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अशुभ बेला

समरेश मजुमदार

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :519
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2894
आईएसबीएन :81-7055-775-5

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इसमें हमारे देश की वर्तमान व्यवस्था के स्वरूप का वर्णन किया गया है....

Ashubh Bela

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

क्यों लगता है कि हमारे देशवासी स्वाधीन नहीं हैं ? क्यों लगता है कि लाखों संस्कार और आर्थिक दुर्दशा इन पर लादी जा रही है जिसका लाभ केवल एक श्रेणी उठाती है। अगर इस देश के लोगों का आर्थिक स्ट्रक्टर एक किया जा सकता तो देश का चेहरा ही बदल जाता। ठीक है कि हमारी वर्तमान व्यवस्था को कोई एक दल नहीं बदल सकता। सुदीप आदि कहेंगे कि सीमाबद्ध अवसर में जितना काम हो सके वही उचित है। अनिमेष को लगता है कि यह एक तरह की प्रवंचना है। विरोधी दल की दृष्टि से काँग्रेस की नुक्ताचानी करना या विक्षोभ प्रकट करने में बहादुरी है, किन्तु गठनमूलक काम-काज करना, जिससे देश के सब मनुष्यों में सामाजिक-आर्थिक विषमता टूट जाए वह बिल्कुल अलग बात है। कम्युनिज्म की थियोरी सब देशों में अलग-अलग तरह से प्रयोग में लायी जाती है। क्योंकि हर देश की मिट्टी और मनुष्य का मन एक जैसा नहीं होता। पर ये चिन्ता इसको क्यों हो रही है ? बहुत सोचा है अनिमेष ने। पर निष्क्रीय होने का कोई कारण नहीं खोज पा रहा। चारो तरफ इतनी तरह का छल-कपट है कि मन में अपने को दोषी ठहराने लगता है।

काल वेला (अशुभ वेला)

अनिमेष ने जब पहली बार कलकत्ता में पाँव रखे, सड़क पर ट्राम चल रही थी, गोली चल रही थी। उत्तर बंगाल से आया युवक दुर्घटना का शिकार हो जाता है। अन्य लोगों की तरह बहता हुआ अचानक जीवन का रास्ता बदल लेता है। छात्र-राजनीति उसे जटिल आवर्त में ले जाती है। इस देश और देशवासियों के साथ खड़े होने की दुर्वा वासना में विभक्त कम्युनिस्ट पार्टी की पताका के नीचे जा खड़ा होता है। किन्तु मनुष्यत्व एवं मानसिक मूल्यबोध उसे उग्र राजनीति में बहा ले जाते हैं। सत्तर की उस आग में कूदने के बाद अनुभव करता है कि दग्ध वस्तु में सृष्टिशील क्षमता नहीं रहती। पुलिस के निर्मम अत्याचार से जब विकलांग हो जाता है तब भी विप्लव के शरीक के रूप में निःशेष नहीं होता। आखिर में ख़ुद को संयत कर लेता है।

अनिमेष अवाक् होकर माधवीलता को देखता है जिसने कभी राजनीति में हिस्सा नहीं लिया था। केवल इससे प्रेम करके आलोक स्तम्भ की तरह सिर ऊँचा किए अकेली खड़ी रहती है। खरतप्त मध्याह्न में वह मात्र शीतल जल से अधिक कुछ नहीं होना चाहती। बंगाल की यह लड़की धूप की तरह ख़ुद को दग्ध करके भविष्य को सुन्दर करना चाहती है। देश की निर्माण करने के लिए विप्लव में निष्फ़ल, हताशा में डूबे हुए अनिमेष को अहसास होता है कि विप्लव का दूसरा नाम माधवीलता है।
समरेश मजूमदार

एक

अपराह्न अन्धकार से भरता जा रहा था। दोपहर बाद से ही आकाश में बादल छा गए थे। बीच-बीच में जल भरे बादल ऊँची-ऊँची इमारतों को भिगो जाते। हवा में नमी थी, पर बारिश नहीं हो रही थी।
खिड़की खोलते ही दूर तक दिखायी पड़ जाता। अनिमेष खामोश बैठा था। ऐसे मेघ-संकुल अपराह्न या सन्ध्या के समय मन कैसे उदास-सा हो जाता है। बड़ा आलस्य आता है। आँखें बन्द करते ही वे मेघ याद आ जाते हैं जो भूटान के पहाड़ों से दल बाँधकर स्वर्गछेंड़ा के चाय बागान पर बरस पड़ते थे। तब ऊँचे-ऊँचे वृक्ष उल्लास से कैसे आकाश को छूते। कान लगाते ही वही शब्द।
आज वर्ष की पहली-पहली बादल-भरी सन्ध्या थी। बादलों का चेहरा पृथ्वी पर सर्वत्र एक जैसा होता है। तब फिर स्वर्गछेंड़ा या जलपाइगुड़ी के मेघों का नक्शा, चाल-ढाल यहाँ वाले बादलों से भिन्न क्यों है ! ये बड़े मटियाले और झीने लगते हैं। जैसे बड़ा कष्ट उठाकर आए हैं। रुकना पड़ जाता तभी ठहरते हैं।

