आध्यात्मिक >> अन्तर्यात्रा अन्तर्यात्रारामकृष्ण पाण्डेय आमिल
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मनुष्य की नियति और उसके संघर्ष,जीवन के प्रति अदम्य लालसा और उसके मोहभंग,अन्धेरे में भी संघर्ष की आंच में तपते हुए प्रकाश को टटोलने और उसके सहारे जीवन की यात्रा को देखने परखने का दस्तावेज.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मनुष्य की नियति और उसके संघर्ष, जीवन के
प्रति अदम्य लालसा और उससे उपजे मोहभंग, अन्धेरे में भी संघर्ष की आँच में
तपते हुए प्रकाश को टटोलने और उसके सहारे जीवन की यात्रा को देखने परखने
का दस्तावेज है-‘अंतर्यात्रा’ आमिल जैसे रचनाकार का
एक ओर जन की आकांक्षा को सहेजने का यत्न और दूसरी ओर अपने भाव जगत् के
भीतर प्रवेश करके सारे धूल-धक्कड़, कलुष, द्वेष और द्वन्द्वको त्यागने के
संगुम्फन से बना यह उपन्यास कहीं बड़े गहरे हमें मनुष्य बने रहने का बोध
कराता है।
एक आम आदमी का जीवन किस तरह अपने अन्दर कल्पनातीत ढंग से बेहतर मानवीय मूल्यों को सिरजते हुए बड़े आदमी का जीवन बन जाता है, ऐसे बारीक रेशों की पड़ताल यह कृति करती है। इस मामले में गाँव – जवार से बाहर निकल कर अध्यात्म और परम्परा के सूक्ष्म विश्लेषण में यह रचना अपना स्वयं का अध्यात्म पुनर्सृजित करती है कहना न होगा कि अपनी अन्य दो औपन्यासिक कृतियों क्रमशः ‘सीमाएं’ एवं ‘गोधूलि’ की तरह एक बार फिर आमिल इसमें मनुष्यता और सौजन्य का एक बड़ा आकाश रचते हैं।
अन्तर्यात्रा ऐसे ही छोटे-छोटे जीवन के पड़ावों से गुजरते हुए अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करती है और समय के बाहर एक नये अर्थ भरे समय की सम्भावना रचती है।
एक आम आदमी का जीवन किस तरह अपने अन्दर कल्पनातीत ढंग से बेहतर मानवीय मूल्यों को सिरजते हुए बड़े आदमी का जीवन बन जाता है, ऐसे बारीक रेशों की पड़ताल यह कृति करती है। इस मामले में गाँव – जवार से बाहर निकल कर अध्यात्म और परम्परा के सूक्ष्म विश्लेषण में यह रचना अपना स्वयं का अध्यात्म पुनर्सृजित करती है कहना न होगा कि अपनी अन्य दो औपन्यासिक कृतियों क्रमशः ‘सीमाएं’ एवं ‘गोधूलि’ की तरह एक बार फिर आमिल इसमें मनुष्यता और सौजन्य का एक बड़ा आकाश रचते हैं।
अन्तर्यात्रा ऐसे ही छोटे-छोटे जीवन के पड़ावों से गुजरते हुए अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करती है और समय के बाहर एक नये अर्थ भरे समय की सम्भावना रचती है।
दो शब्द
जीवन,बोध से कभी अछूता नहीं रहता, इस बोध सृजन हेतु चैतन्य भाव थामे रहना
इन्सान की आवश्यकता भी है और मजबूरी भी...
कितना भी सरल जीवन हो, घटाटोप अँधेरा उसमें सेंधमारी करता है और कितना ही संघर्ष करने का हौसला हो, पराक्रम जमीन चूमता लगने लगता है।
जीवन के इस व्यामोह की परछाई हर किसी पर कभी पूर्वार्द्ध और कभी उत्तरार्द्ध में सजीव हो उठती है, तब कभी लाचारी, कभी बेबसी, कभी आशायें...कभी निराशायें उसके शान्त जीवन सागर में उफान से ओतप्रोत लगने लगती है।
ऐसे में राह ढूँढ़े नहीं मिलती और किनारा लगता है पास आ-आ कर, दूर बहुत दूर होता जा रहा है।
कुछ अपने हालात की गर्दिश और कुछ गर्दिश दौराँ के मँडराते बादल जब सौजन्यता, सहृदयता और आत्मीयता की बौछार से सन्तप्त वेग को शीतल करते हैं तो बोध एक नई करवट, नई सोच और नई फिक्र के साथ क्षितिज पर अपनी पूर्ण प्रकाशयुक्त आभा से राह दिखा देता है...
यह बोध सार्वलौकिक और सार्वकालिक है..आप और मैं फिर हम सब, किसी न किसी रूप में इससे हमकिनार और प्रभावित देखे जा सकते हैं।
जख्म जब असहज होकर व्याप्त चेतना से जुड़ता है तो विचार खौलते हैं...खौलने लगते हैं...तब..उन्हें थाम पाना कठिन होने लगता है।
खौलते विचारों को राह की दरकार होती है और मनुष्य ज्वालामुखी सदृश फूट न पड़े, इसलिए वह इन्हें कलम से कागज पर उकेर कर मन हल्का करने की चेष्टा करता है।
कर पाता है या नहीं..यह अलग बात है।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह इन स्थितियों से जूझता और लोहा लेते संघर्षशील रहता है।
यह कुछ पृष्ठ ऐसे ही संघर्षों की आईनादारी और नुमाइंदगी करते हैं जो हमारी, आपकी और उनकी जीवन्त जिन्दगी का एक हिस्सा हैं।
कितना भी सरल जीवन हो, घटाटोप अँधेरा उसमें सेंधमारी करता है और कितना ही संघर्ष करने का हौसला हो, पराक्रम जमीन चूमता लगने लगता है।
जीवन के इस व्यामोह की परछाई हर किसी पर कभी पूर्वार्द्ध और कभी उत्तरार्द्ध में सजीव हो उठती है, तब कभी लाचारी, कभी बेबसी, कभी आशायें...कभी निराशायें उसके शान्त जीवन सागर में उफान से ओतप्रोत लगने लगती है।
ऐसे में राह ढूँढ़े नहीं मिलती और किनारा लगता है पास आ-आ कर, दूर बहुत दूर होता जा रहा है।
कुछ अपने हालात की गर्दिश और कुछ गर्दिश दौराँ के मँडराते बादल जब सौजन्यता, सहृदयता और आत्मीयता की बौछार से सन्तप्त वेग को शीतल करते हैं तो बोध एक नई करवट, नई सोच और नई फिक्र के साथ क्षितिज पर अपनी पूर्ण प्रकाशयुक्त आभा से राह दिखा देता है...
