भाषा एवं साहित्य >> कबीर के कुछ और आलोचक कबीर के कुछ और आलोचकधर्मवीर
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कबीर के दिन-प्रतिदिन बनने वाले नये-नये आलोचकों का वर्णन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रेम, मृत्यु, कलकत्ता, निःसंगता-मेरे प्रिय विषय इस संग्रह में शामिल
हैं। सब कुछ की तरह, अब प्रेम भी कहीं और ज्यादा घरेलू हो गया है। ये
कविताएँ मैंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पूरे साल भर रहने के दौरान,
केम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स में बैठकर लिखी हैं। कविता लिखने में, मैंने साल
भर नहीं लगाया, जाड़े का मौसम ही काफी था। इन्हें कविता भी कैसे कहुँद्य
इनमें ढेर सारे तो सिर्फ खत हैं। सुदुर किसी को लिखे गये, रोज-रोज सीधे
सरल खत ! चार्ल्स नदी के पार, केम्ब्रिज के चारों तरफ जब बर्फ ही बर्फ
बिछी होती है और मेरी शीतार्तदेह जमकर, लगभग पथराई होती है, मैं आधे सच और
आधे सपने से, कोई प्रेमी निकाल लेती हूँ अपने को प्यार की तपिश देती हूँ,
अपने को जिन्दा रखती हूँ। इस तरह समूचे मौसम की निःसंगता में, मैं अपने को
फिर जिन्दा कर लेती हूँ।
और रही मृत्यु ! और है कलकत्ता ! निःसंगता ! मृत्यु तो खैर, मेरे साथ चलती ही रहती है, अपने किसी बेहद अपने का ‘न-होना’ भी साथ-साथ चलता रहता है ! हर पल साथ होता है ! उसके लिए शीत, ग्रीष्म की जरूरत नहीं होती। ये सब क्या मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं ? वैसे मैं भी कहाँ चाहती हूँ कि ये सब मुझसे दूर हो जाएँ। कौन कहता है कि निःसंगता हमेशा तकलीफ ही देती है, सुख भी तो देती है।
कबीर सही माने में इस देश के निम्न वित्त के बुनकरों और साधारण लोगों के दार्शनिक थे, जो अपने ताने-बाने और अपने घर में एकांत भाव में बैठे अपनी जिंदगी बिता रहे थे। उच्च वर्ण और वर्गों से अलग निम्न वर्ग और वर्ण आज नहीं तो कल अपना एक दर्शन विकसित करेंगे ही और जब ऐसा होगा तब उन्हें कबीर, दादू, रैदास...जैसे दार्शनिक का आश्रय लेना ही पड़ेगा।
और रही मृत्यु ! और है कलकत्ता ! निःसंगता ! मृत्यु तो खैर, मेरे साथ चलती ही रहती है, अपने किसी बेहद अपने का ‘न-होना’ भी साथ-साथ चलता रहता है ! हर पल साथ होता है ! उसके लिए शीत, ग्रीष्म की जरूरत नहीं होती। ये सब क्या मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं ? वैसे मैं भी कहाँ चाहती हूँ कि ये सब मुझसे दूर हो जाएँ। कौन कहता है कि निःसंगता हमेशा तकलीफ ही देती है, सुख भी तो देती है।
कबीर सही माने में इस देश के निम्न वित्त के बुनकरों और साधारण लोगों के दार्शनिक थे, जो अपने ताने-बाने और अपने घर में एकांत भाव में बैठे अपनी जिंदगी बिता रहे थे। उच्च वर्ण और वर्गों से अलग निम्न वर्ग और वर्ण आज नहीं तो कल अपना एक दर्शन विकसित करेंगे ही और जब ऐसा होगा तब उन्हें कबीर, दादू, रैदास...जैसे दार्शनिक का आश्रय लेना ही पड़ेगा।
भूमिका
‘कबीर के आलोचक’ में मैंने कबीर के कई आलोचक शामिल कर
लिए थे और कुछ बाकी आलोचक को ‘कबीर : नई सदी में’ के
तीनों खंडों में विवेचित कर लिया था। लेकिन बात वहीं तक थमी नहीं रह सकी
और ऐसे बढ़ी कि अभी तक भी पूरी नहीं हुई। वैसे, मैं मूलतः कबीर के
ब्राह्मण आलोचक को ही अपनी समीक्षा के दायरे में ले कर चलना चाहता था
लेकिन मुझसे उम्मीद की गई कि मैं उन जनवादियों के बारे में भी लिखूँ
जिन्होंने कबीर के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं। मैंने वह काम किया
तो मुझसे अगली उम्मीद यह रखी गई कि मैं कबीर साहित्य के विदेशी विद्वानों
के बारे में भी अपनी राय जाहिर करूँ। यह परिक्रमा पूरी हो गई है इस कमी के
साथ कि मुसलमान लेखक अब भी छूट गए हैं।
बात यह है कि मैं हिंदी साहित्य में ‘जनवाद’, ‘आधुनिकता’ और उत्तर-आधुनिकता’ के शब्दों को महत्व नहीं देता हूँ। मेरी राय में दलित जीवन का इस बात से कुछ लेना-देना नहीं है कि आज कौन-सा दिन है। उसके लिए हफ्ते के सातों दिन, महीने के दोनों पक्ष, और साल के बारह मास और सदी के सौ साल एक से चल रहे हैं। दिन में भी सुबह और शाम का अंतर न करके उसके लिए सदियाँ, सहस्त्राब्दियाँ बन रही हैं। इसलिए कबीर के बारे में हिंदी साहित्य को ब्राह्मण साहित्य, ब्राह्मणेतर द्विज साहित्य, मुसलमान साहित्य और विदेशी साहित्य के वर्गीकरणों में रख कर देखना चाहता हूँ। बीसवीं सदी के रहस्यवाद, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, जनवाद, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के सारे वाद कबीर की भाषा में, ‘पंडित बाद बदै सो झूठा’1 बन कर रह गए हैं। इन सारे वादों से दलित के बारे में कौन समझ पैदा नहीं होती। दलित के सामने इस देश में पिछले तीन हजार सालों से एक ही वाद चल रहा है ‘दमनवाद’ और हिंदी साहित्य इसका अपवाद नहीं है।
1. कबीर वाङ्मय : खंड 2 : सबद, संपादन डॉ. जयदेव सिंह और डॉ. वासुदेव सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी-221001, संस्करण 1998 ईस्वी, पृ. 211
