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कवि परम्परा

प्रभाकर श्रोत्रिय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :261
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2912
आईएसबीएन :81-263-1252-1

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21 कवि भक्ति-युग से नयी कविता युग तक का लम्बा काल-विस्तार...

Kavi Parampara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात समालोचक प्रभाकार श्रोत्रिय की ‘कवि परम्परा’ विभिन्न युगों की कविता को ताजगी और मार्मिकता से आधुनिक पटल पर रखी है। इस पुस्तक में शामिल 21 कवि भक्ति युग से नयी कविता तक का लम्बा काल-विस्तार समेटे हैं। जहाँ एक ओर भक्तिकाल के तुलसी, कबीर मीरा हैं, वहाँ मैथिली शरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे राष्ट्रीय धारा के कवि और प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी सरीखे छायावादी कवि हैं। इधर प्रगति वादी धारा के नागार्जुन त्रिलोचन हैं नयी कविता में अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, नरेश भारती, वीरेन्द्रकुमार जैन, राम विलास शर्मा जैसे दिग्गज कवि।
अलग-अलग युगों के अलग-अलग धारा के व्यक्तित्ववान कवियों के शब्दार्थ की पहचान करते हुए आलोचक ने एक जीवन्त रंगारंग संसार रचा है, जिससे न तो पुराना कवि कल का लगता है। न आज का कवि अगले और पिछले कल से कटा हुआ, अकेला मानों। कविता अविरल जीवन धारा है।
इस पुस्तक में न कहीं अकादमिक जड़ पाण्डित्य है, न संवेदन हीन निष्प्राण बर्ताव। भाषा-शैली के टटकेपन से हर रचनाकार पुष्प की तरह खिल उठा है; गोया नये पाठकों को जिज्ञासा और रूचि का वैविध्यपूर्ण संसार मिल गया हो; एक सलाहाकार दोस्त जो उसकी संवेदना, चेतना और विवेक पर चढ़े मुलम्मे आहिस्ता-आहिस्ता उतारता है।
भारतीय ज्ञानपीठ की प्रसन्नता है कि ऐसी आलोचना-कृति वह पाठक को सौंप रहा है।

झुका हुआ बैठा हूँ
मोमबत्ती के सामने
और पूरी कर रहा हूँ वह कविता
जिसे लिखना शुरू किया था किसी पुराने कवि ने
शायद सदियों पहले
और देखता हूँ कि नीम अँधेरे में
मैंने यही तो किया है
कि हटा दिया है कोई हलन्त
हटा दी है कहीं बिन्दी
उलट दिया है कोई विशेषण
उड़ा दी है कोई तिथि
और तुर्रा यह—
कि मैंने कविता की है

आशय


हिन्दी साहित्य का दरवाजा पहले तो सन्त और भक्त कवियों ने ही खटखटाया, इसीलिए मैंने सोचा कि एक लम्बी सरणि की काव्य-यात्रा का प्रारम्भ क्यों न इन्हीं कवियों से किया जाए। मंगलाचरण के लिए तुलसी से बड़ा कवि कौन ? न केवल हिन्दी में बल्कि विश्व साहित्य में भी ऐसा कौन है जो प्रबुद्ध जन से लगाकर लोक मन में यक्साँ बसता हो ? आगे बढ़ा तो कबीर, सूर, मीरा से एकदम अनूठी मुलाकातें हुईं। फिर नवजागरण के ऱाष्ट्रीय, छायावादी और प्रगतिवादी कवि नयी ठनगन में मिले, फिर तो नयी कविता के भी कई अग्रणी कवि बहस में उतर आये;--ऐसे भी जिन्हें हिन्दी साहित्य के ‘मुग़लिया’ में आम तौर पर ‘आउट साइडर’ माना गया। वैसे अपनी रुचि अक्सर ऐसे ‘आउट साइडरों’ में ज्यादा रही, जिन्हें वृत्त के कवियों से अधिक मान मिलना था और जिन्होंने अपनी स्वाधीन, स्वाभिमानी और व्यापक संवेदना से हिन्दी साहित्य के मन और रूप दोनों का मान बढ़ाया। यह सूची लम्बी है पर थामने वाले ये हाथ छोटे हैं।

