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खुले पैरों की बेड़ियाँ

ज्ञानसिंह मान

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2905
आईएसबीएन :81-7055-922-7

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यह कृति आज की संवेदनशील युवा पीढ़ी को धुँधले क्षितिज से परे एक निश्चित सुनहरी मोर की दीप्ति के प्रति आशान्वित करती है, अस्तु...

Khuley Pairo Ki Be.

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वातंत्र्योत्तर देश के व्यापक जन-जीवन में भ्रष्टाचार का कैंसर कई रूपों में बे-रोक-टोक फैलता चला गया है। इसके विषैले एवं घातक कीटाणु परंपरागत उदात्त संस्कारों को दीमक की तरह चाटते जा रहे हैं। राजनेताओं की स्वार्थपरता, परिवार-केन्द्रिता तथा कुबेर-वृत्ति ने मानवीय संवेदना, त्याग, लोकहितकारिता तथा अखंड राष्ट्रीय भावना जैसे श्रेष्ठ मूल्यों को सत्ताधारी दरबार में सारहीन बना दिया है। राजनैतिक धार्मिक सामाजिक तथा सांप्रदायिक परिवेश में व्याप्त इस संक्रामक रोग को,  स्वतंत्रता संग्राम की तरह चुनौती देने को तत्पर युवा पीढ़ी के आक्रोश और मोहभंग का यथार्थ चित्रांकन करती यह रचना पिछले पचास वर्षों का सम्पूर्ण युगदंश अपने प्रसार में समेटे हुए हैं। भ्रष्टाचार से आक्रांत लोक जीवन को राहत कैसे मिलेगी ? निरीह जनता को राजनैतिक गदले भंवर-जाल से कौन मुक्ति दिलाएगा ? स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रणाली की जड़ों को खोखला करने वाले असामाजिक तत्त्वों का अंत कैसे होगा ?
ऐसे असंख्य ज्वलंत प्रश्नों का मंथन करती यह कृति आज की संवेदनशील युवा पीढ़ी को धुँधले क्षितिज से परे एक निश्चित सुनहरी मोर की दीप्ति के प्रति आशान्वित भी करती है,  अस्तु

पहला अध्याय


भष्टाचार की दीमक देश को खाये जा रही थी। इस बीमारी के प्रति सभी चिन्तित थे। एकान्त क्षणों में सपना और समीर भी इस सम्बन्ध में विचार-विनिमय करते रहते थे। सोचते-सोचते सपना को न जाने क्या होने लगता है ?
विस्मृति के वैसे ही क्षण उसे पुनः बाँध लेते हैं लगता है सब कुछ ठहर-सा गया है। अपनत्व का अहसास मात्र साँसों तक ही सिमट गया है। ऐसे में चारों ओर फैली विचित्र सी रिक्तता उसे कचोटने लगती है। सब कुछ बस पूर्ववत-सिर्फ चलता सा प्रतीत होता है। अनुभव होता है, कहीं कुछ भी बनता मिटता नहीं है। कोई क्रिया, धड़कन सा परिवर्तन नहीं है। है तो केवल अस्तित्व के नाम पर एक संज्ञाहीन सी स्थिति, निजता को खलता खालीपन-जैसे कोरा नीलगगन। क्षितिज के आर-पार उचकती एक शून्य दृष्टि, श्वासों- प्रश्वासों से लयबद्ध उभरे वक्ष का प्रकम्पन्न-और एक न समाप्त होने वाला अन्तराल।

सपना ने एक गहन एवं अर्थपूर्ण दृष्टि से उजले आकाश की ओर देखा और दीर्घ साँस ली। उसे लगा, एक आत्मीय एवं स्नेही हृदय से सम्पर्क होते हुए भी वह विशालकाय सागर में लघु तिनके सी निराधार बहती जा रही है। कहाँ, किस ओर- ? वह नहीं जानती। अन्नत लहरों की तरह शायद उसकी अपनी भावनाओं का भी कोई लक्ष्य नहीं है, कोई किनारा नहीं है। अन्तर्मन में जो संवेदना या पीड़ा है, उसका कही कोई बाह्य साक्षी नहीं है। न चाहते हुए भी वह कभी-कभी समीर को खुश करने के लिए पश्चिमी ढंग की ‘जींस’ पहन लेती थी। उस दिन भी वह कुछ वैसा ही पहने हुए थी। सम्भवतः समीर को आकर्षित करने के लिए या फिर स्वयं को ‘माडर्न’ भाव के निकट लाने के लिए-वह तय नहीं कर पाई। कुछ भी हो, उसे बाह्य कृत्रिमता से मोह नहीं था। ऐसी वेश-भूषा भी किस काम की जिससे अपना शरीर ही बन्दी सा बन जाये। न हिलने-डुलने की जगह न पसरने की-बस एक अजीब सी कसावट और रुकती साँसें।

