कहानी संग्रह >> समग्र कहानियाँ - भाग 1 समग्र कहानियाँ - भाग 1नरेन्द्र कोहली
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कोहली जी की समस्त कहानियों का संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जिधर दृष्टि जाती थी, कोई-न-कोई कहानी दीख जाती थी- अपने भीतर भी, अपने
बाहर भी। फिर भी मेरी आरंभिक कहानियाँ इस अर्थ में काफी आत्म-केन्द्रित
रही हैं कि उनकी सामग्री मैंने अपने परिवार और निकट संबंधियों के
व्यक्तिगत जीवन से ही ली है। अबोध शैशव को पीछे छोड़ आए, पहली बार आँखें
खोलते हुए तरुण मन के लिए शायद यही स्वाभाविक था। प्रतिदिन सामाजिक
पारिवारिक जीवन के किसी न किसी नये तथ्य का उद्घाटन हो रहा था।
अपने आस-पास घटती घटनाओं की अनुभूतियों का ताजापन और उनके प्रति तीखी प्रतिक्रिया मुझे कहानी लिखने को बाध्य कर रही थी। कॉलेज के नये-नये अनुभव, हल्के-हल्के रोमांस, घर में पहला विवाह, नये बनते संबंध और पुराने संबंधों के प्रति विद्रोह जैसे उपकरण मुझे अनायास ही सुलभ हो गये थे, और मेरे पास था मस्ती से भरा तथा लोगों को कोंचने को आतुर मन, चुहल से कटाक्ष तथा विद्रूप तक जाती वाणी, स्वयं को बड़ों के बराबर मनवाने का किशोर प्रयास......क्योंकि बड़ों के गरिमायुक्त व्यक्तित्व क्रमशः हल्के पड़ते जा रहे थे। आरम्भिक कहानियों में घटनाओं के नाटकीय संयोजन से, विसंगतियों तथा दोहरे मान-दंडों पर प्रहार करना ही शायद मेरा प्रमुख उद्देश्य था। आज सोचता हूँ तो लगता है कि शायद अपने विद्रोह की घोषणा करने के लिए ही मैंने कहानियाँ लिखी थीं।
अपने आस-पास घटती घटनाओं की अनुभूतियों का ताजापन और उनके प्रति तीखी प्रतिक्रिया मुझे कहानी लिखने को बाध्य कर रही थी। कॉलेज के नये-नये अनुभव, हल्के-हल्के रोमांस, घर में पहला विवाह, नये बनते संबंध और पुराने संबंधों के प्रति विद्रोह जैसे उपकरण मुझे अनायास ही सुलभ हो गये थे, और मेरे पास था मस्ती से भरा तथा लोगों को कोंचने को आतुर मन, चुहल से कटाक्ष तथा विद्रूप तक जाती वाणी, स्वयं को बड़ों के बराबर मनवाने का किशोर प्रयास......क्योंकि बड़ों के गरिमायुक्त व्यक्तित्व क्रमशः हल्के पड़ते जा रहे थे। आरम्भिक कहानियों में घटनाओं के नाटकीय संयोजन से, विसंगतियों तथा दोहरे मान-दंडों पर प्रहार करना ही शायद मेरा प्रमुख उद्देश्य था। आज सोचता हूँ तो लगता है कि शायद अपने विद्रोह की घोषणा करने के लिए ही मैंने कहानियाँ लिखी थीं।
मेरी कहानियाँ
मेरा लेखन कहानियों से आरम्भ हुआ या कविताओं से-यह कहना कठिन है, किन्तु
इसमें कोई भ्रम नहीं हैं कि मेरे लेखन का विकास कहानियों के माध्यम से ही
हुआ। अपनी कॉपियों में तो कविताएँ भी खूब लिखी थीं; पर न तो उनका विकास
हुआ न प्रकाशन। किन्तु कहानियों की बात और थी।
