कहानी संग्रह >> किस्सा पंजाब किस्सा पंजाबहरभजन सिंह
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ये किस्से हीर-रांझा, मिरजा-साहिबां, सस्सी-पुन्नू, सोहनी-महिवाल आदि के प्रेम-प्रसंगों, पूरन भगत और राजा रसालू की पावन कथाओं के साथ ही दुल्ला भट्टी और जीऊणा, मौड़ जैसे वीरों की लोककथायें सुनाते हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
पंजाबी भाषा और पंजाबी संस्कृति को अपनी धरती के नजदीक रहने का शौक है।
बेशक पंजाबी लोग सभ्यता के हर नये और पेचीदा विस्तार को अपनाने के लिए
तैयार रहते हैं, लेकिन वे अपनी पहली-पुरानी और सादी-जीवन-परिपाटी के प्रति
वफादार रहते हैं। धर्म और कला दोनों क्षेत्र इस सादगी की गवाही देते हैं।
यहां कि मिट्टी में से उगा न धर्म पेचीदा है, न नृत्य-संगीत, न कविता अथवा
स्थापत्य कला ही पेचीदा है। नवीनता को बहुत तेजी से अपनाने वाला पंजाब इसी
सादगी की बदौलत ही स्थिर बना रहता है और इसके पैर अपनी पुरानी और गहरी
परंपरा में टिके रहते हैं।
नवीनता और परंपरा का यह सहज सम्मिश्रण ही पंजाबी किस्सों का विशेष गुण है। मध्यकालीन पंजाब ने बाहर से न आने वाले हमलावरों से बहुत कुछ अपनाया, लेकिन अपनी सादगी के जोर से उसे इस तरह अपने अनुसार ढाल लिया कि आज यह पहचानना भी मुश्किल है कि इसका असली स्वरूप देसी है या परदेसी। अगर भाषा को टटोलें तो लगता है कि यह परदेसी शब्द है और कविता की यह बानगी हमलावारों के साथ ही पंजाब में आकर बस गई होगी, लेकिन बलिहारी पंजाबी कवियों की, कि उन्होंने अपनी धरती में से ही हीर-रांझा, मिरजा-साहिबां, सोहनी-महीवाल, सस्सी-पुन्नू, पूरन भगत और राजा रसालू के ऐसे किस्से पैदा किए कि आज इनके बगैर पंजाबी काव्य-परंपरा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पंजाबी बेगानों को भी बड़े मोह से अपने परिवार का आदमी बना लेते हैं, इस बात का कुछ अंदाज सोहनी-महीवाल और सस्सी-पुन्नू के नायकों से ही लगाया जा सकता है। गुजरात के नजदीक, कुम्हारिन सोहनी के प्रेम में गिरफ्तार पंजाब का भैंस चराने वाला सुंदर, सजीला महीवाल मध्य एशिया के राज-घराने से संबंध रखता था। इसी तरह सस्सी भी धोबियों के घर पल कर बड़ी हुई थी। लेकिन उसका प्रेमी पुन्नू कोई परदेसी बलोच था, जो रेगिस्तान का कठिन सफर तय करके ही यहां पहुंचा था। सहती का आशिक मुराद भी बलोच था।
अपने दिल के खास नजदीक की कहानियों में भी पंजाबी कवियों ने परदेसियों को नायक बना कर बसा लिया है। यही पंजाबी जीवन और पंजाबी कला का सहज चमत्कार है। एक मजेदार बात यह है कि इन कहानियों में कहीं भी देस-परदेस के बीच टकराव नहीं आता। कोई नायक इसीलिए अस्वीकृत नहीं किया जाता कि वह परदेसी है। पुन्नू से तो सस्सी के बाप ने खुशी-खुशी अपनी बेटी की शादी कर दी थी। गैर-पंजाबी को स्वभाव के अनुसार ढाल लेना और उसे अपने परिवार का अंग बना लेना, यह बात सिर्फ पंजाबी कविता तक ही सीमित नहीं, यह समूचे पंजाबी जीवन की विशेषता है। पंजाबी भाषा, पंजाबी स्थापत्य कला और पंजाबी संगीत में भी यही जुगत दिखाई देती है। यही पंजाब के खुले और सतत् विकासशील स्वभाव का विलक्षण गुण है।
पंजाबी किस्सों ने न सिर्फ परदेसियों को पंजाबी बनाया है, बल्कि पंजाबी नौजवानों को भी परदेसों में ही प्रेमी बनता दिखाया है। पंजाबी किस्से मध्यकाल की पैदावार हैं, जब रेलों, सड़कों और जहाजों जैसे आवागमन के साधन नहीं थे। तब ‘सौ-पचास कोस’ और ‘नौ सौ मील बरेते’ में कोई फर्क नहीं था। नदियों के ऊपर पुल नहीं थे। सावन महीने की नदी और जेठ-आषाढ़ का मरुस्थल पार करना एक सा कठिन था। ‘‘जा धीये रावी, ना कोई आवी ना कोई जावी’’ (बेटी रावी पार जा, तुझसे मिलने न कोई जा सकेगा, न ही उस तरफ से कोई आ सकेगा)। यह कहावत सदियों तक लोगों की जुबान पर चढ़ी रही है। लोक-सत्य यह है कि हमारे लिए नदी के पार परदेस था। इसी तरह की लोकचेतना के वायुमंडल में हीर-रांझे का किस्सा अस्तित्व में आया। पंजाबी किस्सों के सारे नायक मुसाफिरी की हालत में हैं और पंजाब की प्रेम-भावना का मुसाफिरी से गहरा संबंध है। अपने घर-बार से बिछुड़े रांझे ने जब हीर को हाथ में छड़ी लिए कहर भरे क्रोध की हालत में देखा तो कहने लगा:
नवीनता और परंपरा का यह सहज सम्मिश्रण ही पंजाबी किस्सों का विशेष गुण है। मध्यकालीन पंजाब ने बाहर से न आने वाले हमलावरों से बहुत कुछ अपनाया, लेकिन अपनी सादगी के जोर से उसे इस तरह अपने अनुसार ढाल लिया कि आज यह पहचानना भी मुश्किल है कि इसका असली स्वरूप देसी है या परदेसी। अगर भाषा को टटोलें तो लगता है कि यह परदेसी शब्द है और कविता की यह बानगी हमलावारों के साथ ही पंजाब में आकर बस गई होगी, लेकिन बलिहारी पंजाबी कवियों की, कि उन्होंने अपनी धरती में से ही हीर-रांझा, मिरजा-साहिबां, सोहनी-महीवाल, सस्सी-पुन्नू, पूरन भगत और राजा रसालू के ऐसे किस्से पैदा किए कि आज इनके बगैर पंजाबी काव्य-परंपरा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पंजाबी बेगानों को भी बड़े मोह से अपने परिवार का आदमी बना लेते हैं, इस बात का कुछ अंदाज सोहनी-महीवाल और सस्सी-पुन्नू के नायकों से ही लगाया जा सकता है। गुजरात के नजदीक, कुम्हारिन सोहनी के प्रेम में गिरफ्तार पंजाब का भैंस चराने वाला सुंदर, सजीला महीवाल मध्य एशिया के राज-घराने से संबंध रखता था। इसी तरह सस्सी भी धोबियों के घर पल कर बड़ी हुई थी। लेकिन उसका प्रेमी पुन्नू कोई परदेसी बलोच था, जो रेगिस्तान का कठिन सफर तय करके ही यहां पहुंचा था। सहती का आशिक मुराद भी बलोच था।
अपने दिल के खास नजदीक की कहानियों में भी पंजाबी कवियों ने परदेसियों को नायक बना कर बसा लिया है। यही पंजाबी जीवन और पंजाबी कला का सहज चमत्कार है। एक मजेदार बात यह है कि इन कहानियों में कहीं भी देस-परदेस के बीच टकराव नहीं आता। कोई नायक इसीलिए अस्वीकृत नहीं किया जाता कि वह परदेसी है। पुन्नू से तो सस्सी के बाप ने खुशी-खुशी अपनी बेटी की शादी कर दी थी। गैर-पंजाबी को स्वभाव के अनुसार ढाल लेना और उसे अपने परिवार का अंग बना लेना, यह बात सिर्फ पंजाबी कविता तक ही सीमित नहीं, यह समूचे पंजाबी जीवन की विशेषता है। पंजाबी भाषा, पंजाबी स्थापत्य कला और पंजाबी संगीत में भी यही जुगत दिखाई देती है। यही पंजाब के खुले और सतत् विकासशील स्वभाव का विलक्षण गुण है।
पंजाबी किस्सों ने न सिर्फ परदेसियों को पंजाबी बनाया है, बल्कि पंजाबी नौजवानों को भी परदेसों में ही प्रेमी बनता दिखाया है। पंजाबी किस्से मध्यकाल की पैदावार हैं, जब रेलों, सड़कों और जहाजों जैसे आवागमन के साधन नहीं थे। तब ‘सौ-पचास कोस’ और ‘नौ सौ मील बरेते’ में कोई फर्क नहीं था। नदियों के ऊपर पुल नहीं थे। सावन महीने की नदी और जेठ-आषाढ़ का मरुस्थल पार करना एक सा कठिन था। ‘‘जा धीये रावी, ना कोई आवी ना कोई जावी’’ (बेटी रावी पार जा, तुझसे मिलने न कोई जा सकेगा, न ही उस तरफ से कोई आ सकेगा)। यह कहावत सदियों तक लोगों की जुबान पर चढ़ी रही है। लोक-सत्य यह है कि हमारे लिए नदी के पार परदेस था। इसी तरह की लोकचेतना के वायुमंडल में हीर-रांझे का किस्सा अस्तित्व में आया। पंजाबी किस्सों के सारे नायक मुसाफिरी की हालत में हैं और पंजाब की प्रेम-भावना का मुसाफिरी से गहरा संबंध है। अपने घर-बार से बिछुड़े रांझे ने जब हीर को हाथ में छड़ी लिए कहर भरे क्रोध की हालत में देखा तो कहने लगा:
रांझा आखदा एह जहान सुपना,
मर जावणा ई नैनां वालीये नी।
तेरे जये पिआरियां एह लाजम,
आये गये मुसाफरां पालीये नी।।
मर जावणा ई नैनां वालीये नी।
तेरे जये पिआरियां एह लाजम,
आये गये मुसाफरां पालीये नी।।
मुसाफिरी और प्यार का एक-दूसरे से अटूट रिश्ता जोड़कर वारिशाह ने पंजाबी
चरित्र के इस गहरे सुप्त तत्व की ओर इशारा किया है। पंजाबी किस्सों के
नायक ही नहीं, लोकनायक भी अपने घरों से टूट कर ही पंजाबी मुहब्बत के काबिल
बने हैं। पंजाब के सर्वोत्तम लोकनायक गुरु नानक की मिसाल तो हमारे सामने
है ही, जिन्होंने अपने कर्म-प्रधान जीवन का अधिक हिस्सा चारों दिशाओं की
मुसाफिरी में ही बिताया। पंजाबी संस्कृति और आजादी की खातिर संग्राम करने
वाले गुरु गोबिंदसिंह भी सारी उम्र-प्रकाश से ज्योति जोत में समाने
तक-अपने असली देश माझे से बाहर रहे। आज तक भी पंजाबी महत्वाकांक्षा दूर
सफर पर जाने की प्रतीक्षा करती है। ऐसा लगता है कि पंजाबी प्रतिभा अपने घर
से टूट कर ही प्रामाणिक प्रकाश प्राप्त करती है। प्रेम-किस्सों के नायक
रांझा आदि अपने घरों से दूर अपनी लीला दिखा रहे हैं, पूरन भगत, राजा रसालू
और दुल्ला भट्टी आदि भक्त और साहसी नायक भी इसी लीक पर चलते प्रतीत होते
हैं।
