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जलता हुआ गुलाब

तरसेम गुजराल

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3033
आईएसबीएन :81-7055-194-3

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पंजाब की ज्वलंत समस्या पर आधारित हिन्दी के युवा कथाकार तरसेम गुजराल का एक सशक्त उपन्यास !

Jalta Hua Gulab

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बी.ए.करने के बाद टीनू को नौकरी मिल गयी होती तो क्या तब भी उसने शिव-सेना ज्वायन की होती। हरपाल को भी अभी तक काम नहीं मिला था। हो सकता है उसे सिख स्टूडेंट फेडरेशन या दमकली टकसाल का चुम्बक अपनी तरफ खींच चुका हो।
साम्प्रदायिकता की आग क्या इतनी तेज है कि इससे बचना कतई मुश्किल होता चला जायेगा ? वे कौन सी चीजें हैं जो टीनुओं और हरपालों को इस अन्धी नदी में झोंक रही है। इस तरह के कई प्रश्न उठाये हैं उपन्यासकार तरसेम गुजराल ने अपने इस नवीनतम उपन्यास में।
पंजाब की ज्वलंत समस्या पर आधारित हिन्दी के युवा कथाकार तरसेम गुजराल का एक सशक्त उपन्यास !

आभार

माता-(स्व.) भापाजी का और बहनों का।
गुरुबचन, अवतार जोंड़ा, मोहन सपरा, सिमर सदोष, राजेन्द्र चुघ, रमेश बत्तरा, सुरेन्द्र मनन, प्रचण्ड, नरेन्द्र निर्मोही, कमलेश भारतीय, सुरेन्द्र मंथन, कीर्ति केसर, जे.बी. सिंह घई, पाली और रमेन्द्र जाखूका, जिनसे चलती बहसें बहुत बल देती हैं।
विजय धवन (कुवैत), अक्षय शर्मा, नन्द किशोर वैद और सन्त प्रकाश सिंह का, जो मेरी धड़कनों में हैं।
वाणी प्रकाशन परिवार का, जिसमें लेखकों के लिए सहयोग की भावना है।

कुछ इस उपन्यास के बारे में
इस उपन्यास का एक ही पात्र है, पंजाब।
इस उपन्यास की एक ही प्रेरणा है, पंजाब।
इस उपन्यास की एक ही चिन्ता है, पंजाब।
इस उपन्यास का एक ही उद्देश्य है, पंजाब।

-तरसेम गुलजार

एक


जनवरी के अन्तिम दिन थे। कालिज के सायकिल स्टैण्ड पर वृक्षों के टूटे पत्ते बड़ी तादात में जमा थे। अविनाश हरदीप का इन्तजार कर रहा था।
उसे खयाल आया कि आज उसका एक सहकर्मी कह रहा था—‘‘प्यार एक अजीब किस्म की बीमारी है। इसके कीड़े ट्यूबरक्यूलोसिस की तरह साँसों में बिखर जाते हैं—इसका इलाज डब्ल्यू. एच. ओ. के पास भी नहीं है। सिर्फ यही हो सकता है कि आप आँखों पर पट्टी बाँधकर हैलीकाप्टर से घने जंगल में उतार दिये जायें।—सिर्फ भटकते रहें और इतने में जिन्दगी की शाम हो जाये।’’
‘‘बड़ा फिलासफर हो गया है यार।’’
‘‘फिलासफर नहीं, बीमार—।’’
‘‘चोट खाये लगते हो भाई।’’
और वह खिलखिलाकर हँस दिया।

अविनाश ने हरदीप को हिन्दी साहित्य समझाने में सहायता देना शुरू किया था। हरदीप एम.ए. के एग्जाम दे रही थी। एक दोस्त के अनुरोध पर अविनाश उसे साहित्य के अलग-अलग मुद्दों पर छोटा-मोटा भाषण पिला आता। पिछले हफ्ते उसने कुछ किताबें देख लेने का सुझाव दिया था। उसने कहा कि वह उसके साथ ही मार्कीट चलेगी और जो किताबें ठीक लगेंगी, खरीद ली जायेंगी। तय यह हुआ था कि अविनाश शनिवार ग्यारह बजे उसके कालिज आ जायेगा।
यह उसी की हिमाकत कहिए कि वह दस मिनट पहले से ही वहाँ मौजूद था और व्यर्थ ही गुजरते चेहरे के भाव पढ़ने में वक्त गुजार रहा था। इस बीच वह शायद तीन-चार बार घड़ी देख चुका था। उसे घड़ी की सुइयाँ इतनी धीमी कभी नहीं लगीं। खासकर ग्यारह बजे के बाद का समय तो व काट ही नहीं पा रहा था।

