नारी विमर्श >> स्वप्नमयी स्वप्नमयीविष्णु प्रभाकर
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प्रस्तुत है एक माँ की कहानी....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘स्वप्नमयी’ एक माँ की कहानी है-एक ऐसी माँ की जो
स्वप्न तो
देखती है, परन्तु उसे जी नहीं पाती। इसीलिए नहीं कि उसमें साहस की कमी
हैं, बल्कि इसलिए कि वह बहुत भोली है और साथ ही प्रयोगों में विश्वास करती
है। ऐसे चरित्र कितने ही ऊँचे हों, कितने ही महान् हों, लेकिन इस संसार
में उनके लिए जगह नहीं है। स्वप्न को चरितार्थ करने के लिए व्यक्ति को
अपने ऊपर अंकुश लगाना होगा। इस तरह के चरित्र की झलक स्वप्नमयी की देवरानी
में मिल सकती है। स्वप्नमयी का पति भी इस बात को समझ लेता है, परन्तु तब
जब स्वयं देखने वाली ही नहीं रहती। काश कि वह कुछ पहले समझ सकता, लेकिन तब
तो इस उपन्यास के लिखने की कोई जरूरत ही नहीं थी।
बस आगे का भार पाठक पर ही रहे तो अच्छा है।
बस आगे का भार पाठक पर ही रहे तो अच्छा है।
दो शब्द
‘स्वप्नमयी’ मेरा तीसरा उपन्यास है और तीनों में सबसे
छोटा भी
है। इससे एक बड़ी कहानी कहना अधिक उपयुक्त होगा। कई वर्ष पहले इसी नाम से
मैंने एक कहानी लिखी थी। यह उसी का विस्तृत रूप है। इस कथा को मैंने अंत
से लिखना आरम्भ किया था। लगभग 10-15 वर्ष पूर्व मुझे एक घटना का परिचय
मिला जिसका संबंध इस उपन्यास के अंत से है। इस पर से यह पूरी कहानी बन गई।
हो सकता है कुछ व्यक्तियों को यह कथा अब पुरानी मालूम हो, लेकिन हमारा यह
देश बहुत विस्तृत है और इस तरह की घटनाएँ आज भी घटती रहती है। बेशक उनका
स्थूल रूप वही न हो जो इस कथा में है, लेकिन भावना कमोबेश वही रहती है।
‘धर्मयुग’ में इस कथा को पढ़कर कई महिलाओं ने मुझे इस
तरह के
पत्र लिखे। एक बहन ने तो यह कहकर मुझे संकट में डाल दिया कि कमोबेश यह
उनके जीवन की कथा है (निश्चय की मृत्यु को छोड़कर)। वे सब बातें कहने से
मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि मैं इस उपन्यास की सत्यता को प्रामाणित करना
चाहता हूँ। यह तो एक घटना पर आधारित मेरे मन की कहानी है।
इस लघु उपन्यास की शैली मेरे पहले दोनों उपन्यासों से बिलकुल अलग है। इसको मैंने सुविधानुसार बोलकर लिखाया है। इसलिए हो सकता है कि इतने छोटे-से उपन्यास में भी किसी को कहीं विस्तार दिखाई दे। हो सकता है कुछ आलोचक इस बात के लिए नाराज हो जाएँ कि मैंने इसमें कुछ असाधारण बातों का वर्णन किया है, जैसे संन्यासी की कथा। लेकिन मेरा यह उद्देश्य कभी नहीं रहा कि मैं पाठकों को किसी रहस्यमयी कल्पना में उलझा दूँ। अचानक ही लिखाते-लिखाते यह बात मेरे मुँह से निकल गई। उसके बाद मैंने उसे पढ़ा और चाहा कि उसे निकाल दिया जाए, लेकिन निकाल न सका। शायद यह मेरा मोह ही था। सचमुच इस कथा से मुझे एक अजीब-सा मोह है और इसीलिए यह लिखी भी जा सकी है।
‘स्वप्नमयी’ एक माँ की कहानी है-एक ऐसी माँ की जो स्वप्न तो देखती है, परन्तु उसे जी नहीं पाती। इसीलिए नहीं कि उसमें साहस की कमी हैं, बल्कि इसलिए कि वह बहुत भोली है और साथ ही प्रयोगों में विश्वास करती है। ऐसे चरित्र कितने ही ऊँचे हों, कितने ही महान् हों, लेकिन इस संसार में उनके लिए जगह नहीं है। स्वप्न को चरितार्थ करने के लिए व्यक्ति को अपने ऊपर अंकुश लगाना होगा। इस तरह के चरित्र की झलक ‘स्वप्नमयी’ की देवरानी में मिल सकती है। ‘स्वप्नमयी’ का पति भी इस बात को समझ लेता है, परन्तु तब जब स्वयं देखने वाली ही नहीं रहती। काश कि वह कुछ पहले समझ सकता, लेकिन तब तो इस उपन्यास के लिखने की कोई जरूरत ही नहीं थी।