 उसने ‘जींस’ की कसावट में सिमटे शरीर को फैलाने का प्रयास किया। नीचे गीली रेत थी, ऊपर उन्मुक्त गगन में प्रभामयी तारिकाएँ विचित्र आँख मिचौली खेल रही थी। गीली रेत का भीगापन ‘जींस’ के भीतर तक फैल रहा था। बड़ी अद्भुत स्थित थी, अपना शरीर ही उसे पराया सा लगने लगा था। करवट लेकर उसने समीर की ओर देखा, दोनों के शरीर अब बहुत निकट थे। समीर भी गीली पलकों से आकाश की शून्यता में कुछ ढूँढ़ने का प्रयास कर रहा था। तनिक दूरी पर गंगा का उन्मुक्त प्रवाह अबाध गति से गहरे मौन में निरन्तरता का आभास भरता जा रहा था। पावन घाट पर असंख्य तीर्थ यात्रियों के बीच कोलाहल का समागम रचाती, गंगा की लहरें इस ठौर पर अपने सहज प्रवाह में प्रशान्त बह रही थीं। कभी-कभी पर्वतीय पवन से उद्वेलित चंचल लहरों का विस्मृत फेनिल उच्छ्वास सपना और समीर के शरीरों को भी गुदगुदा जाता था। एक धीमी संगीत लहरी, ढलती साँस के थके नूपुरों में लयबद्ध झंकार भरती जा रही थी। तनिक दूरी पर गंगा की भँवरगत लहरें नन्हें पत्थरों की परिक्रमा करती, सूर्य की विश्रान्त लालिमा से नन्हें माणक-मूंगें समेटती जा रही थीं। प्रकृति की पावन वन्दना में धरती-आकाश मानों स्वर्णिम सूत्रों में बंधते जा रहे थे।

सपना की गहन तंद्रा भंग हुई। चिन्तन विलसित मन बाह्य प्रवाह में पुनः लौट आया। चिरकाल से मौन परिवेश कुछ विचलित हुआ, उसने समीर का ध्यान आकृष्ट करते हुए सरल वाणी में कहा,
‘‘सुनो !’’ ‘हूँ’ समीर के होंठ तनिक हिले, संगीतमय लहरों में एक और झन्कार,
‘‘हूँ क्या ?’’
‘‘कुछ कहो भी-।’’
‘‘यह स्थल कितना मनोरम है-’’ और उसने हलके स्पर्श से समीर को छू दिया।
समीर भी जैसे स्वप्निल लोक की माया-बीथियों से निकल वास्तविक जीवन प्रवाह में लौट आया। सपना की ओर देखता हुआ बोला,
‘‘है तो-’’ और उसने सपना के आत्मीय भावों का आभास पाने का प्रयास किया। जिज्ञासु पलकों से उसके अर्थपूर्ण नेत्रों में झांकता हुआ बोला,
‘‘तुम्हारे आने से और भी मनोरम हो गया है-’’
‘‘हटो-’’ सपना ने पुलकित स्वर में कहा। प्रशान्त झील में मानों धीमा प्रकम्पन हुआ, वह बोली,
‘‘मन चाहता है, बस यही की हो रहूँ-’’