अध्ययन करने से पता चलता है कि कबीर के हिंदी आलोचकों में ब्राह्मणों का ही बोलबाला है। रणनीति के हिसाब से खुद ब्राह्मणों ने अपने आप को दो मोटे भागों में बाँट लिया है—एक शास्त्रवादी दूसरे उदारवादी। हिंदी के ब्राह्मणेतर द्विज आलोचक उदारवादी ब्राह्मणों के साथ हो लिए हैं। उनकी अपनी कोई विशष्ट और स्वतंत्र दृष्टि विकसित नहीं हो सकी और वे ब्राह्मणों के जगदगुरु के नामी-गिरमी शिष्य बने हुए हैं। उधर, कबीर के विदेशी विद्वानों की एक अच्छी विशेषता यह है कि वे कबीर को उनके दलित जुलाहे जाति से और कबीरपंथ से जोड़कर देखते हैं। मेरी खोज है कि ब्राह्मणों ने और ब्राह्मणों के शिष्यत्व में ब्राह्मणेतर द्विज आलोचक ने कबीर को उनकी दलित जुलाहे जाति से और कबीरपंथ से काटकर अपने वैदिक घर के बाहर पिंजड़े में सगुण का रामनाम जपने वाला परकैंच तोताराम बना दिया है। यूँ, मेरे द्वारा अब तक के किए गए कबीर के अध्ययन के निम्न तीन परिणाम निकलते हैं :
1. यह नहीं माना जा सकता कि कबीर को लेकर ब्राह्मणों के चिंतन में कोई सुधार या बदलाव संभव है क्योंकि उनकी दृष्टि पिछले तीन हजार सालों से पूरी, परिपक्व और एक सी है।
2. ब्राह्मणेतर द्विज आलोचक ब्राह्मणों के शिष्यत्व से बाहर आ सकते हैं। वे अपनी बौद्ध, जैन और सिक्ख परंपराओं से जान पहचान बढ़ाएँ तो उनकी स्वतंत्र पहचान बन सकती है।
3. विदेशी विद्वान कबीर को सामाजिक संदर्भ देने के अपने शोध-कार्य में जुटे हुए ही हैं।
अंत में इतना ही कहना है कि मेरा किसी से कोई बैर-भाव नहीं है। उत्तर वैसे ही दिए गए हैं जैसे प्रश्न उभरे थे। कहीं-कहीं शैली भी वैसी ही बन पड़ी है जैसी शैली में वे प्रश्न खड़े किए गए थे। बिना किसी से गिले-शिकवे किए मैं यह मान रहा हूँ कि मैं सटीक, प्रामाणिक और साहित्यिक उत्तर दे रहा हूँ। इधर डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने मुझ पर और कबीर पर मेरी पुस्तकों के बारे में पत्रों और पत्रिकाओं में कई लेख लिखे हैं। मैं उन सबका जवाब अलग से दे रहा हूँ।
मुझे खुशी है कि मेरे पाठक बहुत हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। उन्हें सूचना दे रहा हूँ कि नेति-नेति के इस काम के बाद अब मैं कबीर को लेकर ऐति-ऐति के काम पर आ रहा हूँ जिस में मुझे किसी की कोई आलोचना नहीं करनी पड़ेगी।
बात यह है कि मैं हिंदी साहित्य में ‘जनवाद’, ‘आधुनिकता’ और उत्तर-आधुनिकता’ के शब्दों को महत्व नहीं देता हूँ। मेरी राय में दलित जीवन का इस बात से कुछ लेना-देना नहीं है कि आज कौन-सा दिन है। उसके लिए हफ्ते के सातों दिन, महीने के दोनों पक्ष, और साल के बारह मास और सदी के सौ साल एक से चल रहे हैं। दिन में भी सुबह और शाम का अंतर न करके उसके लिए सदियाँ, सहस्त्राब्दियाँ बन रही हैं। इसलिए कबीर के बारे में हिंदी साहित्य को ब्राह्मण साहित्य, ब्राह्मणेतर द्विज साहित्य, मुसलमान साहित्य और विदेशी साहित्य के वर्गीकरणों में रख कर देखना चाहता हूँ। बीसवीं सदी के रहस्यवाद, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, जनवाद, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के सारे वाद कबीर की भाषा में, ‘पंडित बाद बदै सो झूठा’1 बन कर रह गए हैं। इन सारे वादों से दलित के बारे में कौन समझ पैदा नहीं होती। दलित के सामने इस देश में पिछले तीन हजार सालों से एक ही वाद चल रहा है ‘दमनवाद’ और हिंदी साहित्य इसका अपवाद नहीं है।
1. कबीर वाङ्मय : खंड 2 : सबद, संपादन डॉ. जयदेव सिंह और डॉ. वासुदेव सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी-221001, संस्करण 1998 ईस्वी, पृ. 211
अध्ययन करने से पता चलता है कि कबीर के हिंदी आलोचकों में ब्राह्मणों का ही बोलबाला है। रणनीति के हिसाब से खुद ब्राह्मणों ने अपने आप को दो मोटे भागों में बाँट लिया है—एक शास्त्रवादी दूसरे उदारवादी। हिंदी के ब्राह्मणेतर द्विज आलोचक उदारवादी ब्राह्मणों के साथ हो लिए हैं। उनकी अपनी कोई विशष्ट और स्वतंत्र दृष्टि विकसित नहीं हो सकी और वे ब्राह्मणों के जगदगुरु के नामी-गिरमी शिष्य बने हुए हैं। उधर, कबीर के विदेशी विद्वानों की एक अच्छी विशेषता यह है कि वे कबीर को उनके दलित जुलाहे जाति से और कबीरपंथ से जोड़कर देखते हैं। मेरी खोज है कि ब्राह्मणों ने और ब्राह्मणों के शिष्यत्व में ब्राह्मणेतर द्विज आलोचक ने कबीर को उनकी दलित जुलाहे जाति से और कबीरपंथ से काटकर अपने वैदिक घर के बाहर पिंजड़े में सगुण का रामनाम जपने वाला परकैंच तोताराम बना दिया है। यूँ, मेरे द्वारा अब तक के किए गए कबीर के अध्ययन के निम्न तीन परिणाम निकलते हैं :
1. यह नहीं माना जा सकता कि कबीर को लेकर ब्राह्मणों के चिंतन में कोई सुधार या बदलाव संभव है क्योंकि उनकी दृष्टि पिछले तीन हजार सालों से पूरी, परिपक्व और एक सी है।
2. ब्राह्मणेतर द्विज आलोचक ब्राह्मणों के शिष्यत्व से बाहर आ सकते हैं। वे अपनी बौद्ध, जैन और सिक्ख परंपराओं से जान पहचान बढ़ाएँ तो उनकी स्वतंत्र पहचान बन सकती है।
3. विदेशी विद्वान कबीर को सामाजिक संदर्भ देने के अपने शोध-कार्य में जुटे हुए ही हैं।
