श्रंगार - प्रेम >> आदिम राग आदिम रागरामदरश मिश्र
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नर-नारी के बीच की आदिम भावनाओं की परीक्षा और विश्लेषण
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
हम जब धरती से ऊपर उठ आते हैं तब ऊपर से धरती की सतह ही गहरी खाई और नीचाई के रूप में दीखने लगती है। यह जो नीचे दिखाई पड़ रहा है वह धरती के नीचे
नहीं है, या तो धरती पर है या धरती के ऊपर है... अभी हम जहाँ हैं वह ऊपर
जाने के बाद खाई सा दीखने लगेगा...। तब यह ऊँचाई-नीचाई सापेक्षिक है...।
और यह ऊँचाई, यह चढ़ाई तो सामान्य नहीं है, यह तो साँस खींचकर खून को ऊपर
चढ़ाने जैसा है। सामान्य तो धरती की सतह का जीवन ही हैं, जहाँ दो घण्टे
बाद फिर लौटना है। यह चढ़ाई कितना थका डालती हैं ऊपर चढ़ने का अहंकार तो
जरूर तृप्त होता है,लेकिन अंग-अंग एक असमान्य तनाव में अपने को थका डालता
है। और धरती की सतह पर जीवन भर चलते रहो, अंग-अंग अपनी सहज प्रसन्नता से खिला रहता है। रक्त बिना किसी तनाव और दबाव के उनमें तैरता रहता है।
‘‘नमस्ते सर !’’
प्रो. शील चौंक उठा।
‘‘ओह आप !’’
बस स्टैण्ड पर दोनों कुछ क्षण तक चुप रहे।
‘‘कहाँ जा रहे हैं सर ?’’
‘‘आज काँकरिया जा रहा हूँ, सुना है बड़ी अच्छी जगह है।’’
‘‘हाँ सर, बहुत अच्छी जगह है, मैं भी तो वहीं तक चल रहा हूँ।’’
शील ने कुछ कहा नहीं। सोचा, जा रही होगी। उसने घूमकर लड़की की ओर देखा और आँखें टकरा गई। वह लड़की उसी की ओर देख रही थी। शील को सिर से पैर तक चीरती हुई एक रेखा निकल गई।
बस आई।
‘‘सर, सर, यही बस जाती है काँकरिया। बैठिये न !’’ और वह जैसे शील को धक्का-सा देती हुई बस में चढ़ा ले गई।
शील एक खाली सीट पर बैठ गया। उसकी बगल में सीट खाली नहीं थी, इसलिए लड़की दूसरी सीट पर बैठी। शील के भीतर कुछ बहुत तरल-तरल-सा पदार्थ बह रहा था, जिसमें एक गुनगुनी आँच-सी महसूस हो रही थी। उसने मुड़कर पीछे देखा, फिर वही दृश्य। लड़की की दृष्टि उसी पर टिकी थी। उसकी इच्छा हुई कि वह कहीं बीच में ही धीरे से उतर जाए।
‘‘सर, उतरिये, काँकरिया आ गया।’’
‘‘ओह,’’ वह झपट कर उठा और चुपचाप लड़की के पीछे हो लिया। सामने काँकरिया झील थी—अद्भुत।
चारों ओर क्रत्रिम पहाड़ियों से घिरी यह लम्बी-चौड़ी झील...नीला-नीला गहरा पानी...बीच में एक भवन...झील और पहाड़ियों के बीच गोल सड़क..जैसे यह सड़क यहीं बार-बार घूमने के लिए लाकर छोड़ देती हो।
शील सोचता रहा कि लड़की का कोई सम्बन्धी यहाँ आया होगा, उसी के साथ घूमने-फिरने का यहाँ प्रोग्राम होगा। वह सोचता रहा कि यह लड़की अब कहेगी—‘अच्छा सर, अब चली। मेरी मौसी या चाची या बुआ या बहिन उस मोड़ पर इन्तज़ार कर रही होंगी।’ किन्तु वह लड़की आगे-आगे चलती हुई जैसे उसे खींचती-सी गई।
‘‘सर, यह चिड़ियाघर है, वह बाल-वाटिका है, वह फव्वारा है, वह पहाड़ी है, वह गार्डन है, वह हैंगिंग पुल है और वह....’’
शील चुपचाप सुनता हुआ उसकी अँगुलियों के संकेत को देखता रहा।
‘‘आइए न सर, उधर चलें, बगीचे में बैठें।’’
शील संकोच में डूबा जा रहा था—अजब लड़की है, मुझे खींचती ही जा रही है। कोई देखेगा तो क्या सोचेगा ? उसे यहाँ आए तीन-चार महीने भी नहीं हुए और वह इस तरह बदनाम हो जाएगा तो ? नहीं, नहीं, उसे मना कर देना चाहिए।
‘‘आइए न सर, यहाँ ठिठक क्यों गए ?’’
‘‘ओह, हाँ, ठिठका नहीं, सोच रहा था कितना सुन्दर स्थान है।’’
‘‘हाँ, यही तो सर, यह बहुत सुन्दर स्थान है, आइए कहीं बैठें।’’
और शील चुपचाप लड़की के साथ हो लिया, दोनों पहाड़ी के ऊपर बने एक पार्क में जाकर बैठ गए। सितम्बर की शाम घिर आई थी। चारों ओर की रंग-बिरंगी लाइट झील के पानी में झरने-सी झर रही थी। बागीचे में भी बिजली की मद्धिम-मद्धिम रोशनी तैर रही थी। हल्की-हल्की ठंडक से भरी हवा शरीर को रह-रहकर कँपा देती थी। शील गुम-सुम बैठा इधर-उधर देख रहा था। अजब संकट में पड़ा है। कोई छात्र इस हालत में देख ले तो क्या कहेगा ? यह लड़की भी अजब तेज़ है, पता नहीं कहाँ से रास्ते में टपक पड़ी और साँप के मस्तक पर चिपकी कौड़ी की तरह मुझे पकड़े-पकड़े घूम रही है। और मैं चाहते हुए भी नहीं छूट पा रहा हूँ।
एक अजब खामोशी बीच में फट-फट पड़ रही थी जिसे यह लड़की झटके से काट-काट देती थी।
‘‘क्या नाम के तुम्हारा ?’’ शील ने यों ही पूछ लिया।
वह खिलखिलाकर हँस पड़ी—‘‘वाह सर, चार महीने से पढ़ा रहे हैं और नाम भी नहीं जानते, मुझे रीता कहते हैं।’’
‘‘शील भी मुस्कराया—‘‘कालेज में हज़ार लड़के-लड़कियाँ हैं, किस-किस का नाम याद रहे ! और यह तो जानती हो कि क्लास में लड़के-लड़कियों के नाम नहीं होते, नम्बर होते हैं।’’
हँ-हँ-हँ-हँ...रीता फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी, फिर वह उदास हो गई। एक हज़ार लड़के-लड़कियाँ और उनमें से एक वह भी ? क्या वह एक हज़ार की भीड़ में खोई हुई नम्बर मात्र है ? उसके लिए तो पचास टीचर हैं किन्तु क्या उसने इस भीड़ में से शील जी को पहले ही दिन नहीं अलगा लिया था ? क्या शील जी को क्लास में ऐसा नहीं लगा कि मैंने उन्हें भीड़ में से अलगा कर देखा है ?