समीर ने निश्चिन्त सी साँस ली, मस्तक पर लहराती सपना की कुन्तल केश-राशि को हलके से पीछे हटाते हुए बोला,
‘‘मेरे लिए मुसीबत होगी-’’
‘‘क्यों ?’’ सपना ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
‘‘अब तुम से अलग कैसे रह पाऊँगा-’’
‘‘हटो-’’ सपना की आँखों में दीप्ति तथा चेहरे पर लाज की लालिमा थी। समीर हँस दिया। उसे छेड़ता हुआ बोला,
‘‘यहाँ गंगा है, वहीं शिव होंगे-ज़रूरत पड़ी तो इधर भी रहने का अच्छा प्रबन्ध कर लेंगे-’’
मन्त्र मुग्ध सा वातावरण उन्हें आन्तरिक दृष्टि से और निकट खींच लाया। नीचे की रेत कुछ और सरकी, लहरों ने मानों गहरी श्वास ली, नंगे पैरों की थिरकन बढ़ने लगी- और-; सहसा कुछ गीले पत्तों ने थिरकती पवन का चामर बुनते हुए दोनों के बीच एक महीन मर्यादा- सेतु बाँध दिया। सपना को लगा उसके भीतर कहीं आभावों का भँवर फैला है जो धीरे-धीरे सब कुछ समेटता जा रहा है। उस की निजता, अपनत्व और अस्तित्व के समस्त आयाम एक एक करके उसी में ढलते जा रहे हैं। उसने अतृप्त सी आह भरी। धीमे स्वर में कहा, मानों पत्तों ने सरसराहट की-

‘‘यहाँ से वापिस जाने का मन तो कभी होता ही नहीं।’’
‘‘तो आज की रात यहीं टिकते हैं-’’ समीर ने तनिक शरारती ढंग से कहा।
‘‘पागल हो तुम !’’
सपना मानो खीज उठी। समीर ठठाकर हँस दिया। उन्मुक्त सा अट्टहास प्रशान्त वातावरण में सरल प्रकम्पन छेड़ गया। कल-कल बहती धारा में जैसे कोई अभिनव विराम-; समीर ने सहज होने का प्रयास किया। मन के खुलेपन का एहसास देता हुआ बोला,
‘‘इस बात का निर्णय तो रात को ही हो सकता है ?’’
‘‘वो भी जब कोई दूसरा तैयार हो-’’
‘‘यू नॉटी मैन’’ और सपना ने उसकी चुटकी काट ली। कृत्रिम रोष का अभिनय सा किया और हँसते हुए अपना मस्तक उसके कन्धे पर रख दिया। दोनों ही एक उन्मुक्त अट्टहास में सराबोर हो उठे, एक लम्बा ठहका और पुनः पूर्ववत् सी प्रशान्ति।

और गंगा की निश्छल धारा बहती जा रही थी। किनारे पर विश्रामरत मुद्रा में लेटे दो आत्मीय प्रेमियों की साँसे भी धीरे-धीरे असंख्य ऊर्मियों के साथ सिमटतीं उछलतीं, बढ़ते अन्धकार में आरती वेला की पावन स्थली की ओर प्रवाहित हो रही थीं। जून की ऊष्म किरणों को समेट प्राची पथिक के अश्व पश्चिमी सागर की शैय्या पर निद्रा निमग्न हो चुके थे। संध्याकालीन स्वर्णिम किरणों से छिटके माणक-मोती, पुष्प-पराग और मूगें-आकाश गंगा के अलौकिक प्रभा मण्डल में विलीन हो रहे थे। ऊषा नागरी अपना सेन्दूरी आँचल समेट उज्ज्वल तारिकाओं की सेज पर सो चुकी थी। से उन्मत्त वातावरण में  दोनों ही परिचित व्यक्ति अपनी-अपनी आन्तरिक रहस्यमयी भाव-बीथियों में पुनः लौटने लगे थे। बाह्य सृष्टि का वास्तव जब पलके मूँद लेता है तभी आन्तरिक सत्य का साक्षात्कार होता है सम्भवतः दोनों ही इसी निजता के निकट होने का उपक्रम जुटा रहे थे। कुछ क्षण दोनों इसी प्रकार ध्यानस्थ से मौन रहे। सपना ने विस्फरित नेत्रों से तारिका-खचित नीलिमा को निहारते हुए धीमें स्वर में कहा,
‘‘ये तारे हमारे ओर ऐसे क्यों देख रहे हैं ?’’
समीर ने उसकी जिज्ञासा शान्त की, तनिक विश्वस्त स्वर में कहा,
‘‘क्योंकि यही इनका धर्म है-’’
‘‘क्या ये सदा ऐसे ही रहेंगे- ?’’

