आधुनिक >> भूख भूखक्नुत हाम्सुन
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क्नूत हाम्सुन का एक अत्यन्त मर्मस्पर्शी उपन्यास...
Bhookh a hindi book by Knut Hamsun - भूख - क्नूत हाम्सुन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गली अब भी मेरे चारों ओर नाच रही थी। मारे गुस्से के मेरी हिचकी बंध गयी, और बेहोशी से बचने की गर्ज़ से मैं बची-खुची ताक़त का इस्तेमाल करने लगा, और खुद को गिरने से बचाने के लिए जमकर लड़ने लगा। मैं गिरना नहीं चाहता था, मैं खड़े-खड़े मरना चाहता था। थोक के एक पंसारी की घोड़ा-गाड़ी मेरे सामने से निकली और मैंने देखा कि उसमें आलू भरे थे। लेकिन मारे गुस्से के सिर्फ़ बाज़िद मैंने फ़ैसला किया कि वे हरगिज़ आलू नहीं थे, बल्कि पत्ता-गोभियां थीं। मुझे अपने शब्द ठीक-ठीक सुन रहे थे।, मैं बार-बार इस झूठ को लेकर कसमें खा रहा था कि सरेआम धोखा-धड़ी करने का मज़ा लूट सकूँ। मैंने हवा में तीन ऊँगलियाँ उठाई काँपते ओठो से पिता, पुत्र और पावन आत्मा की क़सम खाकर कहा कि वे पत्ता-गोभियां थी।
(इसी उपन्यास से)
ऐसे में कभी-कभी क्रिस्तिआनिया......
भूख को लिखना कैसा अनुभव रहा होगा, इसका अनुमान इस उपन्यास को पढ़कर लगाना एक बात है, अनुवाद करके लगाना दूसरी बात है और हिन्दी में भूख के एकाधिकार प्रूफ़ देखते हुए लगाना तीसरी बात है। यानी दो अतिरिक्त सुख-दुख साँझे किए जा रहे हैं।
पढ़कर आप विस्मित हों कि हाम्सुन इसे लिख कैसे पाये होंगे।
वह जो वे ‘जी’ चुके थे, ‘जी’ रहे थे-उससे जीवित बच रहे क्योंकि ‘लिखना’ अभी शेष था ?
वह यातना-शिविर जो आपके लिए किसी दूसरे ने शिल्पित नहीं किया, वह अपराध जिसकी सज़ा आप खुद लिखते हैं- लेखक के लायक वह ‘शाश्वत नर्क’ जिसमें स्थिति होने के बावजूद अगर किसी लेखक को यह शक बना रहे कि वह किसी ‘गुनगुने हराम’ में बैठा लिख रहा है, तो उसे काफ़्का कहें या हाम्सुन, या उसके द्वारा रचा हुआ कोई हंगर आर्टिस्ट ?
फिर एक पाठक उस ‘गुनगुने हमाम’ को देख भर लेता है, झुलस जाता है। और वह किताब जो मेज़ पर धरी है, वह उसे छू भी नहीं सकता, उस भूख को क्या हाम्सुन इस पाठक में पहले से ही मौजूद थे कि वह पढ़ना चाह उठा था उन्हें ? क्या हाम्सुन ने आकर ही हाम्सुन के लिए जगह बनायी थी ?
