आधुनिक >> पीली छतरी वाली लड़की पीली छतरी वाली लड़कीउदय प्रकाश
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एक लंबी कहानी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सन् 2000 जुलाई का महीना। फोन पर हिंदी कहानी के डॉन की आवाज सुनाई
पड़ी-‘कम्युनिस्टों की तरह अपने आलोचकों को अपना दुश्मन मानने की
घोर-अ-लोकतांत्रिक मानसिकता से बाहर निकलो, और चुपचाप अपनी कहानी भेज दो।
‘हंस’ ने पुनःप्रकाशन के पंद्रह साल पूरे किये हैं।
वर्ना...!’
‘लेकिन डॉन ! कहानी तो है ही नहीं।’ मैं मिनमिनाया। घिग्घी जैसी चीज, जो मेरे शरीर में जहाँ रही होगी, वह बँधी हुई थी।
‘तो लिखो ! अभी।...और फोन ज़रा कुमकुम को पकड़ाओ।’ डॉन उधर से दहाड़ा। मैंने फोन अपनी पत्नी को पकड़ाया।
‘उसे कमरे में बंद कर दो, और बाहर से ताला लगा दो। आजकल जबसे वह आध्यात्मिक हुआ है, इधर-उधर के चक्कर लगाने लगा है। इधर से मैं देखता हूँ, उधर से तुम सँभालो।’ गेस्टापों का चीफ लगते इस डरावने नारीवादी ने पत्नी के दाँत चमका दिये। अगले ही पल वह किसी, ‘वायर’ में बदल गयी। तो शुरू हुई कहानी ‘पीली छतरी वाली लड़की।’ सोचा था एक या दो अंक में खत्म हो जायेगी। जब-जब मैं इसे खत्म करता, उधर से डॉन दहाड़ता और इधर मैं ताले के भीतर बंद कर दिया जाता।
आखिरकार एक दिन, दिसम्बर के महीने में, आधी रात में कहानी खत्म मैंने की और कमरे का ताला तोड़कर राजधानी एक्सप्रेस से शहर ही छोड़कर फरार हो गया।
अभी जब आप यह कहानी पढ़ रहे होंगे, मैं राजधानी के बर्थ नंबर 42 पर ही हूँ।
और बर्थ नंबर 41 पर है अंजली। यानी अंजली जोशी। यानी पीली छतरी वाली लड़की।
लेकिन याद रखें यह लंबी कहानी है, उपन्यास नहीं। इतने सारे पृष्ठों के बावजूद इसमें से जो चीज अनुपस्थित है, वह है ‘औपन्यासिकता’ या ‘एपिकैलिटी ’।
यह तो इसी समय और इसी यथार्थ में अभी भी जिये जा रहे जीवन का एक ब्यौरा भर है।
एक अनिर्णित आख्यान का एक टुकड़ा।
‘लेकिन डॉन ! कहानी तो है ही नहीं।’ मैं मिनमिनाया। घिग्घी जैसी चीज, जो मेरे शरीर में जहाँ रही होगी, वह बँधी हुई थी।
‘तो लिखो ! अभी।...और फोन ज़रा कुमकुम को पकड़ाओ।’ डॉन उधर से दहाड़ा। मैंने फोन अपनी पत्नी को पकड़ाया।
‘उसे कमरे में बंद कर दो, और बाहर से ताला लगा दो। आजकल जबसे वह आध्यात्मिक हुआ है, इधर-उधर के चक्कर लगाने लगा है। इधर से मैं देखता हूँ, उधर से तुम सँभालो।’ गेस्टापों का चीफ लगते इस डरावने नारीवादी ने पत्नी के दाँत चमका दिये। अगले ही पल वह किसी, ‘वायर’ में बदल गयी। तो शुरू हुई कहानी ‘पीली छतरी वाली लड़की।’ सोचा था एक या दो अंक में खत्म हो जायेगी। जब-जब मैं इसे खत्म करता, उधर से डॉन दहाड़ता और इधर मैं ताले के भीतर बंद कर दिया जाता।
आखिरकार एक दिन, दिसम्बर के महीने में, आधी रात में कहानी खत्म मैंने की और कमरे का ताला तोड़कर राजधानी एक्सप्रेस से शहर ही छोड़कर फरार हो गया।
अभी जब आप यह कहानी पढ़ रहे होंगे, मैं राजधानी के बर्थ नंबर 42 पर ही हूँ।
और बर्थ नंबर 41 पर है अंजली। यानी अंजली जोशी। यानी पीली छतरी वाली लड़की।
लेकिन याद रखें यह लंबी कहानी है, उपन्यास नहीं। इतने सारे पृष्ठों के बावजूद इसमें से जो चीज अनुपस्थित है, वह है ‘औपन्यासिकता’ या ‘एपिकैलिटी ’।
यह तो इसी समय और इसी यथार्थ में अभी भी जिये जा रहे जीवन का एक ब्यौरा भर है।
एक अनिर्णित आख्यान का एक टुकड़ा।
पीली छतरी वाली लड़की
यह माधुरी दीक्षित की वही नंगी पीठ थी, जिस पर सलमान खान ने गुलेल से
निशाना ताक कर बंटी मारी थी, लचकती हुई कमर और पीठ उस चोट से अचानक रूक गई
थी और माधुरी दीक्षित ने गर्दन मोड़कर पीछे देखा था, उसकी नज़र में कोई
पीड़ा नहीं थी, एक नशीली, अपनी पीठ की ओर आमन्त्रित करती, उत्सुकता थी, वह
आँख माधुरी दीक्षित की नहीं, किसी चौंकी हुई हिरणी की आँख थी, एक ऐसी
मूर्ख, मस्त और सनकी हिरणी जो अपने शिकारी के सामने प्यार से खुद अपने
आपको परोसा करती है,
राहुल ने ‘स्टारडस्ट’ के सेंटर स्प्रेड में छपे उस चित्र को फेबिकोल से अपने कमरे की खिड़की की काँच पर चिपका दिया था, दरअसल उधर से धूप आती थी और दोपहर, दूसरी मंजिल के उस कमरा नंबर 252 में गर्मी के मारे रहना मुश्किल हो जाता था, अब माधुरी दीक्षित ने दोपहर की उस तेज जलती हुई धूप को हास्टल के उस कमरे में आने से रोक दिया था और अपनी खुली, गुलेल की बंटी से चोट खाई पीठ उधर कर दी थी वह लगातार अपनी मूर्ख, मस्त, सनकी आँखों से राहुल की ओर गरदन मोड़ कर देख रही थी, जैसे गुलेल ने उसकी खूबसूरती लचकती हुई खुली कटावदार पीठ को निशाना राहुल ने बनाया हो.
