बहुभागीय पुस्तकें >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"कल से जनसैनिकों के साथ सारा आश्रम भी पूरी तत्परता से खेती में लगे..." आनन्द सागर के चेहरे के भाव देखकर राम ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया, "क्या बात है? आप सहमत नहीं हैं?"
"कैसे सहमत हो सकता हूं।" आनन्द सागर के स्वर में कुछ कटुता थी, "आश्रम से तात्पर्य है, आश्रम के ब्रह्मचारी, आचार्य और मुनि! और इनमें से किसी का भी काम खेती नहीं है। इनमें से किसी की महत्त्वाकांक्षा कृषि-कर्म नहीं है। हम लोग अपनी मानवता के नाते, अपनी सहानुभूति के कारण ग्रामवासियों की कुछ सहायता कर दें-वह एक पृथक् बात है; किंतु अपना सारा पाठ्यक्रम छोड़, अपनी आध्यात्मिक साधना को, तिलांजलि देकर, अधिक बुद्धिमान, अधिक ज्ञानी तथा मुक्त जीव होने के स्थान पर हम कृषक बन जाएं, तो हम अपने लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाएंगे।"
राम की दृष्टि अनायास ही लक्ष्मण पर जा पड़ी, वे विस्फोट की सीमा तक पहुंचे हुए लग रहे थे। इसके पहले कि लक्ष्मण कुछ कह बैठते राम बोले, "सौमित्र, मेरी बात पहले सुन लेना।"
सहसा लक्ष्मण अपनी अवस्था के प्रति सजग हो उठे। उन्होंने मुख में आई बात गटक ली और सायास मुस्कराकर बोले, "आप निश्चिंत रहें।"
"आप कह चुके मुनि आनन्द सागर?"
"जी!"
"तो अब मेरी बात सुनें।" राम बोले, "भिन्न मत होने के कारण, आपको अनुकूल न पड़े तो क्षमा करें।"
"नहीं! नहीं!! आप कहिए।" आनन्द सागर भी कदाचित् अपना आवेश पी गए थे।
"यह ठीक है कि आश्रम, के ब्रह्मचारी, आचार्य तथा मुनि अधिक बुद्धिमान, ज्ञानी तथा मुक्त होने के लिए अध्ययन और साधना करते हैं। इन्हीं के लिए आश्रम की स्थापना होती है" राम बोले, "किंतु आप मुझे बताएंगे कि यह बुद्धिमत्ता, ज्ञान तथा मुक्ति-समाज से निरपेक्ष होकर भी कोई अर्थ रखती है? सामाजिक प्रासंगिकता से बढ़कर भी कोई बुद्धि, ज्ञान अथवा कोई अन्य साधना होती है? क्या करेंगे आप ऐसे ज्ञान और बुद्धि का, जो आपके समाज के काम नहीं आ रही। क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भौतिक स्वार्थों से मुक्त होने के सिवाय भी और कुछ है? समाज-निरपेक्ष, शून्य अध्यात्म का भी कोई अस्तित्व है क्या? क्या अध्यात्म का सुख, अपने स्वार्थों से मुक्ति तथा अपने समाज के लिए उपयोगी होकर उसको सुखी कर, स्वयं सुखी होने से अलग भी कुछ है? यह कैसी विडंबना है कि जिस समाज के विकास तथा सुख के लिए व्यक्ति बुद्धि और ज्ञान की साधना करता है, वह अपनी साधना की प्रगति के साथ-साथ उस समाज से असंपृक्त हो, आत्मसीमित तथा स्वार्थी होता जाता है। जब आप के आसपास का मानव-समाज अकाल की स्थिति में भूख से तड़प-तड़पकर मर जाएगा, तो आपका तप, साधना, ज्ञान, अध्ययन-यह सब किसके काम आएगा?"
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