अंत में इतना ही कहना है कि मेरा किसी से कोई बैर-भाव नहीं है। उत्तर वैसे ही दिए गए हैं जैसे प्रश्न उभरे थे। कहीं-कहीं शैली भी वैसी ही बन पड़ी है जैसी शैली में वे प्रश्न खड़े किए गए थे। बिना किसी से गिले-शिकवे किए मैं यह मान रहा हूँ कि मैं सटीक, प्रामाणिक और साहित्यिक उत्तर दे रहा हूँ। इधर डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने मुझ पर और कबीर पर मेरी पुस्तकों के बारे में पत्रों और पत्रिकाओं में कई लेख लिखे हैं। मैं उन सबका जवाब अलग से दे रहा हूँ।
मुझे खुशी है कि मेरे पाठक बहुत हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। उन्हें सूचना दे रहा हूँ कि नेति-नेति के इस काम के बाद अब मैं कबीर को लेकर ऐति-ऐति के काम पर आ रहा हूँ जिस में मुझे किसी की कोई आलोचना नहीं करनी पड़ेगी।
पहला भाग
भाषा की आतिशबाजी
अध्याय-1
कबीर : महर्षि दयानंद सरस्वती की सारस्वत भाषा
कबीर के विमर्श में अब सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और चर्चित बात भाषा के
प्रयोग की हो गई है। पहले यह बहस का मुद्दा नहीं था लेकिन अब इसी बात को
ले कर द्विज-लेखकों के सारे धनुष-बाण मेरी और तन गए हैं। ऐसा लगता है मानो
बावले गाँव में ऊँट आ बड़ा हो। इस बात से परेशानी नहीं कि विद्वान लोग ऐसा
व्यवहार क्यों कर रहे हैं लेकिन तनिक जान लिया जाए कि द्विजों ने कबीर के
बारे में किस भाषा का प्रयोग किया है। इसमें पिछली शताब्दी के महर्षि
दयानंद सरस्वती के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में कबीर के
बारे में प्रयुक्त किए गए सुभाषितों को पढ़ा जा सकता है।
‘सरस्वती’ नामधारी महर्षि दयानंद की लेखनी से कैसी भाषा निकल रही है ? शब्द उद्धृत किए जा सकते हैं—‘‘जब वह (कबीर) बड़ा हुआ तब जुलाहे का काम करता था। किसी पंडित के पास संस्कृत पढ़ने के लिए गया। उसने उसका अपमान किया। कहा कि हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कई पंडितों के पास फिरा परंतु किसी ने न पढ़ाया। तब ऊटपटांग भाषा बना कर जुलाहे आदि नीच लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता था; भजन बनाता था। विशेष। पंडित, शास्त्र, वेदों की निंदा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फँस गए। जब मर गया तब लोगों ने उसको सिद्ध बना लिया।’’ भाषा के इस प्रयोग में ऐसा माना गया है मानो कबीर किसी सम्मान के लायक न हों। इतना भी ध्यान नहीं रखा गया कि कबीर हिंदुस्तान और संसार के महान पुरुषों में गिने जाने वाले व्यक्ति हैं। कुछ भी न हो, कबीर दयानंद के देश के पूर्वज जरूर थे। विरोध करने की मनाही नहीं है लेकिन भाषा का संयम—उसके बारे में क्या कहा जाए ?
महर्षि दयानंद सरस्वती की भाषा का बचाव किया जा सकता है कि उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी—अर्थात वे हिंदी का मिजाज नहीं जानते थे। लेकिन मातृभाषा न होने पर भी वे हिंदी का इतना स्वभाव जरूर जानते थे। ‘प्रश्न’ में अच्छी हिंदी भाषा का प्रयोग किया गया है जो स्वयं उनका है। यह इस प्रकार है—‘‘कबीर साहब फूलों से उत्पन्न हुए और अंत में भी फूल हो गए। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव का जन्म जब नहीं था तब भी कबीर साहब थे। बड़े सिद्ध; ऐसे कि जिस बात को वेद-पुराण भी नहीं जान सकता उसको कबीर जानते हैं।’’2 यहाँ कबीर को सम्मानीय और बहुमानसूचक के रूप में जाना गया है। कबीर ‘कबीर साहब’ हैं और बहुवचन के रूप में उच्चारित हैं। लेकिन यह संबोधन प्रश्न तक ही सीमित है।
‘उत्तर’ में कबीर खुद नीच और मूर्ख हो जाते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती कबीर के बारे में अपना अंतिम वाक्य लिखते हैं—‘‘यह केवल लड़कों के खेल के समान लीला है।’’3 वे कबीर को ‘लड़का’ कह रहे हैं ! हिंदी के सारे विद्वान मिलकर बताएँ कि यह कबीर के बारे में कितनी सभ्य और साहित्यिक भाषा का प्रयोग है। आखिर, द्विजों के इन सरस्वती-पुत्रों से आचार-विचार का क्या सीखा जाए ? यह आँख के अंधे और नाम के नयनसुख बाली बात ही हुई।
क्या महर्षि दयानंद सरस्वती ने अन्य निर्गुणी संतों के साथ भी इसी भाषा का प्रयोग किया है। कबीर के प्रशंसक नानक के बारे में उन्होंने दूसरी भाषा का प्रयोग किया है। इसके कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं :
1. नानक जी का आशय तो अच्छा था परंतु विद्या कुछ भी नहीं थी।4
2. क्या....नानक जी आदि अपने को अमर समझते थे।5
3. ...जो नानक जी वेदों का ही मान करते तो उनका संप्रदाय न चलता।6
4. यह सच है कि जिस समय नानक जी पंजाब में हुए थे उस समय पंजाब संस्कृत विद्या से सर्वथा रहित मुसलमानों से पीड़ित था।7
5. नानक जी के सामने कुछ उनका संप्रदाय वा बहुत से शिष्य नहीं हुए थे।8
6. इसमें इनके चेलों का दोष है, नानक जी का नहीं।9
7. नहीं जो नानक जी ने कुछ भक्ति विशेष ईश्वर को लिखी थी उसे करते आते तो अच्छा था।10
महर्षि दयानंद सरस्वती ने नानक की परंपरा में गुरु गोविंद सिंह को भी इसी संबोधन से संबोधित किया है। इसके भी उदाहरण दिए जा सकते हैं :
1. अर्थात् इनका गुरु गोविंद सिंह जी दशमा हुआ।11
2. इनमें गोविंद सिंह जी शूरवीर हुए।12
3. इसलिए यह रीति गोविंद सिंह जी ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिए की थी।13