‘‘क्या सोचने लगीं रीता ?’’
‘‘कुछ नहीं सर, यों ही...’’
‘‘हवा का एक झोंका आया और दोनों के बीच की खाली जगह को भर कर चला गया।
‘‘सर, आप को गुजरात पसन्द आया ?’’
‘‘हाँ, गुजरात तो पसन्द आया, किन्तु लगता है कि गुजरात को मैं पसन्द नहीं आया।’’
‘‘ऐसा क्यों कहते हैं सर ? कहकर रीता ने अपनी तरल आँखों से शील को देखा। शील को लगा कि उसकी आँखों में रीता की आँखें भर गई हैं और उसकी सारी तरलता भीतर तक जल कर रेखा खींचती हुई चली गई है।
‘‘ऐसा क्यों न कहूँ रीता ? मैं भरपूर कोशिश करता हूँ छात्रों को अपना ‘बेस्ट’ दे सकूँ, लेकिन वे हैं कि मुझे समझते ही नहीं। पता नहीं वे चाहते क्या हैं ? इच्छा होती है कि यह सब छोड़-छाड़ कर भाग जाऊँ।’’
‘‘सर, आप ने ग़लत समझा है कि यह सब आपके साथ ही होता है। प्रायः हर क्लास में होता है। हाँ, जो चटक-मटक पैदा कर सकता है, उसे सब पसन्द करते हैं; लेकिन बाद में सब उसकी नुक्ताचीनी भी करते हैं कि वह तो जोकर है, ऐक्टर है।’’
‘‘मुझसे तो यह सब नहीं हो पाएगा रीता।’’
‘‘नहीं सर, इसकी जरूरत भी नहीं, मुझे तो आप बहुत पसन्द हैं।’’
शील ने उसकी ओर देखा। वह लजा कर दूसरी ओर सिर मोड़ते हुए बोली—‘‘आई मीन यूअर लेक्चर्स सर !’’
शील मुस्करा पड़—लड़की बहुत तेज़ है, बाहर से मासूम भीतर से बहुत तेज़।
‘‘अच्छा-अच्छा अब चलना चाहिए। काफी देर हो गई है।’’
‘‘कुछ देर और बैठिए न सर !’’
शील उठते-उठते रह गया। ‘‘रीता, तुम इस तरह अकेली-अकेली घूम रही हो और कितनी देर हो गई, घर के लोग चिंतित नहीं होंगे ?’’
वह फिर खनखना कर हँस पड़ी।–‘‘सर, यह गुजरात है, यहाँ लड़कियाँ उतने बन्धन में नहीं होतीं, जितने बन्धन में आपके यहाँ। यहाँ लड़कियाँ अकेली कहीं भी जा सकती हैं।’’
‘‘वह तो मैं देख रहा हूँ रीता, लेकिन फिर भी लड़की की एक सीमा होती है। आखिर इतनी रात गए अकेली लड़की घर न लौटे तो माँ-बाप को चिन्ता होती ही है।’’
‘‘यहाँ तो मैं अकेली ही हूँ, मेरे माता-पिता तो अफ्रीका रहते हैं। मेरा गाँव यहाँ से 20-25 मील दूर है, वहाँ मेरे मौसी-मौसा रहते हैं। यहाँ मैं बुआ के साथ रहती हूँ। वह भी अकेली हैं—विधवा। मुझे बहुत मानती हैं सर ! कुछ बोलती नहीं और....’’
‘‘हाँ-हाँ ठीक है, अब चलो, मानती हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें रात दस बजे तक चिंता में डाले रहो।
शील उठ गया।
‘‘हाँ सर, चलिए, नहीं तो आप को भी डाँट पड़ेगी।’’
शील मुस्कराया—‘‘मुझे कौन डाँटेगा ? मकान की तस्वीरें ?’’
रीता भी मुस्करा पड़ी—‘‘क्यों सर, दीवारों के बीच और भी तो कोई होगा ?’’
‘‘नहीं, कोई नहीं।’’
‘‘तो क्या आप अकेले रहते हैं ?’’
‘‘बिल्कुल अकेला ही रहता हूँ और अकेला ही हूँ।’’
रीता ने अनजाने ही हल्कापन महसूस किया। शील जल्दी-जल्दी चलने लगा ताकि लोगों को लगे कि रीता उसके साथ नहीं, अकेली आ रही है। वैसे सड़क काफी खाली हो गई थी। चिकनी सड़कों पर जल की तरह बिजली का प्रकाश तैर रहा था। रीता जल्दी-जल्दी उसके पीछे-पीछे चल रही थी, जैसे वह यह दिखाना चाहती थी कि इनके साथ ही हूँ।
शील चलते-चलते झील के तट पर रुक गया। ‘‘वाह, कितनी सुन्दर जगह है यह, क्यों है न ?’’ उसने रीता की ओर घूमकर देखा।
‘‘हाँ सर, बहुत सुन्दर है लेकिन....’’
‘‘लेकिन क्या ?’’
‘‘लेकिन सर, हर साल इसमें कुछ आत्माएँ विलीन होती हैं।’’
‘‘क्यों, क्या बात है ?’’
