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हास्य-व्यंग्य >> काग भगोड़ा

काग भगोड़ा

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2873
आईएसबीएन :9789350001417

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हरिशंकर परसाई के द्वारा हास्य-व्यंग्य पर आधारित पुस्तक...

Kaag Bhagoda

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

 

परसाई जी की रचनाएं राजनीति, साहित्य, भ्रष्टाचार, आजादी के बाद का ढोंग, आज के जीवन का अन्तर्विरोध, पाखंड और विसंगतियों को हमारे सामने इस तरह खोलती हैं जैसे कोई सर्जन चाकू से शरीर काट-काटकर गले अंग आपके सामने प्रस्तुत करता है। उसका व्यंग्य मात्र हँसाता नहीं है, वरन् तिलमिलाता है और सोचने को बरबस बाध्य कर देता है।

कबीर जैसी उनकी अवधूत और निःसंग शैली उनकी एक विशिष्ट उपलब्धि है और उसी के द्वारा उनका जीवन चिंतन मुखर हुआ है। उनके जैसा मानवीय संवेदना में डूबा हुआ कलाकार रोज पैदा नहीं होता। आजादी के पहले का हिंदुस्तान जानने के लिए सिर्फ प्रेमचन्द पढ़ना ही काफी है, उसी तरह आजादी के बाद की पूरी दस्तावेज परसाई की रचनाओं में सुरक्षित है। चश्मा लगाकर ‘रामचंद्रिका’ पढ़ाने वाले पेशेवर हिंदी के ठेकेदारों के बावजूद, परसाई का स्थान हिन्दी में हमेशा-हमेशा के लिए सुरक्षित है।

 

सन्दर्भ परसाई का
स्वरूप व्यंग्य का

 

 

हरिशंकर परसाई ने पिछले तीस वर्षों में सामान्य-जन को प्रगतिशील जीवन-मूल्यों के प्रति सचेत एवं समाज-राजनीति में भिदे हुए पाखण्ड को उद्घाटित करने का जितना कार्य किया है, प्रेमचन्द के  बाद उतना हिन्दी के किसी लेखक ने नहीं किया। हम कह सकते है कि प्रेमचन्द की परम्परा को बढ़ाने वाले जो साहित्कार स्वतन्त्र भारत में साहित्य, रचना कर रहे हैं, उनमें हरिशंकर परसाई सबसे आगे हैं। हमारी शताब्दी के दूसरे, तीसरे और चौथे के; लगभग आधे दशक के प्रतिनिधि जन-लेखक यदि प्रेमचन्द हैं, तो छठवें और सातवें दशक के हरिशंकर परसाई।

साहित्य के माध्यम से सामान्य जनता को सामाजिक और राजनीतिक समझदारी देने और सड़ी-गली जीवन-व्यवस्था को नष्ट कर, एक नई समाज रचना का संकल्प कर, हिन्दी में जिन लेखकों ने साहित्य का निर्माण किया है उनमें परसाई का नाम काफी आगे की कतार में है। प्रेमचन्द ने हमारी सम्वेदना का जितना विस्तार किया है बहुत कम लेखक कर पाते हैं। परसाई ने सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की जितनी समझ और तमीज़ पैदा की उतनी हमारे युग में कोई और लेखक नहीं कर सका है।

परसाई एक खतरनाक लेखक हैं, खतरनाक इस अर्थ में कि उन्हें पढ़कर हम ठीक वैसे ही नहीं रह जाते जैसे उनको पढ़ने के लिए होते है। वे पिछले तीस वर्षों के हमारे राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन के यथार्थ के इतिहासकार हैं। स्वतन्त्रता के बाद के हमारे जीवन मूल्यों के विघटन का इतिहास जब भी लिखा जाएगा तो परसाई का साहित्य सन्दर्भ-सामग्री का काम करेगा। उन्होंने अपने लिए व्यंग्य की विधा चुनी, क्योंकि वे जानते हैं समसामयिक जीवन की व्याख्या,  उनका विश्लेषण और उनकी भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बड़ा कारगर हथियार और दूसरा नहीं हो सकता।