अविनाश का जी चाहा कि किसी से पूछकर उसके क्लास रूम तक चला जाये। सायकिल लॉक कर वह आगे निकला। पार्क का हिस्सा पार करते ही उसे सामने से आती हरदीप दीख गई। उसने क्रीम सूट पहना हुआ था और ऊपर गहरे चाकलेटी रंग की साल ओढ़ रखी थी। इस तरह कुल मिलाकर अपनी चाल के अनुपात से वह खासा संजीदा लग रही थी।
अविनाश को उसने थोड़ी ही दूर से देख लिया था और मुस्कुरा दी थी। पास आकर मुस्कराहट चहकने में बदल गई।
‘‘आपको ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा ?’’
‘लगभग आधा घण्टा।’’
‘‘गीता मैडम छोड़ ही नहीं रही थीं। मुआफ करेंगे न प्लीज।’

‘‘यह बात-बात पर मुआफी माँगना छोड़ दो; नहीं तो आधी जिन्दगी क्षमायाचना में ही गुजर जायेगी।’’
‘‘अच्छा इसके लिए भी मुआफ कर दें।’’ उसने हँसते हुए कहा।
‘‘तुम नहीं सुधरोगी।’’
दोनों सायकिल स्टैंड की तरफ पलटे।
‘‘आप सायकिल लाये हैं न ?’’
‘‘और क्या मेरे पास स्कूटर होगा।’’
‘‘होने को स्कूटर भी हो सकता है।’’
‘‘गाड़ी भी हो सकती है ?’’
‘‘हो क्यों नहीं सकती।’’
‘‘नहीं हो सकती।...न ही मैंने कभी इच्छा की है।’’
‘‘इच्छा तो करनी चाहिए न।’’

‘‘खाक ! स्मगलिंग हम करेंगे नहीं। बाप की लम्बी-चौड़ी प्रापर्टी है नहीं। जुआ हम खेलते नहीं। लाटरी खरीदी नहीं कभी। भगवान के छप्पर फाड़कर देने में हमारा विश्वास भी नहीं....जो पगार मिलती है उससे कमरे का किराया देते हैं। होटलवाले का तेज मिर्ची की दाल-सब्जी का बिल देते हैं। कुछ घर भेजते हैं और बाकी की किताबें और पत्र-पत्रिकाएँ। इतना ही चलता रहे तो गनीमत है। फिर गाड़ी और दीगर चीजों की ख्वाहिशों में दिमाग क्यों खराब करें।’’
हरदीप ने अपनी किताबें और नोटबुक सायकिल के पीछे जमा दीं। तीन किताबें थीं। पहली ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास,’ दूसरी ‘गोदान’ पर समीक्षा की किताब और तीसरी पर अखबार का कवर होने के कारण अविनाश देख न पाया। इन सबके बीच उसने अपना पर्स एडजस्ट किया। अविनाश का मन किया कि पूछे, वह अपने पैसे उस सेफ में क्यों नहीं रखती जहाँ दूसरी औरतें रखती हैं, लेकिन फिर टाल गया। यह प्रश्न उसे खुद ही काफी चीप-सा लगा जबकि वह उसे गंभीरता से लेने की चेष्टा कर रहा था। कहीं उसके भीतर यह दिखाने की भावना भी थी कि वह दूसरे लोगों से ज्यादा बेहतर ढंग से सोचता है, ज्यादा संजीदा है और जिन्दगी को फुटबाल या चुटकुला नहीं समझता। जहाँ तक बन पाता वहाँ तक जिन्दगी को इन्सानियत-भरे माहौल में जीने की चेष्टा करता है। जहाँ नहीं हो पाता वहाँ उसे बेहद तकलीफ होती है। अविनाश और हरदीप अपनी-अपनी सायकिलों पर निकले।

हरदीप ने कहा, ‘‘कल मैं संतोष भाभी से मिली थी।’’
‘‘अच्छा !’’ अविनाश ने हैरत से देखा।
‘‘वे बहुत अच्छी हैं।’’
‘‘इसमें क्या शक है।’’
‘‘वे बता रही थीं कि इस नौकरी में आने से पहले आप ‘कमल’ में काम करते थे।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘संपादन तो आपकी रुचि का काम था। वहाँ से क्यों छोड़ दिया ?’’
‘‘उसका संपादन धार्मिक काम जैसा था।’’
‘‘धार्मिक काम ?’’
‘‘हाँ। दो-दो, तीन-तीन महीने अगर पगार न मिले तो इसे धार्मिक काम ही कहेंगे।’’
नियमित पेमेंट क्यों नहीं देते थे वे ?’’