‘‘बात यह है कि हर साल कुछ निराश प्रेमी-प्रेमिकाएँ इसमें अपने को छिपाते हैं....’’
शील को लगा कि झील की शान्त जगमगाती सतह को मगर की तरह यहाँ-वहाँ से फाड़ कर हज़ारों प्रेम चिल्ला उठे हों। सचमुच ही वातावरण की खामोशी एक दहाड़ से फठ गई।
‘‘चिड़ियाघर का बाघ है सर !’’
‘‘ओह !’’ कहता हुआ शील वहाँ से फिर चला पड़ा। लेकिन उसे लगता रहा कि काँकरिया झील में से उस रात के सन्नाटे में हजारों अतृप्त आत्माएँ चिल्ला रही हैं।
‘‘उदास हो गए सर !’’
‘‘ओह, नहीं रीता। हाँ, कौन सी बस पकड़ोगी ?’’
‘‘कोई भी।’’
कोई भी का क्या मतलब ? कहाँ जाओगी ?’’
‘‘अम्बा वाड़ी।...और आप कहाँ रहते हैं सर ?’’
‘‘मैं पालड़ी पर।’’
तब तो सर, एक ही बस जाएगी दोनों जगह, आइए 47 पकड़ें।’’
‘‘नहीं-नहीं, मैं इस वक्त शाहीबाग जाऊँगा अपने दोस्त के यहाँ।’’ कहते हुए झटके से वह शाहीबाग स्टेशन की ओर बढ़ गया और रीता चुपचाप 47 के बस स्टैण्ड पर जाकर खड़ी हो गई।
शील शाहीबाग नहीं गया। वह रीता के चले जाने के बाद पालड़ी लौट आया। दस बज चुके थे। दीवारों के घेरे में अकेला टूटा हुआ खाट पर पड़ा हुआ था, दीवारें...दीवारें...दीवारें—हाँ खुले झरोखे से आसमान का एक छोटा-सा टुकड़ा जरूर दीख रहा था जिसमें कुछ तारे टिमटिमा रहे थे। वह चाहता है खुले में सोना। सितम्बर का महीना है, उमस हो रही है, वह चाहता है बाहर सोना...लेकिन छत उसके हिस्से में नहीं है। उसके हिस्से में केवल एक कमरा है जिसमें पंखा तो चल रहा है लेकिन उमस नहीं जा रही है। ऐसे में खुले झरोखे से आसमान के टुकड़े का दिखाई पड़ जाना कितना सुखद लग रहा है। रीता...खुले झरोखे से आसमान का एक टुकड़ा...।
रीता कितना चाहती है मुझे ! वह क्लास में एकटक मुझीको देखती रहती है, न जाने आज कैसे टकरा गई, न जाने वह कहाँ जा रही थी, लेकिन मेरे साथ हो ली। नहीं, उससे इतना संपर्क ठीक नहीं है। आखिर वह छात्रा है, बदनाम हो जाऊँगा मैं। उसे मना कैसे करूँ ? आज ही कितना चाहा कि उससे अलग हो जाऊँ, किन्तु पकड़े ही रही। नहीं, ठीक नहीं है छात्र से इतना हेलमेल। कल उससे साफ-साफ कह दूँगा कि वह मेरे साथ न आया करे। हाँ, हाँ, उसे मना कर दूँगा। आखिर वह मेरी लगती क्या है ?
शील को लगा कि इस फैसले से वह हल्का महसूस करने लगा। उसने करवट बदल ली और सोने का उपक्रम करने लगा। पलकें मूँद लीं और अंधकार को फाड़कर एक छाया-सी उभरने लगी—हल्की धूप-सी एक काया, उभरी हुई नाक, खुले-खुले बाल, नारंगी नुमा चेहरा, फ्राक के नीचे खुली हुई चम्पई पिंडलियाँ...। छाया में चमक रही हैं—दो आँखें, तरल, बड़ी-बड़ी सी आँखें, जैसे सारी चमक यहीं आकर केन्द्रित हो गई है। आँखें...आँखें...आँखें....रीता की आँखें। उसकी आँखें सबसे करीब लगती हैं। आँखें सब से करीब। रीता...उफ, फिर वही बेवकूफी। रीता मेरी कौन होती है ! मुझे सो जाना चाहिए, हाँ मुझे सो जाना चाहिए...।
सूने कमरे का अंधकार फिर फैलने लगा। रीता कितनी प्रसन्न हो गई थी जब सुना था कि मैं अकेला हूँ। कितना बड़ा झूठ बोला मैंने उससे। नहीं, झूठ नहीं बोला था। वह सचमुच अकेला है। देहात में अपनी बीवी को छोड़कर वह कितने सालों से अकेला जी रहा है। बीवी...एक काली मोटी भैंस-सी, उमर में उससे चार साल बड़ी, चेहरे पर चेचक के गहरे दाग़, निपट जाहिल। बचपन में ही शादी हो गई थी। बीवी के घर वालों ने धोखा दिया। ओफ, कितना दुख देती है उसकी स्मृति भी। वह जानता है कि इस कुरूप होने में, चेचक का दाग़ होने में, उससे चार साल बड़ी होने में बीवी का कोई दोष नहीं है। वह बड़ी ही सेवामयी है। किन्तु अब वह क्या करे ? कैसे ढोये उसकी सेवा के ठंडे शव को ? कैसे बरदाश्त करे उसका खौलता हुआ खून इस ठण्डी लाश को ?...ओफ, उसने बहुत सोचा-विचारा लेकिन समझौता नहीं कर सका। उसके भीतर कब से सौंदर्य की एक बेचैन प्यास तड़प रही है। जल की धाराएँ बह जाती हैं। वह उनमें धँसना चाहता है लेकिन बीच में काला-सा एक पत्थर आकर टकरा जाता है और वह लौट-लौट आता है। अपनी अबूझ प्यास लिए तड़पता रहता है। वह न तो अकेला है और न दुकेला। कितने साल हो गये उसकी शक्ल देखे ! शक्ल में रखा ही क्या है कि देखा जाय। उसने घर जाना छोड़ दिया है। जो भी हो वह अकेला नहीं है। उसने रीता से झूठ कहा। झूठ कहा। झूठ कहा तो क्या हो गया है ? कौन लगती है रीता उसकी कि उससे झूठ और सच बोलने को इतना महत्त्व दिया जाये ? कौन लगती है ?...उसने फिर झरोखे की ओर देखा—कमरे के अथाह अंधकार के बाहर आसमान का एक टुक़ड़ा...।
दूसरे दिन शील क्लास में पहुँचा तो उसके अनचाहे ही उसकी दृष्टि ने रीता को फिर से पा लिया। वह बैठी-बैठी बड़ी मोहक हँसी-भरी दृष्टि से शील की ओर देख रही थी। शील को लगा कि वह आज विशेष ढंग से सजी है। वह सज्जा के विस्तार में न जा सका किन्तु रीता की नवीन सज्जा का एक समन्वित प्रभाव उस पर अंकित हो गया। आज उसे शैले की एक कविता पढ़ानी थी—प्रेम कविता। वह कविता कल रात से ही उसके भीतर महक रही थी। उसका एक नया भाव सौन्दर्य कमल-पंखड़ी की तरह स्वतः उसमें धीरे-धीरे खुलने लगा था। सवेरे उठकर उसकी सारी दार्शनिक पृष्ठभूमि भी तैयार की और क्लास में पढ़ाते समय इतना मग्न हो गया मानो वह क्लास को नहीं, केवल रीता को पढ़ा रहा है। घंटा बजा तो उसे खुद बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह समय कैसे बीत गया ! उसने रीता की ओर देखा—अब भी उसकी चमकती आँखें उसकी ओर लगी थीं। वह क्लास से निकलकर स्टाफरूम में आ गया।
‘‘नमस्ते सर !’’ बस स्टैण्ड पर खड़े-खड़े शील ने चौंक कर देखा—रीता !
