भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी के निर्माता हिन्दी के निर्माताकुमुद शर्मा
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आधुनिक हिन्दी के निर्माताओं और उन्नायकों का संक्षिप्त मूल्यांकन है हिन्दी के निर्माता।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधुनिक हिन्दी के निर्माताओं और उन्नायकों का संक्षिप्त मूल्यांकन है
हिन्दी के निर्माता। ये सर्जक मनीषी भाषा कर्मी अपने समय में हिन्दी का
स्वाभिमान बने। हिन्दी भाषा और साहित्य की समृद्धि में इनका अवदान अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण रहा हैं। उसमें से कई ने खड़ी बोली के विकास में हिन्दी और
नागरी लिपि के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी, और हिन्दी भाषा तथा साहित्य को
तद्युगीन अराजकता से उबाकर एक निश्चित दिशा दी। यह पुस्तक ऐसी ही
संघर्षशील व्यक्तित्यों के अवदान को रेखांकित करती है।
हिन्दी के निर्माता में केवल हिन्दी की सृजनशीलता के प्रतिनिधि रचनाकार ही नहीं बल्कि हिन्दी में नवोदय लाने वाले ऐसे लेखक भी हैं जिन्होंने साहित्य और उसकी चेतना को नयी सक्रियता दी है। यहाँ ऐसे विशिष्ट रचनाकार भी हैं, जिन्होंने हिन्दीतर भाषी होते हुए भी लेखन में विविध धरातलों पर युगीन सत्य से उपजा महान साहित्य उपलब्ध कराया; ऐसे पत्रकार भी हैं जिन्होंने राष्ट्रीय सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा के बीच हिन्दी के जीवान्तक और प्रखर पत्रकारिता का इतिहास रचा।
आधुनिक हिन्दी के सौ दिवंगत साधकों का यह सारगर्भिक विवेचन उन्होंने जन्म वर्ष क्रम से किया गया है। इससे हिन्दी भाषा के स्वरूप और संवर्धन में उनके विशिष्ट योगदान को भी सहज में आँका जा सकेगा।
हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण भेंट।
हिन्दी के निर्माता में केवल हिन्दी की सृजनशीलता के प्रतिनिधि रचनाकार ही नहीं बल्कि हिन्दी में नवोदय लाने वाले ऐसे लेखक भी हैं जिन्होंने साहित्य और उसकी चेतना को नयी सक्रियता दी है। यहाँ ऐसे विशिष्ट रचनाकार भी हैं, जिन्होंने हिन्दीतर भाषी होते हुए भी लेखन में विविध धरातलों पर युगीन सत्य से उपजा महान साहित्य उपलब्ध कराया; ऐसे पत्रकार भी हैं जिन्होंने राष्ट्रीय सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा के बीच हिन्दी के जीवान्तक और प्रखर पत्रकारिता का इतिहास रचा।
आधुनिक हिन्दी के सौ दिवंगत साधकों का यह सारगर्भिक विवेचन उन्होंने जन्म वर्ष क्रम से किया गया है। इससे हिन्दी भाषा के स्वरूप और संवर्धन में उनके विशिष्ट योगदान को भी सहज में आँका जा सकेगा।
हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण भेंट।
भूमिका
हिन्दी केवल अभिव्यक्ति की भाषा नहीं है। हिन्दी एकराष्ट्र, एक सभ्यता एक
संस्कृति है। हिन्दी के विकास का मतलब है एक मौलिक सभ्यता का विकास,
राष्ट्र का विकास, संस्कृति का विकास। कई शताब्दियों का सफर तय कर अपने
विकास की कई मंजिलें पार कर हिन्दी आज बहुत कुछ समेटते हुए, बहुत कुछ
छोड़ते हुए अपनी अन्तरराष्ट्रीय क्षमता की पहचान करा रही है। किसी ने ठीक
ही कहा है कि ‘भाषा एक ओर आगम है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को