यह बोध सार्वलौकिक और सार्वकालिक है..आप और मैं फिर हम सब, किसी न किसी रूप में इससे हमकिनार और प्रभावित देखे जा सकते हैं।
जख्म जब असहज होकर व्याप्त चेतना से जुड़ता है तो विचार खौलते हैं...खौलने लगते हैं...तब..उन्हें थाम पाना कठिन होने लगता है।
खौलते विचारों को राह की दरकार होती है और मनुष्य ज्वालामुखी सदृश फूट न पड़े, इसलिए वह इन्हें कलम से कागज पर उकेर कर मन हल्का करने की चेष्टा करता है।
कर पाता है या नहीं..यह अलग बात है।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह इन स्थितियों से जूझता और लोहा लेते संघर्षशील रहता है।
यह कुछ पृष्ठ ऐसे ही संघर्षों की आईनादारी और नुमाइंदगी करते हैं जो हमारी, आपकी और उनकी जीवन्त जिन्दगी का एक हिस्सा हैं।
-रामकृष्ण पाण्डेय ‘आमिल’
एक
योगी महाराज का आश्रम, भव्यता के मापदण्ड पर शर्माने जैसी स्थिति का
परिचायक था, नगरीय कोलाहल से बहुत दूर, विन्ध्य की उत्तुंग पहाड़ों की
श्रृंखला की तलहटी में, आवागमन के साधन से वंचित, ऊबड़खाबड़ डगर की पद
यात्रा या सायकिल का सहारा, एक्के-टाँगे वाले उस मार्ग पर जाने से कतराते
थे या फिर उजरत अधिक माँगते जो सामान्य व्यक्ति के लिए सुभीते का सौदा न
होता।
कच्ची मिट्टी की मोटी चौड़ी चारदीवारी से घिरा आश्रम, इस दीवार पर खपरैल की छाजन और कहीं-कहीं सरपत का छोटा छप्पर, जिससे बरसात में मिट्टी की दीवार न गिरे। मुख्य द्वार पर बाँस का बड़ा फाटक जो केवल प्रातः और संध्या में खुलता और शेष समय बन्द रहता, बहुत कम व्यक्ति उधर से होकर गुजरते या आश्रम में आते जाते।
मेरी पी.सी.एस.की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी, परिणाम फल का इन्तजार था, एक-एक दिन काटे कट नहीं रहा था, घर परिवार की स्थिति विडम्बनीय नहीं तो शोचनीय अवश्य थी।
पिताजी पचहत्तर की आयु सीमा पार कर चुके थे, पेंशन और गाँव का छः बीघा खेत की बटाई से प्राप्त होने वाला अनाज, रोजी रोटी का सहारा थे।
एम.ए. कर लेने के बाद प्रतिष्ठा पूर्ण सरकारी पद प्राप्त करने की तीव्र इच्छा का भूत जो सवार हुआ तो सिर से उतरने का नाम ही न लेता, इसी कारण दूसरी नौकरी से कतराता रहा।
माँ बहुधा अस्वस्थ रहतीं, उनकी अभिलाषा थी कि किसी प्रकार मैं विवाह कर लूँ तो उन्हें चूल्हा चक्की से फुर्सत मिल जाए, परन्तु मेरा विवाह इस गरीबी में एक और बोझ बढ़ाने का न था, इसी के चलते रिश्ता बन नहीं सका, नाते और रिश्तेदार तथा भाई पट्टीदार, मेरे इस स्वभाव के कारण भन्नाते और रूठते गए, अब कोई भूले से भी वैवाहिक सम्बन्ध के विचार से, हमारे घर का रुख न करता।
जब पढ़ता था तो दुष्यन्त से अन्तरंग मित्रता थी, वह एम.ए. तक साथ था, फिर अपनी स्थितियों और परिस्थितियों के कारण मेरी पढ़ाई छूट गई, उसने पी.एच.डी. की और विश्वविद्यालय में नियुक्त हो गया।
आज जब घर पहुँचा तो दुष्यन्त का पत्र मिला, लिखा था कि अगले महीने विवाह निश्चित है, निमन्त्रण पत्र तो जाएगा ही, यह अग्रिम सूचना इस दृष्टि से भेजी जा रही है ताकि ऐन समय पर कोई बहाना न बना सको, विवाह में सम्मिलित होना बहुत आवश्यक है।
पत्र पढ़ा तो बदन सिहर गया, सोचा अजब कम्बख्त है, दाँत कटकटाने वाले जाड़े में विवाह कर रहा है, एक ऊनी चादर में जाड़ा काट देने की मेरी मजबूरी का इससे दयनीय उपहास और हो भी क्या सकता था, मैं अपनी साँस थामे सिर पकड़कर बैठ गया।
पिताजी की दृष्टि मुझ पर पड़ी और इस स्थिति में देखा तो पूछ बैठे, ‘‘किसका पत्र है...सब ठीक तो है ?’’
‘‘दुष्यन्त का पत्र है, दिसम्बर में उसका विवाह निश्चित है...नि..मंत्रण..से..पूर्व..सूचना भेजी है।
‘‘अच्छा...अच्छा..’’
कहकर पिताजी चुप हो गए।
पत्र को तहकर लिफाफे में डाल, सिरहाने रखकर, माँ के पास बैठा, माँ ने मुझे गौर से देखा और सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘‘क्या बात है भैया ! आज बहुत उदास लग रहे हो ?’’
पिताजी जो वहीं पास खड़े थे, इतना सुना तो कह पड़े, ‘‘इनके मित्र का विवाह है और यह परेशान हैं।’’
इतना सुना तो माँ बोली, ‘‘विवाह तो खुशी का अवसर होता है भैया ! तुम क्यों परेशान हो..?’’
अब क्या कहता, कपड़े तो अलग यहाँ किराए के भी लाले पड़े थे, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ, माँ निरन्तर निहारती रहीं, फिर खाँसने के बाद बोलीं, ‘‘अब समझी..तुम्हारे दोस्त का विवाह हो रहा है..और..तुम सोच रहे हो..तुम्हारा नहीं हुआ तो भैया !...इस में हमारा क्या दोष...हम तो कब से चाहते थे...कि विवाह हो जाए...और..बहू आकर घर गृहस्थी..सँभाल ले..पर..पर..तुम्हारी जिद्द के आगे किसी की नहीं चली।’’
इतना सुना तो माँ की सहज सादगी पर न हँसी आ सकी और न रो सका, एकटक अपलक माँ को देखता रहा, फिर मेरी आँखों से अश्रु बहने लगे, माँ ने यह दृश्य देखा तो पिताजी को आवाज दी, आगे बढ़कर मेरा चेहरा, अपनी गोदी में ढाँपते हुए बोलीं, ‘‘छीः..छीः..भैया ! रोओ मत...भगवान सबकी कामना पूरी करते हैं...तुम्हारी भी अवश्य करेंगे...बस..बस..रोओ...नहीं...।’’
कहते-कहते मेरे सिर और पीठ पर हाथ फेरने लगीं।
पिताजी जो पास ही थे, अन्दर चले आए और माँ से संकेत में पूछा कि माजरा क्या है ? माँ ने जो समझा था वही पिताजी से कह दिया।
पिताजी ने इतना सुना तो बोले, ‘‘अरे नहीं..भैया ! विवाह के लिए नहीं दुखी हो रहा है...मैं जानता...और...समझता हूँ..यह दूसरे कारण से रो रहा है।’’
‘‘दूसरा क्या कारण है..?’’ माँ ने पिताजी से पूछा।
‘‘कारण है धनाभाव..उसे हम तुम भी..जानते हैं और भैया भी..परन्तु...मेरी अभिलाषा है कि..विवाह में अवश्य सम्मिलित होना चाहिए...विवाह एक ही बार होता है...और फिर..इष्ट मित्र..रिश्ते नातेदार...नहीं..सम्मिलित होंगे तो अच्छा लगेगा क्या ?
कच्ची मिट्टी की मोटी चौड़ी चारदीवारी से घिरा आश्रम, इस दीवार पर खपरैल की छाजन और कहीं-कहीं सरपत का छोटा छप्पर, जिससे बरसात में मिट्टी की दीवार न गिरे। मुख्य द्वार पर बाँस का बड़ा फाटक जो केवल प्रातः और संध्या में खुलता और शेष समय बन्द रहता, बहुत कम व्यक्ति उधर से होकर गुजरते या आश्रम में आते जाते।
मेरी पी.सी.एस.की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी, परिणाम फल का इन्तजार था, एक-एक दिन काटे कट नहीं रहा था, घर परिवार की स्थिति विडम्बनीय नहीं तो शोचनीय अवश्य थी।
पिताजी पचहत्तर की आयु सीमा पार कर चुके थे, पेंशन और गाँव का छः बीघा खेत की बटाई से प्राप्त होने वाला अनाज, रोजी रोटी का सहारा थे।
एम.ए. कर लेने के बाद प्रतिष्ठा पूर्ण सरकारी पद प्राप्त करने की तीव्र इच्छा का भूत जो सवार हुआ तो सिर से उतरने का नाम ही न लेता, इसी कारण दूसरी नौकरी से कतराता रहा।
माँ बहुधा अस्वस्थ रहतीं, उनकी अभिलाषा थी कि किसी प्रकार मैं विवाह कर लूँ तो उन्हें चूल्हा चक्की से फुर्सत मिल जाए, परन्तु मेरा विवाह इस गरीबी में एक और बोझ बढ़ाने का न था, इसी के चलते रिश्ता बन नहीं सका, नाते और रिश्तेदार तथा भाई पट्टीदार, मेरे इस स्वभाव के कारण भन्नाते और रूठते गए, अब कोई भूले से भी वैवाहिक सम्बन्ध के विचार से, हमारे घर का रुख न करता।
जब पढ़ता था तो दुष्यन्त से अन्तरंग मित्रता थी, वह एम.ए. तक साथ था, फिर अपनी स्थितियों और परिस्थितियों के कारण मेरी पढ़ाई छूट गई, उसने पी.एच.डी. की और विश्वविद्यालय में नियुक्त हो गया।
आज जब घर पहुँचा तो दुष्यन्त का पत्र मिला, लिखा था कि अगले महीने विवाह निश्चित है, निमन्त्रण पत्र तो जाएगा ही, यह अग्रिम सूचना इस दृष्टि से भेजी जा रही है ताकि ऐन समय पर कोई बहाना न बना सको, विवाह में सम्मिलित होना बहुत आवश्यक है।
पत्र पढ़ा तो बदन सिहर गया, सोचा अजब कम्बख्त है, दाँत कटकटाने वाले जाड़े में विवाह कर रहा है, एक ऊनी चादर में जाड़ा काट देने की मेरी मजबूरी का इससे दयनीय उपहास और हो भी क्या सकता था, मैं अपनी साँस थामे सिर पकड़कर बैठ गया।
पिताजी की दृष्टि मुझ पर पड़ी और इस स्थिति में देखा तो पूछ बैठे, ‘‘किसका पत्र है...सब ठीक तो है ?’’