बस आगे का भार पाठक पर ही रहे तो अच्छा है।
इस लघु उपन्यास की शैली मेरे पहले दोनों उपन्यासों से बिलकुल अलग है। इसको मैंने सुविधानुसार बोलकर लिखाया है। इसलिए हो सकता है कि इतने छोटे-से उपन्यास में भी किसी को कहीं विस्तार दिखाई दे। हो सकता है कुछ आलोचक इस बात के लिए नाराज हो जाएँ कि मैंने इसमें कुछ असाधारण बातों का वर्णन किया है, जैसे संन्यासी की कथा। लेकिन मेरा यह उद्देश्य कभी नहीं रहा कि मैं पाठकों को किसी रहस्यमयी कल्पना में उलझा दूँ। अचानक ही लिखाते-लिखाते यह बात मेरे मुँह से निकल गई। उसके बाद मैंने उसे पढ़ा और चाहा कि उसे निकाल दिया जाए, लेकिन निकाल न सका। शायद यह मेरा मोह ही था। सचमुच इस कथा से मुझे एक अजीब-सा मोह है और इसीलिए यह लिखी भी जा सकी है।
‘स्वप्नमयी’ एक माँ की कहानी है-एक ऐसी माँ की जो स्वप्न तो देखती है, परन्तु उसे जी नहीं पाती। इसीलिए नहीं कि उसमें साहस की कमी हैं, बल्कि इसलिए कि वह बहुत भोली है और साथ ही प्रयोगों में विश्वास करती है। ऐसे चरित्र कितने ही ऊँचे हों, कितने ही महान् हों, लेकिन इस संसार में उनके लिए जगह नहीं है। स्वप्न को चरितार्थ करने के लिए व्यक्ति को अपने ऊपर अंकुश लगाना होगा। इस तरह के चरित्र की झलक ‘स्वप्नमयी’ की देवरानी में मिल सकती है। ‘स्वप्नमयी’ का पति भी इस बात को समझ लेता है, परन्तु तब जब स्वयं देखने वाली ही नहीं रहती। काश कि वह कुछ पहले समझ सकता, लेकिन तब तो इस उपन्यास के लिखने की कोई जरूरत ही नहीं थी।
बस आगे का भार पाठक पर ही रहे तो अच्छा है।
स्वप्नमयी
एक
मैं उसे भूलना चाहकर भी भूल नहीं पाता। जैसे वह मेरे जीवन में-पार्थिव और
अपार्थिव दोनों में, रम रही है। उसके कहा था कि मुझे भूल जाना; और स्वप्न
अक्सर भूल जाता है। वह भी एक स्वप्न ही थी, लेकिन वह स्वप्न सत्य होकर
मेरे मानस पर ऐसा उतरा है कि धोया नहीं धुलता। वह मेरे पास क्यों आई, कैसे
हम एक हुए, इसका कारण भी जैसे मन में आ-आकर खो जाता है। क्या वह केवल रूप
ही था। बंगाल और पंजाब का मेल इतना सुंदर हो सकता है इसकी मैंने कभी
कल्पना भी नहीं की था। शरीर ऐसा, जैसे रूप अँगडाई लेता हो, रंग कुंदन-सा
दमकता हुआ, आँखें बड़ी-बड़ी हिरनी के बच्चे की-सी। वही चंचलता, वही स्नेह।
भोलापन तो उसमें रूप लेकर उतरा था। जैसे सब कुछ ब्रह्मा ने उसी के लिए
बनाया हो।
बड़े-बड़े महलों वाले इस कलकत्ता नगर में, उसे बड़े से कॉलेज के आँगन में पहली बार देखा तो अनदेखा कर दिया। लेकिन विधि तो जैसे हमें मिलाने पर तुली हुई थी। हम एक ही क्लास में आए। एक ही विषय हमने लिया कि हिन्दी मेरी मातृभाषा है और इसीलिए उसने एक दिन मेरा सहारा लिया। उस दिन में कोई विशेषता नहीं थी, कोई विशेष बात भी उस दिन हुई हो, सो याद नहीं पड़ता। लेकिन वह साधारण बात, जो उस दिन बीज रूप थी, एक दिन अपने-आप ही बट-वृक्ष में रूपान्तरित हो गई। आज मुझे याद नहीं पड़ता कि कौन-सी शाखा उनमें पहली है और कौन-सी दूसरी। उसकी विभिन्नता और विशालता में मैं जैसे उलझा हुआ हूँ। लेकिन वह उलझना तो बड़ा प्यारा लगता है, निकलने को जी नहीं करता। यहाँ तक कि आप लोगों को बताने को भी नहीं करता। बताऊँगा भी, माफी चाहता हूँ। बस इतना बताऊँगा कि एक दिन मैंने उससे पूछा, ‘‘क्या तुम मुझसे शादी कर सकती हो ?’’