हिन्दी का चरित्र दरबारी नहीं है, यह उस आदमी की जमीन है जिसे कविता की सबसे ज्यादा जरूरत है; जो चौपालों, उत्सवों, बात-बात में कविता से बड़ा सहारा पाता है। अगर उसे कविता सहजता से नहीं मिलती तो वह उधर से मुँह फेर लेता है। अपनी भाषा और जन का रंगारंग स्वभाव न समझने वाले लोगों ने आज कविता की जो ‘हदें’ खींच दी हैं, उन्हें उस ‘बेहद’ आदमी की चिन्ता भी करनी चाहिए। कविता को आपस का मामला बनाकर कब तक ज़िंदा रखेंगे आप ‍?
कोई पूछ सकता है कि आज वक्त जब इतना बदल गया है कि दस-पाँच साल पहले तक का समय पुराना मालूम होता है, तब 600 वर्ष या उससे पहले के कवियों से बात शुरू कर के तीन-चार दशक पहले तक के कवियों पर आलोचना को ठहरा देना क्या पाठक की वजह से हुआ है ? तो मैं कहूँगा हाँ—किसी हद तक; क्योंकि लोक नया तो है पर ऐसा नया नहीं कि लगाव न हो उसका किसी पुराने के साथ। बस करना है उसे पुराने में से नये ‘सौंदर्य और चमक’ की शिद्दत से तलाश—बशर्ते उसमें गुंजायश हो। लोक-मर्मी कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ज़बानी सुनें :

पुराना और कठोर जैसे स्फटिक
हर चोट पर
फेंकता है नयी से नयी चिनगारी
ऐसी जलाने और सुलगाने के गुण और चमक में
और सौंदर्य में पुरानी आदिम चिनगारी की तरह
फिंकना चाहिए अर्थ
पुराने से पुराने शब्दों में से
नये सन्दर्भों में।
मेरा आज का मन
नया संदर्भ है
मगर ऐसा भी नया नहीं कि लगाव न हो उसका
किसी पुराने के साथ
लगाव के बिना कुछ भी नहीं रह सकता।

ज्यादा नहीं कहना, इस समय मेरे सामने मुद्दा यह है कि अगर नया पाठक इस पुस्तक को पढ़े तो उसे ऐसा लगे कि किसी बहुत पुराने बुरांस के पेड़ में से कोई नया सुर्ख फूल उग आया है।
इस सरणि में बहुत से कवि छूट गये हैं और कुछ समूचे युग ही। परन्तु यह इतिहास नहीं है, एक चयन है, और वह भी अधूरा, क्योंकि जो यहाँ नहीं हैं, वे मन में हैं, आगे कभी आएँगे वे।
वैसे इस तृष्णा का कोई अन्त नहीं। फिर भवानी भाई याद आते हैं :
‘...लिखना भी ऐसा है जैसे।
बादल बरसे मन सूखा रह जाए।’

ध्यान से सुनना, सदियाँ बोल रही हैं


बीसवीं सदी के बेजोड़ उर्दू शायर, माहिरेनक्क़ीद और अंग्रेजी के प्रोफेसर जनाब फ़िराक़ गोरखपुरी की जन्मशती पर ‘वागर्थ’ में कुछ विशेष सामग्री देनी थी। हमने अपने अज़ीज़ और अज़ीमुश्शान दोस्त रेवतीलाल शाह से इसमें मदद की गुज़ारिश की। (काश, वे हमारे बीच होते !) मर्हूम शाह साहब उर्दू, अरबी, फारसी शायरी के आलिम और हक़ीकतआश्ना थे। हज़ारों शेर उनकी ज़बान पर मचलते रहते थे और उनकी तफ़्सीर भी माशाअल्ला दिलोजान में उतर जाती थी। ‘वागर्थ’ के इस अंक में कुछ बेहतरीन रचनाओं के साथ शाह साहब का भी एक संज़ीदा मगर दिलकश लेख था। उनका उन्वान था—‘हाँ, ध्यान से सुनना, सदी बोल रही है।’ यह फ़िराक़ साहब का ही मिस्रा था। फ़िराक़ साहब के बारे में मशहूर था कि वे मुँहफट और तनाक़िएताम थे, इस पर वे हिन्दी कवियों को कुछ समझते न थे। लेकिन शाह साहब ने अपने लेख में हिन्दी के ललित निबन्धकार उमाकान्त मालवीय द्वारा फ़िराक़ साहब से लिए एक मुसाहिबे (साक्षात्कार) का हवाला दिया है। यह फ़िराक़ साहब जैसे नक़्क़ाद और तर्शुज़बान इन्सान को देखते हुए चौंकाता है :