‘‘उसका मालिक संपादक बड़ा विचित्र आदमी था। हरेक को पेमैंट के लिए किसी न किसी पार्टी के पीछे लगा देता, जिसका उसने विज्ञापन छापा होता। वहाँ से पेमैंट मिलने पर ही कर्मचारी का हिसाब करता। एक बार बड़ा रोचक किस्सा हुआ। उसने अपनी सालगिरह पर जब पार्टी दी तो हम अपने होटल के बिल, चाय के बिल, बिजली के बिल उसकी पत्नी को प्रेजेन्ट कर दिये।’’
हरदीप हँस पड़ी।
अविनाश को उसका हँसना बहुत अच्छा लगा।
‘‘बहुत सिटपिटाया होगा बेचारा ?’’

अविनाश ने राय दी कि वे दोनों सायकिलें बैंक आफ इण्डिया के सामने सायकिल स्टैंड पर छोड़ दें और माई हीरा गेट तक पैदल मार्च करें। हरदीप ने तुरंत स्वीकृति दे दी। अविनाश ने पहले वाली बातचीत जारी रखते हुए कहा, ‘यदि दल बदलने का कोई पुरस्कार मिल सकता है तो उसी संपादक को मिलना चाहिए। उस जैसा ग्रेट दलबदलू दुनिया में नहीं होगा। पहले वह जनसंघ में था। फिर कांग्रेस में चला गया। एक दिन  उसने उसके एक सहकर्मी को इन्दिरा गांधी पर लेख तैयार करने को कहा लेकिन जब तक वह लेख लिखकर लाया वह जनता पार्टी में शिफ्ट हो चुका था। जनता पार्टी से फिर लोकदल में चला गया। अब सुना है कि वह फिर इंका में है। संपादक को अपनी तुकबन्दी सुनने का और सुनाने का बहुत शौक था। एक दिन मैंने मूड में आकर उनसे कह दिया कि वे अपनी तुकबन्दी सुनाने के लिए रोज सुबह उधम सिंह कालोनी के मन्दिर के पास खड़े हो जाया करें। जो भी बच्चा मन्दिर जा रहा दीख जाये उसे रोककर तुकबंदी सुना दिया करें। इससे एक तो उनकी पाचन-शक्ति ठीक रहेगी, दूसरे बच्चे भी खूब स्वस्थ रहेंगे।

उन्होंने इस राय को गंभीरता से लिया और कहा, ‘लेकिन उधम सिंह कालोनी के मन्दिर के पास ही क्यों ?’
‘‘ ‘इसलिए कि वहाँ जाने वाले अधिकांश बच्चे डेफ एण्ड डंब स्कूल के होते हैं।’ ’’ हरदीप फिर हँस पड़ी। वह ठगा-सा उसकी चमकती दन्तपंक्ति देखता रहा।
‘‘उसने आपको कुछ कहा नहीं ?’’
‘‘कहता क्या ? आर्डर निकाल दिये कि उसी दिन से साहित्य का काम शोभा जी देखेंगी और महिलाओं का पन्ना मुझे दिया जायेगा। वहाँ मुझे यही सब लिखना होता था कि गोरे कैसे बनें। नींबू का आचार कैसे डालें। या फिर मोहनहलवा और खीर पर कालम लिखना होता था...’’
‘‘इसका मतलब खाना पकाने और महिला सौन्दर्य की भी खूब जानकारी है आपको।’’
‘‘हाँ जी, इस जानकारी ने तो नौकरी छुड़वा दी।’’
‘‘क्यों भला ?’’