यह राहुल के अलावा कोई नहीं जानता था कि उसने एक दिन कमरा नंबर 252 के भीतर किसी एक गोपनीय, बेहद निजी क्षण में, किस तरह सलमान खान को चुपचाप बाहर निकाल फेंका था और उसकी जगह खुद आ गया था, यह सोचते ही उसका शरीर एक अजीब सी उत्तेजना और सिरहन से भर उठता कि माधुरी दीक्षित की उस खूबसूरत मांसल पीठ को चोट पहुँचाने वाला वह खुद है। उसी की गुलेल से सटाक से बंटी मारी और तड़ से बंटी लगते ही माधुरी दीक्षित ने एक ‘उई...ऽऽ’ की आवाज़ निकाली और ‘स्टारडस्ट’ के उस चित्र में ‘फ्रीज़’ हो गयी.
लड़की चोट खाना बहुत पसन्द करती है, वह बिल्ली या गिलहरी नहीं है, जिसकी जिसकी पीठ पर प्यार से धीरे-धीरे उंगलियां या हथेलियां फिराओ, उसे संभाल-संभाल कर सहलाओ तो वह गुर्र-गुर्र करती लोमट लोट होगी, लड़की तो वो चीज़ है, जिसको जितना मारो, जितना कूटो, उसे उतना मज़ा मिलता है. लड़की तो असल में ताकत और हिंसा को प्यार करती है.
राहुल ने इसीलिए युनिवर्सिटी से जिम जाना शुरू किया था, जिससे वह सलमान खान की तरह अपनी भुजाओ में मछलियां बना सके, चीते जैसी कमर और तेंदुए जैसा धड़, वह एक चिकने हिंसक, खूबसूरत, फुर्तीले बनैले जानवर में खुद को ढाल, लेना चाहता था. इसके और क्या चाहिए ? एक रेनबेन का काला चश्मा, रेंगलर या लेविस की एक जींस पैंट और टी शर्ट, नाईके के सॉक्स और वुडलैंड का बढिया जूता.
वह कई बार सोचता, लारा दत्ता, मनप्रीत ब्रार या गुलपनाग को देखकर वह उस तरह क्यों महसूस नहीं करता, जैसा माधुरी दीक्षित को देखकर करता है, जब कि माधुरी दीक्षित उससे उम्र में बहुत बड़ी थी, हाल की एक फिल्म में विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय अपनी पीठ को हू-ब-हू माधुरी दीक्षित की तरह खोलकर लचका रही थी और गर्दन मोड़कर अपनी कंजी भूरी आँखों से राहुल की ओर देख रही थी, लेकिन शिट्. बेकार. वो बात कहाँ जो माधुरी में है माधुरी की पीठ और पीठों में ज़मीन आसमान का फर्क है, एक ऐसी कोई चीज़ माधुरी दीक्षित की पीठ में है, उसकी त्वचा में या उसकी बनावट में, या उसके रंग में.....जो ऐश्वर्या या दूसरों की पीठ में नहीं है.
राहुत तुलनात्मक अध्ययन करता. इसे लगता है कि गुलपनाग, सुष्मिता या लारा आदि का शरीर काफी कुछ कृत्रिमता से बनाया गया है, मॉडलिंग की खास नाप-जोख के लिए इंची टेप से नाप नापकर, -डायटिंग और एक्सरसाइज से तैयार किया गया कृमिक शरीर, फिर उस पर वैक्सिंग, फेशियल, साओना और क्या-क्या. राहुल को वे गैर-मानवीय सिंथेटिक गुड़िया लगतीं, उनके सिर के बाल और शरीर के रोएं भी सिंथेटिक लगते, यहां तक कि उनकी बगलों शेविंग के बाद का हल्का नीला-हरा रंग होता, वह भी उसे कलरिंग लगता, ज्यादा नहीं, बस पन्द्रह दिन इनको ठीक-ठाक आदमी के तरीके से खाने पीने दो, आम लड़कियों की तरह रहने दो, तो ये फसक कर बोरा हो जाएंगी. पहचानना मुश्किल होगा, जबकि माधुरी दीक्षित की बात ही दूसरी है, चाल में या इस हॉस्टल में कमरे में भी रहने लगेगी, मेस की दाल रोटी सब्जी भी खाएगी। तब भी जस-की-तस ही रहेगी, ऐसी ही कमाल. ऐसी ही मस्त.
माधुरी की पीठ नेचुरल है, प्राकृतिक, यह अजब तरह से एक स्वदेशी पीठ है. बाकी पीठें सिंथेटिक है और विदेशी, इसलिए उनमें कोई जादू नहीं. राहुल ने निष्कर्ष निकाला. लेकिन उसका दूसरा वह निष्कर्ष ज्यादा गंभीर था जिसके अनुसार लड़कियाँ दरअसल चोट, पीड़ा-हिंसा और ताकत को प्यार करती हैं, वे मूर्ख बनाया जाना, उत्पीड़ित होना निर्ममता के साथ अपने भोग लिये जाने को ज़्याता पसंद करती हैं, ज़माना बदल गया है. वे छठे-सातवें दशक में शम्मी कपूर, ऋषि कपूर, विश्वजित या जितेंद्र टाइप के मर्द को नहीं, सलमान खान, सन्नी देओल या अजय देवगन जैसे माचो या सैडिस्ट मर्द के पीछे पागल होती हैं. कितनी ख़तरनाक और हिंसक था ‘डर’ में शाहरुख खान ? फोन करके पीछा कर के, और रेप की कोशिश कर के जुही चावला को लस्त-पस्त और लहुलुहान कर डाला था. डर के मारे उसकी घिग्घी बंध गई थी, लेकिन उसी अर्द्ध विक्षिप्त-शीज़ोफ्रेनिक खान के पीछे सारी युनिवर्सिटी की लड़कियाँ दीवानी थीं.
कुड़ियों को शाहरुख खान चाहिए, कोई छक्का, कृष्ण-कन्हैया टाइप का हज़बैंड छाप गऊ नहीं, राहुल इस रहस्य को समझ चुका था. इसी के बाद से उसके कमरा नंबर 252 की दीवार की खिड़की में माधुरी दीक्षित रहने लगी थी, पिछले चार महीनों से.
राहुल के कैरियर का नक्शा थो़ड़ा सामान्य था. उसने आर्गेनिक केमिस्ट्री में एम. एस.-सी किया था, उसके बाद अचानक उसमें एंथ्रोपोलॉजी में एम. ए. करने का भूत जागा. इसका ठीक-ठीक कारण पता लगाना ज़रा मुश्किल है लेकिन संभव है, इसके पीछे राहुल के एक फुफेरे भाई की प्रेरणा रही हो, जो अंतराष्ट्रीय स्तर के नृतत्वशास्त्री और फिलहाल एंथ्रोपोलॉजी सर्वें ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जनरल थे. वे कई बार राहुल के घर उसके गाँव आते. कभी-कभी तो कई हफ्ते वे वहीं रुक जाते. पिता जी उनके सामने प्रिय मामा थे. दोनों की खूब पटरी बैठती थी. राहुल की ड्यूटी उनकी देखभाल की होती.