पूरन तो सौतेली मां के त्रिया-चरित्र का शिकार होकर घर से बेघर हुआ था, लेकिन राजा रसालू ने अपनी मरजी से अपना घर छोड़ दिया था। इन दोनों को प्यार प्राप्त हुआ था, चाहे दोनों को जतियों-सतियों की तरह जीने का शौक था। रानी सुंदरां ने पूरन को अपना बनाने का जतन किया। सुंदरां किसी ऐसे देश की शासक थी, जहां औरतों का ही हुक्म चलता था। जाहिर है कि यह पंजाब से बाहर किसी इलाके की तरफ संकेत है। राजा रसालू ने सिरीकोट के राजा सिरकप की नवजात लड़की कोकलां को अपनी जीवन-संगिनी के रूप में स्वीकार किया। अनुमान लगाया गया है कि सिरकप का देश भी पंजाब से बाहर है। दुल्ला पंजाब में ही पैदा होकर पला। उसकी सारी जिंदगी इसी धरती पर व्यतीत हुई थी। लेकिन उसने अपने लिए काम ही कुछ ऐसा चुन लिया था कि वह अपने घर में टिक कर नहीं बैठ सकता था। हमारे नायक बेघर ही नहीं, बेयार भी हैं। जिंदगी की मुसाफिरी का रास्ता तो हम लोगों को अकेले ही तय करना है, इसमें हमारा कोई साथी नहीं। इस बेघर, बेयार जिंदगी में हमें केवल परदेसी दुनिया की प्रेम-भावना का सहारा है, जो ईश्वर की तरह दुख-दर्द के क्षणों में नजदीक होकर हमारे पास पहुंचती है। यह प्रेम-भावना ही देस-परदेस के भेद और दूरी को मिटा देती है, इस दूरी के मिट जाने के बाद ही पंजाबी प्रतिभा अपनी असली दीप्ति में आती है।
हालांकि इन लोकनायकों की कहानियों को हमारे समर्थ कवियों ने लिपिबद्ध किया, लेकिन बड़े कवियों के हाथ चढ़ने से बहुत पहले ही ये कथाएं पंजाबी लोक-मानस में गहरी उतर चुकी थीं। पंजाबी कवियों ने सिर्फ नायकों को ही नहीं, कुछ किस्से-कहानियों को भी बाहर के स्रोतों से प्राप्त किया। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, सैफ-उलमलूक, यूसफ-जुलैखां आदि कहानियां भी हमारे कवियों को पसंद आईं। इन्हें अपना बना कर पंजाबी कवियों ने सुंदर किस्सों की रचना की। कुछ पंजाबी किस्से भारत के पुराने और सांझे सरमाये से भी संबंधित हैं। लेकिन पंजाबी लोकमानस ने अपनी धरती में से स्वत: फूट कर निकले किस्सों को जो मान्यता दी है, वह किसी और के हिस्से में नहीं आई। चार पंजाबी कवियों के नाम, जब तक दुनिया कायम है, पंजाब की चार अमर कहानियों ने रोशन कर दिए हैं। कवियों के नाम और किस्सों के नाम एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते । हीर-वारिस, सस्सी-हाशिम, सोहणी-फजलशाह के नाम तो लोगों की जबान पर हैं। पीलू का मिरजा और कादरयार का पूरन भगत भी इसी तरह एक ही सांस में याद किए जाते हैं। कवि और नायक के बीच किसी तरह की लकीर खींचना मुमकिन नहीं। इस तरह की अभिन्न साझेदारी का कारण यह है कि काव्य-किस्सों का रूप धारण करने से पहले ये कहानियां लोक-मानस का सहज अंग बन चुकी थीं। जब वारिस, हाशिम, पीलू आदि समर्थ कवियों की कविता लोगों को पसंद आई तो वे सहज ही लोक-मानस में टिक गए। हर कहानी से संबंधित लोक-काव्य का कोई न कोई अंश आज भी ढूँढ़ा जा सकता है:
पूरन तो सौतेली मां के त्रिया-चरित्र का शिकार होकर घर से बेघर हुआ था, लेकिन राजा रसालू ने अपनी मरजी से अपना घर छोड़ दिया था। इन दोनों को प्यार प्राप्त हुआ था, चाहे दोनों को जतियों-सतियों की तरह जीने का शौक था। रानी सुंदरां ने पूरन को अपना बनाने का जतन किया। सुंदरां किसी ऐसे देश की शासक थी, जहां औरतों का ही हुक्म चलता था। जाहिर है कि यह पंजाब से बाहर किसी इलाके की तरफ संकेत है। राजा रसालू ने सिरीकोट के राजा सिरकप की नवजात लड़की कोकलां को अपनी जीवन-संगिनी के रूप में स्वीकार किया। अनुमान लगाया गया है कि सिरकप का देश भी पंजाब से बाहर है। दुल्ला पंजाब में ही पैदा होकर पला। उसकी सारी जिंदगी इसी धरती पर व्यतीत हुई थी। लेकिन उसने अपने लिए काम ही कुछ ऐसा चुन लिया था कि वह अपने घर में टिक कर नहीं बैठ सकता था। हमारे नायक बेघर ही नहीं, बेयार भी हैं। जिंदगी की मुसाफिरी का रास्ता तो हम लोगों को अकेले ही तय करना है, इसमें हमारा कोई साथी नहीं। इस बेघर, बेयार जिंदगी में हमें केवल परदेसी दुनिया की प्रेम-भावना का सहारा है, जो ईश्वर की तरह दुख-दर्द के क्षणों में नजदीक होकर हमारे पास पहुंचती है। यह प्रेम-भावना ही देस-परदेस के भेद और दूरी को मिटा देती है, इस दूरी के मिट जाने के बाद ही पंजाबी प्रतिभा अपनी असली दीप्ति में आती है।