‘‘ओह, नमस्ते रीता, कहाँ इस स्टैण्ड पर ?’’
‘‘सर, वैसे ही जरा उधर को चल रही हूँ।’’
इधर-उधर का कुछ अभिप्राय न समझ कर शील चुप रहा, बस आई, शील बैठा। जगह खाली थी, रीता भी बैठ गई। शील थोड़ा-सा सकपकाया किन्तु करता क्या ? बस है, कौन किसे बैठने से मना कर सकता है ?
‘‘बहुत अच्छा लगा सर !’’
‘‘क्या ?’’
‘‘आपका लेक्चर।’’
‘‘ओह, उसमें क्या रखा है ? निहायत नीरस, उबाऊ।’’
‘‘देखिये सर, ऐसा कहेंगे तो बोलना छोड़ दूँगी।’’ शील ने उसकी ओर देखे बिना भी यह अनुमान कर लिया कि बनावटी गुस्से से उसकी भँवें टेढ़ी हो गई हैं। वह धीरे-धीरे हँसने लगा।
‘‘सर, कभी मेरे घर आइये।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘यों ही सर, मेरी बुआ आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न होंगी।’’
शील को हँसी आ गई जैसे वह सबकी बुआ, चाची को प्रसन्न करने के लिए ही बना हो, वह चुप रहा।
उसने देखा कि बस स्टैण्ड पर रीता भी उसके साथ उतर गई। उसने समझा शायद उसका उधर भी कोई घर हो। ‘‘अच्छा रीता, तुम अपने घर जाओगी, मैं अपने घर चला।’’
दोनों हँसने लगे।
शील चलने को हुआ तो रीता ने रोका—‘‘अरे ठहरिए सर !’’
‘‘क्या है ?’’ यह कह शील ठहर गया।
‘‘ओ सर, कभी अपना भी घर तो मुझे दिखाइए, कुछ पूछना-पाछना हो तो ?’’
‘‘हाँ, हाँ, जरूर, लेकिन पूछने-पाछने तो स्टाफरूम में भी आ सकती हो।’’
‘‘फिर भी, कह कर रीता ने अपनी परिचित दृष्टि शील की आँखों में डाल दी।
‘‘हाँ, देखिये यह सड़क गई है न’’—शील बोला।
‘‘हाँ’’
‘‘उसके उस सिरे पर एक पेड़ है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘उसकी बाई ओर एक दूकान है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘बस वहीं से आगे चलकर एक बच्चों का स्कूल है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘उसीके पास एक बड़ा-सा मकान है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘बस उसी के पास एक छोटा-सा मकान है, है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘उसी का एक कमरा मेरे पास है, है न !’’
‘‘हाँ, है।’’
‘‘बस उसी में रहता हूँ।’’
‘‘हाँ, हाँ, बस...बस समझ गई। लेकिन इतना और बता दीजिए कि आपके मकान का नम्बर क्या है ? ताकि मकान का सही पता जान सकूँ।’’
दोनों खिलखिलाकर हँसने लगे।
‘‘अच्छा तो चलो, और मकान नम्बर रहा 53।’’
‘‘सर !’’
शील फिर रुक गया।
‘‘चलिये न सर, आज आपका मकान देखती ही चलूँ, दोस्त के यहाँ फिर चली जाऊँगी।’’
‘‘ओफ्फोह, ऐसी भी क्या जल्दी ?’’
‘‘क्यों सर, घबराते हैं मेरे साथ चलने से ?’’
‘‘नहीं...नहीं, चलो।’’
‘‘नहीं सर, मैं फिर कभी आ जाऊँगी, आप असुविधा महसूस कर रहे हैं।’’
‘‘नहीं...नहीं, असुविधा क्या ? चल सकती हो।’’
‘‘नहीं सर, फिर आऊँगी।’’ कहती हुई रीता मुड़ गयी।
शील एक क्षण जहाँ-का-तहाँ खड़ा रहा। रीता ने जाते-जाते एक बार मुड़कर अपनी उसी हँसती निगाह से देखा और चली गई।
शील आकर अपने कमरे में टूट गया कमरे की अस्तव्यस्तता उसके भीतर पैठ कर फैलने लगी और वह स्वयं एक आदमी से फैलता-फैलता कमरा बन गया और फैलता-फैलता एक बिन्दु पर रुक गया—दीवारें...। इसके आगे गति नहीं।
कालेज के ही ड्रेस में वह खाट पर पड़ गया था, उठने की इच्छा नहीं हुई। उसने अलमारी में पाव रोटी के कुछ दबे हुए टुकड़े देखे। कोने में स्टोव बुझा हुआ-सा पड़ा था जिसके ऊपर कालिख जम गई थी। पास चाय के बर्तन और प्याले वैसे ही जूठे पड़े थे। अभी महरी आती होगी, दो-चार यहाँ-वहाँ पड़े बर्तन माँज-मूँज जायेगी। कमरे में झाड़ू लगा देगी, चीज़ों को यहाँ वहाँ रख देगी। वह खुद उठकर खाट का बिस्तर झाड़ कर बिछा देगा और चल देगा पास के होटल में खाना खाने। दो घंटे बाद फिर कमरा वैसा ही हो जायेगा, चाय पीकर जूठे बर्तन फिर यहाँ-वहाँ बिखेर देगा।
प्रो. शील चौंक उठा।
‘‘ओह आप !’’
