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संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

सिद्धाश्रम! ताड़का वन! गौतम का आश्रम! जनकपुर! चित्रकूट और अब दंडक वन!...चित्रकूट से चलते हुए, कैसे मन में आया था कि जय और उसके साथियों के साथ वहीं रह जाएं। वहां उद्घोष था-उसके ग्रामवासी थे। वे लोग कहां चाहते थे कि राम उन्हें छोड़कर जाएं। मुखर और सुमेधा की देखा-देखी सारा गांव ही सीता को 'दीदी' कहने लगा था। सीता बन भी तो गई थीं, उनकी दीदी। सबकी आवश्यकताएं और ढेर सारे लोगों के असंख्य मतभेद। कैसा स्नेह था सीता को उनसे, कैसा अधिकार और कैसा अनुशासन...

अनुशासन तो सौमित्र का था। एक आह्वान पर, ग्राम के ग्राम, सैनिक अनुशासन में बंधे हुए स्कंधावार बन जाते थे। खेतों में काम करते स्त्री-पुरुष तत्काल अपना काम छोड़, अपने निश्चित स्थान पर पहुंच जाते थे। बालक पाठशालाओं से निकल आते थे, गृहिणियां घर का काम छोड़ उपस्थित हो जाती थीं...

इन सारे आयोजनों के साथ मुखर की संगीतशाला और, उद्घोष की मूर्तिशाला भी खूब मजे में चल रही थीं। बच्चों के साथ वयस्क भी अपनी इच्छा की शाला में जाकर पढ़ते-लिखते तथा अन्य कलाएं सीखते थे। उनके शरीरों के साथ, उनकी आत्माएं भी मुक्त हो गई थीं। वे अपने वर्तमान और भविष्य के विषय में स्वयं सोचते थे। कोई तुंभरण उन्हें वह बनने से नहीं रोक सकता था, जो वे बनना चाहते थे। वे स्वयं उत्पादन करते थे, स्वयं उसका उपभोग करते थे, स्वयं अपनी रक्षा करते थे...

ऐसा लगने लगा था कि जीवन व्यवस्थित, स्थिर तथा सुंदर हो गया है। चित्रकूट छोड़ना कितना कठिन हो गया था।...किंतु, चित्रकूट छोड़ते ही संसार बदल गया। अत्रि ऋषि के आश्रम पर, ऋषि-दंपति से भेंट हुई। उन लोगों ने अपना जीवन एक ही लक्ष्य को समर्पित कर रखा है। उनके यहां खुला वार्तालाप हुआ : वाद-विवाद भी हुआ-परिसंवाद ही कहना चाहिए। किंतु, सारी बातचीत में, परिवेश में व्याप्त अनेक प्रकार के अत्याचारों की कोई चर्चा नहीं हुई। उन्होंने अपना ध्यान समाज में नारी-पुरुष संबंधों पर ही केंद्रित कर रखा है। वृद्धा ऋषि अनूसया के शब्दों ने राम के मन में बड़ी देर तक हलचल मचाए रखी थी, "...राम! स्त्री प्रत्येक समाज में पीड़ित है। दासों की स्त्रियां भी पीड़ित हैं और राजाओं की भी। क्या तुम कह सकते हो कि सम्राट् की पत्नी होकर भी तुम्हारी माता पीड़ित नहीं रहीं? स्त्रियां आर्यों के घरों में भी पीड़ित हैं और राक्षसों के घरों में भी। मैंने यह भी देखा है कि मानव-मात्र का उद्धार करने का दम भरने वाला क्रांतद्रष्टा ऋषि स्वयं अपनी पत्नी का उद्धार नहीं कर पाता, नहीं करता-न ही करना चाहता। उसे संसार-भर के पीड़ित जीव दिखाई पड़ते हैं, मैं तो कहती हूं राम! कि जब तक नारी-पुरुष समभाव से जीने के अभ्यस्त नहीं होंगे, जब तक यह भेद ही अप्रासंगिक नहीं हो जाएगा, तब तक मानवता का उद्धार नहीं होगा..."

अत्रि-आश्रम का वातावरण अन्य आश्रमों से भिन्न था। स्वयं ऋषि अनसूया के कारण। इसीलिए वहां उनका सत्कार आश्रम के अतिथि के समान कम, गृहस्थ के अतिथि के समान अधिक हुआ था।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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