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उपन्यास >> तमस

तमस

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2861
आईएसबीएन :9788126715398

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आजादी से पहले हुए साम्प्रदायिक दंगो को आधार बनाकर लिखा उपन्यास...

Tamas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी है, जिसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उद्घाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं। और इस सारी प्रक्रिया में जो तबाही हुई है उसका शिकार बनते रहे हैं वे निर्दोष और गरीब लोग जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान बल्कि सिर्फ इन्सान हैं, और हैं भारतीय नागरिक। भीष्म साहनी ने आजादी से पहले हुए साम्प्रदायिक दंगों को आधार बनाकर इस समस्या का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर सामने रखा है जो अपनी विकृतियों का परिणाम जनसाधारण को भोगने के लिए विवश करती हैं।

एक

 

 

आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद बत्ती अपने-आप सीधी हो जाती और उसमें से उठनेवाली धुएँ की लकीर आले को चाटती हुई फिर से ऊपर की ओर सीधे रुख़ जाने लगती। नत्थू का साँस धौंकनी की तरह चल रहा था और उसे  लगा जैसे उसके साँस के ही कारण दीये की बत्ती झपकने लगी है।
नत्थू दीवार से लगकर बैठ गया। उसकी नज़र फिर सुअर की ओर उठ गयी। सुअर फिर से किकियाया था और अब कोठरी के बीचोबीच कचरे के किसी लसलसे छिलके को मुँह मार रहा था। अपनी छोटी छोटी आँखें फ़र्श पर गाड़े गुलाबी-सी थूथनी छिलके पर जमाये हुए था। पिछले दो घण्टे से नत्थू इस बदरंग, कँटीले सुअर के साथ जूझ रहा था।

 तीन बार सुअर की गुलाबी थूथनी उसकी टाँगों को चाट चुकी थी और उनमें से तीखा दर्द उठ रहा था। आँखें फ़र्श पर गाड़े सुअर किसी वक्त दीवार के साथ चलने लगता, मानो किसी चीज़ को ढूँढ़ रहा हो, फिर सहसा किकियाकर भागने लगता। उसकी छोटी-सी पूँछ जहरीले डंक की तरह, उसकी पीठ पर हिलती रहती, कभी उसका छल्ला-सा बन जाता, लगता उसमें गाँठ पड़ जायेगी, मगर फिर वह अपने-आप ही खुलकर सीधी हो जाती थी। बायीं आँख में से मवाद बहकर सुअर के थूथने तक चला आया था। जब चलता तो अपनी बोझिल तोंद के कारण दायें-बायें झूलने सा लगता था। बार बार भागने से कचरा सारी कोठरी में बिखर गया था। कोठरी में उमस थी। कचरे की जहरीली बास, सुअर की चलती साँस और कड़वे तेल के धुएँ से कोठरी अटी पड़ी थी। फ़र्श पर जगह-जगह ख़ून के चित्ते पड़ गये थे लेकिन ज़रक़ के नाम पर सुअर के शरीर में एक भी ज़ख्म नहीं हो पाया था। पिछले दो घण्टे से नत्थू जैसे पानी में या बालू के ढेर में छुरा घोंपता रहा था। कितनी ही बार वह सुअर के पेट में और कन्धों पर छुरा घोंप चुका था। छुरा निकालता तो कुछ बूँदें ख़ून की फ़र्श पर गिरतीं, पर ज़ख्म की जगह एक छोटी सी लीक या छोटा सा धब्बा भर रह जाता जो सुअर की चमड़ी में नज़र तक नहीं आता था। और सुअर गुर्राता हुआ या तो नत्थू की टाँगों को अपनी थूथनी का निशाना बनाता या फिर से कमरे की दीवार के साथ साथ चलने अथवा भागने लगता। छुरे की नोक चर्बी की तहों को काटकर लौट आती थी, अन्तड़ियों तक पहुँच ही नहीं पाती थी।
मारने को मिला भी तो कैसा मनहूस सुअर। भद्दा इतनी बड़ी तोंद पीठ पर के बाल काले, थूथनी के आस पास के बाल सफेद कँटीले जैसे साही के होते हैं।