व्यंग्य की सबसे बड़ी विशेषता उसकी तात्कालिकता और सन्दर्भों से उसका लगाव है। जो आलोचक शाश्वत साहित्य की बात करते हैं उनकी दृष्टि में व्यंग पत्रकारिता के दर्जे की वस्तु मान लिया गया है। और उन्हें लगता है कि साहित्यकार व्यंग्य का उपयोग चटखारेबाजी के लिए भले ही कर ले, किसी गम्भीर लक्ष्य के लिए उनका उपयोग नहीं किया जा सकता हैं। ऐसे विचारकों ने साहित्य के लिए जो आदर्श स्वीकृति कर रखे हैं, व्यंग्य उनकी धज्जियां उड़ाता है। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है व्यंग्य  लेखक ऐसे मर्यादा-वादियों की दृष्टि में हल्का लेखक, सड़कछाप लेखक या फनी लेखक होता है। व्यंग्य को साहित्य की ‘ शेड्यूल्ड कास्ट’ विधा मान लिया गया है, पर कबीर को भी इन मर्यादावादी विचारकों ने कवि मानने से परहेज करना चाहा था।

वास्तव में व्यंग्य का मूल एवं प्राथमिक स्वर प्रतिष्ठान-विरोधी होता है। सत्ता में रहने वालों को व्यंग्य कभी प्रीतिकर नहीं होता, वे कभी उसका स्वागत नहीं करते। व्यंग्य या तो व्यक्ति का या उन विचारों और परम्पराओं का जिन पर संस्थाएँ, सत्ताएँ या प्रतिष्ठान आधारित होते है, ध्वंस करता है। समाज में फैली हुई विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, नैतिक मूल्यों का मिथ्याचार-ये सब-के-सब व्यंग्य का कच्चामाल हैं। मध्यकाल में जीवन की सारी कदर्थताओं का उत्स धर्म था, आज वह राजनीति में है। इसलिए मध्यकाल में कबीर को धर्म के आडम्बर के विरूद्ध लुकाठी चलानी पड़ी थी और आज के व्यंग्यकार को राजनीति के दुरंगेपन के विरूद्ध कटिबद्ध होना पड़ता है। मध्यकाल के कवियों ने मुख्य रूप से धार्मिक रूढ़ियो और नैतिक मूल्यों में व्याप्त दुरंगेपन पर चोट की थी। धर्म मध्ययुग का सबसे बड़ा मूल्य था। जीवन के सारे कार्यों का प्रस्थान और गन्तव्य धर्म और धार्मिक कर्मकाण्य था।

आज जीवन की सारी महत्त्वपूर्ण बातों का प्रारम्भ और अन्त राजनीति है। वास्तव में मध्युगीन धर्म और समसामयिक राजनीति में कोई स्तरगत अन्तर नहीं है। जैसा कि कहा जाता है- राजनीति कुछ देर तक चलने वाला धर्म है और धर्म बहुत देर तक चलने वाली राजनीति है। वर्तमान राजनीति के चलते हमारे प्रजा-तान्त्रिक ढाँचे में धीरे-धीरे ऐसा दिखावा और नैतिक छल समा गया है कि ईमानदार आदमी को निरन्तर  बड़ी बेचैनी का सामना करना पड़ता है और ईमानदारी बेवकूफी का पर्याय मानी जाती है। आज हमारे देश में जो
 व्यंग्यकार इस विडम्बना का उद्घाटन कर रहे है, उनका साहित्य अपने मूल स्वरूप में क्रोधजन्य न होकर करुणाजन्य है।

एक गम्भीर मानवीय करूणा इन व्यंग्यकारों को उस सबको हिलाने, गिराने और तोड़ने के लिए बाध्य करती है जो हमें सांस्कृतिक रूप से खँडहर का निवासी बनाए हुए है। एक विशाल मलबे के मालिक के रूप में हम बहुत दिन जी चुके, अब हमें खुली हवा चाहिये। व्यंग्यकार अपने व्यंग्य द्वारा जीवन के सीलन-भरे बदबूदार कमरे में खुली हवा का एक झोंका भरने का उदेश्य लेकर चलता है। मुक्तिबोध ने जब यह लिखा कि-
‘जो है उससे बेहतर चाहिए, पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।’ तो वे व्यंग्यकार के महान् जीवनोद्देश्य की ही चर्चा कर रहे थे।