‘‘दुष्यन्त का पत्र है, दिसम्बर में उसका विवाह निश्चित है...नि..मंत्रण..से..पूर्व..सूचना भेजी है।
‘‘अच्छा...अच्छा..’’
कहकर पिताजी चुप हो गए।
पत्र को तहकर लिफाफे में डाल, सिरहाने रखकर, माँ के पास बैठा, माँ ने मुझे गौर से देखा और सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘‘क्या बात है भैया ! आज बहुत उदास लग रहे हो ?’’
पिताजी जो वहीं पास खड़े थे, इतना सुना तो कह पड़े, ‘‘इनके मित्र का विवाह है और यह परेशान हैं।’’
इतना सुना तो माँ बोली, ‘‘विवाह तो खुशी का अवसर होता है भैया ! तुम क्यों परेशान हो..?’’
अब क्या कहता, कपड़े तो अलग यहाँ किराए के भी लाले पड़े थे, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ, माँ निरन्तर निहारती रहीं, फिर खाँसने के बाद बोलीं, ‘‘अब समझी..तुम्हारे दोस्त का विवाह हो रहा है..और..तुम सोच रहे हो..तुम्हारा नहीं हुआ तो भैया !...इस में हमारा क्या दोष...हम तो कब से चाहते थे...कि विवाह हो जाए...और..बहू आकर घर गृहस्थी..सँभाल ले..पर..पर..तुम्हारी जिद्द के आगे किसी की नहीं चली।’’
इतना सुना तो माँ की सहज सादगी पर न हँसी आ सकी और न रो सका, एकटक अपलक माँ को देखता रहा, फिर मेरी आँखों से अश्रु बहने लगे, माँ ने यह दृश्य देखा तो पिताजी को आवाज दी, आगे बढ़कर मेरा चेहरा, अपनी गोदी में ढाँपते हुए बोलीं, ‘‘छीः..छीः..भैया ! रोओ मत...भगवान सबकी कामना पूरी करते हैं...तुम्हारी भी अवश्य करेंगे...बस..बस..रोओ...नहीं...।’’
कहते-कहते मेरे सिर और पीठ पर हाथ फेरने लगीं।
पिताजी जो पास ही थे, अन्दर चले आए और माँ से संकेत में पूछा कि माजरा क्या है ? माँ ने जो समझा था वही पिताजी से कह दिया।
पिताजी ने इतना सुना तो बोले, ‘‘अरे नहीं..भैया ! विवाह के लिए नहीं दुखी हो रहा है...मैं जानता...और...समझता हूँ..यह दूसरे कारण से रो रहा है।’’
‘‘दूसरा क्या कारण है..?’’ माँ ने पिताजी से पूछा।
‘‘कारण है धनाभाव..उसे हम तुम भी..जानते हैं और भैया भी..परन्तु...मेरी अभिलाषा है कि..विवाह में अवश्य सम्मिलित होना चाहिए...विवाह एक ही बार होता है...और फिर..इष्ट मित्र..रिश्ते नातेदार...नहीं..सम्मिलित होंगे तो अच्छा लगेगा क्या ?
दो
पिताजी का योगी बाबा के आश्रम से पुराना सम्बन्ध था, इधर वह अपने गिरते
स्वास्थ्य और अवस्था के कारण नित्य नहीं जा पाते थे, फिर भी परिश्रम साध
कर बीस-पच्चीस दिन में एक चक्कर तो लगा ही लेते थे, शेष दिनों में वह अपने
नित्य नियम के साथ, योगी बाबा के चित्र को देवता की भाँति धूप दीप और
पुष्प आदि अर्पित कर नमन कर लिया करते।
दो दिन बाद दीपावली पर्व था, घर-गृहस्थी की झाड़पोंछ और सफाई में पसीने पसीने हो रहा था, दोपहर के भोजन के पश्चचात् पिताजी ने कहा कि आज या कल अवसर निकाल कर मुझे आश्रम ले चलो।
उनकी इच्छा और आज्ञा शिरोधार्य करते हुए मैंने कल चलने की बात कह दी, इतना और कह बैठा कि आज ही ले चलता, परन्तु सामान को बाहर से उठाकर अन्दर सहेज कर रखना है और जब तक यह सब निपटेगा, अँधेरा हो जाएगा।
अगले दिन पिताजी ने मुझसे बाजार चलने को कहा, मैंने सोचा दीपावली पर्व है शायद कुछ खरीददारी करेंगे, हम दोनों साथ-साथ चले और एक बजाज की दूकान पर दो-दो मीटर मारकीन के दो टुकड़े खरीदे, एक ऊनी टोपा और एक गर्म शाल, फिर कुछ फल और मीठा खरीद कर, झोले में रखने के लिए देकर, माँ की दवा का पर्चा ढ़ूँढ़ने लगे, एक ड्रग स्टोर से माँ के लिए दवाइयाँ खरीदीं।
लौटकर घर आए, भोजन के पश्चात् थोड़ा विश्राम कर लेने के पश्चात्, पिताजी ने आश्रम चलने का विचार प्रकट किया, मैं तैयार होकर सायकिल निकाल लाया और चलने हेतु बाहर पिताजी की प्रतीक्षा करने लगा, उन्होंने आवाज देकर कहा, ‘‘भैया ! झोला तो ले लो, यह सामान आश्रम में देना है।’’ घर में पुनः प्रवेश कर खूँटी से झोला उतारा, उसे लाकर सायकिल के हैण्डिल में टाँगा, पिताजी आए और पीछे कैरियर पर बैठ गए, मैं धीरे-धीरे सायकिल चलाते हुए आश्रम की दिशा में बढ़ने लगा।
यूँ हम दोनों चुपचाप चले जा रहे थे, पर मेरे मन में इतनी हलचल अवश्य थी कि पिताजी लगभग अट्ठारह-बीस वर्षों से योगी बाबा के सम्पर्क में हैं, इसके बावजूद भी वह मुझे कभी अपने साथ नहीं ले गए, मैं सोचने लगा क्या योगी बाबा ने ऐसा कोई प्रतिबन्ध लगा रखा है, फिर मैं तर्क करते-करते सोचने लगता, यदि सचमुच प्रतिबन्ध होता तो पिताजी मुझे आज साथ क्यों लाते ?
फिर मैं नए सिरे से गुत्थी सुलझाने की चेष्टा करता और मन ही मन विचार करता, संभवतः अपनी इस अवस्था के कारण, पिताजी ने योगी बाबा से आज्ञा प्राप्त कर ली हो कि वह पुत्र के साथ आ सकते हैं।
नगर में सामान्य जन में संभवतः योगी बाबा की कोई चर्चा न थी और यदि रही भी होगी तो बहुत न्यून, अधिकतर लोग उनके विषय में जानते ही न थे, वह भी कभी नगर प्रवेश न करते थे, सिर्फ अपने आश्रम के पास ही घूम टहल लेते।
कभी-कभार कुछ लोगों का आना जाना उस ओर देखा जाता था, परन्तु यह कोई नहीं जानता था कि लोग वहाँ जाते हैं क्यों जाते हैं ?