राहुल ने सुना था कि उनकी आदिवासियों पर एक ऐसी किताब पेंगुइन में आई है, जिसने दुनिया में तहलका मचा रखा है. इस किताब के आने से पहले तक लोग यही जानते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई सिर्फ़ ब्राह्मणों, ठाकुर, बनियों या हिन्दू मुलसमानों ने ही लड़ी है. अब तक के इतिहासकारों ने जिन नायकों का निर्माण किया था, वे सब इन्हीं पृष्ठभूमियों के थे. उनमें आदिवासी और दलित लगभग नहीं थे. लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब, कुवंर सिंह, फड़नवीस, अजीमुल्ला, मंगल पांडे, राजा, ज़मीदार, नवाब वगैरह. बाद में बीसवीं सदी में भी ऐसे नायक बने, नेहरू., गांधी, तिलक, जिन्ना सुहरावर्दी, पटेल आदि. इनमें से अधिकांश ऊंची जाति के अमीर वर्ग के लोग थे. ले देकर कभी-कभार डॉक्टर अंबेडकर का नाम आता था, जो दलित थे और प्रकांड प्रतिभा के कारण उन्हें आजाद भारत का संविधान बनाने का काम सौंपा गया था. लेकिन उनके बारे में भी यह प्रचार कर दिया गया था कि वे अंग्रेजों के एजेंट थे और हिन्दू धर्म को खत्म कर के बौद्ध धर्म को भारत में स्थापित करना चाहते थे. यानी नायक से ज्यादा खलनायक थे.
किन्नू दा की किताब ने इसलिए तहलका मचाया कि उसमें पहली बार, बहुत प्रामाणिक दस्तावेजों और तथ्यों के साथ, सिंहभूमि और झारखंड समेत छोटा नागपुर बेल्ट के उन आदिवासी नायकों के संघर्ष की कथा कही गई थी, जिनका महान त्रासदी भरा नायकत्व अब तक सिर्फ़ बिहार, उड़ीसा और बंगाल के पिछडे आदिवासी इलाकों में प्रचलित ‘फोकलोर’ में ही मौजूद था.
किन्नू दा जब बोलने लगते तो राहुल आर्गेनिक केमिस्ट्री बकवास लगने लगती. क्या करूँगा उसको पढ़कर ? किसी बुएरीज़ या किसी फूड प्रोसेसिंग मल्टी नेशनल इंडस्ट्री में केमिस्ट बन जाऊंगा. या किसी यूनिवर्सिटी-कालेज में लेक्चरर, वह अपने भविष्य के बारे में सोचता उसे कोई मोटा, पिदपिदा-सा आदमी, सुअर की तरह फचफच करके पिजा खाते. दही या विनेगर में गार्डिश्ड मछली को कचर-पचर चबाते दिखाई देने लगता जो साथ-साथ में शराब भी पीता और धुत्त हो कर किसी किराए में लाई गयी टीन एज लड़की के साथ अपनी मटके जैसी तोंद और विशाल कद्दुओं जैसे ढीले-ढाले नितंबों को मटका-मटका कर नाचने लगता.
यही वह आदमी है-खाऊ, तुंदियल, कामुक लुच्चा, जालसाज़ और रईस, जिसकी सेवा की खातिर इस व्यवस्था और सरकार का निर्माण किया गया है. इसी आदमी के सुख और भोग के लिए इतना बडा़ बाज़ार है और इतनी सारी पुलिस और फौज है. अगर मैंने आर्गेनिक केमिस्ट्री के बलबूते कोई नौकरी की तो इसी आदमी के खाने-पीने की चीज़ों को लगातार स्वादिष्ट, पौष्टिक और लज़ीज़ बनाने का काम मुझे अपने जीवन भर करना पड़ेगा. वह जीवन, जो मुझ अकिंचन को इस ब्रह्मांण के करूणा सागर सृष्टिकर्ता ने महान कृपा करके सिर्फ़ एक बार के लिए दिया है.
शिट् ! शाला हांफ रहा है, एक पैर कब्र में लटका है, मोटापे के कारण ठीक से चल नहीं पाता, लेकिन खाए जा रहा है. उसे खाने के लिए अनंत भोज्य पदार्थ चाहिए. उसकी जीभ को अनंत स्वाद चाहिए. सारी दुनिया के वैज्ञानिक उसकी जीभ को संतुष्ट करने के खातिर तमाम प्रयोगशालाओं में शोध कर रहे हैं, उसके लोदे और घृणित थुलथुल शरीर की समस्त इंद्रियों को अनंत-अपार आनंद और बेइंतहा मज़ा और ‘किक’ चाहिए. उसकी हिप्पोपोटेमस जैसे थूथन को तरह-तरह की खुशबू चाहिए. सारी परफ्यूम इंडस्ट्री इसी की नाक की बदबू मिटाने के लिए है. एक कार्बनिक रासायन वैज्ञानिक के नाते मेरा काम होगा, इस भोगी लोदें की एषणाओं और सृजन के द्वारा संतुष्ट करना.
यही वह आदमी है जिसके लिए संसार भर की औरतों के कपड़े उतारे जा रहे हैं. तमाम शहरों के पार्लर्स में स्त्रियों को लिटाकर उनकी त्वचा से मोम के द्वारा या एलेक्ट्रोलियस के जरिये रोय़ें उखाड़े जा रहे हैं, जैसे पिछले समय में गड़रिये भेड़ों की खाल से ऊन उतारा करते थे, राहुल को साफ दिखाई देता कि तमाम शहरों और कस्बों के मध्य-निम्न मध्यवर्गीय घरों से निकल-निकल कर लड़कियाँ उन शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह उगी ब्यूटी-पार्लर्स में मेमनों की तरह झुंड बनाकर घुसतीं और फिर चिकनी-चुपड़ी होकर उस आदमी की तोंद पर अपनी टाँगें छितरा कर बैठ जातीं, इन लड़कियों को टी.वी. ‘बोल्ड एंड ब्यूटीफुल’ कहता और वह लुजलुजा-सा तुंदियल बूढ़ा खुद ‘रिच एंड फेमस’ था.
वह आदमी बहुत ताकतवर था. उसको सारे संसार की महान शैतानी प्रतिभाओं ने बहुत परिश्रम, हिकमत पूँजी और तकनीक के साथ गढ़ा था. उसको बनाने में नयी टेक्नालॉजी की भूमिका अहम थी. वह आदमी कितना शक्तिशाली था. इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने पिछली कई शताब्दियों के इतिहास में रचे-बनाये गये कई दर्शनों, सिद्धान्तों और विचारों को एक झटके में कच़ड़ा बनाकर अपने आलीशान बंगले के पिछवाड़े के कूड़ेदान में डाल दिया था. ये वे सिद्धान्त थे, जो आदमी की हवस को एक हद के बाद नियंत्रित करने, उस पर अंकुश लगाने या उसे मर्यादित करने का काम करते थे.
