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संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"इस घटना के शोक से जब शेष कर्मकर उबरे तो उन्हें न केवल मांडकर्णि याद आए, वरन् वे उन्हें सबसे अधिक विश्वसनीय और निकट के मित्र लगे। उस दिन से मांडकर्णि उस खान के कर्मकरों का कुलपति हो गया। उसकी इच्छा, उनके लिए विधान हो गई। वे अपने प्राण देकर भी मांडकर्णि की आज्ञा की रक्षा के लिए तत्पर थे।

"इस स्थिति की सूचना अग्निमित्र को मिली, तो उसका शासन डोल गया। उसने कर्मकरों को डराया-धमकाया और अंत में निराश होकर फुसलाया भी। किंतु कर्मकरों ने उसकी एक नहीं मानी। उनका विरोध क्रमशः दृढ़ होता जा रहा था। अंत में अग्निमित्र अपने कुलपति, देव अग्नि के पास पहुंचा। अग्नि स्वयं चलकर मांडकर्णि के पास आए। वे उसे अपने साथ दूर-दूर के देशों के भ्रमण पर ले गए। उसका भी सत्कार खूब किया। अंत में पंचासर में उन्होंने मांडकर्णि के लिए सुंदर भवन का निर्माण करवाया। उसे पांच सुंदरी अप्सराएं तथा पुष्कल धन भेंट में दिया। तब से आज तक मांडकर्णि विलास में डूबा है। कर्मकरों और उनके विरुद्ध होने वाले अत्याचारों की बात तक उसे स्मरण नहीं..."

"बिका हुआ बुद्धिजीवी!" लक्ष्मण के जबड़े भिंच गए।

"यह तो उचित नहीं हुआ।" सीता धीरे से बोली, "कैसा अधर्मी है वह मांडकर्णि। अपने साथियों के साथ कोई इस प्रकार का विश्वासघात करता है!"

"यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है, देवि वैदेही!" धर्मभृत्य बोला, "किंतु यथार्थ यही है। कुछ इसी प्रकार की घटनाएं और भी हुई हैं। अनेक लोग कर्मकरों से कोई सहानुभूति न होने पर भी, केवल अपने स्वार्थवश, उनका पक्ष लेकर व्यवस्था का विरोध करते हैं। व्यवस्था, उनके सम्मुख कोई-न-कोई छोटा या बड़ा टुकड़ा डाल देती है। वे लपककर अपना टुकड़ा उठा, श्रमिकों को उग्र दमन का सामना करने के लिए असहाय छोड़, भाग जाते हैं। पुरस्कार पाने के लोभ में विरोध करने वाले अनेक जन पैदा हो गए हैं; विरोध करने का मूल्य चुकाकर भी न्याय के लिए संघर्ष करने वाले लोग विरल ही हैं..."

"मांडकर्णि का क्या हुआ मुनिवर?" लक्ष्मण ने धर्मभृत्य को उसकी बात के मध्य में टोका।

"मांडकर्णि की कथा तो इतनी ही है।" धर्मभृत्य बोला, "कभी उधर जाओ तो पंचासर के मध्य बने भवन में से आती नूपुर-ध्वनि सुन लेना।...आगे की कथा तो उन कर्मकरों की यातना की कथा है। मार्ग-निर्देशन वाला कोई रहा नहीं। स्वयं वे समर्थ नहीं थे। अग्निमित्र को अवसर मिला, उसने अपने विरोध का पूरा प्रतिशोध लिया। कार्य के घंटे बढ़ा दिए। पारिश्रमिक कम कर दिया। हिंसा की घटनाएं तो अनेक बार हुईं। संघर्ष में अग्रणी अनेक कर्मकरों की स्त्रियों के साथ अत्याचार किया गया और कुछ की संतानों को राक्षसों के हाथ बेच दिया गया..."

"राक्षसों के साथ सहयोग?" राम ने आश्चर्य से पूछा।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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