हालांकि इन लोकनायकों की कहानियों को हमारे समर्थ कवियों ने लिपिबद्ध किया, लेकिन बड़े कवियों के हाथ चढ़ने से बहुत पहले ही ये कथाएं पंजाबी लोक-मानस में गहरी उतर चुकी थीं। पंजाबी कवियों ने सिर्फ नायकों को ही नहीं, कुछ किस्से-कहानियों को भी बाहर के स्रोतों से प्राप्त किया। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, सैफ-उलमलूक, यूसफ-जुलैखां आदि कहानियां भी हमारे कवियों को पसंद आईं। इन्हें अपना बना कर पंजाबी कवियों ने सुंदर किस्सों की रचना की। कुछ पंजाबी किस्से भारत के पुराने और सांझे सरमाये से भी संबंधित हैं। लेकिन पंजाबी लोकमानस ने अपनी धरती में से स्वत: फूट कर निकले किस्सों को जो मान्यता दी है, वह किसी और के हिस्से में नहीं आई। चार पंजाबी कवियों के नाम, जब तक दुनिया कायम है, पंजाब की चार अमर कहानियों ने रोशन कर दिए हैं। कवियों के नाम और किस्सों के नाम एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते । हीर-वारिस, सस्सी-हाशिम, सोहणी-फजलशाह के नाम तो लोगों की जबान पर हैं। पीलू का मिरजा और कादरयार का पूरन भगत भी इसी तरह एक ही सांस में याद किए जाते हैं। कवि और नायक के बीच किसी तरह की लकीर खींचना मुमकिन नहीं। इस तरह की अभिन्न साझेदारी का कारण यह है कि काव्य-किस्सों का रूप धारण करने से पहले ये कहानियां लोक-मानस का सहज अंग बन चुकी थीं। जब वारिस, हाशिम, पीलू आदि समर्थ कवियों की कविता लोगों को पसंद आई तो वे सहज ही लोक-मानस में टिक गए। हर कहानी से संबंधित लोक-काव्य का कोई न कोई अंश आज भी ढूँढ़ा जा सकता है:
चलो सईयो चल वेरूण चलीये,
रांझे दा चुबारा नी।
हीर निमाणी इट्टां ढोवे,
रांझा ढोवे गारा नी।
रांझे दा चुबारा नी।
हीर निमाणी इट्टां ढोवे,
रांझा ढोवे गारा नी।
(सखियों, चलो, रांझे का चौबारा देखने चलें। बेचारी हीर ईंटें ढो रही है और
रांझा गारा ढो रहा है।)
सोहणी हिजर दे दीवे पई बालदी,
कोई खबर लयावे महीवाल दी।
कोई खबर लयावे महीवाल दी।
(सोहनी विरह के दीपक जला रही है। कोई महीवाल की खबर ले आए।)
ना जावीं रांझा वे,
सानूं बहरे गमां विच्च रोड़ के।
सानूं बहरे गमां विच्च रोड़ के।
(रांझा, हमें बहरे गमों में बहा कर मत जाना।)
कोई जावो सईयो नी,
रांझण नूं ल्यावो मोड़ के।
रांझण नूं ल्यावो मोड़ के।
(सखी जाओ, कोई जाकर रांझे को लौटा लाओ।)
चल नियां कराईये वे,
रांझणा तू काला, मैं गोरी।
रांझणा तू काला, मैं गोरी।
(चलो, चल कर इंसाफ कराएं। रांझा तू काला है और मैं गोरी हूं।)
इस तरह के अनेक काव्यांश लोग खुद-ब-खुद जोड़ते रहे हैं। कुछ देर तक ये लोगों के मुंह चढ़े रहे, फिर भूल-भुला गए। लेकिन दुल्ला भट्टी और सुंदरी से संबंधित एक अंश तो अमर हो गया है। आज तक लोहड़ी वाले दिन लड़के इसी को सुना कर लोहड़ी मांगते हैं। यह कहानी लोग भूल चुकें हैं, लेकिन मालूम नहीं किस शुभ घड़ी में किसी लोक-कवि ने निम्नलिखित तुकें जोड़ दीं, जो लोगों की जुबान पर ऐसी चढ़ी हैं कि इन्हें भुलाना संभव नहीं:
इस तरह के अनेक काव्यांश लोग खुद-ब-खुद जोड़ते रहे हैं। कुछ देर तक ये लोगों के मुंह चढ़े रहे, फिर भूल-भुला गए। लेकिन दुल्ला भट्टी और सुंदरी से संबंधित एक अंश तो अमर हो गया है। आज तक लोहड़ी वाले दिन लड़के इसी को सुना कर लोहड़ी मांगते हैं। यह कहानी लोग भूल चुकें हैं, लेकिन मालूम नहीं किस शुभ घड़ी में किसी लोक-कवि ने निम्नलिखित तुकें जोड़ दीं, जो लोगों की जुबान पर ऐसी चढ़ी हैं कि इन्हें भुलाना संभव नहीं:
सुंदर मुंदरिये, हो
तेरा कौन विचारा हो
दुल्ला भट्टी वाला, हो
दुल्ले धी ब्याही, हो
सेर शक्कर आई, हो
कुड़ी दे बोझे पाई, हो
कुड़ी दा लाल पटाका, हो
कुड़ी दा सालू पाटा, हो
सालू कौन समेटे, हो
चाचा गाली देसे, हो
चाचे चूरी कुट्टी, हो
जिमींदारां लुट्टी, हो
जिमींदार सदाये, हो
गिन-गिन पौले लाये, हो।
तेरा कौन विचारा हो
दुल्ला भट्टी वाला, हो
दुल्ले धी ब्याही, हो
सेर शक्कर आई, हो
कुड़ी दे बोझे पाई, हो
कुड़ी दा लाल पटाका, हो
कुड़ी दा सालू पाटा, हो
सालू कौन समेटे, हो
चाचा गाली देसे, हो
चाचे चूरी कुट्टी, हो
जिमींदारां लुट्टी, हो
जिमींदार सदाये, हो
गिन-गिन पौले लाये, हो।
यह प्रामाणिक लोकगीत है, जिसमें कहानी के धागे आगे-पीछे उलझ गए हैं।
लोकगीत का यह स्वभाव है। कहानी तो लोगों को मालूम ही होती है, लोककवि उसे
अपना मनचाहा रूप दे देता है। सुंदरी-मातृ-विहीन थी, उसके बाप का साया भी
उसके सिर पर नहीं था। चाचा जमींदार था। इलाके में से अकबर बादशाह गुजरने
वाला था, जमींदारों ने फैसला किया कि सुंदरी को बादशाह के सामने पेश किया
जाए। गांव की सबसे सुंदर (लाल पटाखा) और सबसे गरीब (फटे सालू वाली) लड़की