इससे ज़्यादा मत खाओ, इससे ज़्यादा मत कमाओ, इससे ज़्यादा हिंसा मत करो, इससे ज़्यादा संभोग मत करो, इससे ज़्यादा मत सोओ, इससे ज़्यादा मत नाचो....वे सारे सिद्धान्त, जो धर्म ग्रंथों में भी थे, समाजशास्त्र या विज्ञान अथवा राजनीतिक पुस्तकों में भी. उन्हें कूड़ेदान में डाल दिया गया था. इस आदमी ने बीसवीं सदी के अंतिम में पूँजी सत्ता और तकनीक की समूची ताकत को अपनी मुट्ठियों में भर कर कहा थाः स्वतंत्रता ! चीखते हुए आज़ादी ! अपनी सारी एषणाओं को जाग जाने दो, अपनी सारी इंद्रियों को इस पृथ्वी पर खुल्ला चरने और विचरने दो. इस धरती पर जो कुछ भी है, तुम्हारे द्वारा भोगे जाने के लिए है. न कोई राष्ट्र है, न कोई देश. समूचा भूमण्डल तुम्हारा है. न कुछ नैतिक है. न कुछ अनैतिक. कुछ पाप है. न पुण्य. खाओ पियो और मौज़ करो. नाचो....ऽऽ वूगी. वूगी. गाओ...ऽऽ वूगी.खाओ ! खूब खाओ. कमाओ, खूब कमाओ वूगी....वूगी. इस जगत के समस्त पदार्थ तुम्हारे उपभोग के लिए है. वूगी....वूगी....! और याद रखो स्त्री भी एक पदार्थ है वूगी....वूगी...!
उस ताकतवर भोगी लोंदे ने एक नया सिद्धान्त दिया था जिसे भारत के वित्तमंत्री ने मान लिया था और खुद उसकी पर्स में जमकर घुस गया था. वह सिद्धान्त यह था कि उस आदमी को खाने से मत रोको. खाते-खाते जैसे उसका पेट भरने लगेगा. वह जूठन अपनी प्लेट के बाहर गिराने लगेगा. उसे करोड़ों भूखे लोग खा सकते है. काटीनेंटल, पौष्ठिक जूठन. उस आदमी को संभोग करने से मत रोको, वियाग्रा खा-खाकर वह संभोग करते-करते लड़कियों को अपने बेड से नीचे गिराने लगेगा, तब करोड़ों वंचित देशी छड़े उन लड़कियों को प्यार कर सकते है. उनसे अपना घर परिवार बसा सकते हैं.
यही वह सिद्धान्त था, जिसे उस आदमी ने दुनिया भर के सूचना संजाल के द्वारा चारों ओर फैला दिया था और देखते-देखते मानव सभ्यता बदल गई थी टीवी चैनलों सारे कंप्यूटरों में यह सिद्धान्त बज रहा था, प्रसारित हो रहा था.
बीसवीं सदी के अंत और इक्कसवीं सदी की दहलीज़ की ये वे तारीखें थी जब प्रेमचन्द्र, तॉल्सतॉय, गाँधी या टैगोर का नाम तक लोग भूलने लगे थे. किताबों की दुकानों में सबसे ज़्यादा बिक रही थी बिल गोट्स की किताब ‘दि रोड अहेड’,
वह तुंदियल अमीर खाऊ आदमी, गरीब तीसरी दुनिया की नंगी विश्व सुंदरियों के साथ एक आइसलैंड के किसी मँहगे रिसॉर्ट में लेटा हुआ मसाज करा रहा था अचानक उसे खुद याद आया और उसने सेल फोन उठाकर एक नम्बर मिलाया.
विश्व सुंदरी ने उसे वियाग्रा की गोली दी, जिसे निगल कर उसने उसके स्तन दबाये, ‘हेलो ! आयम निखलाणी, स्पीकिंग ऑन बिहाफ ऑफ द आइ, एम. एफ, गेट मी टु दि प्राइम मिनिस्टर !’
‘येस....येस ! निखलाणी जी ! कहिए कैसे हैं ? मैं प्रधान मंत्री बोल रहा हूँ,
‘ठीक से सहलाओ ! पकड़कर ! ओ. के. !’ उस आदमी ने मिस वर्ल्ड को प्यार से डाटा फिर सेल फोन पर कहा ‘इत्ती देर क्यों कर दी....साईं ! जल्दी करो ! पॉवर, आई टी, फूड, हेल्थ एजुकेशन....सब ! सबको प्रायवेटाइज करो साईं !...ज़रा क्विक ! और पब्लिक सेंक्टर का शेयर बेचो... डिसएन्वेस्ट करो...! हमको सब खरीदना है साईं...!
‘बस-बस ! ज़रा सा सब्र करें भाई...बंदा लगा है डयूटी पर, मेरा प्रॉबलम तो आपको पता है. खिचड़ी सरकार है. सारी दालें एक साथ नहीं गलतीं निखलाणी जी. ’
‘मुंह में ले लो. लोल...माई लोलिट्,’ रिच एंड फेमस तुंदियल ने विश्वसुन्दरी के सिर को सहलाया फिर ‘पुच्च...पुच्च की आवाज़ निकाली, ‘आयम, डिसअपांयंटेड पंडिज्जी ! पार्टी फंड में कितना पंप किया था मैंने, हवाला भी, डायरेक्ट भी...केंचुए की तरह चलते हो तुम लोग, एकॉनमी कैसे सुधरेगी ? अभी तक सब्सिडी भी खत्म नहीं की !’
‘हो जायेगी निखलाणी जी ! वो आयल इंपोर्ट करने वाला काम पहले कर दिया था, इसलिए सोयाबीन, सूरजमुखी और तिलहन की खेती करने वाले किसान पहले ही बरबाद थे. उनके फौरन बाद सब्सिडी भी हटा देते तो बवाल हो जाता...आपके हुकुम पर अमल हो रहा है भाई....सोच-समझ कर कदम उठा रहे हैं,’
‘जल्दी करो पंडित ! मेरे को बी. पी है. ज़्यादा एंक्ज़ायटी मेरे हेल्थ के लिए ठीक नहीं, मरने दो साले किसानों बैंचो....को...ओ...के...’
उस आदमी ने सेल्युलर ऑफ किया, एक लंबी घूंट स्कॉच की भरी और बेचैन हो कर बोला, ‘‘वो वेनेजुएला वाली रनर कहाँ है. उसे बुलाओ, ’
किन्नू दा ने राहुल से कहा, ‘आदिवासियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी ज़रूरतें सबसे कम हैं, वे प्रकृति और पर्यावरण का कम से कम नुकसान करते है, सिंहभूम, झारखंड, मयूरभंज, बस्तर और उत्तरपूर्व में ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जो अभी तक छिटवा या झूम खेती करते है सिर्फ़ कच्ची, भुनी या उबली चीजें खाते हैं. तेल में फ्राई करना तक वे पसंद नहीं करते. वे प्राकृतिक मनुष्य है। अपनी स्वायत्तता और संप्रभुजा के लिए उन्होंने भी ब्रिट्रिश उपनिवेशवाद के खिलाफ़ महान् संघर्ष किया था लेकिन इतिहासकारों ने उस हिस्से को भारतीय इतिहास में शामिल नहीं किया, इतिहास असल में सत्ता का एक राजनीतिक दस्तावेज़ होता है...जो वर्ग जाति या नस्ल सत्ता में होती है वह अपने हितों के अनुरूप इतिहास को निर्मित करती है. इस देश और समाज का इतिहास अभी लिखा जाना बाकी है,’
राहुल डर गया. उसने कुछ दिन पहले ही ‘स्टिगमाटा’ नाम की फिल्म देखी थी, ‘दि मेसेंजर विल बी सायलेंस्ड, ईश्वर के दूत को खामोश कर दिया जाएगा. सच कोई सूचना नहीं है. सूचना उद्योग के लिए सच का एक डायनामाइट है, इसलिए सच को कुचल दिया जाएगा. द टुथ हैज टु बी डिफ्यूज्ड.