यह और ऐसे ही अन्य प्रश्न मन के पटल पर उकेरते और बिना किसी निष्कर्ष तक पहुँचे, हम आश्रम के निकट तक पहुँच चुके थे, पिताजी को गेट के पास उतारकर मैं खड़ा हो गया, उन्होंने जब मेरा यह बर्ताव देखा तो पूछ पड़े।
‘‘अन्दर नहीं चलोगे...?’’ अब मैं क्या कहता, निरुत्तर ही साथ-साथ गेट में प्रवेश कर गया, फाटक खुला था, गेट के करीब डेढ़ सौ कदम चलने पर तीन कोठरियाँ और एक बड़ा-सा बरामदा दिखाई पड़ा, उत्तर दिशा में कुआँ था, उस पर पानी खींचने के लिए चर्खी लगी थी, कुएँ के पास बगल में दो बड़े-बड़े पत्थर रखे थे, संभवतः इन्हें स्नान और वस्त्रादि धोने के लिए उपयोग में लाया जाता हो।
अन्दर का प्रांगण बृहद और विशाल था, एक ओर बहुत अच्छी फुलवारी, रंग-बिरंगे खिले फूलों की मनोहारी छटा बिखेर रही थी।
प्रांगण में कई विशाल पेड़ थे, पेड़ों के नीचे-नीचे चटाइयाँ बिछी थीं, एक विशाल बेल वृक्ष के नीचे, चित्ताकर्षक ताम्ररंग के बृहद आकार शिवलिंग की स्थापना थी। इस पर बांस के डण्डों की तिगोडिया बाँधकर ऊपर पानी से भरी गगरी रखी थी, गगरी में छेद कर उसमें कुश और सूत्र को मिश्रित कर, एक डोरी गगरी के पेंदे से बाहर की ओर निकली थी।
इस डोरी की सहायता से बूँद-बूँद पानी शिवलिंग पर टपकता था, शिवलिंग पर बेल पत्र और पुष्प चढ़े थे, किसी अर्चक ने उस पर एक त्रिपुण्ड भी चन्दन से बना दिया था जो मन मोहक प्रतीत हो रहा था।
पिताजी ने संकेत करते हुए, सायकिल एक किनारे खड़ी करने के साथ झोला उतारकर उनके पीछे-पीछे कुछ अन्तर पर चल रहा था। अन्दर कमरे से छाती के पास वस्त्र लपेटे संभवतः योगी बाबा बाहर आ रहे थे। पिताजी ने मुझे एक ओर कुछ दूर जाकर बैठने की हिदायत की और मैं एक ओर जाकर बैठ गया।
योगी बाबा का भव्य और दमकता हुआ मुखमण्डल साफ दिखाई पड़ रहा था, पिताजी ने भू पतन होकर प्रणाम निवेदन किया और फिर उठकर योगी बाबा के पार्श्व में चलते हुए, पेड़ के नीचे आ गए, वहाँ एक मूढ़ा रखा था और चटाई बिछी थी।
योगी बाबा के आसन ग्रहण कर लेने के पश्चात् पिताजी चटाई पर बैठे, कुछ समय तक पिताजी और बाबा में वार्तालाप होता रहा, जो मुझे साफ सुनाई नहीं दिया।
फिर योगी बाबा ने हाथ से ताली बजाई और एक सेवक उनके सम्मुख उपस्थित हुआ, उन्होंने सेवक को मेरी ओर इंगित करते हुए कुछ कहा, वह सेवक मेरे पास आया और मुझे बुलाकर बाबा के पास ले गया, बाबा के सम्मुख पिताजी की भाँति मैंने साष्टांग प्रणाम निवेदन किया, मेरे ऐसा करने पर योगी बाबा का गंभीर स्वर गूंजा,
‘‘कौन...हो..?’’
मेरी तो जैसे रूह काँप गई, बाबा के चेहरे का तेज और मुखाकृति का जलाल देखकर दृष्टि योगी बाबा पर टिकी नहीं रह सकी, मुझे चुप देखकर पिताजी बोले, ‘‘महाराज ! पुत्र है...मुझे लेकर आया है।’’
‘‘वहाँ क्यों बैठे हो..साथ आए हो...तो..साथ रहो।’’ बाबा ने नसीहत की, मैं फिर भी चुप रहा।
बाबा ने प्रश्न किया, ‘‘क्या करते हो...?’’
‘‘नौकरी नहीं मिली..खाली हूँ..’’
मेरा उत्तर सुनकर योगी बाबा ने फिर कहा, ‘‘यह नहीं पूछा कि नौकरी करते हो...यह पूछा कि कुछ ईश्वर आराधना करते हो..उसे बताओ...’’
‘‘नहीं बाबा ! वह तो कुछ नहीं करता..और सत्य तो यह है कि...मुझे मालूम भी नहीं कि क्या और कैसे करना चाहिए।’’
‘‘हूँ..’ कहकर बाबा चुप हो गए।
फिर कुछ क्षण नेत्र बूँदे बैठे रहे, पश्चात् पिताजी से प्रश्न किया, ‘‘इन्हें कुछ बताया नहीं..यह...संस्कार तो..परिवार से ही अंकुरित पल्लवित और पुष्पित होता है।
पिताजी ने इतना सुना तो कह पड़े, ‘‘स्वामी जी महाराज ! मुझमें यह योग्यता कहाँ...अब आपकी..शरण में है..जो..चाहें उपदेश प्रदान करें।’’
‘‘नहीं...नहीं..वकालतनामा न लगाओ..इनकी रुचि जब होगी..तब विचार करेंगे...दुकान नहीं लगा रखी है कि सौदा...बिक रहा है..खरीद लो...।’’
पिताजी ने इतना सुना तो कह पड़े,‘‘ठीक है महाराज ! इन्हें आने-जाने की आज्ञा दे दीजिए..फिर जब आप चाहें तो उपदेश करें।’’
मेरी ओर देखते हुए बाबा ने कहा, ‘‘तुम्हारे पिता लगभग अट्ठारह-बीस वर्षों से आते जाते हैं, इनसे अपनी तसल्ली कर लो और आश्रम के आचार और व्यवहार जान समझ लो..संध्या तीन बजे के पश्चात् आ सकते हो, परन्तु तुम अभी मास में दो बार गुरुवार को आया करना।’’
हाथ जोड़कर बाबा की आज्ञा शिरोधार्य की, फिर मुझे बैठने के लिए आदेश दिया, मैं पिताजी की बगल में बैठ गया, पिताजी ने मेरे हाथ से झोला लिया और उसमें से मारकीन के दो टुकड़े, एक टोपा और एक शाल, बाबा के चरणों में अर्पित कर दी, फिर कुछ फल और मीठा भी, बाबा ने यह सब देखा तो बोले, ‘‘गरीबी में आटा गीला करते हो, कई अवसर पर समझाया...मना किया, ऐसा न किया करो..पर..मानते नहीं हो।’’
‘‘महाराज गरीबी और अमीरी तो कर्म भोग है..’’ पिताजी ने निवेदन किया।
बीच में ही वाक्य को काटते हुए बाबा ने कहा, ‘‘रोग है..भोग नहीं...दोनों ही समान रूप से रोग है।’’
मैं ध्यान से सुन रहा था, इतनी गंभीर बात और इतने सरल-सहज ढंग से कह दी गई कि घण्टों सोचने और समझने में व्यतीत किए जा सकते थे।
फिर पिताजी को संकेत में कुछ निर्देश देने के पश्चात्, बाबा उठकर खड़े हो गए और फुलवारी की ओर बढ़ चले, सेवक पीछे-पीछे चल रहा था, मैं और पिताजी भी पीछे-पीछे चल पड़े।
फुलवारी के मध्य पहुँचकर योगी बाबा खड़े हो गए और जी भर कर फूलों को निहारते रहे, फिर बोले, ‘‘हम सभी फूलों को नित्य देखते हैं...इसे व्यवहार में लाते हैं..परन्तु प्रकृति इनके माध्यम से जो सन्देश हमें दे रही है, उसे हम बूझ नहीं पाते..’’