की रक्षा करने वाला ‘कौन बेचारा था ? बात दुल्ला भट्टी तक
पहुंचाई
गई। दुल्ला दीन-दुखी का हितैषी था, उसने फौरन अपनी बेटी की तरह सुंदरी की
शादी रचा डाली। जल्दी-जल्दी में शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका।
‘सेर शक्कर’ से ही शादी का शगुन किया गया। लेकिन उसने ‘चूरी’ कूटने वाले जमींदारों की खूब दुर्गति बनाई। इस तरह के लोकगीतों में से निकल कर ही पंजाबी लोकनायकों ने किस्सों की दुनिया में अपनी जगह बनाई। काव्य-नायक बनने से पहले वे लोककाव्य-नायक और काव्य-नायक बन चुके थे। ये सारे लोकनायक पंजाब के सीधे-सादे लोकधर्म की ओर संकेत करते हैं। पंजाबी किस्सों में प्राप्त है। पंजाब ने लाल पटाखा सौंदर्य को किसी न किसी तरह फटे हुए सालू वाली गरीबी के साथ जोड़ कर रखा है। कुम्हारिन सोहणी, धोबिन सस्सी, भैंस चराने वाला अजीमबेग, भैंस चराने वाला रांझा, पंजाब की खूबसूरत, लेकिन गरीब जवानी के ही प्रतीक हैं। राजा के बेटे पूरन और रसालू की लोककथा भी लोकप्रिय हुई। इसका मुख्य कारण तो यही है कि वे राजकुमार होते हुए भी राजपाट को लात मार कर गरीबी की हालत में घूमते रहे। पंजाबी लोकप्रतिभा ने अपनी स्वीकृति की मोहर गरीब सौंदर्य के ऊपर लगाई है। लोक-स्वीकृति की दूसरी कसौटी है सदाचार। इस गीत में दुल्ले ने सुंदरी को बेटी बना लिया। हीर-रांझे के प्यार के ऊपर पांचों पीरों का हाथ है। पूरन को गुरु गोरखनाथ का वरदान प्राप्त है। इस तरह के छोटे-मोटे विवरण लगभग हर एक किस्से में मिलते हैं। प्यार हो या फकीरी, चोरी हो या साधुपन, हर जगह सदाचार एक धार्मिक सच्चाई की तरह मौजूद है। सदाचार ने गरीबी को भी अपने ढंग की अमीरी बख्श रखी है।
हमारे किस्सों का तीसरा महत्त्वपूर्ण गुण है; व्यक्ति की स्वातंत्र्य भावना। बहुत बार परिवार इस स्वतंत्रता के रास्ते में रुकावट डालता है, लेकिन व्यक्ति पारिवारिक पाबंदियों को पार करना चाहता है। व्यक्ति और परिवार में टक्कर, पंजाबी किस्सों का एक ऐसा लक्षण है जिसके बगैर इनकी कल्पना नहीं की जा सकती। पंजाबी प्यारे सांस्कृतिक संयम में रहना चाहते हैं, लेकिन पारिवारिक बंधन में रहना उन्हें स्वीकार नहीं। हर पंजाबी सर्व-स्वीकृत संस्कृति की अधीनता तो स्वीकार करता है, लेकिन उसके भीतर रह कर वह चाहता है कि वह अपनी जिंदगी के फैसले खुद करे। जहां भी व्यक्ति के भाग्य का फैसला परिवार करना चाहता है, वहीं टकराव पेश हो जाता है। सुंदरी का चाचा, सुंदरी की मरजी के खिलाफ उसे बादशाह की विलासिता का साधन बनाना चाहता है, यहीं से लोकधर्म उसका विरोध करता है। हीर, सोहनी और साहिबां भी अपनी शादी का फैसला खुद करने के लिए अपने परिवार से जूझती हैं।
सस्सी को अपने परिवार की स्वीकृति मिल जाती है, लेकिन उसके पति का परिवार अड़चन में डाल देता है। पूरन के दुखों की कहानी की शुरुआत ही सौतेली मां और राजा पिता के मनमाने फैसलों के कारण होती है। मां-बाप अपने बेटे को अपनी मरजी के मुताबिक मोड़ना चाहते हैं, लेकिन बेटा अपनी स्वातंत्र्य भावना के मामले में कोई समझौता करने को तैयार नहीं। रसालू की कहानी भी न मुड़ने वाली स्वतंत्रता के प्रचंड वेग की कहानी है। मध्यकाल के समूचे भारतीय साहित्य-संसार में शायद पंजाबी नायक-नायिकाओं का स्वभाव सबसे अधिक विलक्षण है। पारिवारिक प्रतिबंधों के खिलाफ इस तरह का प्रचंड विरोध कहीं और नहीं मिलता। समाज एक अत्यंत बलवान, किंतु अमूर्त यथार्थ है।
हमारे किस्सों में अस्पष्ट-समाज-विरोध को स्थान नहीं मिला। किस्से लोकजीवन के बहुत नजदीक हैं और कवियों ने समाज के अत्यंत निकट और स्पष्ट विवरण की ओर ही ध्यान दिया है। समाज का सबसे प्रबल और स्पष्ट अंग परिवार है। मध्यकालीन पंजाबी रचनाओं में इसका आधुनिक विवरण एक ललकार की तरह पेश है। ध्यान देने के योग्य बात यह है कि किस्सों के पात्र मरते दम तक अपनी स्वतंत्रता के प्रति वफादार रहते हैं, लेकिन वे कहीं भी संयम की सीमा का उल्लंघन नहीं करते। हीर अपने कठिन संघर्ष से रांझे को प्राप्त कर लेती है। लेकिन उसके बाद वह अपने मां-बाप की स्वीकृति प्राप्त करना चाहती है और उनके अधीन रह कर ही अपना नया जीवन आरंभ करना चाहती है। पुन्नू के चले जाने के बाद सस्सी उसके पीछे भागती है। सोहनी अपने पहले प्यार के प्रति वफादार अपने प्रेमी से मिलती है, लेकिन सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार हुई शादी को वह तोड़ नहीं सकती। जोगी बन जाने के बाद भी पूरन के मन में मां-बाप के प्रति आदर-भाव रहता है, सौतेली मां को भी वरदान देने के लिए वह फिर अपने शहर में लौटता है। इस तरह के अनेक विवरण इन किस्सों में मिलेंगे, जिनसे पता लगेगा कि पंजाबी आचरण अपनी स्वतंत्रता को सामाजिक संयम के घेरे में रखना चाहता है। लेकिन अगर संयम बंधन बनकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का गला घोंटने लगे तो वह उसके विरोध के लिए डट कर खड़ा हो जाता है। आजादी को कहीं भी आवारागर्दी करने की इजाजत नहीं, लेकिन संयम को भी यह इजाजत नहीं कि वह बंधन का रूप धारण कर ले।
पंजाबी लोक-मानस ने किस्सों को जितना प्यार किया है, उतना किसी भी दूसरे काव्य-रूप को नहीं किया। मध्यकालीन पंजाबी साहित्य की कुछ धारणाएं तो किसी एक लोक-समूह का धर्म बन गई हैं। वे हमारे मन में बहुत गहरी उतर गई हैं। लेकिन वे समूची पंजाबी जनता में एक सी स्वीकृति नहीं पा सकीं। पंजाबी किस्से का शरीर और आत्मा भी धर्म से संबंधित हैं। यह अपनी तरह का लोकधर्म है जो संस्थाओं की जकड़ से मुक्त है। दरअसल पंजाबी लोक-व्यवहार में लोकधर्म का ही वास है जिसका सीधा-साधा अर्थ यह है कि पंजाबी जहां जनमे, वहीं का रहन-सहन अपना लिया। लेकिन भीतर के सच को निस्संकोच व्यक्त किया। भीतर के सच को बेलगाम न होने दिया, लेकिन बाहर के सच को अपनी नाक में नथ डालने की इजाजत भी न दी। सदाचार का मध्यवर्ग ही पंजाबी व्यवहार और पंजाबी किस्से का मार्ग है। दैनिक जीवन में इसी रास्ते पर चला जा सकता है।
संक्षेप में, सादगी, सदाचार, स्वतंत्रता और संयम का संयुक्त संसार ही पंजाबी किस्सों का संसार है।
‘सेर शक्कर’ से ही शादी का शगुन किया गया। लेकिन उसने ‘चूरी’ कूटने वाले जमींदारों की खूब दुर्गति बनाई। इस तरह के लोकगीतों में से निकल कर ही पंजाबी लोकनायकों ने किस्सों की दुनिया में अपनी जगह बनाई। काव्य-नायक बनने से पहले वे लोककाव्य-नायक और काव्य-नायक बन चुके थे। ये सारे लोकनायक पंजाब के सीधे-सादे लोकधर्म की ओर संकेत करते हैं। पंजाबी किस्सों में प्राप्त है। पंजाब ने लाल पटाखा सौंदर्य को किसी न किसी तरह फटे हुए सालू वाली गरीबी के साथ जोड़ कर रखा है। कुम्हारिन सोहणी, धोबिन सस्सी, भैंस चराने वाला अजीमबेग, भैंस चराने वाला रांझा, पंजाब की खूबसूरत, लेकिन गरीब जवानी के ही प्रतीक हैं। राजा के बेटे पूरन और रसालू की लोककथा भी लोकप्रिय हुई। इसका मुख्य कारण तो यही है कि वे राजकुमार होते हुए भी राजपाट को लात मार कर गरीबी की हालत में घूमते रहे। पंजाबी लोकप्रतिभा ने अपनी स्वीकृति की मोहर गरीब सौंदर्य के ऊपर लगाई है। लोक-स्वीकृति की दूसरी कसौटी है सदाचार। इस गीत में दुल्ले ने सुंदरी को बेटी बना लिया। हीर-रांझे के प्यार के ऊपर पांचों पीरों का हाथ है। पूरन को गुरु गोरखनाथ का वरदान प्राप्त है। इस तरह के छोटे-मोटे विवरण लगभग हर एक किस्से में मिलते हैं। प्यार हो या फकीरी, चोरी हो या साधुपन, हर जगह सदाचार एक धार्मिक सच्चाई की तरह मौजूद है। सदाचार ने गरीबी को भी अपने ढंग की अमीरी बख्श रखी है।
हमारे किस्सों का तीसरा महत्त्वपूर्ण गुण है; व्यक्ति की स्वातंत्र्य भावना। बहुत बार परिवार इस स्वतंत्रता के रास्ते में रुकावट डालता है, लेकिन व्यक्ति पारिवारिक पाबंदियों को पार करना चाहता है। व्यक्ति और परिवार में टक्कर, पंजाबी किस्सों का एक ऐसा लक्षण है जिसके बगैर इनकी कल्पना नहीं की जा सकती। पंजाबी प्यारे सांस्कृतिक संयम में रहना चाहते हैं, लेकिन पारिवारिक बंधन में रहना उन्हें स्वीकार नहीं। हर पंजाबी सर्व-स्वीकृत संस्कृति की अधीनता तो स्वीकार करता है, लेकिन उसके भीतर रह कर वह चाहता है कि वह अपनी जिंदगी के फैसले खुद करे। जहां भी व्यक्ति के भाग्य का फैसला परिवार करना चाहता है, वहीं टकराव पेश हो जाता है। सुंदरी का चाचा, सुंदरी की मरजी के खिलाफ उसे बादशाह की विलासिता का साधन बनाना चाहता है, यहीं से लोकधर्म उसका विरोध करता है। हीर, सोहनी और साहिबां भी अपनी शादी का फैसला खुद करने के लिए अपने परिवार से जूझती हैं।