संक्रान्त है, संक्रान्ति के अपरिहार्य अधूरेपन के कारण कुछ न कुछ उसमें
छूटता जाता है और कुछ नवगठित होता जाता है, दूसरी ओर भाषा आम्नाय है यानी
यहाँ तक मापी हुई और उसे आगे भी मापी जाने के लिए प्रस्तुत।’
दरअसल सम्प्रेषण की प्रकृति कोई निश्चित सैद्धान्तिक कार्य पद्धति नहीं है, बल्कि मनुष्य में क्रियाशील कार्यों एवं अन्त प्रेरणाओं को समझती हुई निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। अतः भाषा आगामी पीढ़ी को हू-ब-हू उसी रूपी में हस्तान्तरित नहीं होती बल्कि वह अपने युग की स्थितियों और प्रेरणाओं के अनुसार निरतन्तर बदलती चली जाती है। इसी तर्ज पर भूमण्डलीय चुनौतियों से जूझते और अपनी विकास-यात्रा के पथ पर आगे बढ़ते हुए वह नये मिजाज में ढल रही है। पुराने और नये स्रोतों से शक्ति संचय करते हुए संचार क्रान्ति, आंकिक क्रान्ति के युग में वह तीव्र बदलाव की ओर बढ़ रही है। शास्त्रीय भाषा, लोकभाषा और बाजार की भाषा की मिट्टी को काटते हुए प्रवाहित हो रही है।
हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय क्षमता का विकास नये विश्वग्राम और नये विश्वनाथ की माँग है। राष्ट्रभाषा, राजभाषा, सम्पर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। मगर इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार पाती हिन्दी का मार्ग बहुत सरल और सीधा नहीं है। इतिहास में भी हिन्दी का मार्ग कण्टकाकीर्ण ही रहा। उसने अनेक घात प्रतिघात सहे। उन्नीसवीं सदी से शुरु हुई आधुनिक हिन्दी की विकास यात्रा की कहानी अनेक आन्दोलनों और मोड़ों से गुजरते हुए आगे बढ़ी। उसके प्रचार-प्रसार में अनेक राजनीतिक, ऐतिहासिक और व्यापारिक कारकों ने अवरोध पैदा किये। मगर संकटों और अवरोधों के बाबजूद उसका विकास अभियान चलता रहा।
उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध राष्ट्रीय जागृति का भूमिका पक्ष था, जिसने राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक नवजारण की पृष्ठभूमि तैयार की। इसी राष्ट्रीय नवजागण ने हिन्दी नवजागरण के लिए रास्ता तैयार किया। आत्मविश्वास, आत्मगौरव, आत्मावलम्बन की भावना के दृढ़ीकरण के काल में हिन्दी स्वतन्त्रता का पर्याय बनी। हिन्दी का साँचा राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक मूल्यों का वाहक बना। स्वातन्त्र्य के लिए सामूहिक जागरण, लक्ष्य की एकता और उसकी प्राप्ति के संगठित प्रयास हुए। स्वराज्य की ओर उन्मुख होने का दौर चला। और इन सबके लिए हथियार बनी हिन्दी।
हिन्दी नवजागरण ने आधुनिक हिन्दी के निर्माताओं और उन्नायकों की एक लम्बी श्रृंखला तैयार की। इसमें शामिल हिन्दी के योद्धाओं ने हिन्दी की प्रगति, विरोधों और संघर्षों के दौर से गुजरते हुए हिन्दी की अनिवर्चनीय शक्ति का ज्ञान कराया। जातीय विकास में योगदान करने वाली भाषिक क्षमता को विकसित किया। अपने प्रभाव और प्रताप से हिन्दी नवजागरण के लोक अभियान में अपनी विशिष्ट भूमिका निभायी। इतिहास में युगान्तर उपस्थित किया। हिन्दी भाषा और साहित्य की अकूत सम्पदा सौंपी।