उसने कहीं सुना था कि सुअर को मारने के लिए उस पर खौलता पानी डालते हैं। लेकिन नत्थू के पास खौलता पानी कहाँ था। एक बार चमड़ा साफ़ करते समय सुअर की चर्बी की बात चली थी। और उसके साथी भीखू चमार ने कहा था, ‘‘सुअर की पिछली टाँग पकड़कर सुअर को उलटा कर दो। गिरा हुआ सुअर जल्दी से उठ नहीं सकता। फिर उसके गले की नस काट दो। सुअर मर जायेगा।’’ नत्थू ये सब तरकीबें कर चुका था। एक भी तरकीब काम नहीं आयी थी। इसके एवज़ उसकी अपनी टाँगों और टख़नों पर ज़ख्म हो चुके थे। चमड़ा साफ़ करना और बात है, सुअर मारना बिल्कुल दूसरी बात। जाने किस ख़ोटे वक्त उसने यह काम सिर पर ले लिया था। और अगर पेशगी पैसे नहीं लिये होते तो नत्थू ने कब का सुअर को कोठरी में से धकेलकर बाहर खदेड़ दिया होता।

‘‘हमारे सलोतरी साहिब को एक मरा हुआ सुअर चाहिए, डाक्टरी काम के लिए।’’ मुराद अली ने नत्थू से कहा था जब वह खाल साफ़ कर चुकने के बाद नल पर हाथ-मुँह धो रहा था।
‘‘सुअर ? क्या करना होगा मालिक ?’’ नत्थू ने हैरान होकर पूछा था।
‘‘इधर पिगरी के सुअर बहुत घूमते हैं, एक सुअर को इधर कोठरी के अन्दर कर लो और उसे काट डालो।’’
नत्थू ने आँख उठाकर मुराद अली के चेहरे की ओर देखा था।
‘‘हमने कभी सुअर मारा नहीं मालिक, और सुनते हैं सुअर मारना बड़ा कठिन है। हमारे बस का नहीं होगा हुजूर। खाल-वाल उतारने का काम होता कर दें। मारने का काम तो पिगरीवाले ही करते हैं।’’

‘पिगरीवालों से करवाना होता तो तुमसे क्यों कहते। यह काम तुम्हीं करोगे।’’ और मुराद अली ने पाँच रुपये का चरमराता नोट जेब में से निकाल कर नत्थू के जुड़े हाथों के पीछे उसकी जेब में ठूँस दिया था।
 
‘‘यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ा काम नहीं है। सलोतरी साहिब ने फ़रमाइश की तोहम इन्कार कैसे कर देते।’’ फिर मुराद अली ने लापरवाही के अन्दाज़ में कहा : ‘‘उधर मसान के पार पिगरी के सुअर घूमते हैं। एक को पकड़ लो। सलोतरी साहिब खुद बाद में पिगरीवालों से बात कर लेंगे।’’

और नत्थू कुछ कहे या न कहे कि मुराद अली चलने को हुआ था। फिर अपनी पतली-सी छड़ी अपनी टाँगों पर धीरे-धीरे ठकोरते हुए कहने लगा : ‘‘आज ही रात यह काम कर दो। सवेरे-सवेरे जमादार गाड़ी लेकर आ जायेगा, उसमें डलवा देना। भूलना नहीं। वह अपने-आप सलोतरी साहिब के घर पहुँचा देगा। मैं उसे कह दूँगा। समझ लिया ?’’
नत्थू के हाथ अभी भी बँधे लेकिन चरमराता पाँच का नोट जेब में पड़ जाने से मुँह में से बात निकल नहीं पाती थी।
‘‘इधर इलाका मुसलमानी है। किसी मुसलमान ने देख लिया तो लोग बिगड़ेंगे। तुम भी ध्यान रखना। हमें भी यह काम बहुत बुरा लगता है, मगर क्या करें साहिब का हुक्म है, कैसे मोड़ दें।’’ और मुराद अली छड़ी को फिर से टाँगों पर ठकोरता हुआ वहाँ से चला गया था।