वह बोली, ‘‘यही तो मैं भी तुमसे कहना चाहती थी।’’
बड़ी अजीब बात लगती है कि एक स्त्री के मुख से। लेकिन वह तो जिंदगी-भर ऐसी ही बातें करती रही। उसके पिता ठेठ पंजाब से आए थे और उसकी माता ठेठ बंगाल की थी। कहीं परदेश में वे दोनों एक-दूसरे से मिले। बड़े घरों के थे। मिलना कोई मुश्किल नहीं था। उनकी शादी हो गई। पति सरकारी अफसर होने से सारे हिंदुस्तान में घूमे। उसी बीच सुदूर दक्षिण में, समुद्र के किनारे, केरल के एक नगर में अलका का जन्म हुआ। शायद इसीलिए केरल का वह सामुद्रिक सौंदर्य—कन्याकुमारी का वह कौमार्य उसमें साकार हो उठा था। स्वप्नमयी होने के साथ-साथ उसमें साहस भी कम न था। पर उस साहस में चंद्रकिरण जैसी कोमलता भी थी।
इतनी दूर चलकर वे आती हैं, लेकिन कितनी कोमल लगती हैं। इसी तरह हिंदुस्तान में घूमते-फिरते वह कलकत्ता आकर जैसे रुक गए। उसके पिता ने नौकरी से अवसर पाकर या कहें एक तरह से पहले ही छुट्टी लेकर राजनीति को अपना लिया था और उसमें भी वह एकाएक समाजवादी बन गए थे। बहुतों को सुनकर बड़ा अचरज हुआ लेकिन वह तो उसमें ऐसे डूबे जैसे नौकरी में डूबे हुए थे। न जाने कितनी बार वह जेल गए। अलका की माँ भी पीछे न रही और सच तो यह है कि वह अलका की माँ ही तो थी जो राजनीति का खेल खेलती थी। पति तो उसके हाथ में यंत्र थे। लेकिन यंत्र निर्जीव नहीं था। बड़ी ताकत थी उसमें और प्रेम भी उतना ही विशाल था।
अलका मेरे कुटुम्ब में आई; लेकिन जैसा उसका स्वागत होना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। मैं देसवाल और वह वर्ण-संकर। हम दोनों में अंतर्जातीय विवाह वैसे ही लोकप्रिय़ नहीं है, इस पर यह जाति-विहीन लड़की-जो प्रेम करना जानता थी, आदर करना भी उसने सीखा था, लेकिन तौर-तरीके उसके सब अपने थे। बात दूसरों की सुन लेती थी। उस क्षण लगता था कि वह सबकुछ समझ गई है, लेकिन अवसर आता तो वह करती वही थी जो उसका स्वभाव था, य़ा कहें जो वह चाहती थी। समझौता करने की प्रवृत्ति उसमें थी; पर यह बड़ी अचरज की बात है कि वह समझौता करना चाहती नहीं थी। इसलिए कभी-कभी बड़ी अद्भुत परिस्थिति पैदा हो जाती थी।