यह पुस्तक ऐसे ही हिन्दी सेवियों, लेखकों और पत्रकारों के प्रमुख प्रदेय को उजागर करने के उद्देश्य से तैयार हुए जो हिन्दी का स्वाभिमान बने, हिन्दी भाषा और समृद्धि के पीछे जिनके बलिदान की कहानियाँ छिपी हुई हैं। यों तो इनकी संख्या बहुत अधिक है लेकिन उनमें से सौ प्रमुख दिवंगत हिन्दी महारथियों को विनम्र श्रद्धाजंलि देते हुए उनके ऐतिहासिक अवदान को प्रस्तुत किया गया है।
इनमें वे लोग हैं जिन्होंने खड़ी बोली हिन्दी के विकास में हिन्दी और नागरी लिपि के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी, जो हिन्दी और नागरी लिपि के समर्थन में उस समय मैदान में उतरे जब हिन्दी गद्य का परिष्कार और परिमार्जन नहीं हो पाया था। इनमें हिन्दी के ऐसे सेवी भी हैं जिन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य को तदयुगीन इनमें हिन्दी के ऐसे सेवी भी हैं जिन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य को तदयुगीन। अराजकता से उबारकर एक निश्चित दिशा और व्यवस्था प्रदान की। इनमें अपने रचनात्मक कौशल से हिन्दी को महान सृजनशीलता को उद्घाटित करने वाले रचनाकार भी हैं और हिन्दी में नवोदय लाने वाले ऐसे लेखक भी हैं जिन्होंने साहित्य चेतना को नयी सक्रियता दी। ऐसे विशिष्ट रचनाकार भी हैं जिन्होंने हिन्दीतर-भाषी होते हुए भी साहित्य के विविध धरातलों पर युगीन सच से उपजा महान साहित्य उपलब्ध कराया। इनमें ऐसे पत्रकार भी हैं जिन्होंने राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा के बीच हिन्दी की जीवन्त और प्रखर पत्रकारिता का इतिहास रचा। क्षेत्रीय भाषा और बोलचाल के शब्दों से हिन्दी पत्रकारिता का नया स्वरूप गढ़ा।
इस पुस्तक की योजना स्व. पण्डित विद्यानिवास मिश्र के साधिकार और निरन्तर आग्रह से बनी। यह पुस्तक उनका सपना थी। एक दिन उन्होंने बताया कि ‘हिन्दी के तपोव्रती श्रीनारायण चतुर्वेदी (भैया साहब) आधुनिक हिन्दी के निर्माताओं पर काम करना चाहते थे जो वे नहीं कर सके। इस काम को उन्होंने मुझे सौंपा। मगर व्यस्तताओं के चलते यह मुझसे नहीं हो सका। अब हिन्दी के निर्माताओं पर काम करने का दायित्व मैं तुम्हें सौप रहा हूँ।’ यह कहकर उन्होंने 25-30 रचनाकारों के चित्रों की फाइल मुझे थमा दी। उन्होंने इसका खाका भी तैयार कर दिया। जिस साहित्यिक पत्रिका के वे सम्पादक थे उसके बीच के दो पृष्ठ ‘हिन्दी के निर्माता’ स्तम्भ के लिए सुरक्षित कर दिये गये। उन्होंने तय किया कि एक पूरे पृष्ठ पर हिन्दी के निर्माता का चित्र जाएगा और दूसरे पृष्ठ पर उनके जीवन और कृतित्व के साथ उन पर मूल्यांकनपरक विवेचन। मैं हैरान और परेशान हुई, इतने महान और विराट व्यक्तियों पर मात्र एक पृष्ठ। पण्डितजी पृष्ठ बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुए। मैं असमंजस में थी। मेरे असमंजस की रेखाओं को उन्होंने पढ़ लिया। बोले सूत्रों में बात कहो। यह काम तुम्हें करना है। इन सबका हिन्दी जगत पर बड़ा भारी ऋण है।’