मुराद अली से रोज़ काम पड़ता था, नत्थू कैसे इन्कार कर देता। जब कभी शहर में कोई घोड़ा मरता, गाय या भैंस मरती तो मुराद अली खाल दिलवा दिया करता था, अठन्नी रुपया मुराद अली को भी देना पड़ता मगर खाल मिल जाती। बड़े रख-रखाववाला आदमी था, मुराद अली, कमेटी का कारिन्दा होने के कारण बड़े-छोटे सभी लोगों को उससे काम पड़ता था।
शहर की कोई सड़क न थी जिसके बीचोबीच लोगों ने मुराद अली को चलते न देखा हो। पतली बैंत की छड़ी झुलाता हुआ, ठिगना, काला मुराद अली, जगह जगह घूमता था। शहर की किसी गली में, किसी सड़क पर वह किसी वक्त भी नमूदार हो जाता था। साँप की सी छोटी छोटी पैनी आंखें और कँटीली मूँछें और घुटनों तक लम्बा खाकी कोट और सलवार और सिर पर पगड़ी-उसे सब फबते थे इन सबको मिलाकर ही मुराद अली की अपनी ख़ास तस्वीर बनती थी। अगर हाथ में पतली छड़ी न होती तो भी और जो सिर पर पगड़ी न होती तो भी और जो उसका क़द ठिगना नहीं होता तो भी उसकी तस्वीर अधूरी रह जाती।

मुराद अली खुद तो हुक्म चलाकर निकल गया, नत्थू की जान साँसत में आ गयी। सुअर कहाँ से पक़ड़े और उसे काटे कैसे। नत्थू के मन में आया था कि शहर के बाहर सीधा पिगरी में चला जाये, और उन्हीं से कह दे कि एक सुअर काटकर सलोतरी साहिब के घर भिजवा दें। मगर उसके क़दम पिगरी की ओर नहीं उठे।

सुअर की कोठरी के अन्दर लाना कौन-सा आसान काम रहा था। उसने आवारा घूमते सुअरों को कचरे में मुँह मारते देखा था। उसे और कुछ नहीं सूझा। एक कचरे के ढेर पर से कचरा उठा-उठाकर लाता रहा और इस टूटी-फूटी कोठरी के बाहर आँगन में, दरवाजे के पास कचरे का ढेर लगाता रहा था। शाम के शाये उतरने लगे थे जब गन्दे पानी के पोखरों, गोबर के ढेरों और गर्द से अटी झाड़ियों के पास से घूमते हुए तीन सुअर उधर से आ निकले थे। तभी उनमें से एक सुअर कचरा सूँघता हुआ आँगन के अन्दर आ गया था और नत्थू ने झट से किवाड़ बन्द कर दिया था। फिर झट से भागकर उसने आँगन के पार कोठरी का दरवाज़ा खोल दिया था और अपनी लाठी से सुअर को हाँकता हुआ कोठरी के अन्दर ले गया था। फिर इस डर से कि सुअर-बाड़े का आदमी सुअर को खोजता हुआ उधर नहीं आ निकले और सुअर को किकियाता न सुन ले, नत्थू फिर से कचरा उठा-उठाकर कोठरी के अन्दर डालता रहा था। कोठरी के अन्दर कचरा पहुँच जाने पर सुअर उसी में खो गया था और नत्थू आश्वस्त होकर देर तक कोठरी के बाहर बैठा बीड़ियाँ फूँकता और अँधेरा पड़ जाने का इन्तजार करता रहा था। बहुत देर के बाद जब रात गहराने लगी थी तो नत्थू कोठरी के अन्दर घुसा था। दीये की मद्धम, नाचती-सी रोशनी में उसने देखा कि कचरा सारी कोठरी में बिखर गया है और उसमें से कीच की सी सड़ाँध उठ रही है। तभी इस बोझिल बदसूरत सुअर को देखकर उसका दिल बैठ गया था और मन ही मन खीझने पछताने लगा था कि उसने यह गन्दा जोखिम भरा काम क्यों सिर पर ले लिया है। तब भी उसका मन आया था कि लपककर कोठरी का दरवाज़ा खोल दे और सुअर को बाहर धकेल दे।

