बहुभागीय पुस्तकें >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"वही तो। वही तो।" धर्मभृत्य के कंठ में जैसे कुछ फंस गया। आंखें डबडबा आई और चेहरे पर असाधारण उल्लास बिखर गया। शब्दों में कुछ कहना उसके लिए असंभव हो गया।
राम ने उसे देखा और हंसे, "मार्ग-निर्देशक मुनि धर्मभृत्य! अब सुतीक्ष्ण मुनि का आश्रम कितनी दूर है?"
धर्मभृत्य ने स्वयं को संभाला। अपनी रोमांचपूर्ण स्थिति से उबरकर बोला, "बस, हम आ ही पहुंचे हैं राम। सामने के वृक्षों को देखिए। आपको आसपास ही कहीं, आश्रम-जीवन का आभास मिलने लगेगा।"
"हमारे ग्राम में नहीं चलेंगे आर्य राम?" भीखन ने पूछा।
राम ने भीखन को देखा, वह आशा और निराशा के बीच टंगा दिखाई दे रहा था। उन्होंने दृष्टि फेरी-भीखन के आसपास वैसे ही अनेक चेहरे, एक ही भाव लिए, घिर आए थे। राम उनकी भावना से आकंठ भीग उठे : ज्ञानश्रेष्ठ उन्हें आश्रम में ठहरने नहीं देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने कहा कि ऋषि के आत्मदाह के पश्चात् आश्रम की व्यवस्था बिखर गई है। और ये ग्रामीण किस स्निग्ध भावना से उन्हें अपने साथ ले जाने का आग्रह कर रहे हैं। वे भी जानते हैं कि राम के पास शस्त्र हैं, और वे राक्षसों के क्रोध को आमंत्रित कर सकते हैं...
"ग्रामों में मैं नहीं जाता भीखन।" राम का स्वर स्नेह से आप्लावित था, "किंतु तुम्हारे निकट आकर अवश्य रहूंगा।"
"भीखन।" धर्मभृत्य ने कहा, "तुम लोग अपने-अपने ग्राम में चलो। सारे ग्राम को बताओ कि राम आ रहे हैं। उन्हें कह दो कि अब राक्षसों से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं रही।" धर्मभृत्य ने कुछ सोचकर साथ जोड़ा, "राक्षस चाहे किसी भी जाति के हों।.. मैं चाहता हूं कि ऐसा वातावरण तैयार हो जाए कि भद्र राम को यह कहने को बाध्य न होना पड़े कि जब उन्होंने आह्वान किया तो न्याय के पक्ष में कोई उठकर खड़ा नहीं हुआ।" धर्मभृत्य ने निमिष-भर के विराम के पश्चात् पुनः कहा, "वैसे मुझे पूर्ण आशा है कि राम हमारी अपेक्षा से भी शीघ्र ही हमारे पास आ जाएंगे।"
ग्रामीण समुदाय को विदा कर, लक्ष्मण को भेज, सुतीक्ष्ण मुनि से शस्त्रों के साथ आश्रम में प्रवेश की अनुमति पा, राम आश्रम के केन्द्र की ओर बढे। धर्मभृत्य तथा उसके मित्रों के साथ मुनि निकाय राम भी साथ थे। उनसे राम की विशेष बातचीत नहीं हुई थी और उनका राम के साथ किसी ऋषि के आश्रम में रूक जाना कुछ असाधारण भी नही था; किंतु फिर भी, राम समझ रहे थे कि मुनि निकाय की क्या इच्छा है। सामान्य वनवासी मुनियों तथा आश्रमाधिकारी ऋषियों मे चिंतन के सामरस्य का अभाव अभी तक राम को सहज नहीं लग रहा था। ये ऋषि, जन-भावना की उपेक्षा क्यों करते जा रहे थे? या सामान्य मुनि समुदाय, ऋषियों के अनुकूल क्यों नहीं चल पा रहा था?
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