जिधर दृष्टि जाती थी, कोई-न-कोई कहानी दीख जाती थी- अपने भीतर भी, अपने बाहर भी। फिर भी मेरी आरंभिक कहानियाँ इस अर्थ में काफी आत्म-केन्द्रित रही हैं कि उनकी सामग्री मैंने अपने परिवार और निकट संबंधियों के व्यक्तिगत जीवन से ही ली है। अबोध शैशव को पीछे छोड़ आए, पहली बार आँखें खोलते हुए तरुण मन के लिए शायद यही स्वाभाविक था। प्रतिदिन सामाजिक पारिवारिक जीवन के किसी न किसी नये तथ्य का उद्घाटन हो रहा था। अपने आस-पास घटती घटनाओं की अनुभूतियों का ताजापन और उनके प्रति तीखी प्रतिक्रिया मुझे कहानी लिखने को बाध्य कर रही थी। कॉलेज के नये-नये अनुभव, हल्के-हल्के रोमांस, घर में पहला विवाह, नये बनते संबंध और पुराने संबंधों के प्रति विद्रोह जैसे उपकरण मुझे अनायास ही सुलभ हो गये थे, और मेरे पास था मस्ती से भरा तथा लोगों को कोंचने को आतुर मन, चुहल से कटाक्ष तथा विद्रूप तक जाती वाणी, स्वयं को बड़ों के बराबर मनवाने का किशोर प्रयास......क्योंकि बड़ों के गरिमायुक्त व्यक्तित्व क्रमशः हल्के पड़ते जा रहे थे। आरम्भिक कहानियों में घटनाओं के नाटकीय संयोजन से, विसंगतियों तथा दोहरे मान-दंडों पर प्रहार करना ही शायद मेरा प्रमुख उद्देश्य था। आज सोचता हूँ तो लगता है कि शायद अपने विद्रोह की घोषणा करने के लिए ही मैंने कहानियाँ लिखी थीं।
‘पानी का जग, गिलास और केतली,’ ‘दो हाथ’, ‘बदतमीजी’, ‘ज्ञान की पिपासा’ ‘दो-ढाई-आठ,’ ‘उजड़े दयार में’ इत्यादि कहानियाँ मेरे इसी मूड की अत्यन्त आरम्भिक कहानियाँ हैं।
इसी अवधि में कुछ कहानियाँ केवल इसलिए लिखी गईं, क्योंकि कहानियाँ बन गई थीं। कहानीपन का भी अपना एक मज़ा होता है। उसको छोड़ पाना कठिन होता है विशेषकर आरम्भिक दौर में। ऐसा भी हुआ कि परस्पर चर्चा में किसी ने कोई रोचक घटना सुना दी, अथवा किसी बातचीत में से कोई प्रश्न उभर आया, तो उसकी भी कहानी बन गई। राजा दशरथ के बेटे’ तथा ‘मम्मी, पापा और उनकी बेबी’ ऐसी ही कहानियाँ हैं।
प्रेम-कथाएं मैंने बहुत कम लिखी हैं, किन्तु आरम्भ में कुछ रोमानी कहानियाँ अवश्य लिखी थीं। ‘स्नेह का उदय’, ‘संगिनी’, ‘उसने गलत नहीं कहा था’ तथा ‘मालिनी’ जैसी कुछ कहानियाँ याद रही है। किन्तु इनमें से कोई भी गम्भीर प्रेम-प्रेम कथा नहीं है प्रेम-कथा लिखने में मुझे न तब संकोच था, न अब है, किन्तु प्रेम को कहानी बनाने में शायद एक लम्बी अवधि चाहिए। लम्बे अरसे के बाद मैंने ‘कथा पुरानी मैत्री की’ ‘त्रासदियां प्रेम की’ तथा ‘प्रीति-कथा इत्यादि रचनाएं अवश्य लिखीं, किन्तु उनमें ‘प्रेम’ कम, विश्लेषण और व्यंग्य ही अधिक सघन हुआ है। क्योंकि प्रेम की वास्तविकता अब उतनी अबूझ नहीं रह गई थी।