‘‘शायद !’’ समीर ने आश्चर्यान्वित नेत्रों से सपना की ओर देखा। मन ने कहा ‘‘यह अचानक इसे क्या हो जाता है। कभी-कभी तो-’’ वह अभी असमन्जस में ही था कि सपना ने पुनः कहा,
‘‘हम ऐसे क्यों नहीं हो सकते ?’’
समीर के शरीर को जैसे झटका सा लगा। भीतर सन्देह सिक्त भावों का बवण्डर उठने लगा। मस्तिष्क में विचित्र सा तनाव बढ़ने लगा। उसने सपना को रहस्मयी आत्म केन्द्रिता से विमुक्त करने के लिए उसे झँझोड़ दिया। उसका ध्यान वास्तविक जगत की ओर आकृष्ट करते हुए कहा,
‘‘सपना ! उठो। चलें-देर हो रही है।’’

सपना पूर्ववत् ही मन्त्र वशीभूत अवस्था में लेटी रही। पलकों में मादकता थी, उसने सरस वाणी में कहा,
नहीं, समीर-ऊपर देखो; उधर हमें कोई बुला रहा है-; आओ वहीं चलें-’’ समीर ने देखा सपना चारों से बे ख़बर मानों अपने में ही केन्द्रित हो रही है। उसने इस योग तन्द्रा को भंग करने का प्रयास किया, परन्तु विफल। सपना निर्निमेष नेत्रों से मानों शून्य में कोई चिरन्तन तत्त्व खोज रही हो। चिरन्तन तत्त्व क्या इस प्रकार बाह्य परिवेश से नितान्त विलग हो जाने पर ही उद्भासित होता है। सपना के अंग प्रत्यंग में एक अजीब सी सिरहन उत्पन्न होने लगी। निष्क्रिय सी अवस्था में वह ऐसे ही कब तक लेटी रहेगी ? एक दीर्घ श्वास भरकर उसने अपना शरीर पुनः ढीला छोड़ दिया। कुछ क्षणों के लिए वह बिल्कुल ही भूल गई की समीर उसके बहुत निकट लगभग शरीर से सटकर उसके अन्तर्मन में झाँकने का प्रयास कर रहा है।
कुछ ही दूरी पर उन्नत पर्वत शिखरों पर धवल-चाँदनी श्वेत चादर सी लहरा रही थी। मौन मुग्ध पर्वत ध्यानस्थ योगी की भाँति अपने सहज स्वरूप में स्थिर हो रहे थे। ओर-छोर पूर्ण शान्ति परिव्याप्त थी। गंगा-धारा उभरती-थिरकती छोटे पत्थरों में नन्हें बुद-बुद संवारती जा रही थी। पत्थरों की अंजलि में छिपता-सिमटता जल प्रवाह प्रशान्त परिवेश में धीमा निनाद छेड़ता जा रहा था। चित्र लिखित से उन दो प्रणयी बिन्दुओं के आस-पास उज्ज्वल चन्द्र किरणें मायावी वितान सजाने में संलग्न थीं। गीली रेत पर चाँदनी के छिटके मोती, किसी परलौकिक आभा से अतिरन्जित प्रतीत होते थे। ऐसे योग-प्रान्त वातावरण में भला कोई लौकिक आकर्षण सपना का ध्यान कैसे विकेन्द्रित कर सकता था ? भले ही वह स्पर्श उसके प्रियतम समीर का ही क्यों न हो ?