मध्य युग में सन्तों ने समझ लिया था कि समाज को, संसार को बेहतर बनाने के लिए हमें सबसे पहले मन्दिरों और मसजिद की सफाई करनी होगी, क्योंकि उस युग में गन्दगी का परनाला मन्दिरों और मसजिदों से फूटता था। ‘काबा’ और ‘काशी’ ‘मुल्ला’ और ‘पण्डित’, ‘रमजान’ और ‘एकादशी’ समाज में विद्वेष और घृणा फैलाने वाली शक्तियाँ थीं। इसलिए कबीर और उनके साथी अन्य सन्तों ने अपनी समस्त शक्ति समाज-विरोधी षड्यन्त्रों को चकनाचूर करने में लगाई। आज का व्यंग्यकार जानता है कि आज के युग में समाज की शक्तियों को नियन्त्रित करने वाली बागडोर राजनीति के पास है। अब समाज को गन्दा करने वाला परनाला विधायक विश्राम-गृहों, संसद-सभाओं और मन्त्रियों की कोठियों से फूटता है। इसलिए आज हरिशंकर परसाई या शरद् जोशी या श्रीलाल शुक्ल बार-बार राजनीति के प्रतिष्ठान और उसके निहित तत्वों पर वार करने के लिए बाध्य होता है।

व्यंग्यकार के रूप में लेखक अपना उत्तरदायित्व मानता है कि वह उन सब पर चोट करे, जिन्हें वह गलत या बुरा मानता है। यहाँ यह जिज्ञासा की जा सकती है कि चोट का लक्ष्य, उसकी परिधि और उसका प्रभाव क्या है ? क्या व्यंग्यकार उन नैतिक भ्रष्टताओं अथवा रूढियों को सुधारने में सफल हो जाता है, जिस पर वह व्यंग्य की लाठियाँ बरसाता है ? पण्डित या पादरी जब धर्मोपदेश देता है तो क्या वह कुमार्गगामियों को सन्मार्ग पर लाने में सफल हो जाता है ? अथवा उसके प्रवचन का फल केवल इतना ही होता है कि जो सदमार्ग पर चल रहे हैं वे उससे विचलित न होने पायें। पण्डित, पादरी या मुल्ला बुरे लोगों को सदैव अच्छा नहीं बना पाते। हाँ, वे अच्छे लोगों को अच्छे बने रहने में मदद अवश्य करते हैं।

धर्मोपदेश या प्रवचन यदि इतना ही करते हैं तो कुछ कम नहीं करते। व्यंग्यकार भी भ्रष्ट, अनैतिक, मिथ्यावादी और पाखण्डी को बदल न पाए तो भी उसे निराशा अथवा दुखी होने की आवश्यकता नहीं है। वह उन लोगों को अपना नैतिक समर्थन देता है जो ईमानदार, नैतिक और रूढ़िविरोधी हैं। आज के व्यंग्यकार जिस प्रकार के राजनीतिक और सामाजिक व्यंग्य लिखते हैं, उनका लक्ष्य विरोधियों अथवा शत्रुओं का पक्ष-परिवर्तन उतना नहीं जितना अपने हमदम और दोस्तों की हौसला अफजाई है। न्याय के पक्ष-समर्थन के लिए व्यंग्यकार प्रतिष्ठान विरोधी होता है और शत्रुओं को नीचा दिखाने के लिए कभी उसे अँगूठा बताना पड़ता है और कभी जीभ चिढ़ानी पड़ती है। युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए अपनी सेना को मजबूत करना जितना आवश्यक होता है उतना ही शत्रु को ‘ डिमारलाइज’ करना भी।

व्यंग्य का एक लाभ यह होता है कि पाठक यह जानने में समर्थ होता है कि उसे राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्यों में किसकी पक्षधरता करनी चाहिये। आज के हिन्दी-व्यंग्कार ने सामान्य पाठक को अपने परिवेश के प्रति जागरूक बनाने का जितना काम किया है, उतना किसी अन्य विधा के लेखक ने नहीं। जो पाठक न तो इस तरफ के और न उस तरफ के-उनके लिए व्यंग्य-रचनाओं को पढ़कर अपना पक्ष चुनना आसान हो जाता है। यह पक्ष आडम्बर विरोधी और नैतिकता-समर्थक होता है। सामान्य, अप्रतिबद्ध, अजागरूक या अर्थ-जागरुक पाठक व्यंग्य-रचनाओं के माध्यम से चौकन्ना होता है। उसके मन में यह सात्विक भय उचित होता है कि यदि उसने भ्रष्टाचार में भाग लिया या उसका समर्थन किया तो वह भी व्यंग्य का शिकार होगा। वह सावधान होकर व्यंग्य रचनाओं में समर्थित या व्यंजित मूल्यों की पाली में आ जाता है। व्यंग्य की यह शक्ति अपने-आप में स्वस्थ और जागरूक समाज के निर्माण में बड़ा मूल्यवान योग देती है।

