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चोटी की पकड़

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2860
आईएसबीएन :9788126700028

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‘चोटी की पकड़’ यद्यपि ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है, लेकिन इतिहास के खण्डहर इसमें पूरी तरह मौजूद हैं...

Choti Ki Pakada

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी कथा साहित्य की यथार्थवादी परम्परा में निराला की कथा कृतियों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी प्रायः हर कथा कृति का परिवेश सामाजिक यथार्थ से अनुप्राणित है। यही कारण है कि उनके कतिपय ऐतिहासिक पात्रों को भी हम एक सुस्पष्ट सामाजिक भूमिका में देखते हैं। चोटी की पकड़ यद्यपि ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है, लेकिन इतिहास के खण्डहर इसमें पूरी तरह मौजूद हैं।

 

निवेदन

 

‘चोटी की पकड़’ आपके सामने है। स्वदेशी-आन्दोलन की कथा है। लम्बी है, वैसी ही रोचक। पढ़ने पर आपकी समझ में आ जायगा। युग की चीज बनाई गई है। जितना हिस्सा इसमें हैं, कथा का हिसाब उससे समझ में आ जायगा। इसकी चार पुस्तकें निकालने का विचार है। मुमकिन, दूसरी इससे कुछ बड़ी हो। चरित्र इसमें मुन्ना बाँदी का निखरा है। अगले में प्रभाकर का। इस बड़े उपन्यास को पढ़ियेगा तो ज्ञान और आनन्द वैसे ही बढ़ेंगे।

 

निराला

 

एक

 

 

सत्रहवीं सदी का पुराना मकान। मकान नहीं, प्रासाद; बल्कि गढ़। दो मील घेरकर चारदीवार। बड़े-बड़े दो प्रासाद। एक पुराना, एक नया। हमारा मतलब पुराने से है। नये में जागीरदार रहते हैं। हैसियत एक अच्छे राजे की। कई ड्योढ़ियाँ। हर ड्योढ़ी पर पहरेदार। कितने ही मन्दिर, उद्यान, मैदान, तालाब, प्राचीर, कचहरी। दोनों ओर आम-लगी सीधी-तिरछी, चौड़ी-सँकरी सजी सड़कें। पीपल के नीचे चबूतरा, देवता। इक्के-दुक्के आदमी आते और जाते हुए।

         भयंकर अट्टालिका। पीछे की तरफ कुछ गिरी हुई। फिर भी विशाल उद्यान की ऊँची प्राचीर से सुरक्षित। भीतर भी रक्षा का अन्तराल उठा हुआ। निकासों पर पहरे। पुरखों के सदी-सदी के जर्रीन वस्त्र, बासन, तम्बू, राजगृह के अनेकानेक साधन, माल-असबाब, कागजात और खजाना रहता है। कितने ही कमरों में, दालानों में बड़ी-बड़ी बैठकों में, आदम आकार की गधी काठ की सैकड़ों पेटियाँ हैं, भीतर से कुफ्ल लगा हुआ। नीचे, सिंह द्वार पर, लोहे के बड़े-बड़े सन्दूकों में राजकोष हैं। बन्दूक का पहरा। 5-6 बड़े-बड़े आँगन। पीछे, दक्षिण की ओर, एक अहाते में कुल देवता रघुनाथजी का मन्दिर। दूसरी ओर, ऊपर की मंजिल पर कई अच्छे कमरों में एक अन्तःपुर में बूढ़ी मौसी के साथ बुआ रहती हैं। बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ, प्राकार, उद्यान और सरोवर दिखते हैं। सूर्य की किरण में चमकती हुई हरियाली। प्रातः और सन्ध्या की स्निग्ध वायु। रात में तारों से भरा आकाश। चाँद, चाँदनी सूनापन।

         बुआ विधवा हैं, मौसी भी विधवा। बुआ की उम्र पच्चीस होगी। लम्बी सुतारवाली बँधी पुष्ट देह। सुढ़र गला, भरा उर। कुछ लम्बे मांसल चेहरे पर छोटी-छोटी आँखे; पैनी निगाह । छोटी नाक के बीचो-बीच कटा दाग। एक गाल पर कई दाँत बैठे हुए। चढ़ती जवानी में किसी बलातकारी ने बात न मानने पर यह सूरत बनायी, फिर गाँव छोड़कर भाग खड़ा हुआ। इज्जत की बात, ज्यादा फैलाव न होने दिया गया।¬