निर्मल नील गगन में चन्द्रयान थिरकती गति में धीरे-धीरे सरक रहा था, आलोक पुन्जों को समेटने की लालसा में किरणों की पालकी  उठाये उन्मत्त पवन पीछे-पीछे भाग रहा था। चतुर्दिक एक विचित्र सी महिमामयी दिव्यता उद्भासित हो रही थी। सहसा सपना का ध्यान भंग हुआ, ऐसा लगा चन्द्र किरणों ने उसके दीप्त मुख मण्डल को फिर से छू दिया है। वह सिहर उठी। चारों ओर एक स्वप्निल सा आलोक फैला था। मन्द-मन्द मुस्कान लिये ध्यानरत तारागण नर्तननिरत चन्द्र किरणों को बार-बार निहार रहे थे। दूर हरकी पौड़ी पर आरती वेला सहज ही श्राद्धालु मन को अपनी ओर आकर्षित करती जा रही थी। आरती के पावन दीप, दूर से उन्हें जुगनुओं की तरह टिमटिमाते, एक अत्यन्त ही रहस्मयमयी सृष्टि चक्र की सर्जना करते जा रहे थे। ऐसे सहज विराम को समीर ने एक बार फिर सप्रयास झकझोर दिया, तनिक दृढ़ स्वर में कहा,
‘‘सपना तुम आधुनिक युग की एक पढ़ी-लिखी लड़की हो, फिर बहुत अजीब सी,’’ कहते-कहते वह कुछ सोचने लगा, पुनः दीर्घ साँस भरता हुआ बोला,
‘‘सच कभी-कभी तो तुमसे डर सा लगने लगता है।’’
सपना ने समीर की बात जैसे अनसुनी कर दी। उसका मन कहीं अन्यत्र था और दृष्टि किसी दूसरी ओर-
कानों ने सुनी तो महज़ एक अर्थहीन सी गुनगुनाहट।
ठण्डी रेत पर उसने अपना शरीर और फैला दिया।

अत्यधिक मधुर वाणी में वह समीर से बोली,
‘‘इधर देखो- यहाँ मेरे हाथ पर तारों की बारात उतर आयी है।’’ और उसने अपना हाथ ऊपर उठा कर समीर को अपनी ओर आकृष्ट किया। समीर को लगा सपना एक बार पुनः आत्म प्रवंचना की अवस्था में भटकने लगी है। वह चिन्तित सी मुद्रा में उसके और निकट हो गया। सपना ने रससिक्त स्वर में फिर कहा
‘‘इस हीरक अँगूठी में सारा आकाश सिमट आया है।’’
‘‘डैडी यह अँगूठी पैरिस से लाये थे। ये हीरे-वाह ! श्वेत चाँदनी में धुलकर कैसे आलोकमान हो उठे हैं। मानों कोई दूधिया उच्छवास हो-’’
समीर ने आश्चर्य चकित भाव से उसकी ओर देखा, सब कुछ बड़ा अद्भुत और मायावी था। कुछ क्षणों के लिए वह भी मन्त्र मुग्ध सा, जड़वत् स्थिति में सपना की हथेली पर नाचती चन्द्रकला को एकटक निहारता रहा। ऐसा लग रहा था सृष्टि का समस्त सौन्दर्य कुछ क्षणों के लिए बस वहीं सिमट आया है। सपना ने धीरे से करवट ली, समीर कुछ पीछे सरका-अँगूठी उतारते हुए सपना ने समीर की ओर देखा आत्मीय स्वर में कहा,
‘‘अपना हाथ इधर दो।’’

मन्त्र वशीभूत सा उसका हाथ आगे आया, कुछ हरकत हुई; सपना पुलकित हो उठी। अँगूठी समीर की उँगली में उतारती हुई प्रसन्नचित मुद्रा में बोली,
‘‘तुम्हारे हाथ में तो यह और भी आलोकित हो उठी है-’’ पुनः स्वयं को संयमित करती हुई बोली,
‘‘चलो अच्छा हुआ, इसे जहाँ जाना है, वहीं अभी से ही जँच रही है-’’ पुनः विस्मित की मुद्रा में समीर की ओर देखा तथा आन्तरिक बिखरे भावों को केन्द्रीभूत करती हुई बोली,
‘‘डैडी, कह रहे थे यह बहुत कीमती है; आकाश के तारों से भी ज़्यादा’’
वाक्य अभी पूर्ण नहीं हुआ था कि सपना ने देखा समीर अँगूठी को अलग करने का प्रयास कर रहा है। मोहक प्रेरणा से अभिभूत सपना ने उसका हाथ अपने कोमल पाश में भर लिया।
सहज स्वर में कहा, ‘‘रहने दो समीर; तुम्हारे हाथ में ही अच्छी लगती है यह-’’
पुनः एक अशान्त एवं अतृप्त सी साँस भरती हुई बोली,