यों उसका व्यवहार बड़ा प्रेममय था। दूसरों पर अपना सब कुछ लुटा देना उसने सीखा था। अपना तो जैसे उसका कुछ था ही नहीं। इसलिए उसके विरोधी भी उससे प्रेम किए बिना नहीं रह सकते थे। शादी के बाद हम बहुत करके कलकत्ता ही रहे। वहाँ मैं एक कालेज में पढ़ाने लगा था और वह कई प्रकार के सांस्कृतिक आंदोलनों में रस लेती रहती थी। जिस आंदोलन में वह एक बार उतरती उसको अपनाना उसने सीखा था। विरोध होने पर भी वह पीछे नहीं हट सकती थी। यों परोक्ष में वह हटती भी दिखायी देती थी।
लेकिन एकाएक उसमें एक परिवर्तन शुरू हुआ। आज तो मैं उसको परिवर्तन नहीं कह सकता; लेकिन उस दिन मुझे वह ऐसा ही लगा था। विशेषकर मेरी माँ तो तब की उसकी बातों से बड़ी चिंता पैदा हो गई थी। क्योंकि पहले तो वह उसकी बातों को सुन लेती थी, उसको मानने का प्रयत्न करती थी। मुझे याद है कि जब मेरी माँ ने उसे हम लोगो के ढेर सारे गहने पहनने को दिए, तो उसने बड़े चाव से पहने। एक-एक गहने का उसने दस-दस बार नाम पूछा। बहुत दिनों तक उन्हें रटती रही। हमारी पोशाक को उसने प्रेम से ग्रहण किया और इतने प्रेम से ग्रहण किया कि एक बार हमारे कॉलेज में फैन्सी-ड्रेस-प्रतियोगिता हुई और पुराने विद्यार्थियों ने उसमें हिस्सा किया, तो अलका सर्वप्रथम आई। हमारी पोशाक, बोली, व्यवहार सब उस पर ऐसे फबे कि कोई उसे पहचान ही न पाया। यहाँ तक कि बात खुल जाने पर भी लोगों को यह यकीन रहा कि यह अब गलत कह रही है। उस दिन का चित्र मेरी आँखों में आज भी उतर आता है तो मैं आत्म-विभोर हो उठता हूँ। वैसे उसके कई फोटो, जो उस दिन खींचे गए थे, मेरे एलबम में लगे हैं, पर वे तो जैसे मुझे कार्बन कापी मालूम देते हैं। उसका असली रुप तो मेरे मानस पर ही अंकित है।
बड़े-बड़े महलों वाले इस कलकत्ता नगर में, उसे बड़े से कॉलेज के आँगन में पहली बार देखा तो अनदेखा कर दिया। लेकिन विधि तो जैसे हमें मिलाने पर तुली हुई थी। हम एक ही क्लास में आए। एक ही विषय हमने लिया कि हिन्दी मेरी मातृभाषा है और इसीलिए उसने एक दिन मेरा सहारा लिया। उस दिन में कोई विशेषता नहीं थी, कोई विशेष बात भी उस दिन हुई हो, सो याद नहीं पड़ता। लेकिन वह साधारण बात, जो उस दिन बीज रूप थी, एक दिन अपने-आप ही बट-वृक्ष में रूपान्तरित हो गई। आज मुझे याद नहीं पड़ता कि कौन-सी शाखा उनमें पहली है और कौन-सी दूसरी। उसकी विभिन्नता और विशालता में मैं जैसे उलझा हुआ हूँ। लेकिन वह उलझना तो बड़ा प्यारा लगता है, निकलने को जी नहीं करता। यहाँ तक कि आप लोगों को बताने को भी नहीं करता। बताऊँगा भी, माफी चाहता हूँ। बस इतना बताऊँगा कि एक दिन मैंने उससे पूछा, ‘‘क्या तुम मुझसे शादी कर सकती हो ?’’