बादल देखते ही अनिमेष को पास और दूर की छतें दिखाई पड़ीं, तीन तला के कमरे से दूर तक देखा जा सकता है। कलकत्ते की लड़कियाँ सन्ध्या समय छतों पर काट देती हैं। शायद कहीं और जाने की जगह नहीं होती या इस विराट नगर में घूमने-फिरने की अनुमति नहीं मिलती। अन्ततः इस पाड़े की लड़कियों को देखने की इच्छा हो रही है। किन्तु बादलों से भरी इस सन्ध्या के समय सारी छतें खाली पड़ी हैं। फिर वह लड़की गरदन उठाकर आकाश में क्या देख रही है ? बहुत विषण्ण मनःस्थिति में ही व्यक्ति इस भंगिमा में खड़ा होता है। यह लड़की पहले कभी दिखाई नहीं पड़ी। इस पीले मकान की छत पर बड़े से चेहरेवाली गोरी महिला अकसर घूमती-फिरती दिखाई देती है। लड़की ने सिर झुकाकर कुछ सोचा फिर इस तरफ़ देखा। नजरें मिलते ही जाने क्यों वह चट से भाग गयी। फिर दिखाई नहीं पड़ी। अनिमेष को हँसी आ गयी। तपन होता तो कहता-‘लड़की को मालूम नहीं कि तू उस पर मर मिटा है।’
तभी ज़ोर से बारिश होने लगी। अनिमेष ने खिड़की बन्द करते लाइट जला ली।

कमरे में दूसरे पलँग पर त्रिदिव है-त्रिदव सेन गुप्त। जमशेदपुर का लड़का। इंगलिश मीडियम से पढ़ा है, पर कविता बांग्ला में लिखता है। इसका बैडकवर बहुत कीमती है। नीलवर्ण के पक्षियों के झुंड छपे हैं उस पर। खूँटी पर त्रिदिव के जो कपड़े लटके हैं वे भी उसकी पारिवारिक हैसियत के बढ़िया विज्ञापन हैं। उसकी मेज के कोने पर प्रशासन की जो चीजें रखी हैं, कलकत्ता आने से पहले अनिमेष ने कभी नहीं देखी थीं। वह उठकर त्रिदिव वाले आईने के सामने खड़ा हो गया। कलकत्ते का पानी पेट में पड़ते ही मुफ़स्सल के लोग गोरे हो जाते हैं। इसे अपनी शक्ल बड़ी ख़ूबसूरत लग रही थी। मामूली लंबे बाल, थोड़ी सी मूँछ-दाढ़ी ने इसके चेहरे का नक्शा ही बदल दिया है। आँखों और नाक पर रोशनी पड़ते ही कई दिन पहले देखे उस चित्र का ध्यान आ गया। युवक रवीन्द्रनाथ ठाकुर का चेहरा क्या ऐसा ही था सोचते ही शर्म आयी। धत्त ! रवीन्द्रनाथ का गौरवर्ण तो भगवान जैसा था।
देखते-देखते कलकत्ते में कितने वर्ष बीत गए। कॉलेज की चौहद्दी छोड़कर अब वह विश्वविद्यालय में है। वक्त तो कम नहीं बिताया, किन्तु अकेलेपन के कारण कलकत्ता से विच्छिन्न-सा हो गया है। कॉलेज के दिनों में पूरी तरह बाबा के आदेशानुसार चलता था। जलपाइगुड़ी से हर सप्ताह दो चिट्ठियाँ विभिन्न निर्देशों सहित मिलती थीं। एक ठाकुर दा, सरित्शेखर की, दूसरी बाबा महीतोष की। पहली बार कलकत्ता आते ही जिस घटना ने इसके शरीर-मन को प्रभावित किया था उस छल-कपट से पूरी तरह छुटकारा पाने में बहुत दिन लग गए थे। इसलिए चिट्ठियों के निर्देश मानने के अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं था। इसलिए कलकत्ता में कॉलेज का समय निःसंग ही काटा था।