‘‘मैंने पेठे और अंगूर की सब्जी बनाने की विधि लिखी—नौकरी छुड़वाने के लिए यों तो पहली पंक्ति ही काफी थी—एक अंगूर
का दाना लें और एक पेठा लें। दोनों के काट कर बराबर टुकड़े कर लें...’’
इस बार हरदीप की इतने जोर से हँसी छूटी कि मिट्ठा बाजार के दुकानदार चौंक गये और ग्रहकों को छोड़कर इधर देखने लगे। माई हीरा गेट से अविनाश ने उसे ‘उपन्यास और लोक जीवन’ ‘यथार्थवाद’ और मुक्तिबोध के समीक्षा-सम्बन्धी लेखों का एक संग्रह खरीदने का मश्वरा दिया। मैक्सिम गोर्की का ‘माँ’ और प्रेमचन्द की ‘गोदान’ भी खरीद डाले। वह जानता था कि दोनों किताबें हरदीप के पास नहीं हैं।
किताब की दुकान से निकलकर अविनाश ने कहीं बैठकर चाय पीने का प्रस्ताव रखा। हरदीप की इच्छा थी कि घर चलें और चाय वह खुद बनाकर पिलाये। अविनाश ने कहा कि घर वह किसी दूसरे दिन चलेगा। आज उतना समय नहीं है। चाय वहीं पी जाय। यह वायदा करने पर कि अविनाश मुक्तिबोध पर तैयार किया हरदीप का लेख दूसरे दिन ही, देखने घर आयेगा, हरदीप ने मान लिया।

माई हीरा गेट के ही एक रेस्तोराँ में वे लोग घुसे।
अविनाश ने पनीर के पकौड़े और चाय का आर्डर दिया। अविनाश ने दोनों खरीदी हुई किताबें पैकेट से निकाल लीं। पेन निकाल कर उसने ‘माँ’ के पहले पृष्ठ पर लिखा—
‘‘हरदीप के लिए सप्रेम’’
अविनाश
फिर ‘गोदान’ के पहले पृष्ठ पर लिखते वक्त उसे कुछ खयाल आ गया और उसने लिखा ‘‘हरदीप के लिए जिसे अब यथार्थवादी ढंग से सोचना चाहिए।

अविनाश

हरदीप ने उन किताबों को आँखें बन्द करके छाती से लगाकर प्यार और आभार व्यक्त किया और फिर पढ़ा। वेटर पानी का गिलास रखने लगा तो हरदीप ने अखबार उठा लिया।
‘‘सुना था लड़कियाँ बातें बहुत करती हैं। लेकिन आज तो मैं ही ज्यादा बोलता रहा हूँ। अब तुम्हारी बारी है...।’ अविनाश ने कहा।
‘‘इस समय मेरी नज़र अखबार की इस खबर पर लगी है।’’ उसने अखबार मोड़कर अविनाश की तरफ बढ़ा दिया।
किसी मन्दिर में गाय के कटे हुए सिर और पूँछ मिलने की खबर थी।
‘‘लोगों की भावनाएँ भड़काने के लिए क्या-क्या नहीं किया जाता। राजनैतिक हवा इस बात को जब जी चाहे, अपने लिए सीढ़ी बना सकती है।’’ अविनाश ने टिप्पणी की।

‘‘सामप्रदायिक आग बहुत खौफनाक होती है। इसी आग ने बँटवारा करवाया था। कितने घर जले, कितने लोग उजड़े—कोई ठीक अन्दाज़ नहीं। हमारे परिवार तीन दशकों के बाद भी अपने उखड़ जाने का दर्द नहीं भूल सके।’’
पकौड़े वे लोग खा चुके थे। चाय पीते हुए अविनाश ने पूछा, भापा जी की सेहत कैसी है ?’’
‘‘डॉक्टर ने किडनी बदलने की सलाह दी है।’’
‘‘तो इसमें देर किस बात की हो रही है ?’’
हरदीप ने नज़रें झुका लीं।
‘‘किडनी नहीं मिल रही है न ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘आज उनसे जा कर कह देना किडनी मैं दे दूँगा।’’