हाम्सुन का लेखन इन प्रश्नों को लगभग मिटा ही देता है। आप सीधे झुलस में भोंके हुए पाये जाते हैं, मिरोस्लाव होलुब के ‘पाँच-सौ डिग्री सेन्टीग्रेड’ में। भूख में भोजन और लेखन के साथ आपका समीकरण चित्रकाल के लिए रूपायित हो जाता है।
भूख के अनुवाद का सुख यानी अवसाद और भय की सांद्र ऐन्द्रिकता। लिखने का ऐसा ढंग जो आँतों को चीर रहा है और जिस्म में एक अप्रत्याशित भाषा को वुजूद में ला रहा है।
इस उपन्यास में लेखन की भूख इतनी ग़ज़बनाक है, कि उस जिस्म को ज़िन्दा रखना लाजिमी है और उस ज़हन को जो ‘लेखन’ को प्रकाश में लायेगा। और भूख जिस्म की भोजना के लिए भूख, उस भूख का दर्पण है जिसमें वह दिन-दिहाड़े झलक आयी है।
इस दर्पण को साफ़ रखना ज़रूरी है। और वही उसे साफ़ रख पायेगा, वह नायक जो हाम्सुन के लेखन के भीतर अपना लेखन करने की ज़िद कर रहा है, और उस हाम्सुन का लेखन हमें दिखाने की ज़िद भी कर रहा है जो भूख के प्रकाशन से पहले अभी क्नूत हाम्सुन नहीं हुए थे, जिन्हें ब्यर्नसन अभिनेता बनने की सलाह दे रहे थे, और जो क्रिस्तिआनिया में भूखे मर रहे थे।
पॉल ऑस्टर और राबर्ट ब्लाक इस नायक को ऐसे देख रहे हैं जैसे घाट पर पीपल के नीचे खड़े उस बाबा को जो वर्षों से किसी हठ का संकेत हमें दे रहे हैं, वे बस खड़े हैं।
लेकिन भूख अगर हठ है तो रोष आक्रोश भी कम नहीं है, खुदा की ख़ुदाई पर कहर की नज़र भी। इसके साथ-साथ वह लेखन का एक बेजोड़ नमूना भी है जिससे संचालित रक्त आधुनिक उपन्यास की रगों में बेहतर दौड़ निकला है। हाम्सुन कोई इब्सन नहीं थे कि उन्हें कुछ दहाकों की मारा-मारी करते देख मध्यम-वर्ग उनके पीछे एक गाव-तकिया रख देता। वे इस लायक नहीं थे। क्रिस्तिआनिया को ऑस्लो में बदलते हुए देख रहे थे।1 उस ऑस्लो में जिसमें आज के दिन अम्बादास नाम के भारतीय चित्रकार का बास है, और जिनसे नार्वे का कालाकार समुदाय प्रायः अनभिज्ञ चला रहा है।2 क्रिस्तिआनिया में वह ‘तेल’ नहीं था जिसने नार्वे को अचानक अमीर बना डाला था; साँझ के समय गली में लगे लैम्पों को जलाने बाक़ायदा दो आदमी आया करते थे। हाम्सुन को पढ़ने वाले नार्वीजी लोग हाम्सुन के राजनैतिक मतिभ्रम से आहत और कुद्ध होने के बावजूद क्या पता वही लोग हों जिनमें उन लैम्प जलाने (और बुझाने) वाले आदमियों का लिहाज़ अभी है, उनका भी जो क्रिस्तिआनिया में चीथड़े पहने घूमते थे और भूख से मरते थे, जिन्हें नहीं मालूम था कि घोडे़ की टापों से गूँजता हुआ क्रिस्तिआनिया जब ऑस्लो में बदल जाएगा तो ग़रीब शब्द के अर्थ किस कदर बदल जायेंगे (वे रात-भर शहर की तमाम दुकानों के भीतर जगमगाते हुए मुर्कुरी बल्बों से प्रकाश में आ गये हैं)
गाँधीजी के बारे में अशोक सक्सेरिया ने कभी एक बात कही थी, कि वे गरीब आदमी एक अविस्मरणीय छवि भारतीय मानस, में उकेर गये हैं। हम कह सकते
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1. ऑस्लो नाम का शहर 1048 में Lo नदी तट पर बसा हुआ था। (os यानी बस्ती)। छः सौ वर्ष बाद क्रिस्तियन lV इसका ठिया उठाकर अपने नाम की छाप लगाकर इसे पश्चिमी तट पर ले आये थे। बीसवीं शताब्दी में इस शहर को फिर से ऑस्लो का नाम दिया गया।