होस्टल मूलतः कॉलेज के छात्रों के लिए था। जो विश्वविद्यालय में पढ़ना चाहें, वहाँ रह सकते थे। इसलिए अनिमेष यहाँ रहता था। त्रिदिव नया-नया आया था। कलकत्ते से बाहर जिस कॉलेज से उसने पास किया था, वह कॉलेज और अनिमेष का कॉलेज एक ही मिशनरी संस्था के अन्तर्गत थे। इसलिए पुराना छात्र न होने पर भी इसे यहाँ रहने में कोई असुविधा नहीं हुई थी। होस्टल मिशनरी होने के कारण हर वर्ष बहुत से छात्र जो पढ़ने आते, यहीं रहते। अफ्रीका के छात्रों की भाव-भंगिमा में कोई संकोच नहीं होता था। विदेश में हैं, कभी ध्यान नहीं आता था। बड़े-बड़े चेहरोंवाले ये छात्र हर समय हल्ला-गुल्ला करते। शुरू में अनिमेष ताज्जुब से उनकी तरफ़ ताकता। किसी भी अफ्रीकी को देखते ही अंकल टॉम का ध्यान आ जाता। गौरवर्णवाले मनुष्यों ने अभी उस दिन तक उन्हें क्रीतदास बना रखा था। किन्तु इनके हाव-भाव में उस कष्ट का कोई चिह्न नहीं था।
अनिमेष के मन में एक बात और उभर आयी थी। आसाम रोड पर दौड़ती हुई मिलिटरी कन्वेर्यस के नीग्रो अफसर का चेहरा स्पष्ट हो रहा था। न जाने वह अब कहाँ हैं ? हम चिरकाल तक व्यर्थ ही किसी को याद रखते हैं, जिसे याद रखने की कोई जरूरत नहीं होती।

लगातार जोर की बारिश हो रही थी। दरवाजा खोलकर अनिमेष बरामदे में आ गया। होस्टल के कई कमरे बन्द थे। खुले दरवाजों से रोशनी बाहर की बारिश से मिलकर गडमड हो रही थी। यू पैटर्न के इस होस्टल के बीच में बास्केट बॉल कोर्ट अन्धकार में डूबा पड़ा है। उस तरफ के किसी कमरे से माउथ ऑर्गन का स्वर बहता आ रहा है। रुदन का-सा स्वर खींचता हुआ। आन्तरिक न हो तो इस तरह बजाया नहीं जा सकता। कोई परिचित गाना नहीं, स्वर में परिचित भंगी भी नहीं। उन अफ्रीकियों में से ही जरूर कोई बजा रहा है। हजारों मील दूर से आकर जिसे अपने देश के लिए बड़ा कष्ट हो रहा है या वहाँ छोड़ आए किसी व्यक्ति के बारे में सोच रहा है। अनिमेष का मन हो रहा था कि एक बार उस लड़के को देखकर आए। मुश्किल यह थी कि उन्हें देखकर चट से पहचान नहीं पाएगा। कोई बहुत लम्बा-मोल टा या दुबला..बस इसी तरह जान पायेगा। तीन-तला के बरामदे से काफी आगे जाकर, अनिमेष उस कमरे के सामने आ गया। संकोच भी था कि बेकार पीछे पड़नेवाली बात होगी !
लड़का कमरे में खाट पर चित लेटा, आँखें बन्द करके माउथ ऑर्गन बजा रहा था। सपाट चेहरा, जूतों समेत दोनों पाँव खाट से बाहर झूलते हुए। कमरा बेतरतीब। सजाने की कोई चेष्टा नहीं। कुछेक सैकंड खड़े रहकर वह लौटने को हुआ कि लड़का आर्गन बजाना बन्द करके, बैठकर बोला ‘‘हे ऽ ऽ ह !’’ सुनकर, अर्थ न समझने पर भी अनिमेष ने अनुमान कर लिया कि इसी से बात कर रहा है। अगले ही क्षण एक छलाँग में खड़ा होकर दोनों हाथ फैलाकर वह बोला, ‘‘गैट इन प्लीज़।’’
अब समझ सकने पर भी अनिमेष ने लक्ष्य किया कि उसकी भारी आवाज में उच्चारण ऐसे चिपका हुआ था कि बाकी शब्द स्पष्ट नहीं हो सके। कमरे में घुसते ही लड़के की हँसी में श्वेत दन्त पंक्ति झलकी, बोला, ‘‘इस्स।’’
अपने आने का कारण बताने में अनिमेष संकट में पड़ गया। जल्दी से सोचकर भी अंग्रेजी में कुछ कह नहीं पाया। संकोच हो रहा था कि अंग्रेजी कहीं गलत बोल जाए। अन्ततः सीधा तरीका ढूँढ़ लिया। अँगुली से माउथ ऑर्गन दिखाया। लड़का बहुत खुश हो गया है इस भंगिमा से माउथ ऑर्गन फेंक दिया। कूदकर बोला, ‘‘यू लाइक इट !’’ ‘‘येस...’’ अनिमेष को तसल्ली हुई, फिर कहा, ‘‘वेरी स्वीट !’’ ‘‘थैंक यू..इट्स माई फ्रैंड...मदर गेव इट..सिट डाउन...सिट हियर प्लीज़।’’ टेबल के पासवाली चेयर लाकर खाट के पास रखी और अनिमेष से बैठने का इशारा किया।