पृष्ठ सीमा मुझे कचोट रही थी। इसे चुनौती समझ मैंने यह स्तम्भ लिखना स्वीकार कर लिया। मैंने हिन्दी के निर्माता के लिए तैयार प्रारूप के बावजूद शुरू के अंकों में निरन्तर परिवर्तन करते हुए उस स्वरूप को व्यापक आयाम देने की कोशिश की जो बेहद सफल रही। इस स्तम्भ को पाठकों की भरपूर प्रशंसा मिली। देश भर के आलोचकों और पाठकों के पत्रों में हिन्दी के निर्माता को गागर में सागर कहा गया। सम्भवतः यह दृष्टि इसलिए बनी क्योंकि इसमें एक निश्चित और सीमित आकार में लेखक की रचनाशीलता के विशद आयामों को प्रकाश में लाने की कोशिश की गयी। पृष्ठ सीमा जो मुझे हर रचनाकार पर लिखते समय गहरी यातना देती रही उसी ने इसे संक्षिप्तता में सघनता जैसी विशिष्टता दी, जिसकी सराहना हुई। सुविख्यात आलोचक श्री रमेशचन्द शाह की टिप्पणी से मुझे उत्साह मिला। उन्होंने इसे नपे- तुले और सधे अन्दाज में संक्षिप्त किन्तु सघन मूल्यांकन बताया और लिखा-इन छोटे-छोटे लेखों में लेखिका की कृतज्ञ दृष्टि और एकाग्र मूल्यांकनकारी वृत्ति का ही पता नहीं चलता, उसकी शोधपरक तत्परता और सार्थक ब्यौरों के सन्निवेश की सजगता भी हमें प्रभावित किये बिना नहीं रहती।
भाषा और साहित्य की निधि अकेले महान कालजयी साहित्यिक प्रतिभाओं के बूते ही नहीं चलती, प्रत्येक श्रेणी के लेखक का उसमें अंशदान सार्थक और स्मरणीय होता है-इस सत्य को यह संकलन नये सिरे से रेखांकित करेगा। निश्चय ही इस तरह का कार्य इस प्रेरणा के बिना सम्भव न होता जिसे रायकृष्णदास ने अपने एक गद्य गीत में ‘प्रेम का परिश्रम’ कहा है और शेक्सपीयर ने ‘लव्ज लेबर।’ कुछ वर्षों में ही यह स्तम्भ पाठकों का प्रिय बन गया। देशभर से लेखकों और पाठकों के पत्रों में यह माँग की जाने लगी कि ‘हिन्दी के निर्माता’ को पुस्तकाकार रूप में आना चाहिए। ‘हिन्दी के निर्माता’ पुस्तक की पाण्डुलिपि पर प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर की इस टिप्पणी ने मुझे बेहद आश्वस्त किया-पुस्तक हिन्दी सेवियों के वंश वृक्ष की समस्त जानकारी देती है। मुझे लगता है मौजूदा दौर में ऐसी पुस्तकों की जरूरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है, क्योंकि इसमें संक्षिप्तीकरण की जिस कला को आत्मसात किया गया है वह कुशल पत्रकारिता का उदाहरण होने के साथ-साथ भाषाई संस्कृति के विकास की आवश्यकता और गरिमा के अनुरूप भी है। पहली श्रृंखला में जिन साहित्यकारों पत्रकारों को शामिल किया गया है, हिन्दी के विकास के इतिहास में उनका योगदान यहाँ बड़ी दक्षता से पेश किया गया है। उनके बारे में सोचकर मन में यह भाव उमड़ता है कि यदि इन हिन्दी भाषाकारों में संघर्ष की अटूट ऊर्जा और बलिदानी श्रद्धा न होती तो हमारी हिन्दी आज किस दिशा में होती।
उधर पंडितजी इसे पुस्तकाकार रूप में देखने के लिए व्याकुल रहने लगे थे। निधन से चार-पाँच महीने पहले ही उन्होंने कहा था-‘देर मत करो इसे जल्दी निकलवाओ’। इस बात का दुख है कि प्रकाशन का निर्णय उनके जाने के बाद हुआ। वे इसे पुस्तकाकार रूप में देख नहीं सके। यह पुस्तक पण्डितजी की प्रेरणा और मार्गदर्शन का ही परिणाम है। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