‘स्व. उमाकान्त मालवीय के साक्षात्कार में इस प्रश्न पर
कि ‘‘आप इतनी भाषाओं के काव्य से परिचित हैं, किसी
एक कवि का नाम आपकी ज़बान पर आएगा तो किसका
आएगा।’ उत्तर था—‘‘तुलसीदास का और किसका ?’’
आगे पूछा गया—‘‘आपको लगता है कि आप उनके
सहयात्री हैं ?’’ किंचित उत्तेजित होकर फ़िराक़ साहब ने
उत्तर दिया—‘‘क्या मूर्खतापूर्ण बात करते हो मैं सूर,
तुलसी, कबीर और मीरा के करोड़ मील दूर तक ग़ालिब,
इकबाल और टैगोर को नहीं मानता, तो मेरी बिसात ही क्या
है ?’’
खुद शाह साहब ने एक बार फ़िराक से तुलसी के बारे में उनकी राय जानना चाही थी, तो कहने लगे :
‘‘मियाँ, एक लाख फ़िराक़ मिलकर भी तुलसी का
मुकाबला नहीं कर सकते। तुलसी की कविता जब कान में
पड़ती है तो ऐसा लगता है कि एक-एक शब्द के साथ कान
में अमृत टपक रहा हो।’’

(वागर्थ, जुलाई, 1997)


फ़िराक़ साहब को तुलसी में ऐसा क्या मिल गया था जो अंग्रेजी, उर्दू या दूसरी ज़बानों के साहित्य में न था ? यह अमृत न सिर्फ भक्ति का हो सकता है, न दर्शन का, न भावना का, न ज्ञान का, न कथा का, न शिल्प, न चरित्र; न सिर्फ आदर्शों का। यह महाकवि द्वारा जीवन को समग्रता से आत्मसात करने पर उसके मन्थन से निकला है, तभी तो एक-एक शब्द से टपकता है। मन्थन से निकला विष शायद स्वयं पी लिया गया है तभी न दुनिया में अपने बारे में ज़हर फैलाने वालो को ऐसी बेखौफ चुनौती दी गयी है :

‘धूत कहौ, अवधूत कहौ, राजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जात बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचे सो कहै कछु कोऊ।
माँगि के खैबो, मसीत सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ।।’

ताहम कुछ तंग दिल-दिमाग के लोग आज भी तुलसी को ब्राह्मणवादी करार देते हैं और यह नजर अन्दाज कर देते हैं कि स्वयं तुलसी को ब्राह्मणों से कितना विरोध सहना पड़ा। इसका पता गोसाईं जी के शिष्य रघुवर दास जी द्वारा लिखित ‘तुलसी चरित’ और बाबा वेणीमाधवदास कृत ‘गोसाईं चरित’ से चलता है। इसका अर्थ है कि वर्णाश्रम धर्म और ब्राह्मण का महत्त्व बखानते हुए भी तुलसी में ऐसा जरूर था जो कहीं न कहीं उनके मूल हितों पर प्रहर करता था और सामाजिक विसंगतियों में हस्तक्षेप करता था। घमण्डी परशुराम पर लक्ष्मण क्या तीर साधते हैं—‘द्विज देवता घरहिं के बाढ़े’ स्वयं राम के व्यक्तित्व और आचरण में ही ऐसा कुछ था, जो तत्कालीन उच्चवर्ण के अनुकूल नहीं बैठता था। गरीबों, दलितों के प्रति नीच बर्ताव, घृणा, विलासिता जैसे उच्चवर्गीय गुण उनमें कहाँ थे ? बहरहाल तुलसी साफ कहते हैं—‘‘मेरे जाति-पाँति न चहूँ काहू की जाति-पाँति’’ फिर भी यह तो दुनिया है—‘साधु कहैं महासाधु, खल कहैं महाखल।’ खैर, अपना ब्राह्मण, ठाकुर, महार, शिया, सुन्नी अपने खीसे में लिये घूमनेवाले, परंपरा तथा इतिहास के दौरों को न समझने वाले और सार्जनात्मक अंतर्सत्य से अनजान लोग तुलसी को क्या समझेंगे—एक फ़कीर को, जो संसार भर को मंगल बाँटने चला था, शब्द, छंद वगैरह की भभूत लेकर :

‘वर्णानां अर्थसंघानाम् रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ।।’