         बुआ की देह जितनी सुन्दर है, चेहरा उतना ही भयंकर। वह जागीरदार खानदान की लड़की नहीं, मान्य की मान्य हैं। बुआ के भतीजे का भाग। गरीब थे। जागीरदार को लड़की ब्याहनी थी। लड़का ढूंढा। वह पसन्द आये। बुला लिया। बच्चे थे। पढ़ाया-लिखाया। उठना-बैठना, बातचीत रईसी के अदब और करीने सिखलाये। फिर निबाह के लिए एक अच्छी-खासी जमींदारी लड़की के नाम खरीदकर उनके साथ ब्याह कर दिया। ब्याह पर दामाद साहब का लम्बा कुनबा आ धमका। बुआ इसी में हैं बहुत निकट की। जब भी बंगाल के प्रतिष्ठित प्रायः सभी ब्राह्मण और कायस्थ पहले के युक्तप्रान्त के रहने वाले हैं, पर वे बंगाली हो गये हैं; यह जागीरदार-परिवार आदि से युक्तप्रान्तीयता की रक्षा कर रहा है।

         आने पर समधिन-साहबा यानी राजकुमारी की माँ रानी साहबा ने बुआ को बुलाया; अपनी सोलह कहारोंवाली पालकी भेज दी। साथ वर्दी पहने चार सशस्त्र सिपाही। खिड़की के कब्जे पकड़ने के लिए दोनों बगल दो नौकारानियाँ। विधवा बुआ विधवा के स्वेत स्वच्छ वस्त्र से गयी। रानी साहबा नयी अट्टालिका में रहती थीं। बड़े तख्त पर ऊँची-ऊँची गद्दियाँ बिछी थीं। ऊपर स्वच्छ चादर, कितने ही तकिए लगे हुए। सामने ऊँची चौकी पर पीकदान रक्खा हुआ। बगल में पानदान। विशाल कक्ष। साफ-सुथरा। संगमरमर का फर्श। दीवारों और छत पर अति सुन्दर चित्रकारी। बीच में श्वेत प्रस्तर की मेज पर चीनी फूलदानी में सुगंधित पुष्प। हाथ से खींचे जाने वाले पंखे की रस्सी, दीवार में छेद से बाहर निकालकर ह्वील पर चढ़ायी हुई। तीन घण्टे दिन और तीन घण्टे रात की ड्यूटी पर पंखा-बेयरर लगे हुए। पंखा चल रहा है। तख्त की बगल में एक गद्दीदार चौकी रक्खी हुई है बुआ के बैठने के लिए।

         जागीरदार साहब कुलीन हैं। साथ ही राजसी ठाट के धनिक। इनके यहाँ मान्यों की वह मान्यता नहीं रहती जो दूसरी जगह रहती हैं। यद्यपि इसका मुख्य कारण घमण्ड है, फिर भी ये अपनी बचत का रास्ता निकाले रहते हैं। इनका कहना है कि राज्य की मुहर रघुनाथजी के नाम है, हम उनके प्रधान कर्मचारी हैं; हमारे सिर पर केवल रघुनाथजी रहते हैं; दूसरे अगर इस राज्य की हद में हमारे सिर हुए तो वही जैसे इस राज्य के राजा बन गये; इससे रघुनाथजी का अपमान होता है। इस आधार पर जल्सों में जागीरदार साहब के मान्यों के आसन उनके पीछे ही रक्खे जाते हैं, हल्के आसनों पर, बगल में भी नहीं।