‘‘इन सब चीजों के प्रति वैसे भी मेरा मोह कम पड़ता जा रहा है, पता नहीं क्यों...’’
समीर ने एक गहन एवं अर्थपूर्ण दृष्टि से सपना की ओर देखा। महसूस किया, सपना धीरे-धीरे सांसारिक मायाजाल से विरक्त होती जा रही थी। परन्तु ऐसा क्यों ? वह सपना को मन से चाहता था; शायद इसीलिए बार-बार उसके निकट होने की कोशिश करता आ रहा था। एकान्त क्षणों में सपना के साथ लम्बा समय व्यतीत करना सुखद लगता था। शायद उसे पूरी तरह समझने के लिए या फिर-; कुछ सोचते हुए उसने अपने भीतर तनाव को ढीला किया, स्वप्निल संसार में यथार्थ जगत की स्वर्ण मुद्राओं का क्या काम; उसने तनिक ठहरे स्वर में कहा,
‘‘ऐसी चीज़ें कुछ सीमा तक ही व्यक्ति को आकर्षित कर पाती हैं; मोह मैं भी नहीं रखता-’’
उसने अँगूठी पुनः अलग करने का प्रयास किया, सपना ने उसका हाथ सशक्त अंजलि में भर लिया। जाने क्यों वह उस समय अत्यन्त भावुक हो उठी थी। अन्तर्मन की समस्त आस्था, समीर के प्रति सहज आत्मीयता एवं निष्ठा तथा नारी सुलभ सम्पूर्ण संवेदना सभी जैसे उसी क्षण उमड़ पड़े। वह भावविभोर हो उठी। गंगा की चंचल लहरों को मानों कोई तृषिक चातक छू गया। शुष्क पत्तों ने गीली रेत पर मानों कोई धीमा राग व्यक्त किया। धरती-आकाश के बीच भ्रमणरत पवन जैसे अपनी थकान दूर करने, कुछ क्षणों के लिए वहीं ठहर गया हो; सपना ने अपने समस्त अस्तित्त्व को सासों में बटोर कर, अत्यन्त मधुर वाणी में कहा,

‘‘शादी के बाद भी तो यह सब कुछ...’’
पुनः एक सहज विराम एक लम्बी अनचाही साँस, आत्म विस्मृत क्षणों की एक धड़कन; एक कसकमयी छलना...; उसने पुनः शब्द साधे; दीर्घ साँस लेते हुए कहा,
‘‘सब कुछ तुम्हारा ही हो जायेगा-’’
समीर ने देखा सपना का अन्तर्द्वन्द्व उसकी पलकों में स्पष्ट झलक रहा था। दोनों ही शायद एक सीमा तक अपने-अपने आन्तरिक विश्लेषण में निरत थे। सपना का मन शायद पूर्णतया स्वस्थ नहीं था। इसलिए उसने जो कुछ कहा उसमें आन्तरिक सहज उल्लास का अभाव था। ऐसा समीर को लगा। सही या गलत वह नहीं जानता। उसने अपने भीतर भी एक विचित्र सी उधेड़-बुन चल रही थी। असंख्य प्रश्न थे जिनका समाधान मिल नहीं रहा था। असमंजस की स्थित में उसने सपना की बहुमूल्य अँगूठी कब उसके पर्स में सरका दी, दोनों में से किसी को इसका आभास नहीं हुआ, अहंगत परतों में सिमटा उसका मन स्वतः मुक्त हो गया है। इधर सपना की पलकों में अभी भी भारीपन मौजूद था। चेहरे की उज्ज्वलता कुछ-कुछ मंद पड़ने लगी थी। कुछ सोचकर वह सपना के और निकट चला आया, अत्यन्त भावुकतापूर्ण स्पर्श में सपना का मुख अपने हाथों में समेट लिया। सपना मन्त्र मुग्ध सी अवस्था में, पूर्ववत् स्थिर रही। समीर कुछ और आगे बढ़ा, सपना की पलकें झुकने लगीं। श्वास-पर-श्वास तेज़ होने लगी। एक विचित्र थिरकन; एक अपूर्व अपरिचित भावोद्वेल; समीर ने तनिक नीचे झुकते हुए अपनी ऊष्म श्वास सपना के रक्तिम अधरों के समीप उडेंल दी, विश्वस्त एवं तरल वाणी प्रस्फुटित हुई,
‘‘क्या अभी यह सब कुछ मेरा नहीं है ?’’

