करती फूल और हरियाली को अधिक सुन्दर, नये निकले पत्तों वाले वृक्षों को अधिक शोभायमान, पहाड़ और मैदान को अधिक नयनाभिराम बना रहीं थीं। गाँव के पास बहती चंचल नदी आज और भी ज्यादा चंचल दिखाई पड़ती थी। बालुका कणों और दूसरी जगहों पर सूर्य की किरणें चमक पैदा करते हुए एक दूसरे ही दृश्य सामने रख रही थीं।

 सभी जगह लाला के फूल-से खिले हुए थे। टीले के किनारों पर और ऊपर हरियाली दिखाई पड़ती थी, खेतों के आसपास, नदी के और नहरों के किनारे गाँव के घरों की छतों और दीवारों पर हर जगह लाला उगे हुए थे।........छोटे-छोटे पत्तों के बीच में सुर्ख रंग के प्याले-जैसे फूल इस भूमि में प्रकृति के सौन्दर्य को और बढ़ा रहे थे; अभी सेब और शफतालू के वृक्षों ने अभी फूल नहीं दिया था। बगीचे में सफेद और गुलाबी रंग के फूलों से ढँके वृक्षों ने बागों और बगीचों ने बहुत-से गुलदस्ते तैयार कर रखे थे। करीब-करीब सभी घरों के पास बगीचा था। गाँव के कूचे बड़े बागों के रास्तों की तरह दरख्तोंवाले थे। चारमग्ज और चिनार के बड़े-बड़े दरख्त मैदान में और आस-पास मस्जिद के और चश्मे के आस-पास लगे हुए अपनी ऊँचाई और सुन्दरता से यात्री के मन को आश्चर्य में डालते हुए बलूतात उसे बतलाते थे कि शायद इसी कारण इस गाँव का नाम ‘गुलिस्तान’ रखा गया।

ऊँची-नीची पहाड़ियों के बीच से गाड़ीवाला रास्ता आ रहा था, जो कि गाँव के पास पहुँचकर नीचे उतरते हुए अन्त में ऐसी जगह पहुँचता जहाँ से नीचे की ओर सारा गाँव दिखाई पड़ता। यहाँ से केवल गाँव ही नहीं, बल्कि सारी उपत्यका दिखाई पड़ती। इसलिए साथ के घोड़े को, जो कि अपने बराबर के देखे हुए रास्ते से नीचे पहुँच घर की ओर जाना चाहता था, रोक कर वह अपने गाँव को इस तरह देखने लगा, मानों वह उसे पहली बार देख रहा था।

गुलिस्तान गाँव- जहाँ वह पैदा हुआ था, बड़ा हुआ व परवरिश पाई। यह कितना सुन्दर दृश्य ! यह कितनी आनन्ददायक उपत्यका !! उत्तर की ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़, जिनकी चोटियों पर सफेद बर्फ !!! ये पहाड़ उत्तरहिया और सर्दी से गाँव की रक्षा करते हुए गाँव को घेरे खड़े थे। यहाँ के दर्रे बहुत टेढ़े-मेढे, डाँड़े खौफनाक, चट्टानें और ऊपर गिरकर टोकरियों में परिवर्तित ऐसी हैं, कि इस वक़्त ऊपर से लेकर नीचे तक वह हरी-भरी दिखाई पड़ती हैं। इन सुन्दर टेकरियों के किनारे और गोद में छोटे-बड़े पर नीचे से ऊपर से एक लगे हुए चले गये थे। गाँव दक्षिण की ओर निचाई में पहुँच पहाड़ी नदीं के किनारे विस्तृत उपत्यका के छोर तक खतम होता था।

 नदी के उस पार गाँव के लोगों के खेत फैले हुए थे। एक समय इन खेतों में से अधिकांश बायों और मुफ्तखोर जमींदारों के हाथों में थी, गाँव की अच्छी हवेलियाँ और बाग भी उन्हीं की सम्पत्ति थीं। तगाई, मुरदाबाय, आदिलबाय, तुराबेक और यनमामतबेगीजान जैसे इस गुलिस्तान के भोगनेवाले थे......लेकिन अब उनमें से अधिकांश नष्ट हो चुके हैं। अभी भी उनमें कुछ बड़ों की छाया में गाँव में लौट आये हैं, तो भी उनकी वह दबदबा नहीं है। गाँववालों ने खेत अपने हाथ में ले लिए, हर-एक आदमी अपनी शक्ति के अनुसार काम करते हुए कम-बेशी फसल पैदा करता है। शादी और उसके बाप की जमीन आदिलबाय के निकल जाने पर उन्हें मिली। उनकी एक तरफ मुहम्मदजान की जमीन और दूसरी तरफ कासिमजान की जमीन थी। इन जमीनों में से कुछ जोती हुई थी, लेकिन कुछ ऐसे ही हरियाली से ढँकी पड़ी हुई थी। अधिकतर किसान अकेले ही अपना काम करते थे, कोई सहायता देनेवाला नहीं था....।
शादी ने उपत्यका की ओर अच्छी तरह निगाह करके एक लम्बी साँस खींचते हुए अपने-आप से कहा- ‘ठीक !’ उसका घोड़ा पैर मारते हुए सिर हिला रहा था और नीचे जाना चाहता था।