टप्. एक पत्ता और गिरेगा.
टप्. एक पवित्र फल असमय अपने अमृत के साथ चुपचाप किसी निर्जन में टपक जाएगा.
टप्. एक हत्या या आत्महत्या और होगी, जो अपने अगले दिन अखबार के तीसरे पृष्ठ पर एक-डेढ़ इंच की खबर बनेगी.
टप् ! टप् टप् ! समय बीत रहा है, पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है,
किन्नू दा का बार-बार आदिवासी इलाके में ट्रांसफर कर दिया जाता है. वे सनकी हैं, पगलैट हैं-नौकरशाही में यह चर्चा आम थी, इतने साल आई, ए. एस. अधिकारी रहने के बाद भी उनके पास अपने पी.एफ. के अलावा कोई नहीं. वे दिल्ली में एक फ्लैट खरीदने के लिए परेशान हैं.
राहुल को आर्गेनिक केमिस्ट्री से अरुचि हो गयी. उस विषय में उसे विनेगर की, फर्मेंटेशन की. तेज गंध आती. मोटे भोगी आदमी की डकार और अपान वायु से भरे हुए चेंबर का नाम है आर्गेनिक केमिस्ट्री.
मैं एंथ्रोपोलॉजी में एम. ए. करूँगा, फिर पी-एच.डी और इस मानव समस्या के उत्स तक पहुँचने की कोशिश करूँगा. इतिहास को शैतान ने किस तरह अपने हित में सबोटाज़ किया है, इसके उद्गम तक पहुँचने की मुझमें शक्ति और निष्ठा दे, हे परमपिता ! लेकिन माधुरी दीक्षित ?
और उसकी पीठ ?
और उसकी चौकी हुई हिरनी-सी आँखें ?
राहुल ने गुलेल में कागज़ की एक गोली बनाकर रबड़ कान तक खींचा और सटाक ! कागज की गोली माधुरी दीक्षित की पीठ पर जाकर लगी.
‘उई...ऽ’ एक मीठी-सी संगीत में डूबी हुई उत्तेजना पीड़ा भरी आवाज़ पैदा हुई और गर्दन मोड़ कर उस हिरणी ने अपने शिकारी को प्यार से देखा.
‘थैंक यू राहुल ! फॉर द इंजरी ! ....आय लव यू,
राहुल ने ‘स्टारडस्ट’ के सेंटर स्प्रेड में छपे उस चित्र को फेबिकोल से अपने कमरे की खिड़की की काँच पर चिपका दिया था, दरअसल उधर से धूप आती थी और दोपहर, दूसरी मंजिल के उस कमरा नंबर 252 में गर्मी के मारे रहना मुश्किल हो जाता था, अब माधुरी दीक्षित ने दोपहर की उस तेज जलती हुई धूप को हास्टल के उस कमरे में आने से रोक दिया था और अपनी खुली, गुलेल की बंटी से चोट खाई पीठ उधर कर दी थी वह लगातार अपनी मूर्ख, मस्त, सनकी आँखों से राहुल की ओर गरदन मोड़ कर देख रही थी, जैसे गुलेल ने उसकी खूबसूरती लचकती हुई खुली कटावदार पीठ को निशाना राहुल ने बनाया हो.
यह राहुल के अलावा कोई नहीं जानता था कि उसने एक दिन कमरा नंबर 252 के भीतर किसी एक गोपनीय, बेहद निजी क्षण में, किस तरह सलमान खान को चुपचाप बाहर निकाल फेंका था और उसकी जगह खुद आ गया था, यह सोचते ही उसका शरीर एक अजीब सी उत्तेजना और सिरहन से भर उठता कि माधुरी दीक्षित की उस खूबसूरत मांसल पीठ को चोट पहुँचाने वाला वह खुद है। उसी की गुलेल से सटाक से बंटी मारी और तड़ से बंटी लगते ही माधुरी दीक्षित ने एक ‘उई...ऽऽ’ की आवाज़ निकाली और ‘स्टारडस्ट’ के उस चित्र में ‘फ्रीज़’ हो गयी.
लड़की चोट खाना बहुत पसन्द करती है, वह बिल्ली या गिलहरी नहीं है, जिसकी जिसकी पीठ पर प्यार से धीरे-धीरे उंगलियां या हथेलियां फिराओ, उसे संभाल-संभाल कर सहलाओ तो वह गुर्र-गुर्र करती लोमट लोट होगी, लड़की तो वो चीज़ है, जिसको जितना मारो, जितना कूटो, उसे उतना मज़ा मिलता है. लड़की तो असल में ताकत और हिंसा को प्यार करती है.
राहुल ने इसीलिए युनिवर्सिटी से जिम जाना शुरू किया था, जिससे वह सलमान खान की तरह अपनी भुजाओ में मछलियां बना सके, चीते जैसी कमर और तेंदुए जैसा धड़, वह एक चिकने हिंसक, खूबसूरत, फुर्तीले बनैले जानवर में खुद को ढाल, लेना चाहता था. इसके और क्या चाहिए ? एक रेनबेन का काला चश्मा, रेंगलर या लेविस की एक जींस पैंट और टी शर्ट, नाईके के सॉक्स और वुडलैंड का बढिया जूता.
वह कई बार सोचता, लारा दत्ता, मनप्रीत ब्रार या गुलपनाग को देखकर वह उस तरह क्यों महसूस नहीं करता, जैसा माधुरी दीक्षित को देखकर करता है, जब कि माधुरी दीक्षित उससे उम्र में बहुत बड़ी थी, हाल की एक फिल्म में विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय अपनी पीठ को हू-ब-हू माधुरी दीक्षित की तरह खोलकर लचका रही थी और गर्दन मोड़कर अपनी कंजी भूरी आँखों से राहुल की ओर देख रही थी, लेकिन शिट्. बेकार. वो बात कहाँ जो माधुरी में है माधुरी की पीठ और पीठों में ज़मीन आसमान का फर्क है, एक ऐसी कोई चीज़ माधुरी दीक्षित की पीठ में है, उसकी त्वचा में या उसकी बनावट में, या उसके रंग में.....जो ऐश्वर्या या दूसरों की पीठ में नहीं है.