यह अच्छा हुआ कि महर्षि दयानंद सरस्वती ने नानक और गुरु गोविंद सिंह के नामों के साथ आदर सूचक ‘जी’ शब्द का प्रयोग किया है। इससे यह पता चलता है कि वे हिंदी में ‘जी’ शब्द के अर्थ को भलीभाँति जानते थे और उसका प्रयोग भी करते थे। फिर ऐसा क्यों हुआ कि ‘कबीर’ के साथ उन्होंने इस शब्द का प्रयोग नहीं किया ? जहाँ तक वेद की बात है तो कबीर की तरह ही उनकी प्रशंसा नानक ने भी नहीं की है। स्वयं महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में नानक के इन शब्दों को उद्धृत किया है :
वेद पढ़त ब्रह्मा मरे चारों वेद कहानि।
संत कि महिमा वेद न जी।
ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर।14
मैंने अपनी पी.एच.डी. के लिए शोधकार्य किया था। वह वाइवा का दिन था। मेरे शोध-कार्य की भाषा के बारे में मेरे परीक्षकों ने अपने नोट बना रखे थे। उन्होंने मुझे बताया कि ‘शंकर कहता है’, ‘बुद्धू कहता है’, ‘गाँधी कहता है’ जैसे प्रयोग हिंदी भाषा की दृष्टि से उचित नहीं है। उन्होंने मुझे समझाया कि ‘शंकर कहते हैं’, ‘बुद्धू कहते हैं’, ‘गाँधी कहते हैं’ प्रयोग ही किए जाने चाहिए। उन्होंने मुझे सलाह दी कि पुस्तक के छपते समय इस बात का ख्याल रखा जाए। मैंने उनकी बात मान ली कि पुस्तक को छपवाते समय भाषा बदल दूँगा। मैंने उन्हें यह भी बताया कि मैंने ‘शंकर कहता है’ आदि क्यों लिखा था। मेरे स्पष्टीकरण से वे पूरी तरह सहमत थे। लेकिन अब राममूर्ति त्रिपाठी के बारे में क्या कहा जाए जो सन् 2001 के अपने लेख ‘कबीर और विपक्षी मुद्दे’ में लिखते हैं—‘‘सात्वतवंशियों के पुरोहित मधुबन में तरोरत शांडिल्य इसके आचार्य हैं इसे नारदी भक्ति भी कहा जाता है। कबीर कहता है—‘‘भगति नारदी मगन सरीरा। इहि विधि भव तरि कहै कबीरा।’’15
माना जा सकता था कि शायद राममूर्ति त्रिपाठी से भूल हो गई होगी या यह मुद्रण की त्रुटि छूट गई होगी, लेकिन वे अपने इस लघुलेख में आगे भी ऐसा ही लिखते हैं—‘‘जो कबीर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी कुछ नहीं समझता-उसे दलित चेतना की ग्रंथि है ?’’16 क्या इन्हें समझाने वाले आज तक ऐसे कोई परीक्षक नहीं मिले कि ‘कबीर कहते हैं,’ और ‘जो कबीर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी कुछ नहीं समझते’ लिखा जाना चाहिए ? कैसा लगेगा जब कोई दलित चिंतक लिखेगा—‘तुलसी कहता है’, ‘सूर कहता है’, ‘रामचंद्र शुक्ल कहता है’, ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी कहता है’ और ‘राममूर्ति त्रिपाठी..’..?
द्विज लेखकों की भाषा बिलकुल बिगड़ चुकी है। वे भाषा और साहित्य के रखेरे बनते हैं लेकिन उनमें साहित्यिकता नाम की कोई चीज़ बाकी नहीं रह गई है। राममूर्ति त्रिपाठी अपने इसी लेख में कबीर के दर्शन में भौतिकवाद देखने वालों का विरोध करते हुए लिखते हैं—‘आध्यात्मवादी अन्यायी शहजोर और सदाचारी कमजोर में कमजोर के लिए पक्ष का समर्थन करता है। इसमें भौतिकवाद को घुसेड़ने की क्या पड़ी है ?’’17 जाने ‘घुसेड़ने’ शब्द का प्रयोग यहाँ किसको साहित्यिक और अच्छा लगेगा ?
डॉ. वासुदेव सिंह ने भी अपने लेख ‘भारतीय चिन्तन और कबीर’ में भाषा के इस प्रश्न को उठाया है। वे मेरे विरोध में लिखते हैं—‘‘...भाषा अत्यन्त कटु हो गई है और विचार असंतुलित हो गए हैं। वस्तुतः शालीनता समीक्षा का अनिवार्य गुण है जिसका यहाँ सर्वथा अभाव दिखाई पड़ता है।’’18 आरोप लगाने की इस परबी पर डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल भी गंगा में गोते लगाने नहीं भूलते। वे भी इस पक्ष को लेकर मेरे खिलाफ अपना हाथ साफ करते हैं। वे लिखते हैं—‘‘धर्मवीर इसीलिए आचार्य द्विवेदी पर चौतरफा हमला बोलते हैं। शालीन-अशालीन का विवेक सजग रूप से त्यागते हुए।’’19 ये वे ही डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं जो मेरे खिलाफ लिख चुके हैं—‘‘हर ब्राह्मण ब्राह्मणवादी ही है—ऐसा मानना अमिश्रित मूर्खता के अलावा कुछ नहीं....।’’20
साहित्य में भद्र भाषा के प्रयोग का मुद्दा अब हिंदी में सर्वत्र उठ गया है। कुमार पंकज, राम स्वरूप चतुर्वेदी के पक्ष में डॉ. नामवर सिंह का विरोध करते हुए अपने लेख, ‘‘यहाँ से कबीर को देखिए’ बनाम ‘कबीर को भगवा ?’’ में लिखते हैं—‘‘नामवर जी को सर्वाधिक आपत्ति है ‘तातैं हिंदू रहिए’ की चतुर्वेदी जी की व्याख्या से। उनके अनुसार चतुर्वेदी जी ने अर्थ का अनर्थ कर दिया है थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि चतुर्वेदी जी की व्याख्या गलत है तो क्या उनकी भर्त्सना के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल नामवर जी ने किया है, वह श्लाघनीय है ?’’21 एक उदाहरण देते हुए कुमार पंकज पूछते हैं—‘‘क्या नामवर जी ऐसी ही गलतियों के लिए उसी भाषा का प्रयोग अपने गुरु के लिए करेंगे, जो उन्होंने चतुर्वेदी जी के लिए की है ?’’22 जगद्गुरु बनवाने की कैसी ख्वाहिश है कि सोच का पारावार नहीं है ! खुद ही समझ रहे हैं कि ‘उम्र के इस पड़ाव पर नामवर जी अब क्या ‘खाक मुसलमाँ’ होंगे।’23 लेकिन खुद ही अपेक्षा रख रहे हैं कि डॉ. नामवर सिंह रामस्वरूप चतुर्वेदी को अपना गुरु माने। हे भगवान, लेखक न हो गए, साहित्य के हर चौराहे पर ये घमंड के बुत खड़े हो गए हैं !