फिर जैसे अपने आप से अवकाश पाकर मेरा लेखन अपने दुःख-दर्द के साथ-साथ दूसरों के दुख-दर्द भी पहचानने लगा था। इस समय मेरी कहानियां मेरे जीवन को छूते हुए अन्य लोगों के अनुभवों की कहानियां हैं। मेरी लेखकीय सहानुभूति इन्हीं दिनों विकसित होना आरम्भ हुई थी। आहत-प्यार’ ‘भूखे बच्चे : सूखी डाली’, ‘मेरा अपना संसार’ बहुत भावुक और आहात भावनाओं की कहानियाँ हैं। उनके साथ-साथ ‘कहानी का अभाव’, ‘होने वाली पत्नी’ तथा ‘एक ही विकल्प’ परिस्थितियों की विडंबना की कहानियां है। ‘कहानी का अभाव’ यद्यपि मेरी आरम्भिक कहानियों में से है, किन्तु मुझे अब भी बहुत प्रिय है। इसकी सामग्री मैंने अपने अपने बड़े भाई के जीवन से ली थी, जो अत्यन्त नीरस, शुष्क तथा मशीनी हो चुका था। उनकी पीड़ा तो मेरे लिए महत्त्वपूर्ण भी है, किन्तु यह कहानी मुझे अन्य कारणों से भी प्रिय है। यह कहानी की संरचना की परम्परागत अकादमी ढांचे पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है। ‘एक ही विकल्प’ कहानी मैंने तीन बार लिखी थी। पहली बार यह ‘अंधेरे का जीवन’ नाम से ‘कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उसे लिखने ही नहीं, प्रकाशित करवा देने के पश्चात भी मेरे मन में एक बात सदा कौंधती रही कि उस कहानी में और बहुत कुछ कहने और चित्रित करने का अवकाश था, किन्तु मैंने उसे बहुत विरल रूप में प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि मैंने उसे पुनः उपन्यास के रूप में लिखा, किन्तु लिखने के साथ ही मुझे लगा उसे उपन्यास बनाने के अविवेकी प्रयत्न में मैंने उसे आवश्यक विस्तार दे दिया है और उस रचना की प्रखरता तथा प्रहारकर्ता क्षीण कर दी है। उसे तीसरी बार लिखा और वह ‘एक ही विकल्प’ के रूप में सामने आयी।
जीवन के केन्द्र में अब भी कॉलेज ही था, किन्तु छात्र से अध्यापक बनने प्रक्रिया से गुज़र चुका था। नयी–नयी नौकरी, विवाह, दांपत्य जीवन की कुछ आरम्भिक समस्याएं....और इनके कारण अपने निकट के लोगों के जीवन में उत्पन्न हुई जटिलताएं....जीवन के इन नये अनुभवों ने अपनी आकस्मिकता के कारण वाणी की वक्रता को गौण बना दिया था, अनुभूति ही प्रधान हो गई थी। ‘मॉरिस नगर, ‘कपूर’, ‘दूसरे कगार का निषेध’ तथा ‘सीमा के आर-पार इन्हीं दिनों लिखी गई कहानियाँ हैं।
1966-67 के दो वर्ष मेरे जीवन में घटनाओं की दृष्टि से अधिक हलचल भरे थे। पहली सन्तान का जन्म, छोटे बच्चे के पालन-पोषण की समस्याएं, और फिर चार ही महीनों में उसकी मृत्यु ! मैंने अनुभव किया कि विवाह अपने आप में जीवन की एक बहुत बड़ी घटना हो सकता है, किन्तु सन्तान का जन्म तथा उसका पालन-पोषण-भावना, व्यवहार तथा परिस्थितियों इत्यादि के धरातल पर कहीं अधिक सघन अनुभव है, जो जीवन-क्रम को आपादमस्तक लील लेता है। ‘परिणति,’ ‘दूसरी आया’ और ‘किरचें’ इत्यदि कहानियों की पृष्ठभूमि में ये ही घटनाएं हैं। रोमानियति को छोड़ जीवन कठोर यथार्थ के ढर्रे पर आ रहा था। पारिवारिक सम्बन्धों की अनेक जटिलताएं अपने केंचुल खोल रही थीं। मृत्यु को इस प्रकार आमने-सामने देखकर, व्यक्ति रोमानी रह ही कैसे सकता है !