पहले कभी अनिमेष ने अंग्रेजी में बात नहीं की थी। जब जलपाईगुड़ी में था तब तो प्रश्न ही नहीं उठता था। त्रिदिव बांग्ला-हिन्दी में बात करते-करते अनजाने ही अनर्गल अंग्रेजी बोल पड़ता। यह बात अनिमेष ने लक्ष्य किया था। बहुत से शब्दों का जिनका अर्थ कुछ और होता व्यवहार में रूप बदल जाता। यही जैसे लड़के ने भीतर आने के लिए कहा था, ‘‘गैट इन।’’ अनिमेष गैट कह ही नहीं पाता। वह कहता ‘कम इन’ हाँ बाहर जाने के समय ‘गैट आउट’ सहज ही ध्यान आ जाता। जलपाइगुड़ी के बंगाली स्कूल में जो अंग्रेजी सीखी थी, उसमें अपनी इच्छा नहीं जोड़ी जा सकती थी। अनिमेष फीका-सा पड़ गया।
चारों तरफ़ लड़के के रंग-बिरंगे कपड़े लटक रहे थे। उसका रूममेट शायद अभी लौटा नहीं था। अनिमेष को मालूम नहीं था कि कोई रंगीन जाँघिया भी पहन सकता है। चेयर पर बैठकर लड़के को अच्छी तरह देखा। रंग काला था नीली-सी चमक निकल रही थी। आँखें छोटी-छोटी, सिर के बालों में कंघी करना असम्भव। इतने घुँघराले और टेढ़े-मेढ़े थे कि कंघी की जरूरत ही नहीं थी। शरीर बेंत की तरह दुबला।
कहीं जरा सी भी चर्बी नहीं।
‘‘आइ एम थम्बोटा रियल ग्लैड टु मीट एन इंडियन इन माइ रूम।’’

सफेद चमकदार दाँतों की एक झलक चेहरे पर खेल गयी। अनिमेष इंडियन है यह पहली बार किसी ने कहा है। ध्यान आया थम्बोटा की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। थोड़ा बहुत भूल-चूक होने पर उसे पता नहीं चलेगा। अनिमेष ने अपना नाम बताया। अब वह जरा स्वस्थचित्त था।
इसने पूछा, ‘‘तुम तो स्कॉटिश में पढ़ते हो ना ?’’
‘‘हाँ...बी.एस.सी. फर्स्ट ईयर...तुम ?’’
‘‘मैंने एम.ए. में एडमिशन लिया है...अभी क्लासें शुरू नहीं हुई हैं....आर्ट्स !’’
‘‘ओ गॉड !...तो तुम मुझसे सीमियर हो...बट यू लुक सो यंग,’’ थम्बोटा आश्चर्य से उसे देख रहा था।
अनिमेष क्या सचमुच एम.ए. का छात्र नहीं लगता ? मालूम नहीं।
‘‘यहाँ कैसा लग रहा है....?’’
‘‘ठीक ही, पर यह मसालेवाला खाना अगर न होता...देट्स हास्टिल...मेरा स्टमक अकसर खराब हो जाता है..ए मैन कैन नॉट लिव ऑन मेडिसीन...तुम होस्टल में क्यों रहते हो...तुम्हारा घर नहीं है यहाँ ?’’
‘‘नहीं...यहाँ से कई सौ मील दूर डूयार्स नामक जगह से आया हूँ।’’
‘‘वह भारतवर्ष नहीं है ?’’
‘‘है क्यों नहीं...पश्चिम बंगाल का ही अंश है।’’
थम्बोटा झट से टेबल से भारतवर्ष का एक नक्शा लाकर टेबल पर बिछाकर बोला, ‘‘शो मी व्हेयर इट इज...।’’
अनिमेष ने झुककर पश्चिम बंगाल के सिर पर जलपाइगुड़ी के अंचल पर लिखा था किन्तु स्वर्गछेंड़ा का कोई उल्लेख नहीं था। थम्बोटा बोला, ‘‘यह...जगह तो हिमालय पर्वत माला के नीचे है...तुम पहाड़ी हो...?’’
‘‘नहीं...नहीं....मैं बंगाली हूँ...’’ कहकर अनिमेष हँस दिया।
‘‘स्ट्रैंज ! तुम लोगों के भारतवर्ष में स्नो रेंज है, समुद्र है, मरुभूमि है, और डिफरेंट टाइप ऑफ पीपल विद डिफरेंट लैंग्वेजेज़..एक साथ रहते हैं। कोई बंगाली, कोई पंजाबी, पर सब इंडियन ! तुम लोगों को कोई परेशानी नहीं होती ? तुम लोग कैसे यूनाइटेड हुए ?’’ जानने का आग्रह थम्बोटा के चेहरे पर झलक रहा था।