‘‘समीर’’
सपना जैसे प्रगाढ़ निद्रा से जाग उठी। आनत पत्तों पर ध्यानरत ओस मानों वायु के धीमे संस्पर्श से नीचे टपक पड़ी। सपना का भीतरी विरक्ति भाव एक बारगी उसके समूचे शरीर को झंझोड़ गया। किसी आन्तरिक गुप्त मन्त्रणा से वशीभूत हो उसने अपना मुख दूसरी ओर फेर लिया। शरीर दूसरी ओर सरकाती हुई तनिक उद्विग्न स्वर में बोली,
‘‘हमें एकान्त में इतनी दूर तक नहीं आना चाहिए था-’’ कहते-कहते वह उठने को हुई। समीर उसी स्थिति में जड़वत् सा कुछ सोचता रहा, पुनः अपनी सीमा में सिमटता हुआ तनिक पीछे हट गया। सूने सहरा में मानों कोई शीतल लहर अपना अन्तिम चरण खोजने के लिए लिकल पड़ी हो। ऐसे उन्मुक्त एवं मादकतापूर्ण वातावरण में मन पर नियन्त्रण रख पाना क्या इतना सुगम है ? सपना भली-भाँति जानती थी, यदि वह उसी प्रकार पूर्ववत् अवस्था में स्थिर बनी रहती तो वे दोनों इतनी दूर भटक जाते कि शायद पुनः लौटने का प्रश्न ही न उठता। इसके विपरीत उसे समीर की भावनाओं का भी ध्यान था, वह उसकी कदर करती थी। उसे किसी प्रकार भी आहत करना उसका मन्तव्य नहीं था। वह तो अपने भीतर किसी खोज को स्पष्ट करने का प्रयास कर रही थी। समीर ने तनिक निकट सरक कर उसने भाव-विगलित स्वर में कहा,
समीर मुझे गलत नहीं समझोगे-’’
पुनः उसने आह सी भरी; रसरिक्त वाणी में कहा,

‘‘नारी के मन की स्थित वन्य प्रदेश में चिर सुप्त पड़े शंख सी होती है। एक बार कोई स्वर गुंजरित हुआ, बस अमरत्व पा गया; शेष कुछ भी नहीं बचता, बचती है तो केवल राग विरागमयी स्मृतियाँ-वे भी शायद उसकी अपनी नहीं रहतीं। सब कुछ पराया सा हो जाता है; पूर्ण समर्पित मन के उच्छवास जैसा-कण-कण ढलती मिश्री जैसा।’’
कहते-कहते सपना ने अर्द्ध-निमिलित नेत्रों से समीर की ओर देखा। की आँखों में अपूर्व अपरिचित जिज्ञासा विद्यमान थी। सपना ने निश्वास भर कर पलकें झुका लीं; दबी आवाज़ में कहा,

‘‘परन्तु ऐसा स्वर उसके मन को कब और कहाँ छू जायेगा, इस बारे में नारी स्वयं भी नहीं जानती। मेरी अपनी प्रवंचना शायद मुझे छल रही है; मेरी इस विमुखता का तुम कोई दूसरा अर्थ नहीं लोगे, समीर-’’
कहते-कहते सपना भावविह्वल हो उठी। अंग-अंग कम्पायमान होने लगा। हलकी सिसक भर कर उसने अपना दीप्त मुख हाथों में छिपा लिया। समीर के लिए सारी स्थित लगभग पारदर्शी हो चुकी थी। उसे क्या करना है और क्या नहीं, इसके प्रति वह पूरी तरह सतर्क हो चुका था। अन्तर्मन का भावोच्छलन किसी भीमकाय शिलाखण्ड से टकरा कर पुनः प्रशान्त लहरों में विलीन हो गया था। उसने सान्त्वनामयी स्पर्श से सपना के उलझे केशों को संवारने का प्रयास किया। अत्यन्त आत्मीय एवं दम्भहीन भाव से उसको थपकते हुए सहज स्वर में कहा,