पता चला है कि डॉ. नामवर सिंह के 75 वें जन्म दिवस के अवसर पर नई दिल्ली में बोलते हुए डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने आपत्ति उठाई थी कि डॉ. धर्मवीर ने अपनी पुस्तक में कैसी भाषा का प्रयोग किया है। उन्होंने मेरे शब्द उद्धृत किए थे—‘‘कबीर के गुरु मक्खी और मच्छर हो सकते थे, कबीर के गुरु कुत्ते और बिल्ली हो सकते थे लेकिन रामानंद ब्राह्मण उनके गुरु कभी नहीं हो सकते थे।’’24 लेकिन सच्चाई यह है कि दलित चिंत रामानंद को अपनी तरफ से कुछ नहीं कहने जा रहा है—यह काम उल्टे द्विज विद्वानों ने किया है कि रामानंद को कबीर का गुरु कहा है। यदि द्विज विद्वान यह कहना छोड़ दें कि रामानंद कबीर के गुरु थे तो दलित चिंतक इस मुद्दे को बिलकुल नहीं उठाएँगे। तब उन्हें यह कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि कबीर के गुरु रामानंद नहीं थे। झगड़ा खुद द्विज विद्वानों द्वारा उठाया जाता है लेकिन जब दलितों की तरफ से उसका माकूल खण्डन सामने आता है तो तब उन्हें बुरा लगने लगता है। उन्होंने लड़ाई गलत शुरू कर रखी है। इनके कुरुक्षेत्र के नियम ही गलत हैं। कबीर को नाले का पानी कह दिया और रामानंद को गंगाजल बता दिया।25 इनके यहाँ रामानंद ब्राह्मण हैं और कबीर कमीनी जाति के ‘बंदे’ हैं।26 कबीर कीट हैं और रामानंद भ्रमरी हैं !27 जरूरत यह है कि डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल उस भाषा को खोज कर लाएँ जिसमें इन कथनों का सटीक प्रत्युत्तर दिया जा सके। आखिर, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी परंपराओं, प्रसिद्धियों और किवंदंतियों को आधार बनाकर क्यों कहते हैं कि कबीर के गुरु रामानंद थे ? उनमें ताकत है तो इतिहास के आधार पर सिद्ध करके बेझिझक कहें कि कबीर के गुरु रामानंद थे। जो कौम तीन हजार साल के पुराने अपने वेदों को बिना मात्रा और वर्ण बढ़ाए या घटाए कंठस्थ रखती है वह कौम कुल पाँच सौ वर्षों के पहले कबीर के समय को परंपरा, प्रसिद्धि और किंवदंती के अंधेरे में क्यों झोंक देती है ?
कोई तरीका निकाला जाए कि झूठ पर रोक लगे—साहित्य में भी। झूठ ने आज तक कला से लेकर साहित्य तक में किसी का भला नहीं किया। आखिर, द्विजों का या किसी भी साहित्य सच पर आधारित क्यों नहीं हो सकता ? इसमें बुराई क्या है ? समीक्षा में साहित्य की प्रशंसा की जानी चाहिए, झूठ की नहीं। झूठ को साहित्य से अलग निकाल कर साहित्य की रक्षा की जानी चाहिए। इसलिए दलित, चिंतन साहित्य और कला के खिलाफ नहीं है बल्कि इनमें छिपे झूठ के खिलाफ है। झूठ को साहित्य और कला का लबादा कैसे ओढ़ने दिया जाएगा ? साहित्य और कला जीवन की ऊँची चीजें हैं जबकि झूठ इन्हें नीचे गिराता है। दुर्भाग्य से, द्विज लेखकों ने साहित्य को झूठ बोलने का परिरक्षित क्षेत्र बना दिया है। कबीर से लेकर आज तक दलित साहित्य झूठ के इस किले को सच की तोपों से तोड़ने में लगा हुआ है। आश्चर्य की बात है कि द्विज लेखकों को यह बात समझनी मुश्किल हो रही है कि साहित्य में सच भी लिखा जा सकता है।
बहस फिर उसी जगह लाई जाए कि महर्षि दयानंद सरस्वती अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में अन्यत्र लिखते हैं—‘‘अब दूसरी इनकी शाखा ‘खेड़ाया’ ग्राम मारवाड़ देश से चली है। उसका इतिहास—एक राम दास नामक जाति का ढेढ़ बड़ा चालाक था। उसकी दो स्त्रियाँ थीं। वह प्रथम बहुत दिन तक औंधा हो कर कुत्तों के साथ खाता रहा। पीछे वामी कूण्डापंथी। पीछे ‘रामदेव’ का कामड़िया बना। अपनी दोनों स्त्रियों के साथ गाता था। ऐसे घूमता-घूमता ‘सीथल’ में ढेढ़ों का गुरु ‘रामदास’ था; उससे मिला।’’28 शब्द ‘कामड़िया’ की टिप्पणी भाग में व्याख्या की गई है—‘‘राजपूताने में ‘चमार’ लोग भगवे वस्त्र रंग कर ‘रामदेव’ आदि के गीत, जिनको वे ‘शब्द’ कहते हैं, चमारों और अन्य जातियों को सुनाते हैं। वे ‘कामड़िये’ कहलाते हैं।’’29 पूछा जाए कि क्या यह अपने विरोधियों के बारे में बहुत अच्छी भाषा का प्रयोग है। क्या यहाँ भाषा के फूल बरस रहे हैं ? ऐसी भाषा के प्रयोग से क्या खुद ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की गरिमा नीचे नहीं गिरती ? लेकिन जड़ क्या है ? इन लोगों के बारे में ऐसी भाषा का प्रयोग वे क्यों कर रहे हैं ? उत्तर इस जानने में है कि महर्षि दयानंद सरस्वती ने इस मत के लोगों की दूसरी कमियाँ गिनाई हैं—‘‘इन सब में ऊपर के रामचरण के वचनों के प्रमाण से चेला करके ऊँच नीच का कुछ भेद नहीं। ब्राह्मण से अन्त्यज पर्यंत इन में चेले बनते हैं।....वर्णाश्रम को नहीं मानते। जो ब्राह्मण रामस्नेही न हो तो उसको नीच और चाण्डाल रामस्नेही हो तो उसको उत्तम जानते हैं।’’30 इनके हिसाब से यही मूल बुराई है। यहीं बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर वाले संविधान का कुरुक्षेत्र चल रहा है कि सारे मनुष्य समान हैं। द्विजों को यह बात समझने में जाने कितने हजार वर्ष लगेंगे ? समानता की बात सामने आते ही उनकी भाषा बिगड़ जाती है। तब उनका हर संयम बर्बाद और उन के हर संतुलन का खून हो जाता है। समाधि में विघ्न पैदा हो जाते हैं।