तब तक मेरे अनुभव कहानियों के रूप में ही ढलते थे, शायद इसलिए कि प्रत्येक को स्वतः संपूर्ण मानकर मेरा सर्जक मन उस घटना को उसी की सम्पूर्णता में बुनता था। उसे कार्य और कारण की लम्बी श्रृंखला से स्वतन्त्र ही रखता था। कहानी उसी एक बिन्दु के चारों ओर बुनी जाती थी, उसे एक विराट् जाल के अंग के रूप में बुनने की चेतना अभी नहीं जागी थी। तब तक ‘व्यंग्य’ भी पूरी तरह से मुझ पर हावी नहीं हुआ थाः धीरे-धीरे अपनी आँखें अवश्य खोल रहा था। ‘सार्थकता’ में उसके अंकुर फूटते अवश्य दिखाई पड़ रहे थे। उपन्यास-लेखन की ओर बढ़ने की छटपटाहट भी चल रही थी। ‘दि कॉलेज’ शायद इन दोनों के मिश्रण का ही परिणाम था। आज ‘वृत्त’ को पढ़ता हूँ तो वह भी किसी बड़े सामाजिक/राजनीतिक उपन्यास का कथानक-सा ही दिखाई पड़ता है ‘साथ सहा गया दुख’ का प्रथम प्रारूप भी इन्हीं कहानियों का समकालीन है।
1967-68 में लिखी गई कहानियों की पृष्ठभूमि पिछले वर्ष की कहानियों से विशेष भिन्न नहीं है।,....दूसरी संतान का जन्म हो चुका था। इस बार जुड़वां बच्चे थे- एक लड़का और एक लड़की। लड़की चौबीस दिनों की ही आयु लेकर आयी थी।....इस काल में लिखी कहानियों में इन घटनाओं की प्रत्यक्ष चर्चा नहीं है। हाँ, पिछले दो वर्षों के अनुभवों की कटुता के कारण विनोद की वक्रता अब यथार्थ की कटुता में बदलती अवश्य लग रही थी। इसी प्रक्रिया का आभास ‘हिन्दुस्तानी’ में मिलता है।
स्वयं पिता बनकर अपने पिता को मैंने और भी निकट से जाना। शायद इसलिए वृद्धावस्था के प्रति संवेदना और सहानुभूति् जागी। ‘शटल’, ‘दृष्टि देश में एकाएक’ ‘नमक का कैदी तथा ‘खर्च, डायरी और अस्पताल’ इत्यादि कहानियां तो पिताजी से सम्बन्धित हैं ही, ‘चारहान का जंगल’ भी उन्हीं के जीवन में घटित एक घटना पर आधृत कहानी है।
जहां घटनाओं का चित्रण न कर उस पर प्रतिक्रिया और वह भी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आवश्यकता पड़ी, वहाँ कहानी नहीं बनी, व्यंग्य ही बना। 1969 ई० में कहानियों से अधिक मैं व्यंग्य लिख रहा था। बीच-बीच में कुछ कहानियों भी लिखी जा रही थीं, किन्तु क्रमशः कहानियों का स्त्रोत सूख रहा था। वैसे तो व्यंग्य में भी घटनाओं का उपयोग होता ही रहता है, किन्तु व्यंग्य कथानक-विहीन विधा है। तो मेरे भीतर का कथा-तत्त्व कहां जा रहा था ? 1970 ई० में जब उपन्यास-लेखन आरम्भ हुआ तो कहानी-लेखन प्रायः बन्द हो गया। शायद तब छोटी घटनाओं का स्वतंत्र महत्त्व कम लगने लगा था। वे घटनाएं तो एक बड़ी व्यवस्था की कड़ियां थीं। और व्यवस्था का चित्रण उपन्यास लिखे बिना नहीं हो सकता था। संभवता मेरा आक्रोश व्यंग्य का रूप ग्रहण कर रहा था और कथा-तन्त्र उपन्यास में ढल रहा था।
1970-75 की अवधि में बहुत कम कहानियां लिखी गईं। व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पड़ाव (जो व्यक्ति के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाएं होती हैं) मैं प्रायः पार कर आया था। पढ़ाई, नौकरी, विवाह संतान का जन्म, उनका रोग-शोक, गृहस्थी के तनाव और परेशानियां, सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दबाव-यह सब कुछ देख चुका था।...मेरी रचना-प्रक्रिया में एक विचित्र अन्तर आता जा रहा था। सृजन-प्रक्रिया के वृक्ष के तने में से दो शाखाएँ उग आयी थीं, व्यंग्य और उपन्यास। बीज आ जाने पर, फूल झड़ जाते हैं। इन दो टहनियों के विकास से कहानी अनायास ही सूख गई थी।
