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संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"अरे ये कहां भागे जा रहे हैं?" भीखन एक बार फिर चकित हुआ, "मैं उन्हें बुलाऊं क्या?"

"नहीं!" राम बोले, "उन्हें दूर से ही देखने दो। वे अपनी इच्छा से ही निकट आएंगे।"

राम ने ग्रामीणों को अनदेखा-सा कर, अपना कार्य आरंभ किया। सबने मिलकर भूमि की नाप-जोख की और उसे चार समान भागों में बांट दिया। जनसेना के चौबीस व्यक्तियों की चार टुकड़ियाँ बनाकर, भूमि का एक-एक भाग उन्हें सौंप दिया गया। भूलर, कृतसंकल्प, पुनीत तथा वायुगति एक-एक टुकड़ी के नेता बने। राम चारों टुकड़ियों के सम्मिलित नेता थे और अनिन्द्य उनका सहायक।

राम सोच रहे थे : भूमि बहुत अधिक थी। इतनी अधिक कि जनसेना के इतने थोड़े-से लोग उस भूमि से पूरी उपज प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं थे। यह सारी भूमि, अकेले भूधर की थी। सारा ग्राम अपना स्वेद बहाता था, और उपज का स्वामी भूधर था। अब ग्रामवासी उस भूमि पर काम करने के लिए सहमत नहीं थे, क्योंकि उन्हें राक्षसों के विरोध का भय था। इस प्रकार तो भूमि का एक बड़ा भाग परती पड़ा रह जाएगा।...आश्रम के लोगों को भी खेतों में लगाना होगा। पर, यदि उन्हें भी राक्षसों के आतंक ने बाधित किया तो?...

चारों टोलियों ने अपना-अपना कार्य आरंभ किया; किंतु थोड़ी ही देर में राम के मन की बात, सबके सम्मुख प्रकट हो गई : इतने बड़े भू-भाग के लिए न तो उनके पास पर्याप्त व्यक्ति थे, न हल, न बैल! फिर भी चारों टोलियां, होड़, लगाकर काम कर रही थीं। जो टोली पीछे छूटती दिखाई पड़ती थी, राम और अनिन्द्य उसमें जा मिलते थे। उसके अन्य टोलियों के बराबर आते ही, वे दोनों उसमें से हट जाते थे...।

दूर खड़े ग्रामीण, अपनी उत्सुकता में क्रमशः खिसकते-खिसकते खेतों के पास आ गए। राम ने उनके चेहरों पर अंकित उनकी विवशता देखी : एक ओर अपनी भूमि पर काम करने की आतुरता, दूसरी ओर अपनी भूमि पर बाहरी लोगों को अधिकार स्थापित करते देखने के विरुद्ध आक्रोश! साथ-साथ राक्षसों का अनाम-अज्ञात आतंक।...

भय आदमी को कितना बौना बना देता है, राम सोच रहे थे-मनुष्य मनुष्य न रहकर, भूमि पर रेंगने वाला कीड़ा बन जाता है। यदि यह भय उसके मन से निकाल दिया जाए, तो वह किसी भी अन्याय से जा टकराता, किसी भी अत्याचारी को पीस डालेगा। किंतु इनके मन मे पीढ़ियों से बसा हुआ यह आतंक मिटेगा कैसे?...

सहसा भीखन ने हांक लगाई, "आ जाओ भैया! तुम लोग भी आ जाओ। भूमि तुम्हारी ही है, क्यों संकोच करते हो?"

उसके निमंत्रण का प्रभाव हुआ। लोग अपने भीतर आकर्षण से खिंचे हुए, अजाने ही निकट आ गए थे। भीखन ने उनकी उस दुर्बलता के प्रति संकेत कर दिया था। मन का भाव प्रकट हो जाने का संकोच तथा राक्षसों का आतंक-दोनों ही साथ-साथ जागे; और उन्हें धकेलकर खेतों से दूर गांव की ओर ले आए।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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