2. अम्बादास अपने चित्रों में मिट्टी का तेल भी इस्तेमाल करते हैं- जिससे शुरू में पिंगमेंट का फट जाना एक प्रयोग या हादसा रहा होगा-जो उन्होंने साध लिया है।
हैं कि 1890 में छपे भूख में हाम्सुन लेखन की खातिर भूखे मर रहे इस अनोखे नायक की छवि आधुनिक उपन्यास में आद्याक्षर की तरह अंकित कर गए हैं- 1890 ही में पहली ‘सफल’ कार कम्पनी कार्ल बेंज ने स्थापित की थीः क्रिस्तिआनिया में भूख से बिलबिलाते हुए नायक पर भूसे से लदी घोड़ागाड़ी पर से दो छोकरे फ़ब्ती कसते हैं- और हाथ बढ़ाकर एक चाबुक उसके कान पर तड़ाक से मार देते हैं। इस क्रिस्तिआनिया में ग़रीबी के बिम्ब इस कदर कोरे हैं कि पढ़ने वाले को स्पर्शित करने की बजाय ‘लिखने’ ‘पढ़ने’ और ‘खाने’ की क्रियाओं के साथ उनके सम्बन्ध ही को मुतासिर कर रहे हैं। औदार्य कमीनगी की किन सालों में से निकलकर आयेगा इसका अनुमान लगाना उतना ही कठिन है जितना इस उपन्यास को पढ़े बिना इसे पढ़ने के ढंग का।
जो रास्ता हाम्सुन ने अपने लेखन में दोस्तोएव्स्की के लिए खोला था, वह पगडण्डी घासों के नीचे छिपी हुई है- और इब्सन द्वारा रूसी उपन्यासकार के लिए खोले गये सरेआम रास्ते से एकदम विपरीत दिशा में। दोस्तोएव्स्की के निगूढ़ संकेतों से रीते हुए इब्सन के पात्रों के सनसनीख़ेज जेस्चर्ज़ (हेड्डा गाब्लेर द्वारा पाण्डुलिपि जलाये जाना), उन सनसनीखेज़ जेस्चर्ज़ से बिल्कुल नहीं मिलते जो ‘निगूढ़’ के उस्ताद हाम्सुन की भूख में भरे पड़े हैं। लिहाज़ा अनुवाद की तकनीक कठिनाइयाँ नगण्य थीं। लेकिन जो संकट आन पड़ा था उसमें ‘ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जान और’-यह उपक्रम इस एक साल में मुमकिन नहीं था।
जो मुमकिन था, वह था- आस्लो के जिस होटल में हाम्सुन अपनी पत्नी से रूठकर अकेलेपन की तलाश में चले थे, उनके सामने से एक बार फिर गुज़र कर देखना।
फिर गर्मी के दिनों की कोई ऐसी दो-तीन छुट्टियों में ऑस्लो में बने रहना जब शहर लगभग खाली हो जाया करता है-ऐसें कभी-कभी क्रिस्तिआनिया खुद को एक बार फिर दिखाने की कोशिश करता है।3
यह भी मुमकिन था-उन दिनों वहाँ होना जब दिन उजाला बुझाए नहीं बुझता, और उन कथीड्रलों के पास से गुज़रना जिसकी लम्बी छायाएँ साँझ के सूरज में सड़कों पर बिछी रहती हैं- और किसी भी क्षण यह महसूस कर लेना की आप किसी पेंगुइन मॉर्डन क्लासिक के कवर पर घूम रहे हैं।
पढ़कर आप विस्मित हों कि हाम्सुन इसे लिख कैसे पाये होंगे।
वह जो वे ‘जी’ चुके थे, ‘जी’ रहे थे-उससे जीवित बच रहे क्योंकि ‘लिखना’ अभी शेष था ?
वह यातना-शिविर जो आपके लिए किसी दूसरे ने शिल्पित नहीं किया, वह अपराध जिसकी सज़ा आप खुद लिखते हैं- लेखक के लायक वह ‘शाश्वत नर्क’ जिसमें स्थिति होने के बावजूद अगर किसी लेखक को यह शक बना रहे कि वह किसी ‘गुनगुने हराम’ में बैठा लिख रहा है, तो उसे काफ़्का कहें या हाम्सुन, या उसके द्वारा रचा हुआ कोई हंगर आर्टिस्ट ?
फिर एक पाठक उस ‘गुनगुने हमाम’ को देख भर लेता है, झुलस जाता है। और वह किताब जो मेज़ पर धरी है, वह उसे छू भी नहीं सकता, उस भूख को क्या हाम्सुन इस पाठक में पहले से ही मौजूद थे कि वह पढ़ना चाह उठा था उन्हें ? क्या हाम्सुन ने आकर ही हाम्सुन के लिए जगह बनायी थी ?