और अब रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी और सुअर ज्यों का त्यों कचरे के बीचोबीच अलमस्त सा घूम रहा था। फ़र्श पर ख़ून के धब्बे पड़ गये थे, और सुअर की तोंद पर दो एक जगह खरोचों के से निशान नज़र आ रहे थे और उसकी अपनी टाँगों पर सुअर की थूकनी के जख़्म थे और बस। सुअर पहले की ही भाँति जीता जागता कोठरी में मौजूद था जबकि नत्थू की साँसफूल रही थी, और बदन पसीने से तर हो रहा था, और कहीं इस झंझट में से निकल पाने का रास्ता नजर नहीं आ रहा था।

दूर शेखों के बाग की घड़ी ने दो बजाये। नत्थू घबराकर उठ खड़ा हुआ। उसकी नज़र फिर सुअर पर गयी। सुअर ने कचरे के टुकड़ों के बीच खड़े खड़े फिर से पेशाब कर दी थी, और झींकता हुआ कमरे के बीच में से हटकर दायें हाथ की दीवार के साथ साथ चलने लगा था। दीये की लौ फिर से झपकने लगी थी, और किसी दुःस्वप्न की तरह साये बार बार दीवारों पर डोलने लगे थे। स्थिति में तनिक भी अन्तर नहीं आया था। सुअर पहले की तरह सिर नीचा किये, थूथने से कभी कचरे के टुकड़े को सूँघने के लिए रुक जाता, कभी दीवार के साथ साथ चलने लगता और कभी किकियाकर दीवार के साथ साथ भागने लगता। पहले की ही तरह उसकी पतली-सी दुम किसी पतले, लम्हे कीड़े की तरह छल्ले बनाती खुलती जा रही थी।

‘‘ऐसे नहीं चलेगा।’’ नत्थू ने दाँत पीसकर कहा, ‘‘यह मेरे बस का रोग नहीं है। यह सुअर आज मुझे ले-दे जायेगा।’’
उसका मन हुआ एक बार फिर सुअर की टाँगे पीछे से खींचकर उसे उलटा गिराने की कोशिश कर देखे। बायें हाथ में छुरे को ऊँचा उठाये, वह धीरे धीरे कदम बढ़ाता हुआ कोठरी के बीचोबीच चला आया। सुअर दायें हाथ की दीवार के सिरे तक पहुँचकर बायीं ओर दीवार के साथ साथ चलने लगा था। नत्थू को अपनी ओर बढ़ते देखकर भागने की बजाय वह मुड़कर नत्थू की ओर आने लगा। एक बार सुअर गुर्राया भी जैसे वह नत्थू पर झपटने जा रहा हो। नत्थू एक एक कदम पीछे की ओर उठाने लगा। उसकी आँखें अभी भी सुअर की थूथनी पर लगी थीं। अब सुअर उसके ऐन सामने था, उसी की ओर बढ़ रहा था। इस स्थिति में उसकी पिछली टाँग को पकड़कर पीछे की ओर खींचना और उसे पीठ के बल गिरा पाना असम्भव हो गया था। सुअर की छोटी-छोटी लाल आँखों में खुमार छाया था। न जाने क्या कर बैठे। पर नत्थू बदहवास हो रहा था। दो बज चुके थे, और जो काम पिछली शाम से अब तक नहीं हो पाया वह अब पौ फटने से पहले कैसे हो पायेगा। किसी वक्त भी जमादार का छकड़ा आ सकता है और जो काम न हुआ तो मुराद अली का क्या भरोसा, दोस्त से दुश्मन बन जाये, खालें दिलवाना बन्द कर दे, कोठरी में से उठवा दे, किसी से पिटवा दे, परेशान करे। नत्थू के हाथ-पैर फूलने लगे। वह मन ही मन जानता था कि सुअर पिछले पाँव से पकड़ने पर सुअर काट खायेगा। या उछलेगा और हाथ छुड़ा लेगा।