वह बोली, ‘‘यही तो मैं भी तुमसे कहना चाहती थी।’’
बड़ी अजीब बात लगती है कि एक स्त्री के मुख से। लेकिन वह तो जिंदगी-भर ऐसी ही बातें करती रही। उसके पिता ठेठ पंजाब से आए थे और उसकी माता ठेठ बंगाल की थी। कहीं परदेश में वे दोनों एक-दूसरे से मिले। बड़े घरों के थे। मिलना कोई मुश्किल नहीं था। उनकी शादी हो गई। पति सरकारी अफसर होने से सारे हिंदुस्तान में घूमे। उसी बीच सुदूर दक्षिण में, समुद्र के किनारे, केरल के एक नगर में अलका का जन्म हुआ। शायद इसीलिए केरल का वह सामुद्रिक सौंदर्य—कन्याकुमारी का वह कौमार्य उसमें साकार हो उठा था। स्वप्नमयी होने के साथ-साथ उसमें साहस भी कम न था। पर उस साहस में चंद्रकिरण जैसी कोमलता भी थी।
इतनी दूर चलकर वे आती हैं, लेकिन कितनी कोमल लगती हैं। इसी तरह हिंदुस्तान में घूमते-फिरते वह कलकत्ता आकर जैसे रुक गए। उसके पिता ने नौकरी से अवसर पाकर या कहें एक तरह से पहले ही छुट्टी लेकर राजनीति को अपना लिया था और उसमें भी वह एकाएक समाजवादी बन गए थे। बहुतों को सुनकर बड़ा अचरज हुआ लेकिन वह तो उसमें ऐसे डूबे जैसे नौकरी में डूबे हुए थे। न जाने कितनी बार वह जेल गए। अलका की माँ भी पीछे न रही और सच तो यह है कि वह अलका की माँ ही तो थी जो राजनीति का खेल खेलती थी। पति तो उसके हाथ में यंत्र थे। लेकिन यंत्र निर्जीव नहीं था। बड़ी ताकत थी उसमें और प्रेम भी उतना ही विशाल था।
अलका मेरे कुटुम्ब में आई; लेकिन जैसा उसका स्वागत होना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। मैं देसवाल और वह वर्ण-संकर। हम दोनों में अंतर्जातीय विवाह वैसे ही लोकप्रिय़ नहीं है, इस पर यह जाति-विहीन लड़की-जो प्रेम करना जानता थी, आदर करना भी उसने सीखा था, लेकिन तौर-तरीके उसके सब अपने थे। बात दूसरों की सुन लेती थी। उस क्षण लगता था कि वह सबकुछ समझ गई है, लेकिन अवसर आता तो वह करती वही थी जो उसका स्वभाव था, य़ा कहें जो वह चाहती थी। समझौता करने की प्रवृत्ति उसमें थी; पर यह बड़ी अचरज की बात है कि वह समझौता करना चाहती नहीं थी। इसलिए कभी-कभी बड़ी अद्भुत परिस्थिति पैदा हो जाती थी।
यों उसका व्यवहार बड़ा प्रेममय था। दूसरों पर अपना सब कुछ लुटा देना उसने सीखा था। अपना तो जैसे उसका कुछ था ही नहीं। इसलिए उसके विरोधी भी उससे प्रेम किए बिना नहीं रह सकते थे। शादी के बाद हम बहुत करके कलकत्ता ही रहे। वहाँ मैं एक कालेज में पढ़ाने लगा था और वह कई प्रकार के सांस्कृतिक आंदोलनों में रस लेती रहती थी। जिस आंदोलन में वह एक बार उतरती उसको अपनाना उसने सीखा था। विरोध होने पर भी वह पीछे नहीं हट सकती थी। यों परोक्ष में वह हटती भी दिखायी देती थी।
लेकिन एकाएक उसमें एक परिवर्तन शुरू हुआ। आज तो मैं उसको परिवर्तन नहीं कह सकता; लेकिन उस दिन मुझे वह ऐसा ही लगा था। विशेषकर मेरी माँ तो तब की उसकी बातों से बड़ी चिंता पैदा हो गई थी। क्योंकि पहले तो वह उसकी बातों को सुन लेती थी, उसको मानने का प्रयत्न करती थी। मुझे याद है कि जब मेरी माँ ने उसे हम लोगो के ढेर सारे गहने पहनने को दिए, तो उसने बड़े चाव से पहने। एक-एक गहने का उसने दस-दस बार नाम पूछा। बहुत दिनों तक उन्हें रटती रही। हमारी पोशाक को उसने प्रेम से ग्रहण किया और इतने प्रेम से ग्रहण किया कि एक बार हमारे कॉलेज में फैन्सी-ड्रेस-प्रतियोगिता हुई और पुराने विद्यार्थियों ने उसमें हिस्सा किया, तो अलका सर्वप्रथम आई। हमारी पोशाक, बोली, व्यवहार सब उस पर ऐसे फबे कि कोई उसे पहचान ही न पाया। यहाँ तक कि बात खुल जाने पर भी लोगों को यह यकीन रहा कि यह अब गलत कह रही है। उस दिन का चित्र मेरी आँखों में आज भी उतर आता है तो मैं आत्म-विभोर हो उठता हूँ। वैसे उसके कई फोटो, जो उस दिन खींचे गए थे, मेरे एलबम में लगे हैं, पर वे तो जैसे मुझे कार्बन कापी मालूम देते हैं। उसका असली रुप तो मेरे मानस पर ही अंकित है।
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