मेरे सृजन-वृक्ष का ताना बाना अब तक कथा ही है, किन्तु विधा के रूप में कहानी जैसे विलीन हो गई है। कथा तत्त्व उपन्यास में समा गया और आक्रोश व्यंग्य में। पिछले पन्द्रह वर्षों में मैंने कहानियां बहुत कम लिखी हैं, न के बराबर। अब तो स्वतन्त्र रचना के रूप में व्यंग्य भी कभी-कभार लिख लेता हूं अन्यथा वह भी उपन्यास में ही समाहित हो गया है। लोग पूछते हैं-आपने कहानी लिखनी बन्द कर दी ? मैं स्वीकार में सिर हिला नहीं पाता, क्योंकि न तो मैंने ऐसा कोई संकल्प ही किया है और न ही मुझे कहानी से किसी भी प्रकार का विरोध है। कहानियां लिख नहीं रहा तो इसलिए नहीं कि लिखना नहीं चाहता। हुआ यह है कि उपन्यास अधिक प्रबल हो उठा है....या कहना अधिक उचित होगा कि वह मुझ पर हावी हो गया है।
जिधर दृष्टि जाती थी, कोई-न-कोई कहानी दीख जाती थी- अपने भीतर भी, अपने बाहर भी। फिर भी मेरी आरंभिक कहानियाँ इस अर्थ में काफी आत्म-केन्द्रित रही हैं कि उनकी सामग्री मैंने अपने परिवार और निकट संबंधियों के व्यक्तिगत जीवन से ही ली है। अबोध शैशव को पीछे छोड़ आए, पहली बार आँखें खोलते हुए तरुण मन के लिए शायद यही स्वाभाविक था। प्रतिदिन सामाजिक पारिवारिक जीवन के किसी न किसी नये तथ्य का उद्घाटन हो रहा था। अपने आस-पास घटती घटनाओं की अनुभूतियों का ताजापन और उनके प्रति तीखी प्रतिक्रिया मुझे कहानी लिखने को बाध्य कर रही थी। कॉलेज के नये-नये अनुभव, हल्के-हल्के रोमांस, घर में पहला विवाह, नये बनते संबंध और पुराने संबंधों के प्रति विद्रोह जैसे उपकरण मुझे अनायास ही सुलभ हो गये थे, और मेरे पास था मस्ती से भरा तथा लोगों को कोंचने को आतुर मन, चुहल से कटाक्ष तथा विद्रूप तक जाती वाणी, स्वयं को बड़ों के बराबर मनवाने का किशोर प्रयास......क्योंकि बड़ों के गरिमायुक्त व्यक्तित्व क्रमशः हल्के पड़ते जा रहे थे। आरम्भिक कहानियों में घटनाओं के नाटकीय संयोजन से, विसंगतियों तथा दोहरे मान-दंडों पर प्रहार करना ही शायद मेरा प्रमुख उद्देश्य था। आज सोचता हूँ तो लगता है कि शायद अपने विद्रोह की घोषणा करने के लिए ही मैंने कहानियाँ लिखी थीं।
‘पानी का जग, गिलास और केतली,’ ‘दो हाथ’, ‘बदतमीजी’, ‘ज्ञान की पिपासा’ ‘दो-ढाई-आठ,’ ‘उजड़े दयार में’ इत्यादि कहानियाँ मेरे इसी मूड की अत्यन्त आरम्भिक कहानियाँ हैं।
इसी अवधि में कुछ कहानियाँ केवल इसलिए लिखी गईं, क्योंकि कहानियाँ बन गई थीं। कहानीपन का भी अपना एक मज़ा होता है। उसको छोड़ पाना कठिन होता है विशेषकर आरम्भिक दौर में। ऐसा भी हुआ कि परस्पर चर्चा में किसी ने कोई रोचक घटना सुना दी, अथवा किसी बातचीत में से कोई प्रश्न उभर आया, तो उसकी भी कहानी बन गई। राजा दशरथ के बेटे’ तथा ‘मम्मी, पापा और उनकी बेबी’ ऐसी ही कहानियाँ हैं।
प्रेम-कथाएं मैंने बहुत कम लिखी हैं, किन्तु आरम्भ में कुछ रोमानी कहानियाँ अवश्य लिखी थीं। ‘स्नेह का उदय’, ‘संगिनी’, ‘उसने गलत नहीं कहा था’ तथा ‘मालिनी’ जैसी कुछ कहानियाँ याद रही है। किन्तु इनमें से कोई भी गम्भीर प्रेम-प्रेम कथा नहीं है प्रेम-कथा लिखने में मुझे न तब संकोच था, न अब है, किन्तु प्रेम को कहानी बनाने में शायद एक लम्बी अवधि चाहिए। लम्बे अरसे के बाद मैंने ‘कथा पुरानी मैत्री की’ ‘त्रासदियां प्रेम की’ तथा ‘प्रीति-कथा इत्यादि रचनाएं अवश्य लिखीं, किन्तु उनमें ‘प्रेम’ कम, विश्लेषण और व्यंग्य ही अधिक सघन हुआ है। क्योंकि प्रेम की वास्तविकता अब उतनी अबूझ नहीं रह गई थी।