अनायास मैं कह पड़ा, ‘‘बाबा ! क्या सन्देश है..कृपया मेरी जिज्ञासा का समाधान करें।’’
योगी बाबा कुछ क्षण मौन रहे, फिर कहने लगे, ‘‘सन्देश है..विचार करो..फूल खिलता है...देखने में मन भावन लगता है..देखने वाले को सुख प्रदान करता है..फिर माली इसे तोड़कर विविध प्रकार से उपयोग कर...अपनी जीविका चलाता है..तो यह अश्रितों के पेट भरने का साधन भी है..अंकुरित होने से मुरझा जाने तक..फूल का..सम्पूर्ण जीवन-वृत्त...दूसरों के निमित्त है..अपने निमित्त जैसे कुछ भी नहीं।’’
इतना कहकर योगी बाबा कुछ देर चुप रहे, फिर वह कहने लगे, ‘‘ऐसे जीने की सीख देता है पुष्प...जो दूसरों के लिए अर्थात् मानवता को आदर्श आचरण मानकर व्यवहार उन्मुख रहते हैं..वास्तव में वह जन ही पुष्प की आभा और गरिमा से युक्त है।’’
फिर दो क्षण बाद बोले, ‘‘ अच्छा, अब जाओ..हमें भी कर्तव्य पालन हेतु ड्यूटी पर बैठना है।’’
और इसके पश्चात् योगी बाबा सेवक के साथ, अपने कक्ष की ओर चल दिए, हम दोनों भी नमन कर वापस लौट पड़े।
दो दिन बाद दीपावली पर्व था, घर-गृहस्थी की झाड़पोंछ और सफाई में पसीने पसीने हो रहा था, दोपहर के भोजन के पश्चचात् पिताजी ने कहा कि आज या कल अवसर निकाल कर मुझे आश्रम ले चलो।
उनकी इच्छा और आज्ञा शिरोधार्य करते हुए मैंने कल चलने की बात कह दी, इतना और कह बैठा कि आज ही ले चलता, परन्तु सामान को बाहर से उठाकर अन्दर सहेज कर रखना है और जब तक यह सब निपटेगा, अँधेरा हो जाएगा।
अगले दिन पिताजी ने मुझसे बाजार चलने को कहा, मैंने सोचा दीपावली पर्व है शायद कुछ खरीददारी करेंगे, हम दोनों साथ-साथ चले और एक बजाज की दूकान पर दो-दो मीटर मारकीन के दो टुकड़े खरीदे, एक ऊनी टोपा और एक गर्म शाल, फिर कुछ फल और मीठा खरीद कर, झोले में रखने के लिए देकर, माँ की दवा का पर्चा ढ़ूँढ़ने लगे, एक ड्रग स्टोर से माँ के लिए दवाइयाँ खरीदीं।
लौटकर घर आए, भोजन के पश्चात् थोड़ा विश्राम कर लेने के पश्चात्, पिताजी ने आश्रम चलने का विचार प्रकट किया, मैं तैयार होकर सायकिल निकाल लाया और चलने हेतु बाहर पिताजी की प्रतीक्षा करने लगा, उन्होंने आवाज देकर कहा, ‘‘भैया ! झोला तो ले लो, यह सामान आश्रम में देना है।’’ घर में पुनः प्रवेश कर खूँटी से झोला उतारा, उसे लाकर सायकिल के हैण्डिल में टाँगा, पिताजी आए और पीछे कैरियर पर बैठ गए, मैं धीरे-धीरे सायकिल चलाते हुए आश्रम की दिशा में बढ़ने लगा।
यूँ हम दोनों चुपचाप चले जा रहे थे, पर मेरे मन में इतनी हलचल अवश्य थी कि पिताजी लगभग अट्ठारह-बीस वर्षों से योगी बाबा के सम्पर्क में हैं, इसके बावजूद भी वह मुझे कभी अपने साथ नहीं ले गए, मैं सोचने लगा क्या योगी बाबा ने ऐसा कोई प्रतिबन्ध लगा रखा है, फिर मैं तर्क करते-करते सोचने लगता, यदि सचमुच प्रतिबन्ध होता तो पिताजी मुझे आज साथ क्यों लाते ?
फिर मैं नए सिरे से गुत्थी सुलझाने की चेष्टा करता और मन ही मन विचार करता, संभवतः अपनी इस अवस्था के कारण, पिताजी ने योगी बाबा से आज्ञा प्राप्त कर ली हो कि वह पुत्र के साथ आ सकते हैं।
नगर में सामान्य जन में संभवतः योगी बाबा की कोई चर्चा न थी और यदि रही भी होगी तो बहुत न्यून, अधिकतर लोग उनके विषय में जानते ही न थे, वह भी कभी नगर प्रवेश न करते थे, सिर्फ अपने आश्रम के पास ही घूम टहल लेते।
कभी-कभार कुछ लोगों का आना जाना उस ओर देखा जाता था, परन्तु यह कोई नहीं जानता था कि लोग वहाँ जाते हैं क्यों जाते हैं ?
यह और ऐसे ही अन्य प्रश्न मन के पटल पर उकेरते और बिना किसी निष्कर्ष तक पहुँचे, हम आश्रम के निकट तक पहुँच चुके थे, पिताजी को गेट के पास उतारकर मैं खड़ा हो गया, उन्होंने जब मेरा यह बर्ताव देखा तो पूछ पड़े।
‘‘अन्दर नहीं चलोगे...?’’ अब मैं क्या कहता, निरुत्तर ही साथ-साथ गेट में प्रवेश कर गया, फाटक खुला था, गेट के करीब डेढ़ सौ कदम चलने पर तीन कोठरियाँ और एक बड़ा-सा बरामदा दिखाई पड़ा, उत्तर दिशा में कुआँ था, उस पर पानी खींचने के लिए चर्खी लगी थी, कुएँ के पास बगल में दो बड़े-बड़े पत्थर रखे थे, संभवतः इन्हें स्नान और वस्त्रादि धोने के लिए उपयोग में लाया जाता हो।
अन्दर का प्रांगण बृहद और विशाल था, एक ओर बहुत अच्छी फुलवारी, रंग-बिरंगे खिले फूलों की मनोहारी छटा बिखेर रही थी।
प्रांगण में कई विशाल पेड़ थे, पेड़ों के नीचे-नीचे चटाइयाँ बिछी थीं, एक विशाल बेल वृक्ष के नीचे, चित्ताकर्षक ताम्ररंग के बृहद आकार शिवलिंग की स्थापना थी। इस पर बांस के डण्डों की तिगोडिया बाँधकर ऊपर पानी से भरी गगरी रखी थी, गगरी में छेद कर उसमें कुश और सूत्र को मिश्रित कर, एक डोरी गगरी के पेंदे से बाहर की ओर निकली थी।
इस डोरी की सहायता से बूँद-बूँद पानी शिवलिंग पर टपकता था, शिवलिंग पर बेल पत्र और पुष्प चढ़े थे, किसी अर्चक ने उस पर एक त्रिपुण्ड भी चन्दन से बना दिया था जो मन मोहक प्रतीत हो रहा था।
पिताजी ने संकेत करते हुए, सायकिल एक किनारे खड़ी करने के साथ झोला उतारकर उनके पीछे-पीछे कुछ अन्तर पर चल रहा था। अन्दर कमरे से छाती के पास वस्त्र लपेटे संभवतः योगी बाबा बाहर आ रहे थे। पिताजी ने मुझे एक ओर कुछ दूर जाकर बैठने की हिदायत की और मैं एक ओर जाकर बैठ गया।
योगी बाबा का भव्य और दमकता हुआ मुखमण्डल साफ दिखाई पड़ रहा था, पिताजी ने भू पतन होकर प्रणाम निवेदन किया और फिर उठकर योगी बाबा के पार्श्व में चलते हुए, पेड़ के नीचे आ गए, वहाँ एक मूढ़ा रखा था और चटाई बिछी थी।
योगी बाबा के आसन ग्रहण कर लेने के पश्चात् पिताजी चटाई पर बैठे, कुछ समय तक पिताजी और बाबा में वार्तालाप होता रहा, जो मुझे साफ सुनाई नहीं दिया।
फिर योगी बाबा ने हाथ से ताली बजाई और एक सेवक उनके सम्मुख उपस्थित हुआ, उन्होंने सेवक को मेरी ओर इंगित करते हुए कुछ कहा, वह सेवक मेरे पास आया और मुझे बुलाकर बाबा के पास ले गया, बाबा के सम्मुख पिताजी की भाँति मैंने साष्टांग प्रणाम निवेदन किया, मेरे ऐसा करने पर योगी बाबा का गंभीर स्वर गूंजा,
‘‘कौन...हो..?’’