हाम्सुन का लेखन इन प्रश्नों को लगभग मिटा ही देता है। आप सीधे झुलस में भोंके हुए पाये जाते हैं, मिरोस्लाव होलुब के ‘पाँच-सौ डिग्री सेन्टीग्रेड’ में। भूख में भोजन और लेखन के साथ आपका समीकरण चित्रकाल के लिए रूपायित हो जाता है।
भूख के अनुवाद का सुख यानी अवसाद और भय की सांद्र ऐन्द्रिकता। लिखने का ऐसा ढंग जो आँतों को चीर रहा है और जिस्म में एक अप्रत्याशित भाषा को वुजूद में ला रहा है।
इस उपन्यास में लेखन की भूख इतनी ग़ज़बनाक है, कि उस जिस्म को ज़िन्दा रखना लाजिमी है और उस ज़हन को जो ‘लेखन’ को प्रकाश में लायेगा। और भूख जिस्म की भोजना के लिए भूख, उस भूख का दर्पण है जिसमें वह दिन-दिहाड़े झलक आयी है।
इस दर्पण को साफ़ रखना ज़रूरी है। और वही उसे साफ़ रख पायेगा, वह नायक जो हाम्सुन के लेखन के भीतर अपना लेखन करने की ज़िद कर रहा है, और उस हाम्सुन का लेखन हमें दिखाने की ज़िद भी कर रहा है जो भूख के प्रकाशन से पहले अभी क्नूत हाम्सुन नहीं हुए थे, जिन्हें ब्यर्नसन अभिनेता बनने की सलाह दे रहे थे, और जो क्रिस्तिआनिया में भूखे मर रहे थे।
पॉल ऑस्टर और राबर्ट ब्लाक इस नायक को ऐसे देख रहे हैं जैसे घाट पर पीपल के नीचे खड़े उस बाबा को जो वर्षों से किसी हठ का संकेत हमें दे रहे हैं, वे बस खड़े हैं।
लेकिन भूख अगर हठ है तो रोष आक्रोश भी कम नहीं है, खुदा की ख़ुदाई पर कहर की नज़र भी। इसके साथ-साथ वह लेखन का एक बेजोड़ नमूना भी है जिससे संचालित रक्त आधुनिक उपन्यास की रगों में बेहतर दौड़ निकला है। हाम्सुन कोई इब्सन नहीं थे कि उन्हें कुछ दहाकों की मारा-मारी करते देख मध्यम-वर्ग उनके पीछे एक गाव-तकिया रख देता। वे इस लायक नहीं थे। क्रिस्तिआनिया को ऑस्लो में बदलते हुए देख रहे थे।1 उस ऑस्लो में जिसमें आज के दिन अम्बादास नाम के भारतीय चित्रकार का बास है, और जिनसे नार्वे का कालाकार समुदाय प्रायः अनभिज्ञ चला रहा है।2 क्रिस्तिआनिया में वह ‘तेल’ नहीं था जिसने नार्वे को अचानक अमीर बना डाला था; साँझ के समय गली में लगे लैम्पों को जलाने बाक़ायदा दो आदमी आया करते थे। हाम्सुन को पढ़ने वाले नार्वीजी लोग हाम्सुन के राजनैतिक मतिभ्रम से आहत और कुद्ध होने के बावजूद क्या पता वही लोग हों जिनमें उन लैम्प जलाने (और बुझाने) वाले आदमियों का लिहाज़ अभी है, उनका भी जो क्रिस्तिआनिया में चीथड़े पहने घूमते थे और भूख से मरते थे, जिन्हें नहीं मालूम था कि घोडे़ की टापों से गूँजता हुआ क्रिस्तिआनिया जब ऑस्लो में बदल जाएगा तो ग़रीब शब्द के अर्थ किस कदर बदल जायेंगे (वे रात-भर शहर की तमाम दुकानों के भीतर जगमगाते हुए मुर्कुरी बल्बों से प्रकाश में आ गये हैं)
गाँधीजी के बारे में अशोक सक्सेरिया ने कभी एक बात कही थी, कि वे गरीब आदमी एक अविस्मरणीय छवि भारतीय मानस, में उकेर गये हैं। हम कह सकते
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1. ऑस्लो नाम का शहर 1048 में Lo नदी तट पर बसा हुआ था। (os यानी बस्ती)। छः सौ वर्ष बाद क्रिस्तियन lV इसका ठिया उठाकर अपने नाम की छाप लगाकर इसे पश्चिमी तट पर ले आये थे। बीसवीं शताब्दी में इस शहर को फिर से ऑस्लो का नाम दिया गया।