   व्यंग्य को हलकी साहित्य विधा या भाव-प्रकार मानने वाले प्रायः यह कहते हुए पाये जाते है कि व्यंग्य सदैव जीवन और मूल्यों के अभावग्रस्त पक्षों की ओर देखता है, उसकी दृष्टि सदैव छीछड़ों पर रहती है, वह खँडहारों में जितने प्रसन्न भाव से घूमता है उतना उपवनों में नहीं, वह छिद्रान्वेषी होता है, उसे सुन्दर मुखड़े आकर्षित नहीं करते, कुरूप चेहरों पर लगे हुए सुन्दर मुखौटे उसे ज्यादा आमन्त्रक प्रतीत होते हैं। वास्तव में इस आरोप का उत्तर देने के लिए एक नई जिज्ञासा प्रस्तुत करना ज्यादा उपयोगी और महत्त्वपूर्ण जान पड़ता है। पुलिस वाले चोरों, उचक्कों, डाकुओं, गिरहकटों और जिना-उल-जब्र करने वालों के पीछे ही हाथ धोकर क्यों पड़े रहते है या क्या कारण है कि डा.स्वस्थ व्यक्ति को देखता तक नहीं, उसके लिए बीमार व्यक्ति ही काम का आदमी सिद्ध होता है। कभी किसी ने सेना को ‘चिल्ड्रन पार्क’ के आसपास गश्त लगाते देखा है ? म्यूनिस्पेल्टी की कचरा ढोने वाली गाड़ी मोरियों और गलियों के आस-पास ही ज्यादा चक्कर लगाती है। व्यंग्यकार एक अप्रिय, किन्तु उपयोगी कर्तव्य करता है।

कानून और न्ययाधीश सज्जनों के लिए नहीं होते, उनका काम दुष्टों को दण्डित करने का होता है। वे सज्जनों को दुष्मार्ग पर चलने से निरूत्साहित भी करते है। हमारे कानून में चाहे वह अदालतों का हो, चाहे धर्म का, चाहे समाज का हो, चाहे राजनीति का, कई ऐसी दरारे होती हैं जिनमें से चुस्त और चालाक आदमी निकल जाता है। वह उन कानूनों को तोड़ता तो है, किन्तु इस सफाई और चतुराई से कि कानून और आचार का पंजा उसे पकड़ नहीं पाता।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक स्विफ्ट का विचार है कि ऐसी दरारों पर लोगों का ध्यान केन्द्रित करने के लिए व्यंग्य की आवश्यकता पड़ी होगी। जो समाज में अपनी प्रचलित प्रतिष्ठा का दुरूपयोग करते हैं या जो जनता की नेकनीयता और भोलेपन का शोषण करते हैं- संक्षेप में, जिनके जीवन के ‘पब्लिक सेक्टर’ और ‘प्रायवेट सेक्टर’ में असंगति और विरोध है- व्यंग्यकार उनकी खबर लेता है। जब पोप ने कहा था कि जब तक मैं जीवित हूं तब तक कोई भी सम्पन्न अथवा उदात्त बदमाश सम्मानपूर्वक श्मशान भूमि नहीं जा सकता, तब वह व्यंग्यकार की उपयोगिता और महत्ता का प्रतिपादन कर रहे थे। जो कानून गीता, गंगाजल अथवा जनता की निगाहों से बच जाते है, उन्हें व्यंग्यकार अपने व्यंग्यदण्ड से आहत करता है। व्यंग्यकार जब व्यंग्य करता है तो वह उस किसान की तरह होता है जो फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कौए को मारकर अपने खेत में उलटा टाँग देता है जिससे दूसरे कौए डरें और फसल का नुकसान न करें।

 

-कान्तिकुमार जैन

 

 

इन्टरव्यू मुफतलाल का होना 

डिप्टी कलेक्टर

 

 