अनिमेष जरा सोचकर बोला, ‘‘हम लोगों की शक्ल और भाषा भिन्न सही किन्तु कहीं-न-कहीं कल्चर और धर्म में समानता है। और फिर इतिहास..विदेशियों का बार-बार हम पर आक्रमण हुआ शायद आक्रान्त होने के कारण यूनिटी हो गयी।’’
सुनकर थम्बोटा बोला, ‘‘बट देयर आर हिन्दूज़ एंड मुस्लिम्स...क्रिश्चियन भी कम नहीं हैं....वे तो कम्प्लीटली अलग धर्मवाले हैं, उनकी मानसिकता भी भिन्न है...है...ना ?’’
अनिमेष जरा घबराकर बोला, ‘‘हाँ...किन्तु धर्म तो घर की-सी बात है...बाहर आग लगी हो तो मनुष्य उसे बुझाने के लिए बाहर निकल आता है...।’’
थम्बोटा हँस पड़ा, ‘‘अगर ऐसा है तो तुम लोगों ने ब्रिटिश को इतने वर्ष को क्यों रहने दिया ? बहुत दिन पहले ही उन्हें भगा सकते थे और मेरे खयाल में देश के अन्धकाराच्छन्न होने का यही कारण है।’’
जरा चुप रहकर अनिमेष बोला, ‘‘हाँ...अन्नतः वे हमारे हाथ में स्वाधीनता पकड़ा गए।’’
थम्बोटा को आश्चर्य हुआ। बोला, ‘‘कोई भी फ्रीडम किसी को देता नहीं...फ्रीडम अर्न करनी पड़ती है..कहना क्या चाहते हो...तुमने फ्रीडम अर्न नहीं की ?’’

अनिमेष अचानक उत्तेजित हो उठा। स्कूल में सुनील दा ने भारतवर्ष के सम्बन्ध में जो नई व्याख्या की थी, कलकत्ता आने के बाद जेब खर्च से पैसे बचाकर पत्र-पत्रिकाओं में वही व्याख्या पढ़कर इसकी धारणा और भी सुदृढ़ हो गयी थी। बोला, ‘‘हमने विभिन्न पथों से चेष्टा की थी किन्तु अन्त में वे लोग स्वाधीनता सौंप गए। रक्त गए बिना स्वाधीनता नहीं मिलती, यदि वह मिल भी जाए तो देशवालों को उस स्वाधीनता से ममता नहीं होती।’’ इसने पहली बार यह बात कही थी ! इतने दिन तक यह भावना मन में घुमड़ती रही थी। अब कहते हुए प्रतीत हुआ कि अपने देश की दुर्बलता के सम्बन्ध में किसी विदेशी से बात करना ठीक नहीं। थम्बोटा ने तो अपने देश की किसी समस्या का उल्लेख नहीं किया। बताने पर शायद वह गलती समझ बैठे और इसके देशवासियों को मालूम हो जाए, यह भी तो ठीक नहीं। इसने बात बदल दी, बोला, ‘‘इस बीच बहुत अरसा बीत गया है। अब वह पुरानी गलतियों को सुधार लेंगे। तुम अपनी बात सुनाओ। हम एक ही संसार में रहते हैं किन्तु तुम्हारे देश के बारे में भारतवासी बिलकुल नहीं जानते।’’
‘‘वैल..हमारा देश बड़ा गरीब है और बड़े लोग जिसे कहते हैं अनडवलप्ड हैं। हम अफ्रीकी प्रैक्टिकली इतनी छोटी-छोटी स्टेट्स में डिवाइडेड हैं।’’