हरदीप ने चौंककर देखा। कितनी सरलता से कह रहे हैं कि किडनी दे देंगे, जैसे किडनी न दे रहे हों अपनी दवात से स्याही भरने की इजाजत दे रहे हों। जैसे अपने पिनकुशन से एक पिन लेने दे रहे हों—जैसे कह रहे हों कि उन्हें लैटर बाक्स के पास से निकलना तो है ही, उनका लैटर वही पोस्ट कर देंगे।
‘‘आप भला क्यों देंगे।’’ उसके मुँह से निकला। दरअसल उसे लग रहा था कि अविनाश जरूरत से कुछ बहुत ज्यादा उसके परिवार के लिए करना चाहता है। शायद उसकी ही वजह से। लेकिन इतना कुछ वह कैसे ले सकती है ? उसके सामने एक कहावत की इबारत घूम रही थी कि ‘सज्जन मित्र अगर उँगली दे तो हाथ नहीं काट लेना चाहिए।’
‘‘हम भला क्यों नहीं दे सकते। टी.बी. मुझे है नहीं। स्वस्थ हूँ। मुझे नहीं लगता कि मेरी किडनी डैमेज होगी।....फिर किडनी देने से पहले डॉक्टर से जाँच भी करवाई जा सकती है।’’
‘‘हद करते हैं आप।’’ हरदीप जान गई थी कि अविनाश उसे चिढ़ा रहे हैं और समझ कर भी असलियत नहीं पकड़ना चाहते।
हम तो हमेशा सरहदें तोड़ना चाहते हैं।’’ अविनाश ने अपनी आँखें हरदीप के मासूम, लेकिन बेचैन चेहरे पर टिका दीं।
‘‘उनके तीन जवान बेटे हैं, जब वही यह ऑफर नहीं रख रहे तो आप ही क्यों ?’’ लाचार हरदीप को कहना पड़ा, जो वह कहना नहीं चाहती थी।

‘‘बहुत छोटे ढंग से सोचती हो। सिर्फ खून के रिश्ते अर्थपूर्ण नहीं होते। मैं क्या उनकी कम कद्र करता हूँ। पिता-समान ही समझा है मैंने।’’
कुछ देर चुप रहने के बाद हरदीप ने कहा, आप तो दूसरों से यथार्थवादी होने की बात कहते हैं। कहते हैं एप्रोच प्रैक्टिकल होनी चाहिए।...जिन्दगी में तो बहुत यथार्थवादी हो रहे हैं।’’
‘‘एक आदमी की जान बच सकती है इससे ज्यादा प्रैक्टिकल एप्रोच क्या हो सकती है। प्रैक्टिकल एप्रोच का मतलब कोरा यथार्थ तो नहीं होता...।’
‘‘बातों में आप से कोई जीत नहीं सकता।’’ हरदीप ने कहा। उसने समझ लिया कि यह आदमी कुर्बान होकर रहेगा।
अविनाश ने पैसे चुकाये और दोनों बाहर आ गये। लौटते वक्त रास्ते में उनका संवाद न चल सका। हरदीप को यह अविनाश की अहम्मन्यता लगी। वह भापाजी से बहुत प्यार करती थी। उनकी जान की सलामती हर तरह से चाहती थी। लेकिन इसके लिए अविनाश बलि का बकरा बने। जाने क्यों यह बात उसे पच नहीं पा रही थी। अविनाश पहले ही अपना कीमती वक्त उसकी पढ़ाई की देखरेख में खर्च कर रहे हैं। यह सब कम है क्या ? और अगर कम है तो यह कमी वे अपनी किडनी देकर पूरी करेंगे ? उसे लग रहा था कि वह जिस ढंग से बात रखना चाहती थी, रख नहीं पाई। कुछ कहने के लिए आतुर तो थी लेकिन फिर ओंठ काट लेती। उन्हें तो भी कुछ समझना चाहिए। किडनी कोई बाल-पाइन्ट पेन का सूखा रिफिल नहीं होती, न डबलरोटी का रैपर।

अविनाश ने किडनी दे देने का फैसला चार-पाँच दिन पहले ही कर लिया था। फिर भी उसने पुनर्विचार के लिए चार-पाँच दिन का समय लिया। उसे लगा नहीं कि उसके फैसले में कुछ गलत था। सिर्फ अपने लिए जीना कोई जीना होता है। जीना तो वह है जो किसी के काम आये।
फैसला सुना देने पर हरदीप की जो प्रतिक्रिया थी, वह उसे भली लगी। उसे हरदीप से प्यार की थाह मिल रही थी और वह इसी को पुरस्कार मान रहा था।
माई हीरा गेट से लौटते वक्त हरदीप के खामोश और उदास चेहरे को थोड़ी देर पहले के खुशमिजाज चेहरे में बदलने के लिए उसने एकाध बार कोशिश की, लेकिन फिर उसे अपना प्रयास अधूरा-सा लगा और वह चुप हो गया। ‘दुनिया में सबसे मासूम पवित्र प्यार करने वाले लोग होते हैं’—उसने सोचा। यही बात उसने हरदीप से कहनी चाही, लेकिन उसका बिगड़ा मूड देखकर चुप रहा। स्टेट बैंक के पास सायकिल स्टैंड पर पहुँचकर अविनाश को आस थी कि हरदीप शायद एक बार फिर उससे घर चलने का प्रस्ताव रखे। इस बार अगर वह कहेगी तो वह चला जाएगा।