फिर जैसे अपने आप से अवकाश पाकर मेरा लेखन अपने दुःख-दर्द के साथ-साथ दूसरों के दुख-दर्द भी पहचानने लगा था। इस समय मेरी कहानियां मेरे जीवन को छूते हुए अन्य लोगों के अनुभवों की कहानियां हैं। मेरी लेखकीय सहानुभूति इन्हीं दिनों विकसित होना आरम्भ हुई थी। आहत-प्यार’ ‘भूखे बच्चे : सूखी डाली’, ‘मेरा अपना संसार’ बहुत भावुक और आहात भावनाओं की कहानियाँ हैं। उनके साथ-साथ ‘कहानी का अभाव’, ‘होने वाली पत्नी’ तथा ‘एक ही विकल्प’ परिस्थितियों की विडंबना की कहानियां है। ‘कहानी का अभाव’ यद्यपि मेरी आरम्भिक कहानियों में से है, किन्तु मुझे अब भी बहुत प्रिय है। इसकी सामग्री मैंने अपने अपने बड़े भाई के जीवन से ली थी, जो अत्यन्त नीरस, शुष्क तथा मशीनी हो चुका था। उनकी पीड़ा तो मेरे लिए महत्त्वपूर्ण भी है, किन्तु यह कहानी मुझे अन्य कारणों से भी प्रिय है। यह कहानी की संरचना की परम्परागत अकादमी ढांचे पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है। ‘एक ही विकल्प’ कहानी मैंने तीन बार लिखी थी। पहली बार यह ‘अंधेरे का जीवन’ नाम से ‘कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उसे लिखने ही नहीं, प्रकाशित करवा देने के पश्चात भी मेरे मन में एक बात सदा कौंधती रही कि उस कहानी में और बहुत कुछ कहने और चित्रित करने का अवकाश था, किन्तु मैंने उसे बहुत विरल रूप में प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि मैंने उसे पुनः उपन्यास के रूप में लिखा, किन्तु लिखने के साथ ही मुझे लगा उसे उपन्यास बनाने के अविवेकी प्रयत्न में मैंने उसे आवश्यक विस्तार दे दिया है और उस रचना की प्रखरता तथा प्रहारकर्ता क्षीण कर दी है। उसे तीसरी बार लिखा और वह ‘एक ही विकल्प’ के रूप में सामने आयी।
जीवन के केन्द्र में अब भी कॉलेज ही था, किन्तु छात्र से अध्यापक बनने प्रक्रिया से गुज़र चुका था। नयी–नयी नौकरी, विवाह, दांपत्य जीवन की कुछ आरम्भिक समस्याएं....और इनके कारण अपने निकट के लोगों के जीवन में उत्पन्न हुई जटिलताएं....जीवन के इन नये अनुभवों ने अपनी आकस्मिकता के कारण वाणी की वक्रता को गौण बना दिया था, अनुभूति ही प्रधान हो गई थी। ‘मॉरिस नगर, ‘कपूर’, ‘दूसरे कगार का निषेध’ तथा ‘सीमा के आर-पार इन्हीं दिनों लिखी गई कहानियाँ हैं।
1966-67 के दो वर्ष मेरे जीवन में घटनाओं की दृष्टि से अधिक हलचल भरे थे। पहली सन्तान का जन्म, छोटे बच्चे के पालन-पोषण की समस्याएं, और फिर चार ही महीनों में उसकी मृत्यु ! मैंने अनुभव किया कि विवाह अपने आप में जीवन की एक बहुत बड़ी घटना हो सकता है, किन्तु सन्तान का जन्म तथा उसका पालन-पोषण-भावना, व्यवहार तथा परिस्थितियों इत्यादि के धरातल पर कहीं अधिक सघन अनुभव है, जो जीवन-क्रम को आपादमस्तक लील लेता है। ‘परिणति,’ ‘दूसरी आया’ और ‘किरचें’ इत्यदि कहानियों की पृष्ठभूमि में ये ही घटनाएं हैं। रोमानियति को छोड़ जीवन कठोर यथार्थ के ढर्रे पर आ रहा था। पारिवारिक सम्बन्धों की अनेक जटिलताएं अपने केंचुल खोल रही थीं। मृत्यु को इस प्रकार आमने-सामने देखकर, व्यक्ति रोमानी रह ही कैसे सकता है !