राहुत तुलनात्मक अध्ययन करता. इसे लगता है कि गुलपनाग, सुष्मिता या लारा आदि का शरीर काफी कुछ कृत्रिमता से बनाया गया है, मॉडलिंग की खास नाप-जोख के लिए इंची टेप से नाप नापकर, -डायटिंग और एक्सरसाइज से तैयार किया गया कृमिक शरीर, फिर उस पर वैक्सिंग, फेशियल, साओना और क्या-क्या. राहुल को वे गैर-मानवीय सिंथेटिक गुड़िया लगतीं, उनके सिर के बाल और शरीर के रोएं भी सिंथेटिक लगते, यहां तक कि उनकी बगलों शेविंग के बाद का हल्का नीला-हरा रंग होता, वह भी उसे कलरिंग लगता, ज्यादा नहीं, बस पन्द्रह दिन इनको ठीक-ठाक आदमी के तरीके से खाने पीने दो, आम लड़कियों की तरह रहने दो, तो ये फसक कर बोरा हो जाएंगी. पहचानना मुश्किल होगा, जबकि माधुरी दीक्षित की बात ही दूसरी है, चाल में या इस हॉस्टल में कमरे में भी रहने लगेगी, मेस की दाल रोटी सब्जी भी खाएगी। तब भी जस-की-तस ही रहेगी, ऐसी ही कमाल. ऐसी ही मस्त.
माधुरी की पीठ नेचुरल है, प्राकृतिक, यह अजब तरह से एक स्वदेशी पीठ है. बाकी पीठें सिंथेटिक है और विदेशी, इसलिए उनमें कोई जादू नहीं. राहुल ने निष्कर्ष निकाला. लेकिन उसका दूसरा वह निष्कर्ष ज्यादा गंभीर था जिसके अनुसार लड़कियाँ दरअसल चोट, पीड़ा-हिंसा और ताकत को प्यार करती हैं, वे मूर्ख बनाया जाना, उत्पीड़ित होना निर्ममता के साथ अपने भोग लिये जाने को ज़्याता पसंद करती हैं, ज़माना बदल गया है. वे छठे-सातवें दशक में शम्मी कपूर, ऋषि कपूर, विश्वजित या जितेंद्र टाइप के मर्द को नहीं, सलमान खान, सन्नी देओल या अजय देवगन जैसे माचो या सैडिस्ट मर्द के पीछे पागल होती हैं. कितनी ख़तरनाक और हिंसक था ‘डर’ में शाहरुख खान ? फोन करके पीछा कर के, और रेप की कोशिश कर के जुही चावला को लस्त-पस्त और लहुलुहान कर डाला था. डर के मारे उसकी घिग्घी बंध गई थी, लेकिन उसी अर्द्ध विक्षिप्त-शीज़ोफ्रेनिक खान के पीछे सारी युनिवर्सिटी की लड़कियाँ दीवानी थीं.
कुड़ियों को शाहरुख खान चाहिए, कोई छक्का, कृष्ण-कन्हैया टाइप का हज़बैंड छाप गऊ नहीं, राहुल इस रहस्य को समझ चुका था. इसी के बाद से उसके कमरा नंबर 252 की दीवार की खिड़की में माधुरी दीक्षित रहने लगी थी, पिछले चार महीनों से.
राहुल के कैरियर का नक्शा थो़ड़ा सामान्य था. उसने आर्गेनिक केमिस्ट्री में एम. एस.-सी किया था, उसके बाद अचानक उसमें एंथ्रोपोलॉजी में एम. ए. करने का भूत जागा. इसका ठीक-ठीक कारण पता लगाना ज़रा मुश्किल है लेकिन संभव है, इसके पीछे राहुल के एक फुफेरे भाई की प्रेरणा रही हो, जो अंतराष्ट्रीय स्तर के नृतत्वशास्त्री और फिलहाल एंथ्रोपोलॉजी सर्वें ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जनरल थे. वे कई बार राहुल के घर उसके गाँव आते. कभी-कभी तो कई हफ्ते वे वहीं रुक जाते. पिता जी उनके सामने प्रिय मामा थे. दोनों की खूब पटरी बैठती थी. राहुल की ड्यूटी उनकी देखभाल की होती.
राहुल ने सुना था कि उनकी आदिवासियों पर एक ऐसी किताब पेंगुइन में आई है, जिसने दुनिया में तहलका मचा रखा है. इस किताब के आने से पहले तक लोग यही जानते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई सिर्फ़ ब्राह्मणों, ठाकुर, बनियों या हिन्दू मुलसमानों ने ही लड़ी है. अब तक के इतिहासकारों ने जिन नायकों का निर्माण किया था, वे सब इन्हीं पृष्ठभूमियों के थे. उनमें आदिवासी और दलित लगभग नहीं थे. लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब, कुवंर सिंह, फड़नवीस, अजीमुल्ला, मंगल पांडे, राजा, ज़मीदार, नवाब वगैरह. बाद में बीसवीं सदी में भी ऐसे नायक बने, नेहरू., गांधी, तिलक, जिन्ना सुहरावर्दी, पटेल आदि. इनमें से अधिकांश ऊंची जाति के अमीर वर्ग के लोग थे. ले देकर कभी-कभार डॉक्टर अंबेडकर का नाम आता था, जो दलित थे और प्रकांड प्रतिभा के कारण उन्हें आजाद भारत का संविधान बनाने का काम सौंपा गया था. लेकिन उनके बारे में भी यह प्रचार कर दिया गया था कि वे अंग्रेजों के एजेंट थे और हिन्दू धर्म को खत्म कर के बौद्ध धर्म को भारत में स्थापित करना चाहते थे. यानी नायक से ज्यादा खलनायक थे.
किन्नू दा की किताब ने इसलिए तहलका मचाया कि उसमें पहली बार, बहुत प्रामाणिक दस्तावेजों और तथ्यों के साथ, सिंहभूमि और झारखंड समेत छोटा नागपुर बेल्ट के उन आदिवासी नायकों के संघर्ष की कथा कही गई थी, जिनका महान त्रासदी भरा नायकत्व अब तक सिर्फ़ बिहार, उड़ीसा और बंगाल के पिछडे आदिवासी इलाकों में प्रचलित ‘फोकलोर’ में ही मौजूद था.
किन्नू दा जब बोलने लगते तो राहुल आर्गेनिक केमिस्ट्री बकवास लगने लगती. क्या करूँगा उसको पढ़कर ? किसी बुएरीज़ या किसी फूड प्रोसेसिंग मल्टी नेशनल इंडस्ट्री में केमिस्ट बन जाऊंगा. या किसी यूनिवर्सिटी-कालेज में लेक्चरर, वह अपने भविष्य के बारे में सोचता उसे कोई मोटा, पिदपिदा-सा आदमी, सुअर की तरह फचफच करके पिजा खाते. दही या विनेगर में गार्डिश्ड मछली को कचर-पचर चबाते दिखाई देने लगता जो साथ-साथ में शराब भी पीता और धुत्त हो कर किसी किराए में लाई गयी टीन एज लड़की के साथ अपनी मटके जैसी तोंद और विशाल कद्दुओं जैसे ढीले-ढाले नितंबों को मटका-मटका कर नाचने लगता.