मेरी तो जैसे रूह काँप गई, बाबा के चेहरे का तेज और मुखाकृति का जलाल देखकर दृष्टि योगी बाबा पर टिकी नहीं रह सकी, मुझे चुप देखकर पिताजी बोले, ‘‘महाराज ! पुत्र है...मुझे लेकर आया है।’’
‘‘वहाँ क्यों बैठे हो..साथ आए हो...तो..साथ रहो।’’ बाबा ने नसीहत की, मैं फिर भी चुप रहा।
बाबा ने प्रश्न किया, ‘‘क्या करते हो...?’’
‘‘नौकरी नहीं मिली..खाली हूँ..’’
मेरा उत्तर सुनकर योगी बाबा ने फिर कहा, ‘‘यह नहीं पूछा कि नौकरी करते हो...यह पूछा कि कुछ ईश्वर आराधना करते हो..उसे बताओ...’’
‘‘नहीं बाबा ! वह तो कुछ नहीं करता..और सत्य तो यह है कि...मुझे मालूम भी नहीं कि क्या और कैसे करना चाहिए।’’
‘‘हूँ..’ कहकर बाबा चुप हो गए।
फिर कुछ क्षण नेत्र बूँदे बैठे रहे, पश्चात् पिताजी से प्रश्न किया, ‘‘इन्हें कुछ बताया नहीं..यह...संस्कार तो..परिवार से ही अंकुरित पल्लवित और पुष्पित होता है।
पिताजी ने इतना सुना तो कह पड़े, ‘‘स्वामी जी महाराज ! मुझमें यह योग्यता कहाँ...अब आपकी..शरण में है..जो..चाहें उपदेश प्रदान करें।’’
‘‘नहीं...नहीं..वकालतनामा न लगाओ..इनकी रुचि जब होगी..तब विचार करेंगे...दुकान नहीं लगा रखी है कि सौदा...बिक रहा है..खरीद लो...।’’
पिताजी ने इतना सुना तो कह पड़े,‘‘ठीक है महाराज ! इन्हें आने-जाने की आज्ञा दे दीजिए..फिर जब आप चाहें तो उपदेश करें।’’
मेरी ओर देखते हुए बाबा ने कहा, ‘‘तुम्हारे पिता लगभग अट्ठारह-बीस वर्षों से आते जाते हैं, इनसे अपनी तसल्ली कर लो और आश्रम के आचार और व्यवहार जान समझ लो..संध्या तीन बजे के पश्चात् आ सकते हो, परन्तु तुम अभी मास में दो बार गुरुवार को आया करना।’’
हाथ जोड़कर बाबा की आज्ञा शिरोधार्य की, फिर मुझे बैठने के लिए आदेश दिया, मैं पिताजी की बगल में बैठ गया, पिताजी ने मेरे हाथ से झोला लिया और उसमें से मारकीन के दो टुकड़े, एक टोपा और एक शाल, बाबा के चरणों में अर्पित कर दी, फिर कुछ फल और मीठा भी, बाबा ने यह सब देखा तो बोले, ‘‘गरीबी में आटा गीला करते हो, कई अवसर पर समझाया...मना किया, ऐसा न किया करो..पर..मानते नहीं हो।’’
‘‘महाराज गरीबी और अमीरी तो कर्म भोग है..’’ पिताजी ने निवेदन किया।
बीच में ही वाक्य को काटते हुए बाबा ने कहा, ‘‘रोग है..भोग नहीं...दोनों ही समान रूप से रोग है।’’
मैं ध्यान से सुन रहा था, इतनी गंभीर बात और इतने सरल-सहज ढंग से कह दी गई कि घण्टों सोचने और समझने में व्यतीत किए जा सकते थे।
फिर पिताजी को संकेत में कुछ निर्देश देने के पश्चात्, बाबा उठकर खड़े हो गए और फुलवारी की ओर बढ़ चले, सेवक पीछे-पीछे चल रहा था, मैं और पिताजी भी पीछे-पीछे चल पड़े।
फुलवारी के मध्य पहुँचकर योगी बाबा खड़े हो गए और जी भर कर फूलों को निहारते रहे, फिर बोले, ‘‘हम सभी फूलों को नित्य देखते हैं...इसे व्यवहार में लाते हैं..परन्तु प्रकृति इनके माध्यम से जो सन्देश हमें दे रही है, उसे हम बूझ नहीं पाते..’’
अनायास मैं कह पड़ा, ‘‘बाबा ! क्या सन्देश है..कृपया मेरी जिज्ञासा का समाधान करें।’’
योगी बाबा कुछ क्षण मौन रहे, फिर कहने लगे, ‘‘सन्देश है..विचार करो..फूल खिलता है...देखने में मन भावन लगता है..देखने वाले को सुख प्रदान करता है..फिर माली इसे तोड़कर विविध प्रकार से उपयोग कर...अपनी जीविका चलाता है..तो यह अश्रितों के पेट भरने का साधन भी है..अंकुरित होने से मुरझा जाने तक..फूल का..सम्पूर्ण जीवन-वृत्त...दूसरों के निमित्त है..अपने निमित्त जैसे कुछ भी नहीं।’’
इतना कहकर योगी बाबा कुछ देर चुप रहे, फिर वह कहने लगे, ‘‘ऐसे जीने की सीख देता है पुष्प...जो दूसरों के लिए अर्थात् मानवता को आदर्श आचरण मानकर व्यवहार उन्मुख रहते हैं..वास्तव में वह जन ही पुष्प की आभा और गरिमा से युक्त है।’’
फिर दो क्षण बाद बोले, ‘‘ अच्छा, अब जाओ..हमें भी कर्तव्य पालन हेतु ड्यूटी पर बैठना है।’’
और इसके पश्चात् योगी बाबा सेवक के साथ, अपने कक्ष की ओर चल दिए, हम दोनों भी नमन कर वापस लौट पड़े।
तीन
पिताजी के साथ, घर लौटते समय उन्होंने मुझसे प्रश्न किया,
‘‘पहली बार दर्शन किया है महाराज
का।’’
‘‘जी पिताजी।’’
‘‘कैसे लगे तुम्हें..?’’ पूछा पिताजी ने।
‘‘बहुत तेजस्वी, बहुत ज्ञानी और प्रभावशाली गुरु गंभीर वाणी के आभारयुक्त सन्त।’’
मेरा उत्तर सुनकर पिताजी पर क्या प्रतिक्रिया हुई, कह पाना कठिन है, वह पीछे कैरियर पर बैठे थे और मेरा मुँह आगे था, फिर मार्ग इतना ऊबड़खाबड़ था कि मुँह घुमाकर, उनकी प्रतिक्रिया नोट करने में खतरा था। मैं अपनी रौ में सायकिल चलाए जा रहा था, कुछ आगे पहुँचकर पिताजी ने सायकिल रुकवाई और लघुशंका के लिए उतर पड़े।
कुछ दूर जा कर, उन्होंने कान पर जनेऊ चढ़ाया और बैठकर लघुशंका से निवृत्त हुए, मैं पैर जमीन पर टिकाए सायकिल पर ही था, उन्होंने पास आकर कहा, ‘‘अभी पैदल चलो..वहाँ गाँव तक..हाथ धो लें तो सायकिल पर बैठेंगे।’’ हम दोनों लगभग सौ कदम पैदल चले थे कि गाँव में पहुँच गए, एक कुएँ पर पहुँच कर पिताजी ने पानी लिया, हाथ, मुँह और पैर धोये, फिर आकर सायकिल पर बैठ गए।
सायकिल से आधे से अधिक मार्ग की दूरी हम दोनों पार कर चुके थे, आगे डामर रोड थी, वहाँ से बाजार आरम्भ हो जाती है और वहाँ से दस मिनट का रास्ता हमारे घर का था।
बाजार में प्रवेश कर उन्होंने रोका और बोले, ‘‘घर पर अगरबत्ती नहीं है..एक पैकेट ले लो।’’
जब अगरबत्ती खरीदने चला तो मुझे रोककर उन्होंने पाँच रुपये का नोट दिया, मेरे बार बार कहने पर कि दो रुपया है, उन्होंने बात स्वीकार नहीं की, नोट उनसे लेकर अगरबत्ती खरीद कर लौटा और तीन रुपये लौटा दिए। अब कुछ दूर चलने के पश्चात् हम घर पर थे। एक महिला और एक सज्जन पिताजी की प्रतीक्षा में द्वार पर बैठे थे, हमारे पहुँचने पर दोनों खड़े हो गए और पिताजी का चरण स्पर्श करने के पश्चात् पिताजी के कहने पर दोनों बैठ गए। पिताजी अन्दर गए और दो जगह जलपान ले कर आए तो आगन्तुकों के सम्मुख रखकर बोले, ‘‘पहले जल लो..देर हुआ आए..?’’