‘सरस्वती’ नामधारी महर्षि दयानंद की लेखनी से कैसी भाषा निकल रही है ? शब्द उद्धृत किए जा सकते हैं—‘‘जब वह (कबीर) बड़ा हुआ तब जुलाहे का काम करता था। किसी पंडित के पास संस्कृत पढ़ने के लिए गया। उसने उसका अपमान किया। कहा कि हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कई पंडितों के पास फिरा परंतु किसी ने न पढ़ाया। तब ऊटपटांग भाषा बना कर जुलाहे आदि नीच लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता था; भजन बनाता था। विशेष। पंडित, शास्त्र, वेदों की निंदा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फँस गए। जब मर गया तब लोगों ने उसको सिद्ध बना लिया।’’ भाषा के इस प्रयोग में ऐसा माना गया है मानो कबीर किसी सम्मान के लायक न हों। इतना भी ध्यान नहीं रखा गया कि कबीर हिंदुस्तान और संसार के महान पुरुषों में गिने जाने वाले व्यक्ति हैं। कुछ भी न हो, कबीर दयानंद के देश के पूर्वज जरूर थे। विरोध करने की मनाही नहीं है लेकिन भाषा का संयम—उसके बारे में क्या कहा जाए ?
महर्षि दयानंद सरस्वती की भाषा का बचाव किया जा सकता है कि उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी—अर्थात वे हिंदी का मिजाज नहीं जानते थे। लेकिन मातृभाषा न होने पर भी वे हिंदी का इतना स्वभाव जरूर जानते थे। ‘प्रश्न’ में अच्छी हिंदी भाषा का प्रयोग किया गया है जो स्वयं उनका है। यह इस प्रकार है—‘‘कबीर साहब फूलों से उत्पन्न हुए और अंत में भी फूल हो गए। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव का जन्म जब नहीं था तब भी कबीर साहब थे। बड़े सिद्ध; ऐसे कि जिस बात को वेद-पुराण भी नहीं जान सकता उसको कबीर जानते हैं।’’2 यहाँ कबीर को सम्मानीय और बहुमानसूचक के रूप में जाना गया है। कबीर ‘कबीर साहब’ हैं और बहुवचन के रूप में उच्चारित हैं। लेकिन यह संबोधन प्रश्न तक ही सीमित है।
‘उत्तर’ में कबीर खुद नीच और मूर्ख हो जाते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती कबीर के बारे में अपना अंतिम वाक्य लिखते हैं—‘‘यह केवल लड़कों के खेल के समान लीला है।’’3 वे कबीर को ‘लड़का’ कह रहे हैं ! हिंदी के सारे विद्वान मिलकर बताएँ कि यह कबीर के बारे में कितनी सभ्य और साहित्यिक भाषा का प्रयोग है। आखिर, द्विजों के इन सरस्वती-पुत्रों से आचार-विचार का क्या सीखा जाए ? यह आँख के अंधे और नाम के नयनसुख बाली बात ही हुई।
क्या महर्षि दयानंद सरस्वती ने अन्य निर्गुणी संतों के साथ भी इसी भाषा का प्रयोग किया है। कबीर के प्रशंसक नानक के बारे में उन्होंने दूसरी भाषा का प्रयोग किया है। इसके कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं :
1. नानक जी का आशय तो अच्छा था परंतु विद्या कुछ भी नहीं थी।4
2. क्या....नानक जी आदि अपने को अमर समझते थे।5
3. ...जो नानक जी वेदों का ही मान करते तो उनका संप्रदाय न चलता।6
4. यह सच है कि जिस समय नानक जी पंजाब में हुए थे उस समय पंजाब संस्कृत विद्या से सर्वथा रहित मुसलमानों से पीड़ित था।7
5. नानक जी के सामने कुछ उनका संप्रदाय वा बहुत से शिष्य नहीं हुए थे।8
6. इसमें इनके चेलों का दोष है, नानक जी का नहीं।9
7. नहीं जो नानक जी ने कुछ भक्ति विशेष ईश्वर को लिखी थी उसे करते आते तो अच्छा था।10
महर्षि दयानंद सरस्वती ने नानक की परंपरा में गुरु गोविंद सिंह को भी इसी संबोधन से संबोधित किया है। इसके भी उदाहरण दिए जा सकते हैं :
1. अर्थात् इनका गुरु गोविंद सिंह जी दशमा हुआ।11
2. इनमें गोविंद सिंह जी शूरवीर हुए।12
3. इसलिए यह रीति गोविंद सिंह जी ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिए की थी।13
यह अच्छा हुआ कि महर्षि दयानंद सरस्वती ने नानक और गुरु गोविंद सिंह के नामों के साथ आदर सूचक ‘जी’ शब्द का प्रयोग किया है। इससे यह पता चलता है कि वे हिंदी में ‘जी’ शब्द के अर्थ को भलीभाँति जानते थे और उसका प्रयोग भी करते थे। फिर ऐसा क्यों हुआ कि ‘कबीर’ के साथ उन्होंने इस शब्द का प्रयोग नहीं किया ? जहाँ तक वेद की बात है तो कबीर की तरह ही उनकी प्रशंसा नानक ने भी नहीं की है। स्वयं महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में नानक के इन शब्दों को उद्धृत किया है :