तभी एक असभ्य-सा व्यक्ति दरवाजे में आ खड़ा हुआ। पूरा भीगा हुआ। कपड़ों से पानी टपक रहा था। चेहरे और आँखों में विरक्ति। अनिमेष इसे कई बार पहले भी देख चुका था। बड़ा नाटा और दुर्बल-सा। इस होस्टल का अफ्रीकी नहीं था। इसका रंग भी बिलकुल काला नहीं था। तम्बाकू जैसा कहा जा सकता है। मोटी-सी नाक और मोटे होठों के बादजूद अलग तरह की रौनक थी। सिर के बालों में अधिक स्प्रिंग लगे थे इसलिए बारिश से बिखरे नहीं थे। कमरे में घुसते ही उत्तेजना से हाथ-पाँव नचाकर थम्बोटा से अपनी भाषा में जाने क्या कुछ कह रहा था। थम्बोटा हँस रहा था उत्तर कोई नहीं दे रहा था। पागल की तरह दो-तीन बार चक्कर लगाकर भी बात ख़त्म नहीं कर पा रहा था। अनिमेष भाषा नहीं समझता था, पर लगा कि इसे कमरे में देखकर क्रोध में भर उठा है। अफ्रीकी लड़कों के कमरे में किसी भारतीय को अड्डा जमाते नहीं देखा गया था। ये भी किसी के कमरे में नहीं जाते थे। अचानक अनिमेष की तरफ़ से भागकर खाट के दूसरी तरफ़ बैठकर जो कह रहा था वह अंग्रेजी भाषा थी। यह समझने में भी देर लगी। अनिमेष ने फिर सुना, ‘‘यू मस्त प्रोतेस्त’’। किसके विरुद्ध कह रहा था, यह न समझकर अनिमेष को थम्बोटा की तरफ़ देखते ही लड़के ने अँगुली उठाकर पूछा, ‘‘यू लिव दिस होस्तल ?’’
अनिमेष ने स्वीकृति में सिर हिला दिया। तसल्ली हुई कि वह ख़ुद उसके क्रोध का कारण नहीं है। यदि होता तो प्रतिवाद की बात न करता। थम्बोटा ने बताया कि लड़का उसका रूममेट है। आज शाम किसी परिचित महिला के साथ घूमने जाने की बात है। बारिश के कारण होस्टल में अड्डा जमाना चाहता था। गेट के दरबान ने विरोध किया कि होस्टल में लड़कियों का प्रवेश निषिद्ध है। आठ बज चुके थे। विज़िटर्स रूम भी बन्द था। लड़का बड़ा अपमानित महसूस कर रहा है कि यह कोई बच्चा तो है नहीं। भला-बुरा समझता है। इस तरह के नियम लड़कियों के होस्टल में चाहे लागू हों, पर यहाँ लागू करना अपमानजनक है।

थम्बोटा हँसकर बोला, ‘‘महिला कह गयी है कि वह अब मेरे दोस्त का मुँह तक नहीं देखेगी।’’
लड़का अब तक चुपचाप बात सुन रहा था। चीखकर बोला, ‘‘शी टोल्ड मी किड।’’
उसके कहने के तरीके पर अनिमेष हँस पड़ा। लड़का जल्दी से खड़ा होकर दोनों हाथों से कपड़े उतारने लगा। गंजी-वंजी तो पहने नहीं था। तम्बाकू के रंग वाली निर्मोल छाती देखकर कोई उसे नीग्रो नहीं सोचा था। उसने निस्संकोच पैंट के बटन खोलकर कमरे के कोने में डाल दी। अनिमेष ने इतना सब नहीं सोचा था। परिचित या अपरिचित किसी भी व्यक्ति के सामने इस तरह कुरता-पाजामा उतारकर केवल जाँघिए में खड़े होने की बात तो वह सोच ही नहीं सकता था ! इनमें कोई संकोच नहीं होता क्या ? इसे तो यह भी डर था जाँघिया भी शरीर पर नहीं रहेगा। कमरे से जाने के लिए उठा तो लड़का बड़ी नफरत से बोला, ‘‘यू इंडियंस आर विदाउट बैकबोन...कावर्ड !’’
अब बात समझने में कठिनाई नहीं रही। अनिमेष के दिमाग में खून चढ़ गया। चट से घूमकर लड़के के सामने खड़ा हुआ। वह उत्तेजना से काँप रहा था। मुट्ठी बन्द नहीं कर रहा था। अनिमेष की आँखों और चेहरे का भाव देखकर लड़का डर से दो कदम पीछे हट गया था। बात समझते ही थम्बोटा ने भागकर अनिमेष को पकड़ लिया। थम्बोटा के लम्बे-चौड़े शरीर के सामने अनिमेष एक क्षण को असहाय-सा हो गया। प्राणपण से ख़ुद को छुड़ाने की कोशिश करने लगा। जबरदस्ती न करके थम्बोटा बोला, ‘‘मेरे दोस्त की बात पर ध्यान मत दो। उसे मालूम नहीं किससे क्या कहना चाहिए।’’ फिर हँसकर कहा, ‘‘तुम्हें क्रोध में देखकर मुझे खुशी हो रही है।’’