पुस्तक में हिन्दी के निर्माताओं की सूची उनकी जन्म तिथि के आधार पर दी गयी है ताकि हिन्दी की विकास यात्रा की कहानी का परिदृश्य भी स्पष्ट उभर सके। पाठकों की सुविधा के लिए वर्णकम्र से रचनाकारों की सूची पुस्तक के अन्त में दी गयी है। मुझे विश्वास है कि पाठक इस पुस्तक के अध्ययन से लाभान्वित होंगे। और तभी मैं अपने आठ वर्षों के परिश्रम से पूरे हुए इस काम को सार्थक समझूँगी। और इसे आगे भी जारी रखूँगी। मैं आभारी हूँ कि ज्ञानपीठ ने इसे प्रकाशित करना स्वीकार किया। काशी नागरी प्रचारणी सभा से श्री चन्द्रबली पाण्डे तथा अन्य संस्थाओं एवं मित्रों के सौजन्य से मुझे जो दुर्लभ चित्र प्राप्त हुए उन सभी के प्रति मैं आभारी हूँ।
दरअसल सम्प्रेषण की प्रकृति कोई निश्चित सैद्धान्तिक कार्य पद्धति नहीं है, बल्कि मनुष्य में क्रियाशील कार्यों एवं अन्त प्रेरणाओं को समझती हुई निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। अतः भाषा आगामी पीढ़ी को हू-ब-हू उसी रूपी में हस्तान्तरित नहीं होती बल्कि वह अपने युग की स्थितियों और प्रेरणाओं के अनुसार निरतन्तर बदलती चली जाती है। इसी तर्ज पर भूमण्डलीय चुनौतियों से जूझते और अपनी विकास-यात्रा के पथ पर आगे बढ़ते हुए वह नये मिजाज में ढल रही है। पुराने और नये स्रोतों से शक्ति संचय करते हुए संचार क्रान्ति, आंकिक क्रान्ति के युग में वह तीव्र बदलाव की ओर बढ़ रही है। शास्त्रीय भाषा, लोकभाषा और बाजार की भाषा की मिट्टी को काटते हुए प्रवाहित हो रही है।
हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय क्षमता का विकास नये विश्वग्राम और नये विश्वनाथ की माँग है। राष्ट्रभाषा, राजभाषा, सम्पर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। मगर इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार पाती हिन्दी का मार्ग बहुत सरल और सीधा नहीं है। इतिहास में भी हिन्दी का मार्ग कण्टकाकीर्ण ही रहा। उसने अनेक घात प्रतिघात सहे। उन्नीसवीं सदी से शुरु हुई आधुनिक हिन्दी की विकास यात्रा की कहानी अनेक आन्दोलनों और मोड़ों से गुजरते हुए आगे बढ़ी। उसके प्रचार-प्रसार में अनेक राजनीतिक, ऐतिहासिक और व्यापारिक कारकों ने अवरोध पैदा किये। मगर संकटों और अवरोधों के बाबजूद उसका विकास अभियान चलता रहा।
उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध राष्ट्रीय जागृति का भूमिका पक्ष था, जिसने राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक नवजारण की पृष्ठभूमि तैयार की। इसी राष्ट्रीय नवजागण ने हिन्दी नवजागरण के लिए रास्ता तैयार किया। आत्मविश्वास, आत्मगौरव, आत्मावलम्बन की भावना के दृढ़ीकरण के काल में हिन्दी स्वतन्त्रता का पर्याय बनी। हिन्दी का साँचा राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक मूल्यों का वाहक बना। स्वातन्त्र्य के लिए सामूहिक जागरण, लक्ष्य की एकता और उसकी प्राप्ति के संगठित प्रयास हुए। स्वराज्य की ओर उन्मुख होने का दौर चला। और इन सबके लिए हथियार बनी हिन्दी।
हिन्दी नवजागरण ने आधुनिक हिन्दी के निर्माताओं और उन्नायकों की एक लम्बी श्रृंखला तैयार की। इसमें शामिल हिन्दी के योद्धाओं ने हिन्दी की प्रगति, विरोधों और संघर्षों के दौर से गुजरते हुए हिन्दी की अनिवर्चनीय शक्ति का ज्ञान कराया। जातीय विकास में योगदान करने वाली भाषिक क्षमता को विकसित किया। अपने प्रभाव और प्रताप से हिन्दी नवजागरण के लोक अभियान में अपनी विशिष्ट भूमिका निभायी। इतिहास में युगान्तर उपस्थित किया। हिन्दी भाषा और साहित्य की अकूत सम्पदा सौंपी।