तब तक मेरे अनुभव कहानियों के रूप में ही ढलते थे, शायद इसलिए कि प्रत्येक को स्वतः संपूर्ण मानकर मेरा सर्जक मन उस घटना को उसी की सम्पूर्णता में बुनता था। उसे कार्य और कारण की लम्बी श्रृंखला से स्वतन्त्र ही रखता था। कहानी उसी एक बिन्दु के चारों ओर बुनी जाती थी, उसे एक विराट् जाल के अंग के रूप में बुनने की चेतना अभी नहीं जागी थी। तब तक ‘व्यंग्य’ भी पूरी तरह से मुझ पर हावी नहीं हुआ थाः धीरे-धीरे अपनी आँखें अवश्य खोल रहा था। ‘सार्थकता’ में उसके अंकुर फूटते अवश्य दिखाई पड़ रहे थे। उपन्यास-लेखन की ओर बढ़ने की छटपटाहट भी चल रही थी। ‘दि कॉलेज’ शायद इन दोनों के मिश्रण का ही परिणाम था। आज ‘वृत्त’ को पढ़ता हूँ तो वह भी किसी बड़े सामाजिक/राजनीतिक उपन्यास का कथानक-सा ही दिखाई पड़ता है ‘साथ सहा गया दुख’ का प्रथम प्रारूप भी इन्हीं कहानियों का समकालीन है।
1967-68 में लिखी गई कहानियों की पृष्ठभूमि पिछले वर्ष की कहानियों से विशेष भिन्न नहीं है।,....दूसरी संतान का जन्म हो चुका था। इस बार जुड़वां बच्चे थे- एक लड़का और एक लड़की। लड़की चौबीस दिनों की ही आयु लेकर आयी थी।....इस काल में लिखी कहानियों में इन घटनाओं की प्रत्यक्ष चर्चा नहीं है। हाँ, पिछले दो वर्षों के अनुभवों की कटुता के कारण विनोद की वक्रता अब यथार्थ की कटुता में बदलती अवश्य लग रही थी। इसी प्रक्रिया का आभास ‘हिन्दुस्तानी’ में मिलता है।
स्वयं पिता बनकर अपने पिता को मैंने और भी निकट से जाना। शायद इसलिए वृद्धावस्था के प्रति संवेदना और सहानुभूति् जागी। ‘शटल’, ‘दृष्टि देश में एकाएक’ ‘नमक का कैदी तथा ‘खर्च, डायरी और अस्पताल’ इत्यादि कहानियां तो पिताजी से सम्बन्धित हैं ही, ‘चारहान का जंगल’ भी उन्हीं के जीवन में घटित एक घटना पर आधृत कहानी है।
जहां घटनाओं का चित्रण न कर उस पर प्रतिक्रिया और वह भी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आवश्यकता पड़ी, वहाँ कहानी नहीं बनी, व्यंग्य ही बना। 1969 ई० में कहानियों से अधिक मैं व्यंग्य लिख रहा था। बीच-बीच में कुछ कहानियों भी लिखी जा रही थीं, किन्तु क्रमशः कहानियों का स्त्रोत सूख रहा था। वैसे तो व्यंग्य में भी घटनाओं का उपयोग होता ही रहता है, किन्तु व्यंग्य कथानक-विहीन विधा है। तो मेरे भीतर का कथा-तत्त्व कहां जा रहा था ? 1970 ई० में जब उपन्यास-लेखन आरम्भ हुआ तो कहानी-लेखन प्रायः बन्द हो गया। शायद तब छोटी घटनाओं का स्वतंत्र महत्त्व कम लगने लगा था। वे घटनाएं तो एक बड़ी व्यवस्था की कड़ियां थीं। और व्यवस्था का चित्रण उपन्यास लिखे बिना नहीं हो सकता था। संभवता मेरा आक्रोश व्यंग्य का रूप ग्रहण कर रहा था और कथा-तन्त्र उपन्यास में ढल रहा था।