वेद पढ़त ब्रह्मा मरे चारों वेद कहानि।
संत कि महिमा वेद न जी।
ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर।14
मैंने अपनी पी.एच.डी. के लिए शोधकार्य किया था। वह वाइवा का दिन था। मेरे शोध-कार्य की भाषा के बारे में मेरे परीक्षकों ने अपने नोट बना रखे थे। उन्होंने मुझे बताया कि ‘शंकर कहता है’, ‘बुद्धू कहता है’, ‘गाँधी कहता है’ जैसे प्रयोग हिंदी भाषा की दृष्टि से उचित नहीं है। उन्होंने मुझे समझाया कि ‘शंकर कहते हैं’, ‘बुद्धू कहते हैं’, ‘गाँधी कहते हैं’ प्रयोग ही किए जाने चाहिए। उन्होंने मुझे सलाह दी कि पुस्तक के छपते समय इस बात का ख्याल रखा जाए। मैंने उनकी बात मान ली कि पुस्तक को छपवाते समय भाषा बदल दूँगा। मैंने उन्हें यह भी बताया कि मैंने ‘शंकर कहता है’ आदि क्यों लिखा था। मेरे स्पष्टीकरण से वे पूरी तरह सहमत थे। लेकिन अब राममूर्ति त्रिपाठी के बारे में क्या कहा जाए जो सन् 2001 के अपने लेख ‘कबीर और विपक्षी मुद्दे’ में लिखते हैं—‘‘सात्वतवंशियों के पुरोहित मधुबन में तरोरत शांडिल्य इसके आचार्य हैं इसे नारदी भक्ति भी कहा जाता है। कबीर कहता है—‘‘भगति नारदी मगन सरीरा। इहि विधि भव तरि कहै कबीरा।’’15
माना जा सकता था कि शायद राममूर्ति त्रिपाठी से भूल हो गई होगी या यह मुद्रण की त्रुटि छूट गई होगी, लेकिन वे अपने इस लघुलेख में आगे भी ऐसा ही लिखते हैं—‘‘जो कबीर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी कुछ नहीं समझता-उसे दलित चेतना की ग्रंथि है ?’’16 क्या इन्हें समझाने वाले आज तक ऐसे कोई परीक्षक नहीं मिले कि ‘कबीर कहते हैं,’ और ‘जो कबीर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी कुछ नहीं समझते’ लिखा जाना चाहिए ? कैसा लगेगा जब कोई दलित चिंतक लिखेगा—‘तुलसी कहता है’, ‘सूर कहता है’, ‘रामचंद्र शुक्ल कहता है’, ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी कहता है’ और ‘राममूर्ति त्रिपाठी..’..?
द्विज लेखकों की भाषा बिलकुल बिगड़ चुकी है। वे भाषा और साहित्य के रखेरे बनते हैं लेकिन उनमें साहित्यिकता नाम की कोई चीज़ बाकी नहीं रह गई है। राममूर्ति त्रिपाठी अपने इसी लेख में कबीर के दर्शन में भौतिकवाद देखने वालों का विरोध करते हुए लिखते हैं—‘आध्यात्मवादी अन्यायी शहजोर और सदाचारी कमजोर में कमजोर के लिए पक्ष का समर्थन करता है। इसमें भौतिकवाद को घुसेड़ने की क्या पड़ी है ?’’17 जाने ‘घुसेड़ने’ शब्द का प्रयोग यहाँ किसको साहित्यिक और अच्छा लगेगा ?
डॉ. वासुदेव सिंह ने भी अपने लेख ‘भारतीय चिन्तन और कबीर’ में भाषा के इस प्रश्न को उठाया है। वे मेरे विरोध में लिखते हैं—‘‘...भाषा अत्यन्त कटु हो गई है और विचार असंतुलित हो गए हैं। वस्तुतः शालीनता समीक्षा का अनिवार्य गुण है जिसका यहाँ सर्वथा अभाव दिखाई पड़ता है।’’18 आरोप लगाने की इस परबी पर डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल भी गंगा में गोते लगाने नहीं भूलते। वे भी इस पक्ष को लेकर मेरे खिलाफ अपना हाथ साफ करते हैं। वे लिखते हैं—‘‘धर्मवीर इसीलिए आचार्य द्विवेदी पर चौतरफा हमला बोलते हैं। शालीन-अशालीन का विवेक सजग रूप से त्यागते हुए।’’19 ये वे ही डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं जो मेरे खिलाफ लिख चुके हैं—‘‘हर ब्राह्मण ब्राह्मणवादी ही है—ऐसा मानना अमिश्रित मूर्खता के अलावा कुछ नहीं....।’’20
साहित्य में भद्र भाषा के प्रयोग का मुद्दा अब हिंदी में सर्वत्र उठ गया है। कुमार पंकज, राम स्वरूप चतुर्वेदी के पक्ष में डॉ. नामवर सिंह का विरोध करते हुए अपने लेख, ‘‘यहाँ से कबीर को देखिए’ बनाम ‘कबीर को भगवा ?’’ में लिखते हैं—‘‘नामवर जी को सर्वाधिक आपत्ति है ‘तातैं हिंदू रहिए’ की चतुर्वेदी जी की व्याख्या से। उनके अनुसार चतुर्वेदी जी ने अर्थ का अनर्थ कर दिया है थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि चतुर्वेदी जी की व्याख्या गलत है तो क्या उनकी भर्त्सना के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल नामवर जी ने किया है, वह श्लाघनीय है ?’’21 एक उदाहरण देते हुए कुमार पंकज पूछते हैं—‘‘क्या नामवर जी ऐसी ही गलतियों के लिए उसी भाषा का प्रयोग अपने गुरु के लिए करेंगे, जो उन्होंने चतुर्वेदी जी के लिए की है ?’’22 जगद्गुरु बनवाने की कैसी ख्वाहिश है कि सोच का पारावार नहीं है ! खुद ही समझ रहे हैं कि ‘उम्र के इस पड़ाव पर नामवर जी अब क्या ‘खाक मुसलमाँ’ होंगे।’23 लेकिन खुद ही अपेक्षा रख रहे हैं कि डॉ. नामवर सिंह रामस्वरूप चतुर्वेदी को अपना गुरु माने। हे भगवान, लेखक न हो गए, साहित्य के हर चौराहे पर ये घमंड के बुत खड़े हो गए हैं !