सहसा नत्थू भन्ना उठा। बिना किसी स्पष्ट कारण के जैसे उसके तन-बदन में आग लग गयी। ‘या मैं नहीं रहूँगा, या यह नहीं रहेगा’ उसने कहा और झट से लौटकर आले के फ़र्श पर रखी पत्थर की सिल उठा ली। सिल उठाकर वह सीधा कोठरी के बीचोबीच पहुँच गया। सिल को दोनों हाथों से सिर के ऊपर उठाये वह क्षण भर के लिए ठिठका रहा। सुअर की थूथनी अभी भी अगले पैरों पर थी और वह खरबूजे के छिलके को सूँघ रहा था। उसकी लाल-लाल आँखें मिचमिचा रही थीं। पीठ के पीछे उसकी नन्हीं सी पूँछ बराबर हिल रही थी। अगर यह हिले डुले नहीं और सिल सीधी उसके शरीर पर जा पड़े तो कहीं पर तो वह वार करेगी, और कोई न कोई अंग तो सुअर का टूटकर रहेगा ही। अगर एक टाँग ही टूट जाये तो वह भी गनीमत है, उसका चलना पहले से कठिन हो जायेगा।

फिर दोनों हाथ तौलकर नत्थू ने सिल को सुअर पर दे मारा। आले में रखे दीये की लौ थरथरायी और दीवारों पर साये डोल गये। सिल सुअर के लगी थी लेकिन नत्थू ठीक तरह से नहीं जानता था कि कहाँ लगी है। सुअर ज़ोर से किकियाया और सिल खटाक से फर्श पर जा गिरी। नत्थू सिर फेंकते ही पीछे हट गया, और सुअर की ओर घूर-घूरकर देखने लगा। नत्थू को देखकर आश्चर्य हुआ, सुअर की अधमुँदी आँखें मिचमिचा रही थीं और उसकी थूथनी अभी भी अगली टाँगों पर टिकी थी।
सहसा सुअर गुर्राया और पिछली दीवार से हटकर कोठरी के बीचोबीच आने लगा। वह दायें-बायें झूल रहा था। नत्थू एक ओर को, आँगन में खुलने वाले दरवाज़े की ओर सरककर खड़ा हो गया। दीये की अस्थिर रोशनी में सुअर एक काले पुंज की तरह आगे बढ़ता आ रहा था। सिल उसके माथे पर पड़ी थी जिससे वह शायद चकरा गया था और उसे ठीक तरह से दिखायी नहीं दे रहा था। नत्थू डर गया। सुअर ज़रूर उसकी ओर बढ़ता आ रहा है और वह उसे ज़रूर काट खायेगा। सिल का उस पर कोई असर हुआ नहीं जान पड़ता था।
नत्थू ने झट से दरवाज़ा खोला और कोठरी के बाहर हो गया।

‘किस मुसीबत में जान फँस गयी हैं।’ वह बुदबुदाया और आँगन में आकर मुँडेर के पास खड़ा हो गया। बाहर पहुँचकर स्वच्छ बहती और हवा में उसे राहत मिली। कोठरी की घुटन और बदबू में वह परेशान हो उठा था। पसीने से तर उसके शरीर को हवा के हल्के से स्पर्श से असीम आनन्द का अनुभव हुआ। क्षणभर के लिए उसे लगा जैसे वह फिर से जी उठा है, उसकी शिथिल मरी हुई देह में फिर से जान आ गयी है। ‘मुझे क्या लेना इस काम से सलोतरी को सुअर नहीं मिलता तो न मिले, मेरी बला से, मैं कल मुराद अली के सामने पाँच का नोट पटक दूँगा और हाथ जोड़ दूँगा। यह मेरे बस का नहीं है हुजूर मैं यह काम नहीं कर सकता। मेरा क्या बिगाड़ लेगा। दो दिन मुँह बनाये रखेगा, मैं घुटनों पर हाथ रखकर उसे मना लूँगा।’’