यही वह आदमी है-खाऊ, तुंदियल, कामुक लुच्चा, जालसाज़ और रईस, जिसकी सेवा की खातिर इस व्यवस्था और सरकार का निर्माण किया गया है. इसी आदमी के सुख और भोग के लिए इतना बडा़ बाज़ार है और इतनी सारी पुलिस और फौज है. अगर मैंने आर्गेनिक केमिस्ट्री के बलबूते कोई नौकरी की तो इसी आदमी के खाने-पीने की चीज़ों को लगातार स्वादिष्ट, पौष्टिक और लज़ीज़ बनाने का काम मुझे अपने जीवन भर करना पड़ेगा. वह जीवन, जो मुझ अकिंचन को इस ब्रह्मांण के करूणा सागर सृष्टिकर्ता ने महान कृपा करके सिर्फ़ एक बार के लिए दिया है.
शिट् ! शाला हांफ रहा है, एक पैर कब्र में लटका है, मोटापे के कारण ठीक से चल नहीं पाता, लेकिन खाए जा रहा है. उसे खाने के लिए अनंत भोज्य पदार्थ चाहिए. उसकी जीभ को अनंत स्वाद चाहिए. सारी दुनिया के वैज्ञानिक उसकी जीभ को संतुष्ट करने के खातिर तमाम प्रयोगशालाओं में शोध कर रहे हैं, उसके लोदे और घृणित थुलथुल शरीर की समस्त इंद्रियों को अनंत-अपार आनंद और बेइंतहा मज़ा और ‘किक’ चाहिए. उसकी हिप्पोपोटेमस जैसे थूथन को तरह-तरह की खुशबू चाहिए. सारी परफ्यूम इंडस्ट्री इसी की नाक की बदबू मिटाने के लिए है. एक कार्बनिक रासायन वैज्ञानिक के नाते मेरा काम होगा, इस भोगी लोदें की एषणाओं और सृजन के द्वारा संतुष्ट करना.
यही वह आदमी है जिसके लिए संसार भर की औरतों के कपड़े उतारे जा रहे हैं. तमाम शहरों के पार्लर्स में स्त्रियों को लिटाकर उनकी त्वचा से मोम के द्वारा या एलेक्ट्रोलियस के जरिये रोय़ें उखाड़े जा रहे हैं, जैसे पिछले समय में गड़रिये भेड़ों की खाल से ऊन उतारा करते थे, राहुल को साफ दिखाई देता कि तमाम शहरों और कस्बों के मध्य-निम्न मध्यवर्गीय घरों से निकल-निकल कर लड़कियाँ उन शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह उगी ब्यूटी-पार्लर्स में मेमनों की तरह झुंड बनाकर घुसतीं और फिर चिकनी-चुपड़ी होकर उस आदमी की तोंद पर अपनी टाँगें छितरा कर बैठ जातीं, इन लड़कियों को टी.वी. ‘बोल्ड एंड ब्यूटीफुल’ कहता और वह लुजलुजा-सा तुंदियल बूढ़ा खुद ‘रिच एंड फेमस’ था.
वह आदमी बहुत ताकतवर था. उसको सारे संसार की महान शैतानी प्रतिभाओं ने बहुत परिश्रम, हिकमत पूँजी और तकनीक के साथ गढ़ा था. उसको बनाने में नयी टेक्नालॉजी की भूमिका अहम थी. वह आदमी कितना शक्तिशाली था. इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने पिछली कई शताब्दियों के इतिहास में रचे-बनाये गये कई दर्शनों, सिद्धान्तों और विचारों को एक झटके में कच़ड़ा बनाकर अपने आलीशान बंगले के पिछवाड़े के कूड़ेदान में डाल दिया था. ये वे सिद्धान्त थे, जो आदमी की हवस को एक हद के बाद नियंत्रित करने, उस पर अंकुश लगाने या उसे मर्यादित करने का काम करते थे.
इससे ज़्यादा मत खाओ, इससे ज़्यादा मत कमाओ, इससे ज़्यादा हिंसा मत करो, इससे ज़्यादा संभोग मत करो, इससे ज़्यादा मत सोओ, इससे ज़्यादा मत नाचो....वे सारे सिद्धान्त, जो धर्म ग्रंथों में भी थे, समाजशास्त्र या विज्ञान अथवा राजनीतिक पुस्तकों में भी. उन्हें कूड़ेदान में डाल दिया गया था. इस आदमी ने बीसवीं सदी के अंतिम में पूँजी सत्ता और तकनीक की समूची ताकत को अपनी मुट्ठियों में भर कर कहा थाः स्वतंत्रता ! चीखते हुए आज़ादी ! अपनी सारी एषणाओं को जाग जाने दो, अपनी सारी इंद्रियों को इस पृथ्वी पर खुल्ला चरने और विचरने दो. इस धरती पर जो कुछ भी है, तुम्हारे द्वारा भोगे जाने के लिए है. न कोई राष्ट्र है, न कोई देश. समूचा भूमण्डल तुम्हारा है. न कुछ नैतिक है. न कुछ अनैतिक. कुछ पाप है. न पुण्य. खाओ पियो और मौज़ करो. नाचो....ऽऽ वूगी. वूगी. गाओ...ऽऽ वूगी.खाओ ! खूब खाओ. कमाओ, खूब कमाओ वूगी....वूगी. इस जगत के समस्त पदार्थ तुम्हारे उपभोग के लिए है. वूगी....वूगी....! और याद रखो स्त्री भी एक पदार्थ है वूगी....वूगी...!
उस ताकतवर भोगी लोंदे ने एक नया सिद्धान्त दिया था जिसे भारत के वित्तमंत्री ने मान लिया था और खुद उसकी पर्स में जमकर घुस गया था. वह सिद्धान्त यह था कि उस आदमी को खाने से मत रोको. खाते-खाते जैसे उसका पेट भरने लगेगा. वह जूठन अपनी प्लेट के बाहर गिराने लगेगा. उसे करोड़ों भूखे लोग खा सकते है. काटीनेंटल, पौष्ठिक जूठन. उस आदमी को संभोग करने से मत रोको, वियाग्रा खा-खाकर वह संभोग करते-करते लड़कियों को अपने बेड से नीचे गिराने लगेगा, तब करोड़ों वंचित देशी छड़े उन लड़कियों को प्यार कर सकते है. उनसे अपना घर परिवार बसा सकते हैं.
यही वह सिद्धान्त था, जिसे उस आदमी ने दुनिया भर के सूचना संजाल के द्वारा चारों ओर फैला दिया था और देखते-देखते मानव सभ्यता बदल गई थी टीवी चैनलों सारे कंप्यूटरों में यह सिद्धान्त बज रहा था, प्रसारित हो रहा था.
बीसवीं सदी के अंत और इक्कसवीं सदी की दहलीज़ की ये वे तारीखें थी जब प्रेमचन्द्र, तॉल्सतॉय, गाँधी या टैगोर का नाम तक लोग भूलने लगे थे. किताबों की दुकानों में सबसे ज़्यादा बिक रही थी बिल गोट्स की किताब ‘दि रोड अहेड’,
वह तुंदियल अमीर खाऊ आदमी, गरीब तीसरी दुनिया की नंगी विश्व सुंदरियों के साथ एक आइसलैंड के किसी मँहगे रिसॉर्ट में लेटा हुआ मसाज करा रहा था अचानक उसे खुद याद आया और उसने सेल फोन उठाकर एक नम्बर मिलाया.