‘‘हाँ ! कोई आधा घण्टा पूर्व आए हैं।’’
‘‘ठीक है..जल लो...’’
जल लेने के पश्चात्, उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘आपने संभवतः पहचाना नहीं...?’’
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं पहचान पाया..’’
फिर कुछ सोचते हुए कहने लगे..‘‘बताओ..’’
‘‘मैं कृष्ण मुरारी द्विवेदी का पुत्र हूँ...’’
‘‘और यह..’’ महिला को इंगित करते हुए पूछा पिताजी ने।
‘‘यह मेरी पत्नी हैं।’’
‘‘अच्छा ! अच्छा !! कैसे हैं कृष्ण मुरारी..कैसे आना हुआ..?’’
पुरुष बोला, ‘‘पिताजी ने क्षमा याचना सहित यह धन भिजवाया है।’’
‘‘कैसा धन...?’’ पूछा पिताजी ने।
‘‘संभवतः आप विस्मृत कर गए...’’ पिताजी भी कह रहे थे...‘‘आपको याद न होगा..सो सत्य ठहरा..।’’
‘‘बताओ..तो..कुछ भी याद नहीं....’’
‘‘माताजी के आप्रेशन के समय पिताजी ने, आपसे आठ हजार रुपये लिए थे...लगभग पाँच-छः वर्ष पूर्व..परिस्थितियाँ कुछ ऐसी थीं...कि..लौटा नहीं सके... अब सब ठीक है..फिर कर्ज तो कर्ज है..बोले, इसे मिश्र जी को दे आओ और अप्रत्याशित विलम्ब के लिए क्षमा प्रार्थना कर देना।’’
मैं सुन तो सब रहा था, पर इसे अधिक महत्त्व नहीं दे सका और सच तो यह है कि कभी कर्ज लिया और विलम्ब से लौटाया, इसमें कुछ भी खास बात प्रतीत नहीं हुई सिवाय लौटाने वाले की ईमानदारी के..
पुरुष ने जेब से रुपये निकाले और आठ हजार गिनने के पश्चात् पिताजी को देना चाहा, पिताजी ने मेरी ओर संकेत करके कहा, ‘‘रख लो..’’
रुपये मैंने सँभाल लिए, दम्पति पिताजी का चरण स्पर्श कर विदा हो गए, रुपये ले जाकर मैंने माँ के सिरहाने रख दिए।
भोजन के पश्चात् मैं और पिताजी, माँ के पास बैठे थे, माँ से पूछा, ‘‘भैया, मेरे सिरहाने रुपये की गड्डी रख गया है..कैसे रुपये हैं..?’’
‘‘अरे,भैया को मित्र के विवाह में जाना है..सो..महाराज की कृपा से उधार दिया धन लौट आया..मैं तो भूल ही गया था।’’
पिताजी ने इतना कहा तो मैं सोच में डूब गया, जब पचा नहीं सका तो कह पड़ा, ‘‘रुपया आपका था, उधार भी आपने ही दिया था, लौट आया...देर से सही..पर इसमें महाराज की कृपा कहाँ प्रवेश कर गई।’’
‘‘अब भैया ! यह तो अपने-अपने अनुभव की बात है..अभी अनुभव नहीं है, इसलिए ऐसा विचार है..यह भी ठीक है।’’
पिताजी ने जब इतना कहा तो मैं चुप न रह सका और कह पड़ा, ‘‘पिताजी ! दोनों बातें ठीक नहीं हो सकतीं, इसमें एक तो गलत है...मैं आपकी श्रद्धा, निष्ठा और विश्वास पर उँगली नहीं उठा रहा हूँ..परन्तु मैं इस विचार को अंध विश्वास मानता हूँ।’’
मेरे इस कथन पर पिताजी पूर्णरूपेण शान्त रहे, कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात् मुझे निहारते हुए बोले, ‘‘वास्तव में तुम्हारा अश्रुपात देखकर मन ही मन महाराज से प्रार्थना करता रहा, इसी उद्देश्य से आश्रम चलने की बात भी थी...जब आश्रम पहुँचा तब भी मन के अन्दर एक कोने में यही विचार प्रभावी था..इसलिए और इतने वर्षों में मेरे अपने अनुभव हैं..यही कारण है कि मैं अपने विचार पर दृढ़ हूँ।
इतना सुना तो मेरे मुँह से निकल गया, ‘‘आपका अनुभव है तो ठीक है, जब मुझे भी अनुभव होगा...तो स्वीकार कर लूँगा..इस प्रसंग में बाबा की कृपा का अंश मुझे स्वीकार नहीं, इतना व्यक्त करने पर भी मैं उनके प्रति श्रद्धान्त हूँ।’’
मेरा कथन पूरा भी न हुआ था कि माँ बोल पड़ी, ‘‘ठीक है, हम भी नहीं कहते कि तुम आँख मूँदकर हमारे कहे पर विश्वास कर लो, पर अपना परखा अनुभव हम दोनों कैसे बदल दें...जो देखा और समझा..हमारे साथ घटित हुआ, उससे कैसे इनकार करें।
‘‘ठीक है..।’’ कहकर माँ को दवा दी, दीवार पर टँगी घड़ी ने रात्रि के दस बजा दिए थे।
माँ ने कहा, ‘‘अब...यह रुपया उठाओ..और सँभाल कर..रख दो..अब रात आ गई...बिस्तर पर पड़े रहो..सवेरे सोचना..’’