अनिमेष ने बड़ी मुश्किल से ख़ुद पर काबू पाया। सारा शरीर काँप रहा था। थम्बोटा न रोकता तो वह लड़के को ख़ूब पीटता। वह लड़कियों के साथ अड्डा जमाए और समर्थन न मिलने पर गालियाँ बके ? थम्बोटा के चंगुल से ख़ुद को किसी तरह छुड़ाकर अनिमेष बाहर आ गया। आज तक किसी के शरीर पर इसने हाथ नहीं उठाया था। लड़के को पीटता तो वह निश्चय ही प्रतिरोध न कर पाता। ऐसा दुर्बल शरीर लेकर इस तरह की बात करने का उसने दुस्साहस ही कैसे किया। अनिमेष को अफ़सोस हो रहा था कि उसकी पिटाई नहीं कर सका।
बारिश अब भी लगातार हो रही थी। मिजाज़ चिड़चिड़ा हो गया था। अफ्रीकी लड़कों की मानसिकता ऐसी ही होती है या नहीं कौन जाने ! पर थम्बोटा से बात करना अच्छा लग रहा था। कुछ क़दम आगे बढ़ते ही पीछे से आवाज़ आयी, ‘‘हेई...हनिमेस...।’’
पलटकर देखा, थम्बोटा आ रहा था। अपने नाम का ऐसा उच्चारण सुनकर विरक्ति दूर हो गयी। थम्बोटा पास आकर बोला, ‘‘मुझे बहुत बुरा लग रहा है...पर मेरा दोस्त बड़ा निरीह है..केवल लड़कियों के मामले में सेंसिटिव है। खैर...तुमसे बात करके बड़ा अच्छा लगा फिर आओगे ना ?’’

उसकी बात में ऐसी आन्तरिकता थी कि अनिमेष क्रोध नहीं कर पाया। बोला, ‘‘आज रहने दो किसी और दिन...।’’ उसी समय थम्बोटा के कमरे से उद्दाम स्वर बहता हुआ आया। माउथ ऑर्गन में मानो आँधी आ गयी थी। पराजय निश्चित जान मनुष्य जब पस्त हो जाता है सुर वैसा ही तेजस् और उद्दाम था। कुछ क्षण दोनों चुपचाप सुनते रहे। रात थी। बारिश की आवाज़ में सारा होस्टल सो रहा था। इस तरह की रिमझिम उसे अवश कर देती थी। थम्बोटा ने धीरे से कहा, ‘‘मेरी अपेक्षा ज़्यादा अच्छा बजाता है ना...वह !’’
अनिमेष फ़ैसला नहीं कर पा रहा था कि क्या उत्तर दे। गरदन टेढ़ी करके बरामदे में टहलने लगा। स्वर पीछे-पीछे बहता आ रहा था। चौंककर रुकते ही उसे लगा कि एक तरह का सूनापन चारों ओर से जकड़े है। कमरे की कुंड़ी खोलकर कुछ देर अँघेरे में देखता रहा। बड़ा अकेलापन लग रहा था। इतने बड़े कलकत्ता शहर में कोई बन्धु नहीं आत्मीय नहीं....! बत्ती बिना जलाए, कमरे में जाकर चुपचाप खाट पर लेट गया।

परेशानी फिर भी दूर नहीं हो रही थी। उसे लड़के ने कैसे आराम से इसे गालियाँ दे डालीं। थम्बोटा न होता तो जाने क्या होता ! उत्तेजना के कारण सिर में ख़ून चढ़ने से सारा शरीर काँप रहा था। उस वक्त न जाने कितनी मार-पीट कर बैठता। अगर कर पाता तो शायद अच्छा ही होता। एक लड़का इतनी दूर से पढ़ने के लिए कलकत्ता आया। सामान्य-सी बात पर देश के व्यक्ति के चरित्र को लेकर इस तरह का इंगित किस युक्ति से कर सका !
अनिमेष निस्तेज-सा पड़ा दरवाजे से बाहर की वर्षा देखता रहा। बरामदे की रोशनी बारिश में मिल रही थी। उत्तेजना कम होने लगी तो अवसाद ने घेर लिया। बात को लेकर जोड़-तोड़ रहा-‘यू इंडियंस आर विदाउट बैकबोन...कावर्ड !’ बात बिलकुल बेदम हो गयी थी। जरा तटस्थता से शब्दों का ध्यान कर रहा था। कलकत्ते में इसने जीवन के तीन वर्ष काट दिए हैं। प्रतिदिन समाचार-पत्रों में या चारों तरफ़ के व्यक्तियों को देखता आ रहा था। वे किस तरह के हैं ? जलपाइगुड़ी से ट्रेन में पहली बार आते समय भारत की मिट्टी में कुछ नया तैयार करने की जो जोड़-तोड़ करता रहा था, उस उत्तेजना के कारण वह विचलित हो उठा था। इधर कई वर्ष जाने कहाँ खो गए। अब, इस शहर के लोगों को देखकर लगता नहीं कि उन्होंने या किसी और ने इसके सम्बन्ध में चिन्ता की हो। वह गडुलिया प्रवाह में बहता जा रहा है। वह क्या है, यहाँ के लोगों का जीवन-यापन देखे बिना समझ नहीं आता। मेरुदंडहीन (निराधार) बात क्या बिलकुल प्रयोजनीय नहीं है ? देश के नब्बे फीसदी वासी अब भी नहीं जानते कि वे स्वाधीन हो गए हैं। जो जानते हैं उनमें से बहुतों की मानसिकता में, ब्रिटिश शासन और स्वाधीन भारत में पार्थक्य या अन्तर नहीं लगता।