पता चला है कि डॉ. नामवर सिंह के 75 वें जन्म दिवस के अवसर पर नई दिल्ली में बोलते हुए डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने आपत्ति उठाई थी कि डॉ. धर्मवीर ने अपनी पुस्तक में कैसी भाषा का प्रयोग किया है। उन्होंने मेरे शब्द उद्धृत किए थे—‘‘कबीर के गुरु मक्खी और मच्छर हो सकते थे, कबीर के गुरु कुत्ते और बिल्ली हो सकते थे लेकिन रामानंद ब्राह्मण उनके गुरु कभी नहीं हो सकते थे।’’24 लेकिन सच्चाई यह है कि दलित चिंत रामानंद को अपनी तरफ से कुछ नहीं कहने जा रहा है—यह काम उल्टे द्विज विद्वानों ने किया है कि रामानंद को कबीर का गुरु कहा है। यदि द्विज विद्वान यह कहना छोड़ दें कि रामानंद कबीर के गुरु थे तो दलित चिंतक इस मुद्दे को बिलकुल नहीं उठाएँगे। तब उन्हें यह कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि कबीर के गुरु रामानंद नहीं थे। झगड़ा खुद द्विज विद्वानों द्वारा उठाया जाता है लेकिन जब दलितों की तरफ से उसका माकूल खण्डन सामने आता है तो तब उन्हें बुरा लगने लगता है। उन्होंने लड़ाई गलत शुरू कर रखी है। इनके कुरुक्षेत्र के नियम ही गलत हैं। कबीर को नाले का पानी कह दिया और रामानंद को गंगाजल बता दिया।25 इनके यहाँ रामानंद ब्राह्मण हैं और कबीर कमीनी जाति के ‘बंदे’ हैं।26 कबीर कीट हैं और रामानंद भ्रमरी हैं !27 जरूरत यह है कि डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल उस भाषा को खोज कर लाएँ जिसमें इन कथनों का सटीक प्रत्युत्तर दिया जा सके। आखिर, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी परंपराओं, प्रसिद्धियों और किवंदंतियों को आधार बनाकर क्यों कहते हैं कि कबीर के गुरु रामानंद थे ? उनमें ताकत है तो इतिहास के आधार पर सिद्ध करके बेझिझक कहें कि कबीर के गुरु रामानंद थे। जो कौम तीन हजार साल के पुराने अपने वेदों को बिना मात्रा और वर्ण बढ़ाए या घटाए कंठस्थ रखती है वह कौम कुल पाँच सौ वर्षों के पहले कबीर के समय को परंपरा, प्रसिद्धि और किंवदंती के अंधेरे में क्यों झोंक देती है ?
कोई तरीका निकाला जाए कि झूठ पर रोक लगे—साहित्य में भी। झूठ ने आज तक कला से लेकर साहित्य तक में किसी का भला नहीं किया। आखिर, द्विजों का या किसी भी साहित्य सच पर आधारित क्यों नहीं हो सकता ? इसमें बुराई क्या है ? समीक्षा में साहित्य की प्रशंसा की जानी चाहिए, झूठ की नहीं। झूठ को साहित्य से अलग निकाल कर साहित्य की रक्षा की जानी चाहिए। इसलिए दलित, चिंतन साहित्य और कला के खिलाफ नहीं है बल्कि इनमें छिपे झूठ के खिलाफ है। झूठ को साहित्य और कला का लबादा कैसे ओढ़ने दिया जाएगा ? साहित्य और कला जीवन की ऊँची चीजें हैं जबकि झूठ इन्हें नीचे गिराता है। दुर्भाग्य से, द्विज लेखकों ने साहित्य को झूठ बोलने का परिरक्षित क्षेत्र बना दिया है। कबीर से लेकर आज तक दलित साहित्य झूठ के इस किले को सच की तोपों से तोड़ने में लगा हुआ है। आश्चर्य की बात है कि द्विज लेखकों को यह बात समझनी मुश्किल हो रही है कि साहित्य में सच भी लिखा जा सकता है।
बहस फिर उसी जगह लाई जाए कि महर्षि दयानंद सरस्वती अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में अन्यत्र लिखते हैं—‘‘अब दूसरी इनकी शाखा ‘खेड़ाया’ ग्राम मारवाड़ देश से चली है। उसका इतिहास—एक राम दास नामक जाति का ढेढ़ बड़ा चालाक था। उसकी दो स्त्रियाँ थीं। वह प्रथम बहुत दिन तक औंधा हो कर कुत्तों के साथ खाता रहा। पीछे वामी कूण्डापंथी। पीछे ‘रामदेव’ का कामड़िया बना। अपनी दोनों स्त्रियों के साथ गाता था। ऐसे घूमता-घूमता ‘सीथल’ में ढेढ़ों का गुरु ‘रामदास’ था; उससे मिला।’’28 शब्द ‘कामड़िया’ की टिप्पणी भाग में व्याख्या की गई है—‘‘राजपूताने में ‘चमार’ लोग भगवे वस्त्र रंग कर ‘रामदेव’ आदि के गीत, जिनको वे ‘शब्द’ कहते हैं, चमारों और अन्य जातियों को सुनाते हैं। वे ‘कामड़िये’ कहलाते हैं।’’29 पूछा जाए कि क्या यह अपने विरोधियों के बारे में बहुत अच्छी भाषा का प्रयोग है। क्या यहाँ भाषा के फूल बरस रहे हैं ? ऐसी भाषा के प्रयोग से क्या खुद ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की गरिमा नीचे नहीं गिरती ? लेकिन जड़ क्या है ? इन लोगों के बारे में ऐसी भाषा का प्रयोग वे क्यों कर रहे हैं ? उत्तर इस जानने में है कि महर्षि दयानंद सरस्वती ने इस मत के लोगों की दूसरी कमियाँ गिनाई हैं—‘‘इन सब में ऊपर के रामचरण के वचनों के प्रमाण से चेला करके ऊँच नीच का कुछ भेद नहीं। ब्राह्मण से अन्त्यज पर्यंत इन में चेले बनते हैं।....वर्णाश्रम को नहीं मानते। जो ब्राह्मण रामस्नेही न हो तो उसको नीच और चाण्डाल रामस्नेही हो तो उसको उत्तम जानते हैं।’’30 इनके हिसाब से यही मूल बुराई है। यहीं बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर वाले संविधान का कुरुक्षेत्र चल रहा है कि सारे मनुष्य समान हैं। द्विजों को यह बात समझने में जाने कितने हजार वर्ष लगेंगे ? समानता की बात सामने आते ही उनकी भाषा बिगड़ जाती है। तब उनका हर संयम बर्बाद और उन के हर संतुलन का खून हो जाता है। समाधि में विघ्न पैदा हो जाते हैं।
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