यह पुस्तक ऐसे ही हिन्दी सेवियों, लेखकों और पत्रकारों के प्रमुख प्रदेय को उजागर करने के उद्देश्य से तैयार हुए जो हिन्दी का स्वाभिमान बने, हिन्दी भाषा और समृद्धि के पीछे जिनके बलिदान की कहानियाँ छिपी हुई हैं। यों तो इनकी संख्या बहुत अधिक है लेकिन उनमें से सौ प्रमुख दिवंगत हिन्दी महारथियों को विनम्र श्रद्धाजंलि देते हुए उनके ऐतिहासिक अवदान को प्रस्तुत किया गया है।
इनमें वे लोग हैं जिन्होंने खड़ी बोली हिन्दी के विकास में हिन्दी और नागरी लिपि के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी, जो हिन्दी और नागरी लिपि के समर्थन में उस समय मैदान में उतरे जब हिन्दी गद्य का परिष्कार और परिमार्जन नहीं हो पाया था। इनमें हिन्दी के ऐसे सेवी भी हैं जिन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य को तदयुगीन इनमें हिन्दी के ऐसे सेवी भी हैं जिन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य को तदयुगीन। अराजकता से उबारकर एक निश्चित दिशा और व्यवस्था प्रदान की। इनमें अपने रचनात्मक कौशल से हिन्दी को महान सृजनशीलता को उद्घाटित करने वाले रचनाकार भी हैं और हिन्दी में नवोदय लाने वाले ऐसे लेखक भी हैं जिन्होंने साहित्य चेतना को नयी सक्रियता दी। ऐसे विशिष्ट रचनाकार भी हैं जिन्होंने हिन्दीतर-भाषी होते हुए भी साहित्य के विविध धरातलों पर युगीन सच से उपजा महान साहित्य उपलब्ध कराया। इनमें ऐसे पत्रकार भी हैं जिन्होंने राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा के बीच हिन्दी की जीवन्त और प्रखर पत्रकारिता का इतिहास रचा। क्षेत्रीय भाषा और बोलचाल के शब्दों से हिन्दी पत्रकारिता का नया स्वरूप गढ़ा।
इस पुस्तक की योजना स्व. पण्डित विद्यानिवास मिश्र के साधिकार और निरन्तर आग्रह से बनी। यह पुस्तक उनका सपना थी। एक दिन उन्होंने बताया कि ‘हिन्दी के तपोव्रती श्रीनारायण चतुर्वेदी (भैया साहब) आधुनिक हिन्दी के निर्माताओं पर काम करना चाहते थे जो वे नहीं कर सके। इस काम को उन्होंने मुझे सौंपा। मगर व्यस्तताओं के चलते यह मुझसे नहीं हो सका। अब हिन्दी के निर्माताओं पर काम करने का दायित्व मैं तुम्हें सौप रहा हूँ।’ यह कहकर उन्होंने 25-30 रचनाकारों के चित्रों की फाइल मुझे थमा दी। उन्होंने इसका खाका भी तैयार कर दिया। जिस साहित्यिक पत्रिका के वे सम्पादक थे उसके बीच के दो पृष्ठ ‘हिन्दी के निर्माता’ स्तम्भ के लिए सुरक्षित कर दिये गये। उन्होंने तय किया कि एक पूरे पृष्ठ पर हिन्दी के निर्माता का चित्र जाएगा और दूसरे पृष्ठ पर उनके जीवन और कृतित्व के साथ उन पर मूल्यांकनपरक विवेचन। मैं हैरान और परेशान हुई, इतने महान और विराट व्यक्तियों पर मात्र एक पृष्ठ। पण्डितजी पृष्ठ बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुए। मैं असमंजस में थी। मेरे असमंजस की रेखाओं को उन्होंने पढ़ लिया। बोले सूत्रों में बात कहो। यह काम तुम्हें करना है। इन सबका हिन्दी जगत पर बड़ा भारी ऋण है।’