बस स्टैण्ड पर दोनों कुछ क्षण तक चुप रहे।
‘‘कहाँ जा रहे हैं सर ?’’
‘‘आज काँकरिया जा रहा हूँ, सुना है बड़ी अच्छी जगह है।’’
‘‘हाँ सर, बहुत अच्छी जगह है, मैं भी तो वहीं तक चल रहा हूँ।’’
शील ने कुछ कहा नहीं। सोचा, जा रही होगी। उसने घूमकर लड़की की ओर देखा और आँखें टकरा गई। वह लड़की उसी की ओर देख रही थी। शील को सिर से पैर तक चीरती हुई एक रेखा निकल गई।
बस आई।
‘‘सर, सर, यही बस जाती है काँकरिया। बैठिये न !’’ और वह जैसे शील को धक्का-सा देती हुई बस में चढ़ा ले गई।
शील एक खाली सीट पर बैठ गया। उसकी बगल में सीट खाली नहीं थी, इसलिए लड़की दूसरी सीट पर बैठी। शील के भीतर कुछ बहुत तरल-तरल-सा पदार्थ बह रहा था, जिसमें एक गुनगुनी आँच-सी महसूस हो रही थी। उसने मुड़कर पीछे देखा, फिर वही दृश्य। लड़की की दृष्टि उसी पर टिकी थी। उसकी इच्छा हुई कि वह कहीं बीच में ही धीरे से उतर जाए।
‘‘सर, उतरिये, काँकरिया आ गया।’’
‘‘ओह,’’ वह झपट कर उठा और चुपचाप लड़की के पीछे हो लिया। सामने काँकरिया झील थी—अद्भुत।
चारों ओर क्रत्रिम पहाड़ियों से घिरी यह लम्बी-चौड़ी झील...नीला-नीला गहरा पानी...बीच में एक भवन...झील और पहाड़ियों के बीच गोल सड़क..जैसे यह सड़क यहीं बार-बार घूमने के लिए लाकर छोड़ देती हो।
शील सोचता रहा कि लड़की का कोई सम्बन्धी यहाँ आया होगा, उसी के साथ घूमने-फिरने का यहाँ प्रोग्राम होगा। वह सोचता रहा कि यह लड़की अब कहेगी—‘अच्छा सर, अब चली। मेरी मौसी या चाची या बुआ या बहिन उस मोड़ पर इन्तज़ार कर रही होंगी।’ किन्तु वह लड़की आगे-आगे चलती हुई जैसे उसे खींचती-सी गई।
‘‘सर, यह चिड़ियाघर है, वह बाल-वाटिका है, वह फव्वारा है, वह पहाड़ी है, वह गार्डन है, वह हैंगिंग पुल है और वह....’’
शील चुपचाप सुनता हुआ उसकी अँगुलियों के संकेत को देखता रहा।
‘‘आइए न सर, उधर चलें, बगीचे में बैठें।’’
शील संकोच में डूबा जा रहा था—अजब लड़की है, मुझे खींचती ही जा रही है। कोई देखेगा तो क्या सोचेगा ? उसे यहाँ आए तीन-चार महीने भी नहीं हुए और वह इस तरह बदनाम हो जाएगा तो ? नहीं, नहीं, उसे मना कर देना चाहिए।
‘‘आइए न सर, यहाँ ठिठक क्यों गए ?’’
‘‘ओह, हाँ, ठिठका नहीं, सोच रहा था कितना सुन्दर स्थान है।’’
‘‘हाँ, यही तो सर, यह बहुत सुन्दर स्थान है, आइए कहीं बैठें।’’
और शील चुपचाप लड़की के साथ हो लिया, दोनों पहाड़ी के ऊपर बने एक पार्क में जाकर बैठ गए। सितम्बर की शाम घिर आई थी। चारों ओर की रंग-बिरंगी लाइट झील के पानी में झरने-सी झर रही थी। बागीचे में भी बिजली की मद्धिम-मद्धिम रोशनी तैर रही थी। हल्की-हल्की ठंडक से भरी हवा शरीर को रह-रहकर कँपा देती थी। शील गुम-सुम बैठा इधर-उधर देख रहा था। अजब संकट में पड़ा है। कोई छात्र इस हालत में देख ले तो क्या कहेगा ? यह लड़की भी अजब तेज़ है, पता नहीं कहाँ से रास्ते में टपक पड़ी और साँप के मस्तक पर चिपकी कौड़ी की तरह मुझे पकड़े-पकड़े घूम रही है। और मैं चाहते हुए भी नहीं छूट पा रहा हूँ।
एक अजब खामोशी बीच में फट-फट पड़ रही थी जिसे यह लड़की झटके से काट-काट देती थी।
‘‘क्या नाम के तुम्हारा ?’’ शील ने यों ही पूछ लिया।
वह खिलखिलाकर हँस पड़ी—‘‘वाह सर, चार महीने से पढ़ा रहे हैं और नाम भी नहीं जानते, मुझे रीता कहते हैं।’’
‘‘शील भी मुस्कराया—‘‘कालेज में हज़ार लड़के-लड़कियाँ हैं, किस-किस का नाम याद रहे ! और यह तो जानती हो कि क्लास में लड़के-लड़कियों के नाम नहीं होते, नम्बर होते हैं।’’
हँ-हँ-हँ-हँ...रीता फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी, फिर वह उदास हो गई। एक हज़ार लड़के-लड़कियाँ और उनमें से एक वह भी ? क्या वह एक हज़ार की भीड़ में खोई हुई नम्बर मात्र है ? उसके लिए तो पचास टीचर हैं किन्तु क्या उसने इस भीड़ में से शील जी को पहले ही दिन नहीं अलगा लिया था ? क्या शील जी को क्लास में ऐसा नहीं लगा कि मैंने उन्हें भीड़ में से अलगा कर देखा है ?