मुँडेर के पीछे वह ठिठका खड़ा रहा। चाँद निकल आया था और चारों और छिटकी चाँदनी में उसे आस-पास का सारा इलाका पराया-पराया और रहस्य पूर्ण सा लग रहा था। सामने से गुजरने वाली बैलगाड़ियों की कच्ची सड़क इस वक्त सूनी पड़ी थी। मूक और शान्त। दिन भर उस पर उत्तर के गाँव से आनेवाली बैलगाड़ियों की खटर-पटर और बैलों के गले में बँधी घण्टियों की टुन टुन सुनायी देती रहती थी। उनके पहियों से सड़क पर गहरी लीकें बन गयी थीं और मिट्टी पिस–पिसकर इतनी बारीक हो गयी थी कि इस पर पैर रखते ही पैर घुटनों तक मिट्टी में धँस जाता था। सड़क के पार तीखी ढलान पर जो नीचे मैदान में उतर गयी थी, छोटी छोटी झाड़ियाँ और बेरों के पेड़ और कँटीली ‘झोर के झुरमुट धूल से अटे थे और चाँदनी रात में धुले-धुले से लग रहे थे।

मैदान के पार मसान था जिसके पीछे दो कोठरियों में एक डोम रहता था। इस समय एक के साथ एक सटी हुई, उजड़ी हुई सी लग रही थीं। किसी भी कोठरी में दीया नहीं टिमटिमा रहा था। डोम रात को शराब पिये हुए चिल्लाया बड़-बड़ाता रहा था। और उसकी आवाज़ मैदान के पार इस कोठरी तक आती रही थी। पर इस वक्त जैसे वह मरा पड़ा था। नत्थू को सहसा अपनी पत्नी की याद आयी, जो इस वक्त आराम से चमारों की बस्ती में सोयी पड़ी होगी। यह संकट मोल न लिया होता तो इस वक्त वह उसके पास होता, उसकी अलस, गदराई देह उसकी बाँहों में होती। अपनी युवा पत्नी को बाँहों में भर पाने की ललक उसे बुरी तरह से बेचैन करने लगी। न जाने कितनी देर तक वह उसकी राह देखती रही होगी। उससे बिना कुछ कहे सुने वह घर से चला आया था। एक ही शाम उससे दूर रहकर वह परेशान हो उठा था।

कच्ची सड़क दायें हाथ को दूर तक जाकर नीचे उतर गयी थी। इस वक्त चाँदनी में वह कितनी साफ़ धुली-धुली लग रही थी। उसके किनारे, एक ओर को हटकर कच्चा कुआँ और उस पर पड़ा उसका चक्कर और माल भी बुरे नहीं लग रहे थे। थोड़ी दूर जाने पर ही यह वीरान इलाका खत्म हो जाता था और कच्ची सड़क शहर को जानेवाली पक्की सड़क से जा मिलती थी। चारों और चुप्पी छायी थी। दूर बायीं और पिगरी की नीचे की इमारत थी जो चाँदनी में चपटे काले डिब्बे सी लग रही थी। दूर दूर तक खाली ज़मीन पड़ी थी जिस पर जगह-जगह कँटीली झाड़ियाँ और छोटे छोटे पेड़ छितरे पड़े थे। दूर, बहुत दूर, फ़ौजी छावनी की बारकें थीं, अलग-अलग, जहाँ तक पहुँच पाने में घण्टों लग जाते थे।

नत्थू की देह शिथिल पड़ गयी थी। उसका मन हुआ वहीं खड़ा-खड़ा मुँडेर पर सिर रखकर झपकी ले ले। कोठरी में से बाहर निकलकर यह जैसे किसी दूसरी दुनिया में आ गया था। स्वच्छ, शीतल हवा और चारों ओर छितरी चाँदनी में उसे अपनी स्थिति पर रुलायी-सी आने लगी। बाहर आकर उसे अपने हाथ में पकड़ा छुरा असंगत-सा लगने लगा। उसका मन हुआ वहाँ  से भाग जाये, कोठरी में झाँककर देखे भी नहीं और भाग जाये। कल सुअर-बाड़े का पूर्बिया ज़रूर इधर से गुजरेगा और कचरा देखकर ही समझ जायेगा कि सुअर कोठरी में होगा और वह उसे हाँककर वहाँ से ले जायेगा।
उसे फिर से अपनी पत्नी की याद सताने लगी। अपनी पत्नी के पास पहुँचकर उसके साथ हौले-हौले बतियाते हुए ही उसके क्षुब्ध व्याकुल मन को चैन मिल सकता था। कब वह झंझट खत्म होगा और कब वह उसके पास चमारों की बस्ती में लौट पायेगा ?