उसे क्या मतलब था ऐसे दमघोटू मतवाद और जातिवाद से ? उसे तो उस कविता तक का अभिमान नहीं था, जिसे फ़िराक़ साहब जैसे अजीब के दुनिया सरगमाथे पर रखते थे : ‘कवित बिबेक एक नहिं मोरे। सत्य कहहुँ लिखि कागद कोरे।।’
उसका ‘भूमंडलीकरण’ कोई घृणा, स्वार्थ और शस्त्र का व्यापार नहीं था। उसकी कविता को गंगा मैया की तरह ‘कब कँह हित’ में लगी थी। वह आद्यंत मनुष्य के साथ खड़ा था, उसके सुख-दुःख, हारी-बीमारी, उछाह-उमंग, उत्थान-पतन, घर-वन में—हर जगह, हर वक्त छाया की तरह। किसी निपट ग्रामीण से भी आप ‘का बरखा जब कृषि सुखाने’ सुन सकते हैं या किसी दुष्ट से सताए आदमी से ‘खल सन कलह न भल नहिं प्रीती’ जैसे उद्गार, कोई अस्तिक सहज ही कह देता है—‘हानि-लाभ जीवन मरण जस-अपजस विधि हाथ’। ऐसे जन-व्यापी, जन-रक्षक, जन-रंजक जनता को प्रेरणा और सहारा देने वाले कवि कितने हैं ? शायद फ़िराक़ ही बताएँ--‘जोई बांध्यो सोई छोरैं’ (तुलसी)।

तुलसी को लोग समाज-सुधारक, परंपरा-पोषक, भक्त, कवि, ज्ञानी जैसे कई टुकड़ों में अलग-अलग देखते हैं। क्या वे बता सकते हैं कि जिस शहद का आस्वाद वे लेते हैं, उसके किस कण में कौन से पुष्प, फल, वृंत, पत्र का रस है ? मधुमक्खी ने स्वरस में मिलाकर उसकी तासीर और रसायन बदल दिया है और विभिन्न संग्रहण को एक समग्र रस-सत्ता दी है; और इसमें ‘कटु’ भी शामिल है। हिस्सों में देखेंगे तो तुलसी नजर ही नहीं आएँगे। उनके व्यक्तित्व और सृजन में समग्र एकात्मता है, न कि विखंडित पाखंड।

कोई कवि कितना ही बड़ा हो, वह दोष रहित नहीं होता। विधाता तक का ‘प्रपंच’ गुण-दोषों से मिलकर बना है। तुलसी के राम स्वयं कहते हैं--‘सगुन खीरु अवगुन जल ताता। मिलइ रचइ परपंचु विधाता।।’ तुसली में दोष होंगे और यह भी सच है कि उनकी कुछ बातें हमारे समय और मानसिकता से नहीं मिलती हैं। परंतु एक प्राचीन कवि को समकालीनता में पहचानने के लिए हमें एक ओर से उसे समग्रता में देखना होता है और दूसरी ओर इतिहास तथा परंपरा के तत्कालीन हस्तक्षेप की दृष्टि से उसकी क्रांतदर्शिता आँकनी होती है। क्योंकि मानव-सभ्यता के विकास में सामयिक सीमाओं के ऐसे ही अतिक्रमणों और हस्तक्षेपों की बड़ी भूमिका है।

तुलसी का युग सामंती-युग था। मुगलों का शासन था, जिसके बारे में ‘निराला’ ने ‘तुलसीदास’ में लिखा है कि भारत का सांस्कृतिक सूर्य अस्त हो चुका था, चारों ओर अँधेरा छाया था। आगे एक रूपक में वे कहते हैं :

‘मोगल-दाल बल के जलद-यान
दर्पित-पद उन्मद-नद पठान
हैं बहा रहे दिग्देश ज्ञान शर खर तर;
छाया ऊपर घन अंधकार
टूटता वज्र दह दुर्निवार
नीचे प्लावन की प्रलय धार, ध्वनि हर हर।’

संध्याकाल है, मुगल-सेनारूपी बादल भयंकर वर्षा कर रहे हैं। उन्मत्त पठान दुर्निवार नद हैं। देशकाल का ज्ञान तिरोहित हो चुका है। चारों ओर केवल प्राणों को हरनेवाली हर-हर ध्वनि सुनाई पड़ती है। यह तुलसी का देश-काल है ! इसे निराला ने जातीय या साम्प्रदायिक अर्थ में नहीं, सत्ता उन्माद और आक्रामकता में परिभाषित किया है। इस घनांधकार में प्रकाश के उदय-सा एक कवि का उद्भव सहसा उस कविता की याद दिला देता है जो पाब्लो नेरुदा ने पॉल रॉब्सन पर लिखी थी :