       आने पर बुआ की सेवा के लिए रानी साहबा ने एक बाँदी भेजी, नाम मुन्ना। रानी साहब की प्रायः दस दासियों में एक मुन्ना भी। पाँच-छः साल से नौकर। हाल का ब्याह, खातिरदारी कसरत पर और कुछ इस उद्देश्य से भी कि ऐसा दूसरा नहीं कर सकता, इतना सुख कहीं भी नहीं। मुन्ना की उतनी ही उम्र है जितनी बुआ की। उतनी ऊँची नहीं, पर नाटी भी नही। चालाकी की पुतली। चपल, शोख। श्याम रंग। बड़ी-बड़ी आँखें। बंगाल के लम्बे-लम्बे बाल। विधवा, बदचलन, सहृदय। प्रायः हर प्रधान सिपाही की प्रेमिका। भेद लेने में लासानी। कितने ही रहस्यों की जानकार। प्रधान-अप्रधान नायिका, दूती, सखी। रानी साहबा ने जब-जब रण्डी रखने के जवाब में पति को प्रेमी चुनकर झुकाया, तब-तब मुन्ना ने प्रधान दूती का पाठ अदा किया। उसी से रानी साहबा को खबर मिली, बुआ की नाक कटी है, गाल पर दाँतों के दाग हैं। अनुगामिनी सहचरी बनाने का इतना साधन काफी है। रानी साहबा ने समधिन को बुलाया।

         मुन्ना की जबान बंगला है। असल में इसका नाम मोना या मनोरमा। बुआ इलाहाबाद की ठेठ देहाती बोलती हैं। मुन्ना ने अपनी सरल सुबोध बंगला में रानी साहबा से मिलने के करीने कई दफे समझाये, पर बुआ की समझ में कुछ न आया। फिर बुआ के मान्य के मान्य के सम्बन्ध में युक्तप्रान्त की बँधी धारणा थी, उसमें परिवर्तन हिन्दूपन से हाथ धोना था। मुन्ना के सश्रद्ध रानी साहबा के उच्चारण से बुआ अपने बड़प्पन को दबाकर खामोश रह जाती थीं, सोचती थीं, धर्म के अनुसार रानी साहबा में और मुन्ना में उनके समक्ष कौन-सा फर्क हैं ? जो काम उनके लिए मुन्ना करती है, वही रानी साहबा के सञ्चय के लिए कर सकती हैं। जो कुछ उन्होंने सीखा वह है बंगाली ढंग से साड़ी पहनना, मशहरी लगाना, तकिये का सहारा लेना, बंगाली भाजियों को पूर्वापर विधि से खाना। यह भी इसलिए कि उनसे कहा गया था कि उनकी बहू अर्थात राजकुमारी बिना इसके उनसे मिलेंगी नहीं, जब वह आयेंगी तब इसी वेश में रहना होगा, उनके जलपान के लिए ऐसी भाजियाँ देनी होंगी, थाली इसी तरह लगायी जायगी; नहीं तो वह भग जाएँगी, एक क्षण के लिए नहीं ठहर सकतीं।

 

दो

 

 

मुन्ना के बतलाये हुए ढंग से बुआ ने एक सफेद साड़ी पहनी। विधवा के रजत वेश से पालकी में बैठीं। वहाँ के सभी कुछ उन्हें प्रभावित कर चुके थे, पालकी एक ओर हुई। कहारों ने पालकी उठायी और अपनी खास बोली से कोलाहल करते हुए बढ़े। अगल-बगल दो दासियाँ, पीछे मुन्ना। दो सिपाही आगे, दो पीछे। पुरानी अट्टालिका से नयी चार फर्लांग के फासले पर है। पालकी नयी अट्टालिका के अन्दर के उद्यान में आयी। गुलाबों की क्यारियों के बीच से गुजरती हुई खिड़की के विशाल जीने पर लगा दी गयी। सिपाही और कहार हट गये। जिस बाजू लगी, उधर की दासी ने दरवाजा खोला। मुन्ना पानदान लिए हुए सामने आयी और उतरने के लिए कहा। बुआ उतरीं ।

         दूसरी तरफवाली दासी रानी साहबा को खबर देने के लिए रनवास चली गयी थी। रानी साहबा तख्त की गद्दी पर बैठी थीं। लापरवाही से, ले आने के लिए कहा। उनकी लड़की, राजकुमारी, बुला ली गयी थीं। माता की बगल में बुआवाली चौकी से कुछ हटकर, एक सोफा डलवाकर बैठी थीं।
         दासी बुआ को लेकर चली, साथ मुन्ना। बुआ पर प्रभाव पड़ने पर भी मन में धर्म की ही विजय थी। उनका भतीजा ब्याहा हुआ है जिसके इन्होंने पैर पूजे हैं। ये उससे और उसकी माँ से बराबरी का दावा नहीं कर सकते, बुआ तो उनके इष्टदेवता से भी बढ़कर हैं।

