बहुभागीय पुस्तकें >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
ऋषि को स्पष्ट दिख रहा था कि आज इस जनसामान्य ने, उनके भीतर के संकीर्ण और अहंकारी ऋषि को दूसरी बार धिक्कारा था। स्वयं को बुद्धिमान, मेधावी तथा प्रतिभाशाली समझने वाला चिंतक, स्वयं अपनी आंखों से देख रहा था कि वह कितना नासमझ है। उसने अपने चिंतन तथा सिद्धांतों को अपने अहंकार के वृत्त में सीमित रखकर पोषित किया था, अपने परीक्षण के लिए इस जनसागर में डुबकी लगाने का अवसर उन्होंने कभी नहीं आने दिया था तो फिर खरे-खोटे का निर्णय कैसे होता?...और दूसरी ओर यह राम है, जो वय में उनसे छोटा है, साधना में न्यून है, स्थिति में राजकुमार है-किंतु सारी सीमाओं को तोड़कर, वह इस जनसागर तक जा पहुंचा है। उसके प्रत्येक विचार, प्रत्येक कृत्य की तत्काल परीक्षा हो जाती है, और यह जनसमुदाय उसके सत्यासत्य पर अपना निर्णय दे देता है...सिद्धांत को व्यवहार में परखे बिना सत्य का पद कैसे दिया जा सकता है?...और आश्रमों की सीमाओं में बंदी सिद्धांत व्यवहार के समुद्र तक पहुंचेगा कैसे...
सुतीक्ष्ण अपनी कुटिया में आ बैठे। उनका मन भावों, विचारों तथा धारणाओं का युद्ध क्षेत्र हो गया था-क्या करें और क्या न करें? आश्रम में आए इस जनसमुदाय की उपेक्षा कर, अपने पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार चलें अथवा उस कार्यक्रम को स्थगित करने का आदेश दें, अकस्मात् आ गए अतिथि रूपी इस जनसागर का ही पूजन करें?...ऋषि का विवेक उन्हें बार-बार चेतावनी दे रहा था : 'अब तक जनसामान्य की उपेक्षा की है, अब यह भूल मत करना सुतीक्ष्ण! राम का जनसाधारण में, और जनसाधारण का राम में विश्वास देखो और अपनी भूल सुधारो। जिस राम के मन को जीतने के लिए, आश्रम के गुणों की प्रदर्शनी लगाना चाहते हो, उस राम के मन पर, तुम्हारे द्वारा की गई जनसाधारण की उपेक्षा का क्या प्रभाव पड़ेगा?...'
एक लंबे ऊहापोह के पश्चात् अंततः ऋषि ने अपने पूर्वनियोजित कार्यक्रम को स्थगित करने का निश्चय किया।-उन्होंने अपने पट्ट शिष्यों तथा आश्रम के मुनियों को बुलाकर तत्संबंधी आदेश दे दिए। उन्हें आशंका थी कि कहीं इस स्थगन से आश्रम निवासियों को निराशा न हो, किंतु उन्हें यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि आदेश सुनकर आश्रम निवासियों के सिर से जैसे बोझ टल गया। वे उल्लसित मन से आश्रम के सभास्थल की ओर चले गए, जहां राम, सीता, लक्ष्मण तथा मुखर उपस्थित थे।
...अपना मन स्थिर करने में ऋषि को थोड़ा समय और लगा। अंततः वे भी कुटिया से निकलकर अत्यन्त धीमी चाल से सभा-स्थल की ओर आए। ओट से निकलकर वे आगे बढ़े और उनकी दृष्टि सभास्थल पर पड़ी। वे पुनः ठिठककर खड़े हो गए। जो कुछ वे देख रहे थे, वह अविश्वसनीय था। उन्हें पूर्व सूचना होती भी, तो वे बिना अपनी आंखों से देखे, इस दृश्य का विश्वास कभी न करते। सभास्थल अनेक छोटे-छोटे कक्ष-खंडों में बदल गया था। और जनसमुदाय छोटी-छोटी टोलियों में। कोई स्त्रियों की टोली थी, कोई बालकों की! पुरुषों की टोलियों में आश्रमवासी और ग्रामीण दोनों ही समान रूप से सम्मिलित थे। वहां विभिन्न प्रकार की व्यवहारिक और सैद्धांतिक कथाएं चल रही थीं-आश्रम के मुनि तथा प्रशिक्षित ब्रह्मचारी राम की मंडली के सदस्यों के निर्देशन में विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण दे रहे थे...।
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