2. अम्बादास अपने चित्रों में मिट्टी का तेल भी इस्तेमाल करते हैं- जिससे शुरू में पिंगमेंट का फट जाना एक प्रयोग या हादसा रहा होगा-जो उन्होंने साध लिया है।
हैं कि 1890 में छपे भूख में हाम्सुन लेखन की खातिर भूखे मर रहे इस अनोखे नायक की छवि आधुनिक उपन्यास में आद्याक्षर की तरह अंकित कर गए हैं- 1890 ही में पहली ‘सफल’ कार कम्पनी कार्ल बेंज ने स्थापित की थीः क्रिस्तिआनिया में भूख से बिलबिलाते हुए नायक पर भूसे से लदी घोड़ागाड़ी पर से दो छोकरे फ़ब्ती कसते हैं- और हाथ बढ़ाकर एक चाबुक उसके कान पर तड़ाक से मार देते हैं। इस क्रिस्तिआनिया में ग़रीबी के बिम्ब इस कदर कोरे हैं कि पढ़ने वाले को स्पर्शित करने की बजाय ‘लिखने’ ‘पढ़ने’ और ‘खाने’ की क्रियाओं के साथ उनके सम्बन्ध ही को मुतासिर कर रहे हैं। औदार्य कमीनगी की किन सालों में से निकलकर आयेगा इसका अनुमान लगाना उतना ही कठिन है जितना इस उपन्यास को पढ़े बिना इसे पढ़ने के ढंग का।
जो रास्ता हाम्सुन ने अपने लेखन में दोस्तोएव्स्की के लिए खोला था, वह पगडण्डी घासों के नीचे छिपी हुई है- और इब्सन द्वारा रूसी उपन्यासकार के लिए खोले गये सरेआम रास्ते से एकदम विपरीत दिशा में। दोस्तोएव्स्की के निगूढ़ संकेतों से रीते हुए इब्सन के पात्रों के सनसनीख़ेज जेस्चर्ज़ (हेड्डा गाब्लेर द्वारा पाण्डुलिपि जलाये जाना), उन सनसनीखेज़ जेस्चर्ज़ से बिल्कुल नहीं मिलते जो ‘निगूढ़’ के उस्ताद हाम्सुन की भूख में भरे पड़े हैं। लिहाज़ा अनुवाद की तकनीक कठिनाइयाँ नगण्य थीं। लेकिन जो संकट आन पड़ा था उसमें ‘ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जान और’-यह उपक्रम इस एक साल में मुमकिन नहीं था।
जो मुमकिन था, वह था- आस्लो के जिस होटल में हाम्सुन अपनी पत्नी से रूठकर अकेलेपन की तलाश में चले थे, उनके सामने से एक बार फिर गुज़र कर देखना।
फिर गर्मी के दिनों की कोई ऐसी दो-तीन छुट्टियों में ऑस्लो में बने रहना जब शहर लगभग खाली हो जाया करता है-ऐसें कभी-कभी क्रिस्तिआनिया खुद को एक बार फिर दिखाने की कोशिश करता है।3
यह भी मुमकिन था-उन दिनों वहाँ होना जब दिन उजाला बुझाए नहीं बुझता, और उन कथीड्रलों के पास से गुज़रना जिसकी लम्बी छायाएँ साँझ के सूरज में सड़कों पर बिछी रहती हैं- और किसी भी क्षण यह महसूस कर लेना की आप किसी पेंगुइन मॉर्डन क्लासिक के कवर पर घूम रहे हैं।
तेजी ग्रोवर
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3. ऐसे में आप भी नहीं भूल सकते कि बिगेलैण्ड पार्क के पड़ोस में अपने छोटे-से स्टूडियो में बैठे अम्बादास पिगमेंट के साथ हुए अपने हादसे के साथ अभी तक खेलने में मसरूफ़ हैं-क्रिस्तिआनिया और ऑस्लो के बीच चल रही इस आँख-मिचौली से एकदम बेख़बर।
3. ऐसे में आप भी नहीं भूल सकते कि बिगेलैण्ड पार्क के पड़ोस में अपने छोटे-से स्टूडियो में बैठे अम्बादास पिगमेंट के साथ हुए अपने हादसे के साथ अभी तक खेलने में मसरूफ़ हैं-क्रिस्तिआनिया और ऑस्लो के बीच चल रही इस आँख-मिचौली से एकदम बेख़बर।