‘‘क्या सोचने लगीं रीता ?’’
‘‘कुछ नहीं सर, यों ही...’’
‘‘हवा का एक झोंका आया और दोनों के बीच की खाली जगह को भर कर चला गया।
‘‘सर, आप को गुजरात पसन्द आया ?’’
‘‘हाँ, गुजरात तो पसन्द आया, किन्तु लगता है कि गुजरात को मैं पसन्द नहीं आया।’’
‘‘ऐसा क्यों कहते हैं सर ? कहकर रीता ने अपनी तरल आँखों से शील को देखा। शील को लगा कि उसकी आँखों में रीता की आँखें भर गई हैं और उसकी सारी तरलता भीतर तक जल कर रेखा खींचती हुई चली गई है।
‘‘ऐसा क्यों न कहूँ रीता ? मैं भरपूर कोशिश करता हूँ छात्रों को अपना ‘बेस्ट’ दे सकूँ, लेकिन वे हैं कि मुझे समझते ही नहीं। पता नहीं वे चाहते क्या हैं ? इच्छा होती है कि यह सब छोड़-छाड़ कर भाग जाऊँ।’’
‘‘सर, आप ने ग़लत समझा है कि यह सब आपके साथ ही होता है। प्रायः हर क्लास में होता है। हाँ, जो चटक-मटक पैदा कर सकता है, उसे सब पसन्द करते हैं; लेकिन बाद में सब उसकी नुक्ताचीनी भी करते हैं कि वह तो जोकर है, ऐक्टर है।’’
‘‘मुझसे तो यह सब नहीं हो पाएगा रीता।’’
‘‘नहीं सर, इसकी जरूरत भी नहीं, मुझे तो आप बहुत पसन्द हैं।’’
शील ने उसकी ओर देखा। वह लजा कर दूसरी ओर सिर मोड़ते हुए बोली—‘‘आई मीन यूअर लेक्चर्स सर !’’
शील मुस्करा पड़—लड़की बहुत तेज़ है, बाहर से मासूम भीतर से बहुत तेज़।
‘‘अच्छा-अच्छा अब चलना चाहिए। काफी देर हो गई है।’’
‘‘कुछ देर और बैठिए न सर !’’
शील उठते-उठते रह गया। ‘‘रीता, तुम इस तरह अकेली-अकेली घूम रही हो और कितनी देर हो गई, घर के लोग चिंतित नहीं होंगे ?’’
वह फिर खनखना कर हँस पड़ी।–‘‘सर, यह गुजरात है, यहाँ लड़कियाँ उतने बन्धन में नहीं होतीं, जितने बन्धन में आपके यहाँ। यहाँ लड़कियाँ अकेली कहीं भी जा सकती हैं।’’
‘‘वह तो मैं देख रहा हूँ रीता, लेकिन फिर भी लड़की की एक सीमा होती है। आखिर इतनी रात गए अकेली लड़की घर न लौटे तो माँ-बाप को चिन्ता होती ही है।’’
‘‘यहाँ तो मैं अकेली ही हूँ, मेरे माता-पिता तो अफ्रीका रहते हैं। मेरा गाँव यहाँ से 20-25 मील दूर है, वहाँ मेरे मौसी-मौसा रहते हैं। यहाँ मैं बुआ के साथ रहती हूँ। वह भी अकेली हैं—विधवा। मुझे बहुत मानती हैं सर ! कुछ बोलती नहीं और....’’
‘‘हाँ-हाँ ठीक है, अब चलो, मानती हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें रात दस बजे तक चिंता में डाले रहो।
शील उठ गया।
‘‘हाँ सर, चलिए, नहीं तो आप को भी डाँट पड़ेगी।’’
शील मुस्कराया—‘‘मुझे कौन डाँटेगा ? मकान की तस्वीरें ?’’
रीता भी मुस्करा पड़ी—‘‘क्यों सर, दीवारों के बीच और भी तो कोई होगा ?’’
‘‘नहीं, कोई नहीं।’’
‘‘तो क्या आप अकेले रहते हैं ?’’
‘‘बिल्कुल अकेला ही रहता हूँ और अकेला ही हूँ।’’
रीता ने अनजाने ही हल्कापन महसूस किया। शील जल्दी-जल्दी चलने लगा ताकि लोगों को लगे कि रीता उसके साथ नहीं, अकेली आ रही है। वैसे सड़क काफी खाली हो गई थी। चिकनी सड़कों पर जल की तरह बिजली का प्रकाश तैर रहा था। रीता जल्दी-जल्दी उसके पीछे-पीछे चल रही थी, जैसे वह यह दिखाना चाहती थी कि इनके साथ ही हूँ।
शील चलते-चलते झील के तट पर रुक गया। ‘‘वाह, कितनी सुन्दर जगह है यह, क्यों है न ?’’ उसने रीता की ओर घूमकर देखा।
‘‘हाँ सर, बहुत सुन्दर है लेकिन....’’
‘‘लेकिन क्या ?’’
‘‘लेकिन सर, हर साल इसमें कुछ आत्माएँ विलीन होती हैं।’’
‘‘क्यों, क्या बात है ?’’
‘‘बात यह है कि हर साल कुछ निराश प्रेमी-प्रेमिकाएँ इसमें अपने को छिपाते हैं....’’
शील को लगा कि झील की शान्त जगमगाती सतह को मगर की तरह यहाँ-वहाँ से फाड़ कर हज़ारों प्रेम चिल्ला उठे हों। सचमुच ही वातावरण की खामोशी एक दहाड़ से फठ गई।
‘‘चिड़ियाघर का बाघ है सर !’’
‘‘ओह !’’ कहता हुआ शील वहाँ से फिर चला पड़ा। लेकिन उसे लगता रहा कि काँकरिया झील में से उस रात के सन्नाटे में हजारों अतृप्त आत्माएँ चिल्ला रही हैं।
‘‘उदास हो गए सर !’’