   पाठक भूले न होंगे कि मुफतलाल ने डिप्टी कलेक्टर के पद के लिए आवेदन किया था।
राज्य में शासकीय नौकरियों के लिए भरती दो स्थितियों में होती थी-तब जब पद खाली हो और उन्हें भरने के लिए उम्मीदवारों की जरूरत हो, तब जब विशेष उम्मीदवार खाली हों और उन्हें भरने के लिए पदों की आवश्यकता हो। शासकीय सेवा संहिता के अनुच्छेद 2 की धारा 11, उपधारा 3 में ‘विशेष उम्मीदवार’ की परिभाषा यह दी गई थी-‘ऐसा पदेच्छु नागरिक, जिसकी योग्यता अविशेष हो, पर सम्बन्ध विशेष हों- अर्थात् राज्य में किसी ऐसे व्यक्ति का वह कृपापात्र हो, जो स्वयं शासक हो या जिसका शासनकर्त्ताओं पर प्रभाव हो।,

जब पदों को आदमियों की, या आदमियों को पदों की आवश्यकता होती, तब सरकार ‘आवश्यकता है’ शीर्षक के अन्तर्गत आवेदन-पत्र मंगाने के लिए विज्ञप्ति प्रकाशित कराती। राज्य के अखबार केवल इस विज्ञप्ति के कारण खरीदे जाते थे। जिस अखबार में यह शीर्षक नहीं दिखता, उसे कोई नहीं खरीदता था। बिक्री बढ़ाने के लिए कुछ अखबार धोखा भी करते थे।

एक अखबार ऊपर बड़े अक्षरों में छापता-‘आवश्यता है’, और जब लोग इस शीर्षक से आकर्षित होकर अखबार खरीद लेते, तब नीचे यह लिखा हुआ मिलता- ‘नदी को पर्वत की, वृक्ष को भूमि की, गाए को घास की, बच्चे को माँ की, नंगे को कपड़े की, अंधे को आँख की, कुत्ते को पट्टे की, बैल को सींग की, मालिक को नौकर की, भगवान को भक्त की, गधे को चन्दन की, बन्दर को आभूषण की-आवश्यकता किसे नहीं है ? अर्थात् सब को है।’ यह धांधली देख कर दूसरे अखबार ने चेतावनी छापी- ‘नक्कालों से सावधान। हमारे पत्र की बिक्री देख-कर कुछ पत्र ‘आवश्यकता है’ शीर्षक देकर निरर्थक बातें छाप कर भोली-भाली जनता को धोखा देते हैं। इन विज्ञप्तियों में नौकरी के लिए आवेदन करने की सूचना नहीं रहती। हम जनता को चेतावनी देते है कि असली विज्ञप्ति देखकर और पूरा मजमून पढ़कर ही अखबार खरीदें। नक्कालों से सावधान रहें।’

एक-एक पद के लिए कई हजार आवेदन-पत्र आते। इन्हें छाँटने में दो-तीन साल लग जाते। इसके बाद उम्मीदवारों की परीक्षा और इण्टरव्यू होती। नियम के अनुसार हर उम्मीदवार को हर तीन महीने में सूचित करना पड़ता था। कि मैं अभी जीवित हूँ। जो सूचना नहीं देता, उसे मरा मानकर उसका नाम काट दिया जाता था। इससे चुनाव में सुविधा होती थी।
दो वर्ष बाद मुफतलाल को ‘शासकीय सेवा विभाग’ के कार्यालय से सचिव के एक पत्र की नकल’ संचालक, सेवा विभाग के मार्फत, मिली। उस समय विभाग के सचिव श्रीमान् अस्पष्टजी थे। पत्र की नकल नीचे दी जा रही है-

कार्यालय, शासकीय सेवा विभाग

 


प्रति,
               श्री मुफतलाल बी.ए.

               संदर्भ- डिप्टी कलेक्टरी के लिए आपका आवेदन-पत्र
                       आपको सूचित किया जाता है कि आवेदन-पत्र यथा समय इस कार्यालय में प्राप्त हो गया। ‘शासकीय सेवा अधिनियम’ की धारा 17 के अनुसार आप एक माह के भीतर इस कार्यालय को प्रमाण-पत्र सहित यह सूचित करें कि आप किसके ‘आदमी’ हैं तथा वे किस श्रेणी में हैं।

सही- (अस्पष्ट)
सचिव।

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