भूख की कला
मुझे लगता है कि उस संस्कृति का पक्ष लेना जो भी किसी व्यक्ति को भूख से बचा कर नहीं रख पायी उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना संस्कृति नाम की चीज़ से उन विचारों को खींच निकालना जिनकी शक्ति भूख बेबस कर देने वाली शक्ति से मिलती-जुलती है।
-आंतोनिन आर्तो
एक नौजवान एक शहर में आता है। उसका कोई नाम नहीं है, न कोई घर है न उसके पास कोई काम है। वह शहर में लिखने के लिए आया है। वह लिखता है या, यदि और भी स्पष्ट ढंग से कहें, वह लिखता नहीं है। वह भूखा मरता है। भूख से लगभग मर ही जाता है।
यह शहर क्रिस्तिआनिया (ऑस्लो) है। वर्ष 1890। यह नौजवान शहर की गलियों में घूमता है। शहर भूख की भूलभुलैया है। उसके सारे दिन एक ही तरह से बीतते हैं। वह एक स्थानीय अख़बार के लिए लेख लिखता है, इस आशा से कि वे छापे जाएंगे। वह अपने कमरे के किराये के बारे में चिन्तित रहता है, अपने कपड़ों के बारे में जो फटते जा रहे हैं। उसे नहीं पता उसका अगले वक्त का खाना कहाँ से आयेगा। वह दुख सहता है वह लगभग पागल हो जाता है। उसकी हालत इतनी ख़राब है कि वह कभी भी हिम्मत हार सकता है, ढह सकता है।
तब भी, वह लिखता रहता है। कभी-कभार वह कोई एक लेख बेचने में सफल हो जाता है, और इस तरह थोड़ी देर के लिए अपनी दुर्दशा से छुटकारा पा लेता है। वह इतना कमजोर हो गया है कि उसके लिए निरंतर लिखते जाना सम्भव नहीं है, और वह कभी-कभार ही अपने लेखों को समाप्त कर पाता है। उसके अधिलिखे लेखों में से एक शीर्षक है भविष्य के अपराध। यह इच्छाशक्ति की स्वतन्त्रता पर दार्शनिक किस्म का एक लेख है। फिर एक नाटक है किताबों की एक दुकान में लगी आग के बारे में एक रूपक (किताबें दिमाग़ हैं)। मध्यकालीन प्रसंग में लिखे
यह शहर क्रिस्तिआनिया (ऑस्लो) है। वर्ष 1890। यह नौजवान शहर की गलियों में घूमता है। शहर भूख की भूलभुलैया है। उसके सारे दिन एक ही तरह से बीतते हैं। वह एक स्थानीय अख़बार के लिए लेख लिखता है, इस आशा से कि वे छापे जाएंगे। वह अपने कमरे के किराये के बारे में चिन्तित रहता है, अपने कपड़ों के बारे में जो फटते जा रहे हैं। उसे नहीं पता उसका अगले वक्त का खाना कहाँ से आयेगा। वह दुख सहता है वह लगभग पागल हो जाता है। उसकी हालत इतनी ख़राब है कि वह कभी भी हिम्मत हार सकता है, ढह सकता है।
तब भी, वह लिखता रहता है। कभी-कभार वह कोई एक लेख बेचने में सफल हो जाता है, और इस तरह थोड़ी देर के लिए अपनी दुर्दशा से छुटकारा पा लेता है। वह इतना कमजोर हो गया है कि उसके लिए निरंतर लिखते जाना सम्भव नहीं है, और वह कभी-कभार ही अपने लेखों को समाप्त कर पाता है। उसके अधिलिखे लेखों में से एक शीर्षक है भविष्य के अपराध। यह इच्छाशक्ति की स्वतन्त्रता पर दार्शनिक किस्म का एक लेख है। फिर एक नाटक है किताबों की एक दुकान में लगी आग के बारे में एक रूपक (किताबें दिमाग़ हैं)। मध्यकालीन प्रसंग में लिखे
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