सहसा दूर शेखों के बाग की घड़ी ने तीन बजाये और नत्थू की सारी देह थरथरा गयी। उसकी नज़र उसके हाथ पर गयी जिसमें अभी भी वह छुरा पकड़े हुए था। एक गहरी टीस उसके मन में उठी अब क्या होगा ? वह यहाँ पर खड़ा क्या कर रहा है जबकि सुअर अभी तक नहीं मरा ? जमादार छकड़ा लेकर आया ही चाहता होगा। वह उसे क्या कहेगा, क्या जवाब देगा। आकाश में हल्की-सी पीलिमा घुल गयी थी। पौ फटने वाली थी, और वह अभी तक अपने काम से निबट नहीं पाया था। उसे अपनी स्थिति पर रुलायी आने लगी।

घबराया हुआ सा कोठरी की ओर गया। धीरे से दरवाज़ा खोलकर उसने अन्दर झाँका। कोठरी का दरवाज़ा खोलते ही बदबू का भभूका-सा जैसे उस पर झपटा। लेकिन दीये की रोशनी में उसने देखा कि कोठरी के ऐन बीचो-बीच सुअर खड़ा है, निश्चल सा, मानो घूम-घूमकर थक गया हो, निढाल—सा। किसी अन्त:प्रेरणावश नत्थू को लगा जैसे अब उसे मार गिराना इतना कठिन नहीं होगा। नत्थू ने दरवाजा़ भेड़ दिया और फिर आले के नीचे चुपचाप जाकर खड़ा हो गया और एकटक सुअर की ओर देखने लगा।

नत्थू के अन्दर आ जाने पर सुअर ने अपना नथुना उठाया। नत्थू को लगा जैसे सुअर का नथुना ज्यादा लाल हो रहा है और सुअर की आँखें सिकुड़ी हुई हैं। उस पर फैंकी हुई पत्थर की सिल सुअर के पीछे कुछ दूरी पर पड़ी थी। दीये की टिमटिमाती लौ ने फिर झपकी ली, और अस्थिर रोशनी में नत्थू को लगा जैसे सुअर फिर से हिला है, और चलने लगा है। वह आँखें फाड़-फाड़कर उसकी ओर देखने लगा। सुअर सचमुच हिला था। वह सचमुच ही बोझिल स्थिर गति से आगे की ओर, नत्थू की ओर बढ़ने लगा था। दो एक क़दम, दायें-बायें झूलकर चलने के बाद एक अजीब-सी आवाज़ सुअर के मुँह में से निकली। नत्थू फिर से छुरा ऊँचा उठाकर फ़र्श पर पैरों के बल बैठ गया। सुअर ने दो तीन कदम और आगे की ओर बढ़ाये। उसका नथुना अपने पैरों की ओर और अधिक झुक गया और नत्थू के पास पहुँचते-न-पहुँचते वह एक ओर को लुढ़ककर गिर गया। उसकी टाँगों में एक बार ज़ोर का कम्पन हुआ मगर कुछ क्षणों में ही वे हवा में उठी-कभी उठी रह गयीं। सुअर ढेर हो चुका था।
नत्थू ने छुर्रा फ़र्श पर रख दिया, मगर उसकी आँखें अभी भी सुअर पर लगी थीं। तभी दूर पड़ोस के किसी घर में किसी मुर्गे ने पर फड़फड़ाये और बाँग दी। उसी समय दूर कच्ची सड़क पर हिचकोले खाते छकड़े की आवाज़ आयी। और नत्थू ने चैन की साँस ली।
 
 

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