हमें जकड़ने के लिए जब बढ़ रहा था अँधेरा
धरती के भीतर बढ़ रही थीं जड़ें
अन्धे पेड़ लड़ रहे थे
रोशनी के लिए
सूरज थर्रा उठा था
जल गूँगा हो गया था
और जानवर
धीरे-धीरे बदल रहे थे अपना आकार
धीरे-धीरे बना रहे थे स्वयं को वे
जल और वायु के अनुकूल
तभी से
तुम हमेशा आवाज रहे मनुष्य की
आकार लेती धरती का गीत रहे
प्रकृति की गति रहे और लहर का संगीत रहे।’

तुलसी ने जो कथाधार चुना था वह साहित्य, परंपरा और लोक में सुपरिचित था, फिर भी इतने हाथों, मुखों और अवधारणाओं से चलकर आया था कि उसे अपने लिए सुनियोजित और सुपरिभाषित करना तुलसी को जरूरी लगा, क्योंकि उन्हें मात्र भक्ति, प्रेम, सौंदर्य और लीला के लिए नहीं, देश-समाज-काल के भले के लिए लिखना था। तुलसी ने इस कथा-सरिता के अनेक घाट बाँधे, सोपान बनाए, संगम रचे, वीचियों में खेलते जलचरों, नभचरों के कोलाहल का समा बाँधा। क्योंकि इसे संसार के कल्याण के लिए भाँति-भाँति के मत-मतांतरों और मानवीय स्थितियों के बीचोबीच रहना था। उन्होंने अपने काव्य में निगमागम और लोक-संपदा का भरपूर समावेश किया।...अब वे अकेले नहीं रहे। उनके साथ लोक और वेद की परंपरा, संचित ज्ञान और समय-बोध था। उन्हें सबको साथ लेकर चलना था। यह एक महान लक्ष्य था। उन्हें अँधेरे का नद पार करना था। लोक के भीतर आस्था-विश्वास-उछाह जगाना था। बाहर से भीतर तक फैले अँधेरों को उजाले में बदलना था। इसमें भक्ति बड़ा सहारा थी और कवि के लिए सर्जना का प्रतीक भी :

‘राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरौ जो चाहसि उजियार।।’

सबको उजियार चाहिए क्योंकि अँधेरे किसी एक देश-काल में नहीं होते, हर देश-काल के अपने-अपने अँधेरे होते हैं; जिन्हें पार करने के लिए मनुष्य को साहस, आस्था और संकल्प की जरूरत होती है। इसी आस्था के सहारे 19वीं शदी में भारत के गरीब-गुर्बे जब परदेसों में गिरमिटिया या मजूर बनकर गए तो उनके पोटलीबंद असबाब में एक बहुमूल्य ‘मणि-दीप’ था—रामचरित मानस का गुटका। घोर कष्ट का जीवन बिताने में यह पुस्तक उनका सम्बल बनी। इसी के सहारे उन्होंने अपने अँधेरे समुद्र को पार किया, विपरीत स्थितियों में भी विश्व में अपनी जगह बनायी और जहाँ गये, उस देश को लहलहाने में अपनी मेहनत और हिम्मत से जुट गये। तुलसी की भक्ति; दूर तक देखने की क्षमता, आस्था, संघर्ष और नैतिक बल ने उनकी मदद की है। इसी के सहारे उन्होंने दलन, ध्वंस और आतंक के विरुद्ध सौजन्य, संघर्ष और विजय की अपनी काल-कथा रची, जो वहीं तक नहीं रह जाती, प्रवृत्ति के रूप में ढलकर युग-युग के प्रतिवाद का बल बनती है। संभवतः महात्मा गाँधी ने भी मानस से प्रेरणा लेकर इतनी बड़ी साम्राज्यवाहिनी के विरुद्ध भारत की निहत्थी जनता का युद्ध नियोजित किया था। उल्लेखनीय है की गाँधी के आराध्य तुलसी के राम थे। ये राम मरते दम तक उनसे छूटे न थे। गोली लगने पर उन्होंने जो अन्तिम शब्द उच्चारा था, वह था—हा राम ! यही उनका ‘डाइंग स्टेटमेंट’ था।