पृष्ठ सीमा मुझे कचोट रही थी। इसे चुनौती समझ मैंने यह स्तम्भ लिखना स्वीकार कर लिया। मैंने हिन्दी के निर्माता के लिए तैयार प्रारूप के बावजूद शुरू के अंकों में निरन्तर परिवर्तन करते हुए उस स्वरूप को व्यापक आयाम देने की कोशिश की जो बेहद सफल रही। इस स्तम्भ को पाठकों की भरपूर प्रशंसा मिली। देश भर के आलोचकों और पाठकों के पत्रों में हिन्दी के निर्माता को गागर में सागर कहा गया। सम्भवतः यह दृष्टि इसलिए बनी क्योंकि इसमें एक निश्चित और सीमित आकार में लेखक की रचनाशीलता के विशद आयामों को प्रकाश में लाने की कोशिश की गयी। पृष्ठ सीमा जो मुझे हर रचनाकार पर लिखते समय गहरी यातना देती रही उसी ने इसे संक्षिप्तता में सघनता जैसी विशिष्टता दी, जिसकी सराहना हुई। सुविख्यात आलोचक श्री रमेशचन्द शाह की टिप्पणी से मुझे उत्साह मिला। उन्होंने इसे नपे- तुले और सधे अन्दाज में संक्षिप्त किन्तु सघन मूल्यांकन बताया और लिखा-इन छोटे-छोटे लेखों में लेखिका की कृतज्ञ दृष्टि और एकाग्र मूल्यांकनकारी वृत्ति का ही पता नहीं चलता, उसकी शोधपरक तत्परता और सार्थक ब्यौरों के सन्निवेश की सजगता भी हमें प्रभावित किये बिना नहीं रहती।
भाषा और साहित्य की निधि अकेले महान कालजयी साहित्यिक प्रतिभाओं के बूते ही नहीं चलती, प्रत्येक श्रेणी के लेखक का उसमें अंशदान सार्थक और स्मरणीय होता है-इस सत्य को यह संकलन नये सिरे से रेखांकित करेगा। निश्चय ही इस तरह का कार्य इस प्रेरणा के बिना सम्भव न होता जिसे रायकृष्णदास ने अपने एक गद्य गीत में ‘प्रेम का परिश्रम’ कहा है और शेक्सपीयर ने ‘लव्ज लेबर।’ कुछ वर्षों में ही यह स्तम्भ पाठकों का प्रिय बन गया। देशभर से लेखकों और पाठकों के पत्रों में यह माँग की जाने लगी कि ‘हिन्दी के निर्माता’ को पुस्तकाकार रूप में आना चाहिए। ‘हिन्दी के निर्माता’ पुस्तक की पाण्डुलिपि पर प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर की इस टिप्पणी ने मुझे बेहद आश्वस्त किया-पुस्तक हिन्दी सेवियों के वंश वृक्ष की समस्त जानकारी देती है। मुझे लगता है मौजूदा दौर में ऐसी पुस्तकों की जरूरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है, क्योंकि इसमें संक्षिप्तीकरण की जिस कला को आत्मसात किया गया है वह कुशल पत्रकारिता का उदाहरण होने के साथ-साथ भाषाई संस्कृति के विकास की आवश्यकता और गरिमा के अनुरूप भी है। पहली श्रृंखला में जिन साहित्यकारों पत्रकारों को शामिल किया गया है, हिन्दी के विकास के इतिहास में उनका योगदान यहाँ बड़ी दक्षता से पेश किया गया है। उनके बारे में सोचकर मन में यह भाव उमड़ता है कि यदि इन हिन्दी भाषाकारों में संघर्ष की अटूट ऊर्जा और बलिदानी श्रद्धा न होती तो हमारी हिन्दी आज किस दिशा में होती।
उधर पंडितजी इसे पुस्तकाकार रूप में देखने के लिए व्याकुल रहने लगे थे। निधन से चार-पाँच महीने पहले ही उन्होंने कहा था-‘देर मत करो इसे जल्दी निकलवाओ’। इस बात का दुख है कि प्रकाशन का निर्णय उनके जाने के बाद हुआ। वे इसे पुस्तकाकार रूप में देख नहीं सके। यह पुस्तक पण्डितजी की प्रेरणा और मार्गदर्शन का ही परिणाम है। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