‘‘सपना, ऐसा-वैसा कुछ मत सोचो-’’
कहते-कहते वह रुका, पुनः विश्वस्त एवं स्थिर वाणी से बोला, ‘‘स्वयं को अभी तक तुमने पूरी तरह पहचाना नहीं है, शायद इसलिए सदा भटकती रहती हो, अस्थिर रहती हो-सुनो, इस शरीर से परे एक सपना और भी है, बस उसे ही मैं जानना चाहता हूँ, उसे ही पाने की लालसा है मेरी।’’
सपना स्थितप्रज्ञ सी बिना हिले-डुले समीर को सुनती रही। मुखमण्डल अभी भी हाथों की ओट में था।
समीर ने गीली रेत पर कुछ अस्पष्ट शब्द लिखे, तत्क्षण फिर मिटा दिये। साँस भर कर बोला, ‘‘तुम कैसी हो ? क्या हो ? कुछ कह नहीं सकता-हाँ इतना ज़रूर है, स्वर्ग से कोई मेनका भी उतर आये, तुम्हारा मुकाबला नहीं कर सकती।’’ सपना जैसे विचलित हो उठी; हाथ पीछे हटाकर कृतज्ञतापूर्ण नेत्रों से समीर की भावपूर्ण पलकों में देखा। चेहरे पर चाँदनी की किरणें फिर से उमड़ आईं। ओठों पर धीमी स्मित रेखा कौंध गई। समीर ने उस विलक्षण सौंदर्य को ध्यानपूर्वक देखते हुए कहा,

‘‘सपना हमारे माता-पिता बहुत खुले दिल के हैं; हम एक दूसरे को पूरी तरह समझ लें, शायद इसीलिए-’’ कहते-कहते वह मौन हो गया। कुछ क्षणों के लिए वे दोनों आत्मकेन्द्रित सी अवस्था में वहीं बैठे रहे और फिर-
अपने-अपने आभावों की गीली मिट्टी में स्वस्थ भावों का रोपण करते हुए हर की पौड़ी की ओर चलने लगे। देर हो चुकी थी अतः उस ओर गमन ज़रूरी था। आन्तरिक निजता और मौन में सिमटे दोनों ही रेत की उभरती-सरकती सीमाओं को पार करते जा रहे थे। कुछ क्षण पहले वाला प्रणयी प्रांगण बहुत पीछे रह गया था। शीघ्र ही वे नये निर्मित सेतु के निकट पहुँच गये। महा-कुम्भ का पुण्य अवसर था; यात्रियों ने महासागर को सुव्यवस्थित करने के लिए प्रशासन की ओर से समुचित प्रबन्ध किया गया था। गंगा की पावन धारा पर असंख्य अस्थायी पुलों का प्रबन्ध जुटाया गया था।

सपना ने दूर से देखा आरती वेला के दीप अधिक उज्ज्वल प्रतीत हो रहे थे। चारों ओर एक दिव्य सा समागम था। गह्वर-गह्वर करती लहरों पर नन्हें दीप गोलाकार में घूमते अत्यन्त रमणीय दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। पुलों के समीप यात्रियों की भीड़ धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। पिछले कई दिनों से वे इसी प्रकार यहाँ गुज़रते आ रहे थे समीर एक जरूरी काम से यहाँ ठहरा हुआ था। चलते-चलते सपना ने मौन भंग किया-
‘‘समीर ! और कितने दिन इधर ठहरने का इरादा है ?’’
‘‘अभी कुछ कह पाना मुश्किल है-’’
‘‘क्यों ?’- सपना ने पूछा।
‘‘टेण्डर खुलने में अभी कुछ समय और लगेगा-’’
‘‘तो फिर हम-’’ कहते-कहते वह रूक गई।
समीर ने बात काटते हुए कहा,
‘‘शायद कल तक स्थिति साफ हो जाए।’’
चलते-चलते समीर ने अपनी गति धीमी की, विश्वस्त नेत्रों से सपना की ओर देखते हुए कहा,    

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