तुलसी का सृजन-युग भक्ति का था। यह भक्ति उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भाँति-भाँति के नाम-रूपों में फैली थी, जैसे वह युग की सामूहिक आवश्यकता हो। तुलसी जैसे समाज-चेता कवि के लिए तो वह किसी हद तक समाज-सुधार का माध्यम और कविता की राजनीति भी थी। जैसे जायसी ने ‘पद्मावत’ के अन्त में दार्शनिक प्रतीकीकरण और प्रयोजन का संकेत दिया वैसा ही संकेत ‘मानस’ के उत्तराखंड में तुलसी ने दिया कि उनका प्रयोजन केवल धार्मिक नहीं है, वह सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय है। जब वे कहते हैं : ‘जासु राज प्रिय, प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी’ तो इसका सम्बन्ध रामराज्य से नहीं है, क्योंकि वहाँ तो सब सुखी, रोग-शोक मुक्त थे। यह कथन तत्कालीन राजशाही के लिए है। (और आज भी प्रजातंत्र को इसकी ज़रूरत है।) जब तुलसी को विभिन्न क्षेत्रों में समकालीन मुखिया ‘पेट’ की तरह दिखे होंगे, तभी न उन्हें कथा के बीच में भरत को उपदेश देते हुए राम के द्वारा कहलाना पड़ा होगा कि मुखिया मुख जैसा होना चाहिए :

‘मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान
कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित
बिबेक।।’

भरत के लिए यह कथन औपचारिक था और शायद अनावश्यक भी। परन्तु कवि को समकालीन प्रधानों, राजाओं, बादशाहों को एक शिक्षा देनी थी। इसलिए त्याग की पराकाष्ठा भरत को राम द्वारा ऐसा उपदेश देते हुए तुलसी को औचित्य की सीमा लाँघनी पड़ी। वैभव और विलास में डूबे तत्कालीन बादशाहों, राजाओं के लिए नहीं आज के स्वार्थी और जननिरपेक्ष नेताओं के निर्देश के लिए भी तुलसी के पास राम का यह संवेदन एक प्रमाण है :

मनि मानिक महँगे किये, सहँजे
तृन, जल, नाज।
तुलसी ऐसे मानिए राम गरीब
नेवाज।।

आज जब जानवरों के लिए चरागाह खत्म हो रहे हैं, पानी मोल में बिक रहा है, अनाज महँगाई की रोज नयी सीमा छू रहा है, यहाँ तक कि गाँधी का ‘नमक’ तक शक्कर के भाव है, तब तुलसी के राम की सरकार में हमें अपनी सरकार और सत्ता का कौन-सा चेहरा दिखता है जो ‘अन्तिम आदमी’ की चिन्ता में मुटा रही है ? यही चीज है जो तुलसी को आज का और आगामी कल का भी कवि बनाती है।

अब इस, रचना विधान पर ग़ौर करें। हम अन्तिम ‘आदमी’ की बात करते हैं, तुलसी सबसे पहले अन्तिम ‘जीव’ की बात करते हैं; जो अपनी भूखप्यास भी नहीं बोल सकता। इसलिए क्रम में सबसे पहले हैं—‘तृण’-जानवरों के लिए, फिर ‘जल’ सबके लिए, अन्त में ‘अनाज’ जो प्रायः मनुष्यों के लिए होता है। जब हम पूरी सृष्टि को अपने संवेद-वितान में रखते हैं तब हमारे भीतर वह भाव उदित होता है जो अपने परे जाता है। भारत की संस्कृति, इसके खेत-गाँव, प्रकृति इसी तरह तुलसी में उतरे हैं, जो यहाँ से वहाँ तक हमारी चेतना को एक मानवीय दीक्षा देते हैं, कर्तव्य बताते हैं। क्या इनकी जरूरत सिर्फ कल थी, या सिर्फ आज है ?

तुलसी सामाजिक-धार्मिक बिखरावों, कुकुरमुत्ते की तरह उगे पंथों, सम्प्रदायों और पाखंडों से खिन्न थे क्योंकि उनके द्वारा कई तरह के विघटन, भ्रम, संकीर्णताएँ, अंधविश्वास आदि फैल रहे थे :

‘कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सद्ग्रंथ।
दंभिन्ह नज मति कल्पि करि प्रकट किए बहु पंथ।।’



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