‘‘ओह, नहीं रीता। हाँ, कौन सी बस पकड़ोगी ?’’
‘‘कोई भी।’’
कोई भी का क्या मतलब ? कहाँ जाओगी ?’’
‘‘अम्बा वाड़ी।...और आप कहाँ रहते हैं सर ?’’
‘‘मैं पालड़ी पर।’’
तब तो सर, एक ही बस जाएगी दोनों जगह, आइए 47 पकड़ें।’’
‘‘नहीं-नहीं, मैं इस वक्त शाहीबाग जाऊँगा अपने दोस्त के यहाँ।’’ कहते हुए झटके से वह शाहीबाग स्टेशन की ओर बढ़ गया और रीता चुपचाप 47 के बस स्टैण्ड पर जाकर खड़ी हो गई।
शील शाहीबाग नहीं गया। वह रीता के चले जाने के बाद पालड़ी लौट आया। दस बज चुके थे। दीवारों के घेरे में अकेला टूटा हुआ खाट पर पड़ा हुआ था, दीवारें...दीवारें...दीवारें—हाँ खुले झरोखे से आसमान का एक छोटा-सा टुकड़ा जरूर दीख रहा था जिसमें कुछ तारे टिमटिमा रहे थे। वह चाहता है खुले में सोना। सितम्बर का महीना है, उमस हो रही है, वह चाहता है बाहर सोना...लेकिन छत उसके हिस्से में नहीं है। उसके हिस्से में केवल एक कमरा है जिसमें पंखा तो चल रहा है लेकिन उमस नहीं जा रही है। ऐसे में खुले झरोखे से आसमान के टुकड़े का दिखाई पड़ जाना कितना सुखद लग रहा है। रीता...खुले झरोखे से आसमान का एक टुकड़ा...।
रीता कितना चाहती है मुझे ! वह क्लास में एकटक मुझीको देखती रहती है, न जाने आज कैसे टकरा गई, न जाने वह कहाँ जा रही थी, लेकिन मेरे साथ हो ली। नहीं, उससे इतना संपर्क ठीक नहीं है। आखिर वह छात्रा है, बदनाम हो जाऊँगा मैं। उसे मना कैसे करूँ ? आज ही कितना चाहा कि उससे अलग हो जाऊँ, किन्तु पकड़े ही रही। नहीं, ठीक नहीं है छात्र से इतना हेलमेल। कल उससे साफ-साफ कह दूँगा कि वह मेरे साथ न आया करे। हाँ, हाँ, उसे मना कर दूँगा। आखिर वह मेरी लगती क्या है ?
शील को लगा कि इस फैसले से वह हल्का महसूस करने लगा। उसने करवट बदल ली और सोने का उपक्रम करने लगा। पलकें मूँद लीं और अंधकार को फाड़कर एक छाया-सी उभरने लगी—हल्की धूप-सी एक काया, उभरी हुई नाक, खुले-खुले बाल, नारंगी नुमा चेहरा, फ्राक के नीचे खुली हुई चम्पई पिंडलियाँ...। छाया में चमक रही हैं—दो आँखें, तरल, बड़ी-बड़ी सी आँखें, जैसे सारी चमक यहीं आकर केन्द्रित हो गई है। आँखें...आँखें...आँखें....रीता की आँखें। उसकी आँखें सबसे करीब लगती हैं। आँखें सब से करीब। रीता...उफ, फिर वही बेवकूफी। रीता मेरी कौन होती है ! मुझे सो जाना चाहिए, हाँ मुझे सो जाना चाहिए...।
सूने कमरे का अंधकार फिर फैलने लगा। रीता कितनी प्रसन्न हो गई थी जब सुना था कि मैं अकेला हूँ। कितना बड़ा झूठ बोला मैंने उससे। नहीं, झूठ नहीं बोला था। वह सचमुच अकेला है। देहात में अपनी बीवी को छोड़कर वह कितने सालों से अकेला जी रहा है। बीवी...एक काली मोटी भैंस-सी, उमर में उससे चार साल बड़ी, चेहरे पर चेचक के गहरे दाग़, निपट जाहिल। बचपन में ही शादी हो गई थी। बीवी के घर वालों ने धोखा दिया। ओफ, कितना दुख देती है उसकी स्मृति भी। वह जानता है कि इस कुरूप होने में, चेचक का दाग़ होने में, उससे चार साल बड़ी होने में बीवी का कोई दोष नहीं है। वह बड़ी ही सेवामयी है। किन्तु अब वह क्या करे ? कैसे ढोये उसकी सेवा के ठंडे शव को ? कैसे बरदाश्त करे उसका खौलता हुआ खून इस ठण्डी लाश को ?...ओफ, उसने बहुत सोचा-विचारा लेकिन समझौता नहीं कर सका। उसके भीतर कब से सौंदर्य की एक बेचैन प्यास तड़प रही है। जल की धाराएँ बह जाती हैं। वह उनमें धँसना चाहता है लेकिन बीच में काला-सा एक पत्थर आकर टकरा जाता है और वह लौट-लौट आता है। अपनी अबूझ प्यास लिए तड़पता रहता है। वह न तो अकेला है और न दुकेला। कितने साल हो गये उसकी शक्ल देखे ! शक्ल में रखा ही क्या है कि देखा जाय। उसने घर जाना छोड़ दिया है। जो भी हो वह अकेला नहीं है। उसने रीता से झूठ कहा। झूठ कहा। झूठ कहा तो क्या हो गया है ? कौन लगती है रीता उसकी कि उससे झूठ और सच बोलने को इतना महत्त्व दिया जाये ? कौन लगती है ?...उसने फिर झरोखे की ओर देखा—कमरे के अथाह अंधकार के बाहर आसमान का एक टुक़ड़ा...।
दूसरे दिन शील क्लास में पहुँचा तो उसके अनचाहे ही उसकी दृष्टि ने रीता को फिर से पा लिया। वह बैठी-बैठी बड़ी मोहक हँसी-भरी दृष्टि से शील की ओर देख रही थी। शील को लगा कि वह आज विशेष ढंग से सजी है। वह सज्जा के विस्तार में न जा सका किन्तु रीता की नवीन सज्जा का एक समन्वित प्रभाव उस पर अंकित हो गया। आज उसे शैले की एक कविता पढ़ानी थी—प्रेम कविता। वह कविता कल रात से ही उसके भीतर महक रही थी। उसका एक नया भाव सौन्दर्य कमल-पंखड़ी की तरह स्वतः उसमें धीरे-धीरे खुलने लगा था। सवेरे उठकर उसकी सारी दार्शनिक पृष्ठभूमि भी तैयार की और क्लास में पढ़ाते समय इतना मग्न हो गया मानो वह क्लास को नहीं, केवल रीता को पढ़ा रहा है। घंटा बजा तो उसे खुद बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह समय कैसे बीत गया ! उसने रीता की ओर देखा—अब भी उसकी चमकती आँखें उसकी ओर लगी थीं। वह क्लास से निकलकर स्टाफरूम में आ गया।
‘‘नमस्ते सर !’’ बस स्टैण्ड पर खड़े-खड़े शील ने चौंक कर देखा—रीता !