1970-75 की अवधि में बहुत कम कहानियां लिखी गईं। व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पड़ाव (जो व्यक्ति के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाएं होती हैं) मैं प्रायः पार कर आया था। पढ़ाई, नौकरी, विवाह संतान का जन्म, उनका रोग-शोक, गृहस्थी के तनाव और परेशानियां, सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दबाव-यह सब कुछ देख चुका था।...मेरी रचना-प्रक्रिया में एक विचित्र अन्तर आता जा रहा था। सृजन-प्रक्रिया के वृक्ष के तने में से दो शाखाएँ उग आयी थीं, व्यंग्य और उपन्यास। बीज आ जाने पर, फूल झड़ जाते हैं। इन दो टहनियों के विकास से कहानी अनायास ही सूख गई थी।
मेरे सृजन-वृक्ष का ताना बाना अब तक कथा ही है, किन्तु विधा के रूप में कहानी जैसे विलीन हो गई है। कथा तत्त्व उपन्यास में समा गया और आक्रोश व्यंग्य में। पिछले पन्द्रह वर्षों में मैंने कहानियां बहुत कम लिखी हैं, न के बराबर। अब तो स्वतन्त्र रचना के रूप में व्यंग्य भी कभी-कभार लिख लेता हूं अन्यथा वह भी उपन्यास में ही समाहित हो गया है। लोग पूछते हैं-आपने कहानी लिखनी बन्द कर दी ? मैं स्वीकार में सिर हिला नहीं पाता, क्योंकि न तो मैंने ऐसा कोई संकल्प ही किया है और न ही मुझे कहानी से किसी भी प्रकार का विरोध है। कहानियां लिख नहीं रहा तो इसलिए नहीं कि लिखना नहीं चाहता। हुआ यह है कि उपन्यास अधिक प्रबल हो उठा है....या कहना अधिक उचित होगा कि वह मुझ पर हावी हो गया है।
नरेन्द्र कोहली
बदतमीजी
भैया अपने किसी मित्र के पास एक विशेष प्रकार का रुमाल देख आए थे। वह
रूमाल उन्हें बहुत पसंद आया था। उन्होंने ऐलान कर दिया कि अब ऐसे ही
रुमालों का प्रयोग करेंगे। हम लोग का रुमाल देख वे खिल्ली उड़ाते,
‘चले हैं रुमाल रखने। अरे भाई चीज रखनी है तो ढंग की रखो। आदमी
का
आखिर कोई स्टैडर्ड होना चाहिए।’
भैया के शादी के सूटों का कपडा आया तो साथ-साथ एक विशेष प्रकार का सफ़ेद कपड़ा भी आया। पता चला कि ये भैया के रुमालों के लिए है ये रुमाल विशेष उनकी शादी के लिए बनेंगे।
सूट तो बाद में बने, भैया के रुमाल पहले बन गये। जिस दिन रुमाल बने उस दिन एक हमने उनके हाथ में देखा।
‘भैया ! ये तो शादी के लिए बने थे न ?’ मैंने पूछा।
‘शादी के लिए छह मैंने रख दिए हैं।’ उन्होंने कहा।
‘और ?’
‘और छह अभी डेली यूज के लिए निकाल लिए हैं।’
‘अच्छा !’
‘और क्या .....!’
भैया के शादी के सूटों का कपडा आया तो साथ-साथ एक विशेष प्रकार का सफ़ेद कपड़ा भी आया। पता चला कि ये भैया के रुमालों के लिए है ये रुमाल विशेष उनकी शादी के लिए बनेंगे।
सूट तो बाद में बने, भैया के रुमाल पहले बन गये। जिस दिन रुमाल बने उस दिन एक हमने उनके हाथ में देखा।
‘भैया ! ये तो शादी के लिए बने थे न ?’ मैंने पूछा।
‘शादी के लिए छह मैंने रख दिए हैं।’ उन्होंने कहा।
‘और ?’
‘और छह अभी डेली यूज के लिए निकाल लिए हैं।’
‘अच्छा !’
‘और क्या .....!’
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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