सस्सी को अपने परिवार की स्वीकृति मिल जाती है, लेकिन उसके पति का परिवार अड़चन में डाल देता है। पूरन के दुखों की कहानी की शुरुआत ही सौतेली मां और राजा पिता के मनमाने फैसलों के कारण होती है। मां-बाप अपने बेटे को अपनी मरजी के मुताबिक मोड़ना चाहते हैं, लेकिन बेटा अपनी स्वातंत्र्य भावना के मामले में कोई समझौता करने को तैयार नहीं। रसालू की कहानी भी न मुड़ने वाली स्वतंत्रता के प्रचंड वेग की कहानी है। मध्यकाल के समूचे भारतीय साहित्य-संसार में शायद पंजाबी नायक-नायिकाओं का स्वभाव सबसे अधिक विलक्षण है। पारिवारिक प्रतिबंधों के खिलाफ इस तरह का प्रचंड विरोध कहीं और नहीं मिलता। समाज एक अत्यंत बलवान, किंतु अमूर्त यथार्थ है।
हमारे किस्सों में अस्पष्ट-समाज-विरोध को स्थान नहीं मिला। किस्से लोकजीवन के बहुत नजदीक हैं और कवियों ने समाज के अत्यंत निकट और स्पष्ट विवरण की ओर ही ध्यान दिया है। समाज का सबसे प्रबल और स्पष्ट अंग परिवार है। मध्यकालीन पंजाबी रचनाओं में इसका आधुनिक विवरण एक ललकार की तरह पेश है। ध्यान देने के योग्य बात यह है कि किस्सों के पात्र मरते दम तक अपनी स्वतंत्रता के प्रति वफादार रहते हैं, लेकिन वे कहीं भी संयम की सीमा का उल्लंघन नहीं करते। हीर अपने कठिन संघर्ष से रांझे को प्राप्त कर लेती है। लेकिन उसके बाद वह अपने मां-बाप की स्वीकृति प्राप्त करना चाहती है और उनके अधीन रह कर ही अपना नया जीवन आरंभ करना चाहती है। पुन्नू के चले जाने के बाद सस्सी उसके पीछे भागती है। सोहनी अपने पहले प्यार के प्रति वफादार अपने प्रेमी से मिलती है, लेकिन सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार हुई शादी को वह तोड़ नहीं सकती। जोगी बन जाने के बाद भी पूरन के मन में मां-बाप के प्रति आदर-भाव रहता है, सौतेली मां को भी वरदान देने के लिए वह फिर अपने शहर में लौटता है। इस तरह के अनेक विवरण इन किस्सों में मिलेंगे, जिनसे पता लगेगा कि पंजाबी आचरण अपनी स्वतंत्रता को सामाजिक संयम के घेरे में रखना चाहता है। लेकिन अगर संयम बंधन बनकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का गला घोंटने लगे तो वह उसके विरोध के लिए डट कर खड़ा हो जाता है। आजादी को कहीं भी आवारागर्दी करने की इजाजत नहीं, लेकिन संयम को भी यह इजाजत नहीं कि वह बंधन का रूप धारण कर ले।
पंजाबी लोक-मानस ने किस्सों को जितना प्यार किया है, उतना किसी भी दूसरे काव्य-रूप को नहीं किया। मध्यकालीन पंजाबी साहित्य की कुछ धारणाएं तो किसी एक लोक-समूह का धर्म बन गई हैं। वे हमारे मन में बहुत गहरी उतर गई हैं। लेकिन वे समूची पंजाबी जनता में एक सी स्वीकृति नहीं पा सकीं। पंजाबी किस्से का शरीर और आत्मा भी धर्म से संबंधित हैं। यह अपनी तरह का लोकधर्म है जो संस्थाओं की जकड़ से मुक्त है। दरअसल पंजाबी लोक-व्यवहार में लोकधर्म का ही वास है जिसका सीधा-साधा अर्थ यह है कि पंजाबी जहां जनमे, वहीं का रहन-सहन अपना लिया। लेकिन भीतर के सच को निस्संकोच व्यक्त किया। भीतर के सच को बेलगाम न होने दिया, लेकिन बाहर के सच को अपनी नाक में नथ डालने की इजाजत भी न दी। सदाचार का मध्यवर्ग ही पंजाबी व्यवहार और पंजाबी किस्से का मार्ग है। दैनिक जीवन में इसी रास्ते पर चला जा सकता है।
संक्षेप में, सादगी, सदाचार, स्वतंत्रता और संयम का संयुक्त संसार ही पंजाबी किस्सों का संसार है।
हरिभजन सिंह
हीर रांझा
मोहन सिंह
हीर की कहानी मुगलों के हिंदुस्तान में आने से कुछ समय पहले ही घटी थी। यह
वह समय था जब राजपूत नये-नये मुसलमान बने थे। सियाल, धारनगर के राजपूत थे।
सन् 1258 में राय सियाल, सुपुत्र राय शंकर ने बाबा फकीर शकरगंज के हाथों
से इस्लाम कबूल किया था। इन लोगों ने मुसलमान बनने के बाद भी
हिंदू-रीति-रिवाजों को जारी रखा था। ये लोग अपनी औरतों को पर्दे में नहीं
रखते थे। तुर्कों जैसे नीले कपड़े पहनना और पीतल के बर्तनों का प्रयोग भी
इनके यहां वर्जित था। सियाल जब पहले-पहल यहां आए तो उनके पुरखे मलखान ने
1162 ई. में झंग बसाया। चूचक भी सियालों का एक सरदार था। हीर इसी मिहर
चूचक की बेटी थी। मिहरेटी होने के कारण वह बड़े लाड़-प्यार में पली थी।
उसका काम सहेलियों के साथ मिल कर झूला झूलना, चिनाब नदी में नहाना या बहार
की तरह सजी अपनी बेड़ी में बैठ कर चिनाब के किनारों पर आकर सघन कुंजों का
नजारा देखना था, या पानी की गोद में क्रीड़ा करते हुए सूर्योदय के नजारों
और दिन डूबने पर रंगीन परछाइयों की लीला का आनंद लूटना था। जहां हीर जवान,
तंदुरुस्त, शोख और निडर थी, वहीं वह बेहद खूबसूरत भी थी। हुस्न और जवानी
के मेल ने गजब ढा दिया था, उसकी चाल नवाब के हाथी जैसी थी और चड़तल उकाब