‘‘ओह, नमस्ते रीता, कहाँ इस स्टैण्ड पर ?’’
‘‘सर, वैसे ही जरा उधर को चल रही हूँ।’’
इधर-उधर का कुछ अभिप्राय न समझ कर शील चुप रहा, बस आई, शील बैठा। जगह खाली थी, रीता भी बैठ गई। शील थोड़ा-सा सकपकाया किन्तु करता क्या ? बस है, कौन किसे बैठने से मना कर सकता है ?
‘‘बहुत अच्छा लगा सर !’’
‘‘क्या ?’’
‘‘आपका लेक्चर।’’
‘‘ओह, उसमें क्या रखा है ? निहायत नीरस, उबाऊ।’’
‘‘देखिये सर, ऐसा कहेंगे तो बोलना छोड़ दूँगी।’’ शील ने उसकी ओर देखे बिना भी यह अनुमान कर लिया कि बनावटी गुस्से से उसकी भँवें टेढ़ी हो गई हैं। वह धीरे-धीरे हँसने लगा।
‘‘सर, कभी मेरे घर आइये।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘यों ही सर, मेरी बुआ आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न होंगी।’’
शील को हँसी आ गई जैसे वह सबकी बुआ, चाची को प्रसन्न करने के लिए ही बना हो, वह चुप रहा।
उसने देखा कि बस स्टैण्ड पर रीता भी उसके साथ उतर गई। उसने समझा शायद उसका उधर भी कोई घर हो। ‘‘अच्छा रीता, तुम अपने घर जाओगी, मैं अपने घर चला।’’
दोनों हँसने लगे।
शील चलने को हुआ तो रीता ने रोका—‘‘अरे ठहरिए सर !’’
‘‘क्या है ?’’ यह कह शील ठहर गया।
‘‘ओ सर, कभी अपना भी घर तो मुझे दिखाइए, कुछ पूछना-पाछना हो तो ?’’
‘‘हाँ, हाँ, जरूर, लेकिन पूछने-पाछने तो स्टाफरूम में भी आ सकती हो।’’
‘‘फिर भी, कह कर रीता ने अपनी परिचित दृष्टि शील की आँखों में डाल दी।
‘‘हाँ, देखिये यह सड़क गई है न’’—शील बोला।
‘‘हाँ’’
‘‘उसके उस सिरे पर एक पेड़ है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘उसकी बाई ओर एक दूकान है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘बस वहीं से आगे चलकर एक बच्चों का स्कूल है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘उसीके पास एक बड़ा-सा मकान है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘बस उसी के पास एक छोटा-सा मकान है, है न !’’
‘‘हाँ’’
‘‘उसी का एक कमरा मेरे पास है, है न !’’
‘‘हाँ, है।’’
‘‘बस उसी में रहता हूँ।’’
‘‘हाँ, हाँ, बस...बस समझ गई। लेकिन इतना और बता दीजिए कि आपके मकान का नम्बर क्या है ? ताकि मकान का सही पता जान सकूँ।’’
दोनों खिलखिलाकर हँसने लगे।
‘‘अच्छा तो चलो, और मकान नम्बर रहा 53।’’
‘‘सर !’’
शील फिर रुक गया।
‘‘चलिये न सर, आज आपका मकान देखती ही चलूँ, दोस्त के यहाँ फिर चली जाऊँगी।’’
‘‘ओफ्फोह, ऐसी भी क्या जल्दी ?’’
‘‘क्यों सर, घबराते हैं मेरे साथ चलने से ?’’
‘‘नहीं...नहीं, चलो।’’
‘‘नहीं सर, मैं फिर कभी आ जाऊँगी, आप असुविधा महसूस कर रहे हैं।’’
‘‘नहीं...नहीं, असुविधा क्या ? चल सकती हो।’’
‘‘नहीं सर, फिर आऊँगी।’’ कहती हुई रीता मुड़ गयी।
शील एक क्षण जहाँ-का-तहाँ खड़ा रहा। रीता ने जाते-जाते एक बार मुड़कर अपनी उसी हँसती निगाह से देखा और चली गई।
शील आकर अपने कमरे में टूट गया कमरे की अस्तव्यस्तता उसके भीतर पैठ कर फैलने लगी और वह स्वयं एक आदमी से फैलता-फैलता कमरा बन गया और फैलता-फैलता एक बिन्दु पर रुक गया—दीवारें...। इसके आगे गति नहीं।
कालेज के ही ड्रेस में वह खाट पर पड़ गया था, उठने की इच्छा नहीं हुई। उसने अलमारी में पाव रोटी के कुछ दबे हुए टुकड़े देखे। कोने में स्टोव बुझा हुआ-सा पड़ा था जिसके ऊपर कालिख जम गई थी। पास चाय के बर्तन और प्याले वैसे ही जूठे पड़े थे। अभी महरी आती होगी, दो-चार यहाँ-वहाँ पड़े बर्तन माँज-मूँज जायेगी। कमरे में झाड़ू लगा देगी, चीज़ों को यहाँ वहाँ रख देगी। वह खुद उठकर खाट का बिस्तर झाड़ कर बिछा देगा और चल देगा पास के होटल में खाना खाने। दो घंटे बाद फिर कमरा वैसा ही हो जायेगा, चाय पीकर जूठे बर्तन फिर यहाँ-वहाँ बिखेर देगा।
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