हरदीप ने किताबें कैरियर पर टिका दीं और ‘अच्छा’ कहा।
अविनाश ने पूछा, ‘‘चाय नहीं पीना चाहोगी एक बार और।’’
‘‘नहीं अब नहीं—काफी देर हो गई। घर में लोग इन्तजार कर रहे होंगे।’’
अविनाश ने उसे सायकिल पर जाते हुए देखा और उसे लगा कि बाकी दिन के लिए कोई काम उसके पास बचा ही नहीं।
घर पहुँचकर हरदीप के मन में रह-रहकर कुछ उफनाता रहा। हारकर उसने अविनाश की भापाजी के लिए किडनी देने की बात भरजाई को बता दी। उसे लगता था कि भरजाई अभी उसे लेकर साथ अविनाश की तरफ निकलेंगी और उसे मना करेंगी। लेकिन भरजाई ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘वह बहुत भला आदमी है।’’

मनजीत भाजी जब दुपहर का खाना खाने आए तो भरजाई ने उन्हें अविनाश की किडनी देने की बात बता दी। उन्होंने कहा, ‘‘वह भला ही नहीं, बहादुर भी है।’’
मनजीत भाजी ने भापाजी से पूरी बात कही और कहा कि सच तो यह है कि उनका पूरा खानदान उपकार का बदला नहीं चुका सकेगा। घर में सभी लोग अविनाश की प्रशंसा कर रहे थे। बड़े बुजुर्ग कह रहे थे, ‘‘इस जमाने में ऐसा पुण्यात्मा मिलना बहुत कठिन है। ऐसे ही लोगों से चल रही है, नहीं तो दुनिया गर्क हो जाती।’’ बाकी कह रहे थे कि दूसरों के लिए कुछ कर पाने की क्षमता अविनाश में है।

हरदीप को कोफ्त हो रही थी, ‘सभी लोग इस तरह बात कर रहे हैं जैसे किडनी का बदल लेना तय ही हो चुका है...कोई उनका पक्ष भला क्यों नहीं सोचता ?’
हरदीप भी क्या करती ? भावना के तीखे वेग में वह बिलकुल अकेली पड़ गई। पिता-विरोधी वह नहीं थी, लेकिन एक भी लफ्ज मुँह से निकलता तो वह मान ली जाती। अविनाश से अब दुबारा बात उठाने का कोई लाभ नजर नहीं आ रहा था।...अब क्या होगा ? मनजीत भाजी पहले बर्मिघम टेलीफोन बुक करवाएँगे सुरजीत भाजी के लिए। फिर डॉक्टर से बात करेंगे...हरपाल को भेजकर अविनाश को बुलवाएँगे या खुद उनके पास जाएँगे।

आपरेशन में चार घण्टे लगे। यह एक दुहरा आपरेशन था। अविनाश का और फिर भापाजी का। हाथ धोकर टावल से पोंछते हुए डॉक्टर के चेहरे पर सफलता की मुस्कराहट थी। नरिन्दर भरजाई, जिसने अविनाश और भापाजी दोनों की सेहत के लिए अखण्ड पाठ की सुखणा सुखी थी, आँखें बन्द कर मन ही मन कहा, ‘सच्चा तू।’
चार घण्टे हरदीप का दिल भँवर में फँसी किश्ती-सा रहा। और यह हालत वह किसी से बयान नहीं कर सकती थी।
अविनाश को जब होश आ रहा था उसके कान बरामदे में चल रही बातें सुन रहे थे। कोई कह रहा था, ‘‘बस से उतार कर एक ही फिरके के सात आदमियों को गोली से उड़ा दिया गया।’’ अविनाश को अपने भीतर कमजोरी-सी महसूस हुई। उसे लगा कि बलिदान के जिस तेज की कल्पना वह करता रहा है उसे मेन्टेन नहीं कर पा रहा है।
 
       
     
 
 

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