विश्व सुंदरी ने उसे वियाग्रा की गोली दी, जिसे निगल कर उसने उसके स्तन दबाये, ‘हेलो ! आयम निखलाणी, स्पीकिंग ऑन बिहाफ ऑफ द आइ, एम. एफ, गेट मी टु दि प्राइम मिनिस्टर !’
‘येस....येस ! निखलाणी जी ! कहिए कैसे हैं ? मैं प्रधान मंत्री बोल रहा हूँ,
‘ठीक से सहलाओ ! पकड़कर ! ओ. के. !’ उस आदमी ने मिस वर्ल्ड को प्यार से डाटा फिर सेल फोन पर कहा ‘इत्ती देर क्यों कर दी....साईं ! जल्दी करो ! पॉवर, आई टी, फूड, हेल्थ एजुकेशन....सब ! सबको प्रायवेटाइज करो साईं !...ज़रा क्विक ! और पब्लिक सेंक्टर का शेयर बेचो... डिसएन्वेस्ट करो...! हमको सब खरीदना है साईं...!
‘बस-बस ! ज़रा सा सब्र करें भाई...बंदा लगा है डयूटी पर, मेरा प्रॉबलम तो आपको पता है. खिचड़ी सरकार है. सारी दालें एक साथ नहीं गलतीं निखलाणी जी. ’
‘मुंह में ले लो. लोल...माई लोलिट्,’ रिच एंड फेमस तुंदियल ने विश्वसुन्दरी के सिर को सहलाया फिर ‘पुच्च...पुच्च की आवाज़ निकाली, ‘आयम, डिसअपांयंटेड पंडिज्जी ! पार्टी फंड में कितना पंप किया था मैंने, हवाला भी, डायरेक्ट भी...केंचुए की तरह चलते हो तुम लोग, एकॉनमी कैसे सुधरेगी ? अभी तक सब्सिडी भी खत्म नहीं की !’
‘हो जायेगी निखलाणी जी ! वो आयल इंपोर्ट करने वाला काम पहले कर दिया था, इसलिए सोयाबीन, सूरजमुखी और तिलहन की खेती करने वाले किसान पहले ही बरबाद थे. उनके फौरन बाद सब्सिडी भी हटा देते तो बवाल हो जाता...आपके हुकुम पर अमल हो रहा है भाई....सोच-समझ कर कदम उठा रहे हैं,’
‘जल्दी करो पंडित ! मेरे को बी. पी है. ज़्यादा एंक्ज़ायटी मेरे हेल्थ के लिए ठीक नहीं, मरने दो साले किसानों बैंचो....को...ओ...के...’
उस आदमी ने सेल्युलर ऑफ किया, एक लंबी घूंट स्कॉच की भरी और बेचैन हो कर बोला, ‘‘वो वेनेजुएला वाली रनर कहाँ है. उसे बुलाओ, ’
किन्नू दा ने राहुल से कहा, ‘आदिवासियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी ज़रूरतें सबसे कम हैं, वे प्रकृति और पर्यावरण का कम से कम नुकसान करते है, सिंहभूम, झारखंड, मयूरभंज, बस्तर और उत्तरपूर्व में ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जो अभी तक छिटवा या झूम खेती करते है सिर्फ़ कच्ची, भुनी या उबली चीजें खाते हैं. तेल में फ्राई करना तक वे पसंद नहीं करते. वे प्राकृतिक मनुष्य है। अपनी स्वायत्तता और संप्रभुजा के लिए उन्होंने भी ब्रिट्रिश उपनिवेशवाद के खिलाफ़ महान् संघर्ष किया था लेकिन इतिहासकारों ने उस हिस्से को भारतीय इतिहास में शामिल नहीं किया, इतिहास असल में सत्ता का एक राजनीतिक दस्तावेज़ होता है...जो वर्ग जाति या नस्ल सत्ता में होती है वह अपने हितों के अनुरूप इतिहास को निर्मित करती है. इस देश और समाज का इतिहास अभी लिखा जाना बाकी है,’
राहुल डर गया. उसने कुछ दिन पहले ही ‘स्टिगमाटा’ नाम की फिल्म देखी थी, ‘दि मेसेंजर विल बी सायलेंस्ड, ईश्वर के दूत को खामोश कर दिया जाएगा. सच कोई सूचना नहीं है. सूचना उद्योग के लिए सच का एक डायनामाइट है, इसलिए सच को कुचल दिया जाएगा. द टुथ हैज टु बी डिफ्यूज्ड.
टप्. एक पत्ता और गिरेगा.
टप्. एक पवित्र फल असमय अपने अमृत के साथ चुपचाप किसी निर्जन में टपक जाएगा.
टप्. एक हत्या या आत्महत्या और होगी, जो अपने अगले दिन अखबार के तीसरे पृष्ठ पर एक-डेढ़ इंच की खबर बनेगी.
टप् ! टप् टप् ! समय बीत रहा है, पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है,
किन्नू दा का बार-बार आदिवासी इलाके में ट्रांसफर कर दिया जाता है. वे सनकी हैं, पगलैट हैं-नौकरशाही में यह चर्चा आम थी, इतने साल आई, ए. एस. अधिकारी रहने के बाद भी उनके पास अपने पी.एफ. के अलावा कोई नहीं. वे दिल्ली में एक फ्लैट खरीदने के लिए परेशान हैं.
राहुल को आर्गेनिक केमिस्ट्री से अरुचि हो गयी. उस विषय में उसे विनेगर की, फर्मेंटेशन की. तेज गंध आती. मोटे भोगी आदमी की डकार और अपान वायु से भरे हुए चेंबर का नाम है आर्गेनिक केमिस्ट्री.
मैं एंथ्रोपोलॉजी में एम. ए. करूँगा, फिर पी-एच.डी और इस मानव समस्या के उत्स तक पहुँचने की कोशिश करूँगा. इतिहास को शैतान ने किस तरह अपने हित में सबोटाज़ किया है, इसके उद्गम तक पहुँचने की मुझमें शक्ति और निष्ठा दे, हे परमपिता ! लेकिन माधुरी दीक्षित ?
और उसकी पीठ ?
और उसकी चौकी हुई हिरनी-सी आँखें ?
राहुल ने गुलेल में कागज़ की एक गोली बनाकर रबड़ कान तक खींचा और सटाक ! कागज की गोली माधुरी दीक्षित की पीठ पर जाकर लगी.
‘उई...ऽ’ एक मीठी-सी संगीत में डूबी हुई उत्तेजना पीड़ा भरी आवाज़ पैदा हुई और गर्दन मोड़ कर उस हिरणी ने अपने शिकारी को प्यार से देखा.
‘थैंक यू राहुल ! फॉर द इंजरी ! ....आय लव यू,
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