‘चलें !’- सादी ने अपने घोड़े की लगाम को सुस्त करते हुए कहा- ‘चलें, काम शुरू करें ! अपने गुलिस्तान को इससे भी ज्यादा आबाद करें, इससे भी अधिक आनन्ददायक बनाये !!’
गाँव के कूचे में पहुँचने पर उसकी मुलाकात पंचायत के सरपंच रईस खालमिर्जा से हुई, जो कि अपने दरवाजे के सामने एक अपरिचित आदमी के साथ खड़ा बात कर रहा था। उस अपरिचित आदमी का कद लम्बा और रंग गेहुँआ था। दाढ़ी में कैंची चली हुई थी, जिसमें उड़द और चावल की तरह काले-सफेद बाल दिखाई पड़ते थे। वह चलने से पसीने-पसीने हुए अपने घोड़े की लगाम पकड़े खड़ा था। खालमिर्जा अपने आस्तीन में से एक हाथ को निकाल कर और अपरिचित अपने दूसरे हाथ को आस्तीन के भीतर मिलाये खड़ा था। शादी को देखकर थोड़ा ठमक कर उसने कहा :
-सलाम शादी, सलाम शादी ! क्या रायन तहसील के सदर मुकाम से आ रहे हो ?

-हाँ, बहुत काम बाकी रह गया था- शादी ने कहा- जरा आफिस आयें, कुछ सलाह करनी है।
-खूब, खूब,- खालमिर्जा ने कहा,- आपसे भी जरा परिचय कर लो : रफीक मंसूरबाई गनीयेफ़, बुखारा के सरकारी अफसर और कारकुन थे। यह रफीक खोजायेफ़ के परिचित और नज़दीकी हैं। मैंने उनसे कह रखा था, कि यदि कोई पढ़ा-लिखा हिसाब जाननेवाला आदमी मिले, तो हमारे पास भेजें, जो आफिस में कातिब (क्लर्क) का भी काम करे और हिसाब-किताब भी रखे। उन्होंने आपकों ही हमारे पास भेजा है।
-सलाम ! मंसूरबाई ने कहते हुए शादी से हाथ मिलाया- सैयद ! सलामती तो है ?
-सब सलामत !- शादी ने कहा, खालमिर्जा की ओर नज़र करके यह भी कहा- खूब अच्छा हो, आइए सलाह करें।
वह घोड़े की लगाम को हिलाकर आगे चला। ख़ालमिर्जा ने दरवाजा खोलते हुए कहा :- आइए, हवेली में मरहमत (कृपया) ! आप थक गए होंगे।

-नहीं, उतना थका नहीं हूँ.......-मंसूरबाई ने कहा और घोड़े को सचमुच खालमिर्जा के पीछे-पीछे बगीचेवाली बड़ी हवेली के भीतर गया। सचमुच ही घोड़ा कमजोर और खराब था और सफर दूर-दराज का था, जिसके कारण वह ज्यादा थक गया था।
घर के लोग बुखारा में हैं क्या ?- खालमिर्जा ने पूछा, जब कि मंसूरबाई घोड़े को दरख्त से बाँध रहा था।
-नहीं, स्तालिनाबाद में,- मंसूरबाई ने जवाब दिया।– एक परिचित मित्र की हवेली में रख आया हूँ।
-साथ ले आने से भी हो सकता था।

- सोचा, पहले चल कर जगह ठीक कर लूँ, फिर जा कर लाऊँगा।........
-जगह ठीक है,- खालमिर्जा ने कहा,- अच्छा, मेहमानखाना में। मरहमत !
खालमिर्जा के पीछे-पीछे मंसूरबाई मेहमानखाने के चबूतरे पर पहुँच हवेली की अच्छी तरह देख करके बोला :
-जब से हम बुखार से चले आये, तब से इस तरह की मेहमान-दोस्ती नहीं देखी, जैसी कि आज आपने की। सच तो यह है कि मैं सब चीजों से निराश हो गया था।......
-ऐसा क्यों ?.....
......
बुख़ारा से चलते वक्त मंसूरबाई की बीवी ने उससे पूछा था :
-दादेश, जिस जगह हम लोग जा रहे हैं, वहाँ बाग-वाग भी हैं ?
मंसूरभाई रस्सी का एक छोर पैर के नीचे दबाए दूसरे छोर से बोझे को अच्छी तरह बाँध रहा था। उसने साँस लेते हुए कहा- हाँ, हाँ, जमीन भी है, आदमी भी है, आफताब भी है, यही पूछना चाहती है न ?
-हाँ, जरा पूछना चाहती थी। कहते हैं कि पहाड़ी जगह है, वहाँ पत्थर-ही-पत्थर हैं, दरख्त कम हैं....
-कैसी....कौन-सी जगह हो..हो, होती रहे,- मंसूरबाई ने कहा।

इसके बाद मियाँ-बीवी चुप हो अपने काम में लग गये, उसकी बेटी खदीचा माँ के काम में मदद दे रही थी, उसने पूछा :
-भैया नहीं आया, तो भी हम चलेंगे क्या ?
-यह तेरा काम नहीं है, बहुत मत पूछ !- गुस्से में होकर मंसूरबाई ने कहा। खदीचा ने अपनी अत्यन्त चंचल और मोहक काली आँखों को जमीन की ओर कर लिया।


         

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