पुस्तक में हिन्दी के निर्माताओं की सूची उनकी जन्म तिथि के आधार पर दी गयी है ताकि हिन्दी की विकास यात्रा की कहानी का परिदृश्य भी स्पष्ट उभर सके। पाठकों की सुविधा के लिए वर्णकम्र से रचनाकारों की सूची पुस्तक के अन्त में दी गयी है। मुझे विश्वास है कि पाठक इस पुस्तक के अध्ययन से लाभान्वित होंगे। और तभी मैं अपने आठ वर्षों के परिश्रम से पूरे हुए इस काम को सार्थक समझूँगी। और इसे आगे भी जारी रखूँगी। मैं आभारी हूँ कि ज्ञानपीठ ने इसे प्रकाशित करना स्वीकार किया। काशी नागरी प्रचारणी सभा से श्री चन्द्रबली पाण्डे तथा अन्य संस्थाओं एवं मित्रों के सौजन्य से मुझे जो दुर्लभ चित्र प्राप्त हुए उन सभी के प्रति मैं आभारी हूँ।
कुमुद शर्मा
रीडर, हिन्दी विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007
रीडर, हिन्दी विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007
राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ : नागरी के समर्थक
प्रारम्भिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में हिन्दी और नागरी लिपि के
अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वालों में राजा शिवप्रसाद ‘सितारे
हिन्द’ का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे हिन्दी और नागरी के
समर्थन में उस समय मैदान में उतरे जब हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार और
परिमार्जन नहीं हो सका था अर्थात् हिन्दी गद्य का कोई सुव्यवस्थिति और
सुनिश्चित नहीं गढ़ा जा सका था। खड़ी बोली हिन्दी घुटनों के बल ही चल रही
थी। वह खड़ी होने की प्रक्रिया में तो थी; मगर नहीं हो पा रही थी। क्योंकि
एक तरफ अँग्रेजों के आधिपत्य के कारण अँग्रेजी के प्रसार-प्रचार का
सुव्यवस्थित अभियान चलाया जा रहा था तो दूसरी तरफ राजकीय कामकाज में,
कचहरी में उर्दू समादृत थी।
कहा जाता है कि हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्दजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है-‘जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिन्दी भाषा हिन्दी न रहकर उर्दू न गयी हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।’ धीरे-धीरे उर्दू के फैशन और हिन्दी विरोध के कारण देवनागरी अक्षरों का लोप होने लगा। अदालती और राजकीय कामकाज में उर्दू का बोलबाला होने से उर्दू पढ़े -लिखे लोगों की भाषा बनने लगी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक उर्दू की व्यापकता थी। खड़ी बोली का अरबी-फारसी रूप ही लिखने-पढ़ने की भाषा होकर सामने आ रहा था। हिन्दी को इससे बड़ा आघात पहुँचा।
कहा जाता है कि हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्दजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है-‘जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिन्दी भाषा हिन्दी न रहकर उर्दू न गयी हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।’ धीरे-धीरे उर्दू के फैशन और हिन्दी विरोध के कारण देवनागरी अक्षरों का लोप होने लगा। अदालती और राजकीय कामकाज में उर्दू का बोलबाला होने से उर्दू पढ़े -लिखे लोगों की भाषा बनने लगी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक उर्दू की व्यापकता थी। खड़ी बोली का अरबी-फारसी रूप ही लिखने-पढ़ने की भाषा होकर सामने आ रहा था। हिन्दी को इससे बड़ा आघात पहुँचा।
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