के पंख जैसी। जहां, भारतीय परंपरा के अनुसार, ‘मोहिनी और
इंद्राणी’ थी वहीं ईरानी परंपरा के अनुसार वह ‘पुतली
पीकने
दी, नक्श रूम वाले, गुझ्झी रहे न हीर हजार विच्वों1 थी।
झंग का मेहर होने के अलावा चिनाब के घाटों का प्रबंध भी चूचक के हाथों में था। वहां मुसाफिरों को पार ले जाने के लिए कई किश्तियां खड़ी रहती थीं। दिन भर राहगीर और सौदागर घाट को पार करते रहते थे। हर राहगीर की पहली नजर हीर की किश्ती पर पड़ती थी, जिसे हीर के मल्लाह लुडुन ने बहुत सजा कर रखा था। इस खाली किश्ती को देखते ही राहगीरों की आँखों में अनुपम सपने जगने लगते थे, लेकिन जिन्हें हीर के भी दर्शन हो जाते थे, वे तो साक्षात नशे का रूप बन जाते थे। इस तरह राहगीरों और सौदागरों के जरिये हीर के हुस्न और जवानी की कहानियां दूर-दूर तक फैल चुकी थीं।
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1.चीनी पुतली, रूम वाले नक्श, हीर हजारों में छिपाए न छिपती थी।
तख्त हजारा झंग से अस्सी मील दूर था। वहां भी हीर की खूबसूरती की कहानियां पहुंच गई थीं और वहां के गबरू और मुटियारे हीर के नाम से परिचित हो चुके थे। तख्त हजारे के चौधरी का नाम मौजू था, जो जात का रांझा जाट था। उसके आठ बेटे थे, जिनमें से धीदो सबसे छोटा, खूबसूरत और नाजुक था।
बाप की मौत के बाद भाइयों ने जमीन की पैमाइश के बाद बंटवारा किया। बड़ों ने खुद तो अच्छी जमीन हथिया ली, ऊसर और बंजर जमीन धीदो के हवाले कर दी। बाप का लाड़ला बेटा होने की वजह से रांझे ने कभी खेती का काम नहीं किया था, अत: उसने खेती-बारी की तरफ बिलकुल ध्यान न दिया और छैला बन कर लगा गली-कूचों में घूमने। रांझे की भाभियां उस पर जान देती थीं। कुछ दिनों तक तो वे उससे लाड़-प्यार करती रहीं, लेकिन जब उन्होंने देखा कि वह तो सिर्फ तेल से बाल चुपड़ने और बांसुरी बजाने के काबिल ही है, तो उन्होंने उसे ताने देने शुरू कर दिए। अगर रांझा अपनी भाभियों के प्यार का जरा भी प्रतिदान करता रहता तो शायद वे उसे इतने ताने न मारतीं, लेकिन ऱांझे का स्वभाव अलबेला था। उसकी जवानी बड़ी लापरवाह और बेनियाज थी। सो एक दिन उसकी सबसे छोटी भाभी ने ताना-मारा- ‘‘अगर तुझे हमारी परवाह नहीं, तो जा, सियालों की हीर ब्याह ला।’’
झंग का मेहर होने के अलावा चिनाब के घाटों का प्रबंध भी चूचक के हाथों में था। वहां मुसाफिरों को पार ले जाने के लिए कई किश्तियां खड़ी रहती थीं। दिन भर राहगीर और सौदागर घाट को पार करते रहते थे। हर राहगीर की पहली नजर हीर की किश्ती पर पड़ती थी, जिसे हीर के मल्लाह लुडुन ने बहुत सजा कर रखा था। इस खाली किश्ती को देखते ही राहगीरों की आँखों में अनुपम सपने जगने लगते थे, लेकिन जिन्हें हीर के भी दर्शन हो जाते थे, वे तो साक्षात नशे का रूप बन जाते थे। इस तरह राहगीरों और सौदागरों के जरिये हीर के हुस्न और जवानी की कहानियां दूर-दूर तक फैल चुकी थीं।
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1.चीनी पुतली, रूम वाले नक्श, हीर हजारों में छिपाए न छिपती थी।
तख्त हजारा झंग से अस्सी मील दूर था। वहां भी हीर की खूबसूरती की कहानियां पहुंच गई थीं और वहां के गबरू और मुटियारे हीर के नाम से परिचित हो चुके थे। तख्त हजारे के चौधरी का नाम मौजू था, जो जात का रांझा जाट था। उसके आठ बेटे थे, जिनमें से धीदो सबसे छोटा, खूबसूरत और नाजुक था।
बाप की मौत के बाद भाइयों ने जमीन की पैमाइश के बाद बंटवारा किया। बड़ों ने खुद तो अच्छी जमीन हथिया ली, ऊसर और बंजर जमीन धीदो के हवाले कर दी। बाप का लाड़ला बेटा होने की वजह से रांझे ने कभी खेती का काम नहीं किया था, अत: उसने खेती-बारी की तरफ बिलकुल ध्यान न दिया और छैला बन कर लगा गली-कूचों में घूमने। रांझे की भाभियां उस पर जान देती थीं। कुछ दिनों तक तो वे उससे लाड़-प्यार करती रहीं, लेकिन जब उन्होंने देखा कि वह तो सिर्फ तेल से बाल चुपड़ने और बांसुरी बजाने के काबिल ही है, तो उन्होंने उसे ताने देने शुरू कर दिए। अगर रांझा अपनी भाभियों के प्यार का जरा भी प्रतिदान करता रहता तो शायद वे उसे इतने ताने न मारतीं, लेकिन ऱांझे का स्वभाव अलबेला था। उसकी जवानी बड़ी लापरवाह और बेनियाज थी। सो एक दिन उसकी सबसे छोटी भाभी ने ताना-मारा- ‘‘अगर तुझे हमारी परवाह नहीं, तो जा, सियालों की हीर ब्याह ला।’’
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