कॉलेज में पढ़ने को लेकर महीतोष (बाबा) के साथ थोड़ी कड़वाहट हो गयी थी। महीतोष इसे स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिल नहीं कराना चाहते थे। लड़के-लड़कियों का साथ पढ़ना उन्हें पसन्द नहीं था। और फिर होस्टल जब कॉलेज-कम्पाउंड में नहीं था तो ! कलकत्ते की सड़कों पर लड़के को घूमने-फिरने देना इन्हें बिलकुल पसन्द नहीं था।
प्रायः आठ महीने तक बिस्तर पर पड़े-पड़े अनिमेष बड़ा काहिल और कमज़ोर हो गया था। अब जल्दी चलना उसके वश की बात नहीं रही थी। एक ही नज़र में पता चल जाता था कि वह लँगड़ा कर चलता है। वस्तुतः महीतोष तो इसे पढ़ने के लिए कलकत्ता भेजना ही नहीं चाहते थे। किराए की रिक्शा का इन्तज़ाम करके जलपाइगुड़ीवाले मकान से आनन्दचन्द्र कॉलेज में पढ़ने पर ज़ोर दे रहे थे। किन्तु मनुष्य को यों ही तो अक्ल आती नहीं। बिछौने पर पड़े-पड़े अनिमेष जो और भी जिद्दी हो गया था इसका प्रमाण उसका कलकत्ते जाकर पढ़ने का हठ थीं। फिर सरित् शेखर (ठाकुर दा) ने भी इसका समर्थन किया। दुर्घटना बार-बार तो होती नहीं। लाचार हो महीतोष लड़के को लेकर कलकत्ता आए। अकेला नहीं छोड़ा। हिन्दू होस्टल प्रेजिडेंसी के पास ही था। वहाँ प्रवेश की कोशिश विफल हो गयी। प्रथम डिवीजन में पास करके भी किसी-किसी कॉलेज में दाखिला नहीं मिलता, जानकर महीतोष हत्-वाक्य रह गए। उनका ध्यान अब कलकत्ता के तीन मिशनरी-कॉ़लेजों की तरफ़ गया। सेंट जेवियर में दाखिल करने को मन नहीं माना। सब तरफ़ से देख-सुनकर सेंट पॉल्स अच्छा लगा। कॉलेज की सीमाओं में ही होस्टल था। सड़क पर बिलकुल नहीं चलना पड़ेगा। किन्तु अनिमेष तीसरे कॉलेज के प्रति आकृष्ट हुआ। स्कॉटिश चर्च कॉलेज में विवेकानन्द, सुभाषचन्द्र बसु पढ़े थे। किसने कब घी खाया था, अब उसकी गन्ध सूँघने के क्या मायने ! महीतोष यह समझ नहीं पा रहे थे। मातृहीन लड़के शायद हमेशा ही ज़िद्दी हो जाते हैं। लड़के को साथ लेकर कॉलेज गए। मन-ही-मन बड़ा असहाय अनुभव कर रहे थे। झुंड-की-झुंड लड़कियाँ रंग-बिरंगी पोशाकों में कॉलेज में चारों तरफ इकट्ठी थीं। उनमें से किसी-किसी की भंगिमा में लापरवाही ! यहाँ लड़के की पढ़ाई-लिखाई ठीक से हो सकेगी इसमें उन्हें सन्देह था। एक और चिन्ता उन्हें परेशान कर रही थी कि अनिमेष ने साइंस की जगह आर्ट्स में एडमिशन ली थी। पिता को लड़के को डॉक्टर बनाने की इच्छा को जलांजलि देनी पड़ी। उन्होंने अनुभव किया कि यहाँ भी अनिमेष के दादा की इच्छा ही सर्वोपरि रही। वापस जाने से पहले बार-बार पुत्र को उपदेश देते रहे थे। अच्छी तरह पढ़ाई करके अच्छा रिज़ल्ट लाना है। कलकत्ता शहर में नये लड़कों को बरबाद करने के लिए बड़ा उत्पात होता है कि अनिमेष कभी असतर्क न रहे। किसी बन्धु-बान्धव का विश्वास नहीं करना है क्योंकि मुसीबत के वक्त कोई पास नहीं फटकेगा। कॉलेज-यूनियन से सात हाथ दूर रहना है क्योंकि मध्यवित्त परिवार के लड़के को यह विलासिता शोभा नहीं देती। जिसे राजनीति का नशा हो जाता है उसका इहकाल और परकाल बिलकुल नष्ट हो जाते हैं। जिनके पिता के पास बहुत-सा रुपया हो वही सब करें जैसे जवाहरलाल, चित्तरंजन, सुभाष बसु।

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