माँ के इतना कहने पर हम दोनों उसी कमरे में अपने-अपने बिस्तर पर पड़े रहे, थोड़ी देर के पश्चात् पिताजी को नींद आ गई, माँ भी सो चुकी थीं और मैं प्रातः तक अपने विचारों को उलटता-पलटता और परखता रहा, मुझे किसी प्रकार भी यह कथ्य हजम नहीं हो पा रहा था कि ‘‘महाराज जी की कृपा’’ स्वरूप व्यवस्था हो गई।
प्रातः चार बजे झपकी आई तो फिर उठा समय से, परन्तु सारा दिन सुस्त और सिर भारी रहा, कह नहीं सकता, नींद न आने के कारण ऐसा था या यह उस विचार के कारण जो मेरे चिन्तन में प्रवेश कर गया था।
‘‘जी पिताजी।’’
‘‘कैसे लगे तुम्हें..?’’ पूछा पिताजी ने।
‘‘बहुत तेजस्वी, बहुत ज्ञानी और प्रभावशाली गुरु गंभीर वाणी के आभारयुक्त सन्त।’’
मेरा उत्तर सुनकर पिताजी पर क्या प्रतिक्रिया हुई, कह पाना कठिन है, वह पीछे कैरियर पर बैठे थे और मेरा मुँह आगे था, फिर मार्ग इतना ऊबड़खाबड़ था कि मुँह घुमाकर, उनकी प्रतिक्रिया नोट करने में खतरा था। मैं अपनी रौ में सायकिल चलाए जा रहा था, कुछ आगे पहुँचकर पिताजी ने सायकिल रुकवाई और लघुशंका के लिए उतर पड़े।
कुछ दूर जा कर, उन्होंने कान पर जनेऊ चढ़ाया और बैठकर लघुशंका से निवृत्त हुए, मैं पैर जमीन पर टिकाए सायकिल पर ही था, उन्होंने पास आकर कहा, ‘‘अभी पैदल चलो..वहाँ गाँव तक..हाथ धो लें तो सायकिल पर बैठेंगे।’’ हम दोनों लगभग सौ कदम पैदल चले थे कि गाँव में पहुँच गए, एक कुएँ पर पहुँच कर पिताजी ने पानी लिया, हाथ, मुँह और पैर धोये, फिर आकर सायकिल पर बैठ गए।
सायकिल से आधे से अधिक मार्ग की दूरी हम दोनों पार कर चुके थे, आगे डामर रोड थी, वहाँ से बाजार आरम्भ हो जाती है और वहाँ से दस मिनट का रास्ता हमारे घर का था।
बाजार में प्रवेश कर उन्होंने रोका और बोले, ‘‘घर पर अगरबत्ती नहीं है..एक पैकेट ले लो।’’
जब अगरबत्ती खरीदने चला तो मुझे रोककर उन्होंने पाँच रुपये का नोट दिया, मेरे बार बार कहने पर कि दो रुपया है, उन्होंने बात स्वीकार नहीं की, नोट उनसे लेकर अगरबत्ती खरीद कर लौटा और तीन रुपये लौटा दिए। अब कुछ दूर चलने के पश्चात् हम घर पर थे। एक महिला और एक सज्जन पिताजी की प्रतीक्षा में द्वार पर बैठे थे, हमारे पहुँचने पर दोनों खड़े हो गए और पिताजी का चरण स्पर्श करने के पश्चात् पिताजी के कहने पर दोनों बैठ गए। पिताजी अन्दर गए और दो जगह जलपान ले कर आए तो आगन्तुकों के सम्मुख रखकर बोले, ‘‘पहले जल लो..देर हुआ आए..?’’
‘‘हाँ ! कोई आधा घण्टा पूर्व आए हैं।’’
‘‘ठीक है..जल लो...’’
जल लेने के पश्चात्, उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘आपने संभवतः पहचाना नहीं...?’’
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं पहचान पाया..’’
फिर कुछ सोचते हुए कहने लगे..‘‘बताओ..’’
‘‘मैं कृष्ण मुरारी द्विवेदी का पुत्र हूँ...’’
‘‘और यह..’’ महिला को इंगित करते हुए पूछा पिताजी ने।
‘‘यह मेरी पत्नी हैं।’’
‘‘अच्छा ! अच्छा !! कैसे हैं कृष्ण मुरारी..कैसे आना हुआ..?’’
पुरुष बोला, ‘‘पिताजी ने क्षमा याचना सहित यह धन भिजवाया है।’’
‘‘कैसा धन...?’’ पूछा पिताजी ने।
‘‘संभवतः आप विस्मृत कर गए...’’ पिताजी भी कह रहे थे...‘‘आपको याद न होगा..सो सत्य ठहरा..।’’
‘‘बताओ..तो..कुछ भी याद नहीं....’’
‘‘माताजी के आप्रेशन के समय पिताजी ने, आपसे आठ हजार रुपये लिए थे...लगभग पाँच-छः वर्ष पूर्व..परिस्थितियाँ कुछ ऐसी थीं...कि..लौटा नहीं सके... अब सब ठीक है..फिर कर्ज तो कर्ज है..बोले, इसे मिश्र जी को दे आओ और अप्रत्याशित विलम्ब के लिए क्षमा प्रार्थना कर देना।’’
मैं सुन तो सब रहा था, पर इसे अधिक महत्त्व नहीं दे सका और सच तो यह है कि कभी कर्ज लिया और विलम्ब से लौटाया, इसमें कुछ भी खास बात प्रतीत नहीं हुई सिवाय लौटाने वाले की ईमानदारी के..
पुरुष ने जेब से रुपये निकाले और आठ हजार गिनने के पश्चात् पिताजी को देना चाहा, पिताजी ने मेरी ओर संकेत करके कहा, ‘‘रख लो..’’
रुपये मैंने सँभाल लिए, दम्पति पिताजी का चरण स्पर्श कर विदा हो गए, रुपये ले जाकर मैंने माँ के सिरहाने रख दिए।
भोजन के पश्चात् मैं और पिताजी, माँ के पास बैठे थे, माँ से पूछा, ‘‘भैया, मेरे सिरहाने रुपये की गड्डी रख गया है..कैसे रुपये हैं..?’’
‘‘अरे,भैया को मित्र के विवाह में जाना है..सो..महाराज की कृपा से उधार दिया धन लौट आया..मैं तो भूल ही गया था।’’
पिताजी ने इतना कहा तो मैं सोच में डूब गया, जब पचा नहीं सका तो कह पड़ा, ‘‘रुपया आपका था, उधार भी आपने ही दिया था, लौट आया...देर से सही..पर इसमें महाराज की कृपा कहाँ प्रवेश कर गई।’’
‘‘अब भैया ! यह तो अपने-अपने अनुभव की बात है..अभी अनुभव नहीं है, इसलिए ऐसा विचार है..यह भी ठीक है।’’
पिताजी ने जब इतना कहा तो मैं चुप न रह सका और कह पड़ा, ‘‘पिताजी ! दोनों बातें ठीक नहीं हो सकतीं, इसमें एक तो गलत है...मैं आपकी श्रद्धा, निष्ठा और विश्वास पर उँगली नहीं उठा रहा हूँ..परन्तु मैं इस विचार को अंध विश्वास मानता हूँ।’’
मेरे इस कथन पर पिताजी पूर्णरूपेण शान्त रहे, कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात् मुझे निहारते हुए बोले, ‘‘वास्तव में तुम्हारा अश्रुपात देखकर मन ही मन महाराज से प्रार्थना करता रहा, इसी उद्देश्य से आश्रम चलने की बात भी थी...जब आश्रम पहुँचा तब भी मन के अन्दर एक कोने में यही विचार प्रभावी था..इसलिए और इतने वर्षों में मेरे अपने अनुभव हैं..यही कारण है कि मैं अपने विचार पर दृढ़ हूँ।
इतना सुना तो मेरे मुँह से निकल गया, ‘‘आपका अनुभव है तो ठीक है, जब मुझे भी अनुभव होगा...तो स्वीकार कर लूँगा..इस प्रसंग में बाबा की कृपा का अंश मुझे स्वीकार नहीं, इतना व्यक्त करने पर भी मैं उनके प्रति श्रद्धान्त हूँ।’’
मेरा कथन पूरा भी न हुआ था कि माँ बोल पड़ी, ‘‘ठीक है, हम भी नहीं कहते कि तुम आँख मूँदकर हमारे कहे पर विश्वास कर लो, पर अपना परखा अनुभव हम दोनों कैसे बदल दें...जो देखा और समझा..हमारे साथ घटित हुआ, उससे कैसे इनकार करें।
‘‘ठीक है..।’’ कहकर माँ को दवा दी, दीवार पर टँगी घड़ी ने रात्रि के दस बजा दिए थे।
माँ ने कहा, ‘‘अब...यह रुपया उठाओ..और सँभाल कर..रख दो..अब रात आ गई...बिस्तर पर पड़े रहो..सवेरे सोचना..’’
माँ के इतना कहने पर हम दोनों उसी कमरे में अपने-अपने बिस्तर पर पड़े रहे, थोड़ी देर के पश्चात् पिताजी को नींद आ गई, माँ भी सो चुकी थीं और मैं प्रातः तक अपने विचारों को उलटता-पलटता और परखता रहा, मुझे किसी प्रकार भी यह कथ्य हजम नहीं हो पा रहा था कि ‘‘महाराज जी की कृपा’’ स्वरूप व्यवस्था हो गई।
प्रातः चार बजे झपकी आई तो फिर उठा समय से, परन्तु सारा दिन सुस्त और सिर भारी रहा, कह नहीं सकता, नींद न आने के कारण ऐसा था या यह उस विचार के कारण जो मेरे चिन्तन में प्रवेश कर गया था।
..इसके आगे पुस्तक में देखें..
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