         भाव में तनी हुई बुआ रनवास के भीतर गयीं। वह समझे हुए थीं, समधिन मिलेंगी, भेंट देगी, आदर से ऊँचे आसन पर बैठालेंगी, तब उससे कुछ नीची जगह पर बैठेंगी। जाति की हैं, जाति की बर्ताववाली बातें जानती हैं, इसलिए मुन्ना की बातें कुछ समझकर भी अनसुनी कर गयी थीं; सोचा था, यह बंगालिन हमारे रस्मोरिवाज क्या जानती है ? पर भीतर पैर रखते ही उनके होश उड़ गये। रानी साहबा पत्थर की मूर्ति की तरह मसनद पर बैठी रही। एक नजर उन्होंने बुआ को देख लिया, उनके चेहरे का सुना हुआ वर्णन मिलाकर चुपचाप बैठी रहीं। राजकुमारी ने आँख ही नहीं उठायी। एक दफे माता को देखकर सिर झुका लिया। मुन्ना ने भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर रानी साहबा को, फिर राजकुमारी को प्रणाम किया। बड़े सम्मान के स्वर से बुआ को परिचय दिया—महारानी जी, राजकुमारी जी।

         बुआ पसीने-पसीने हो गयीं। कोई नहीं उठीं, उनकी बहू को भी यह सीख नहीं दी गयी। पद की मर्यादा सर हो गयी। चुपचाप दो रूपये निकाले और बहू की निछावर करके मुन्ना को देने के लिए हाथ बढाया। मुन्ना घबराकर उन्हें देखने लगी। लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। यह रानी साहबा का अपमान था।
         रानी साहबा देखती रहीं। चौकी की तरफ उँगली उठाकर बंगला में बैठने के लिए कहा।
         बुआ को यह और बड़ा अपमान जान पड़ा। आसन नीचा था। उनकी नसों में बिजली दौड़ने लगी। वह द्रुत पद से मसनद के सिरहाने की तरफ गयीं और तकिये के पास बैठकर रानी साहबा की आँख से आँख मिलाते हुए कहा, ‘‘समधिन, हम वहाँ नहीं बैठेंगे। वह जगह तुम्हारी है। अगर बड़प्पन का इतना बड़ा अभिमान था तो गरीब का लड़का क्यों चुना ?’’

 रानी साहबा का पानी उतर गया। अपमान से बोल बन्द हो गया। क्षमा उनके शास्त्र में न थी। दाँत पीस कर आधी बंगला आधी हिन्दी में कहा, ‘‘तुम्हारा नाक पर क्या है, तुम्हारा गाल पर किसका दाग है ?’’
         ‘‘यहीं की तरह औरत पर हुए अपमान के दाग हैं। लेकिन हमारा चेहरा तुम्हारे दामाद से मिलता-जुलता भी है ?—जैसा हमारा, हमारे भाई का, वैसा ही उसका; वह चेहरा भी ब्याह से पहले तुम लोगों को कैसे पसन्द आ गया ?’’
         रानी साहबा पर जैसे घड़ों पानी पड़ा। राजकुमारी झेंपकर उठ कर चल दीं। शोर-गुल होते ही कई दासियाँ दौड़ीं। रानी साहबा ने बुआ को उसी वक्त ले जाने की आज्ञा दी।

         बुआ दूसरे कमरे में ले जायी गयीं। बाँदियों ने अपनी एक चटाई बिछा दी। बुआ ने वहाँ कोई विचार न किया। बैठ गयीं। रनवास गर्म हो रहा था। राजकुमारी ने अपने पति से शिकायत की—बुआ जी असभ्य हैं। दामाद साहब के मन में यह धारणा जड़ पकड़ चुकी थी। उन्होंने बात को दोहराया। अब रानी साहबा भी आ गयीं और अतिशयोक्ति अलंकार का सहारा लिया।--बुआ रानी साहबा पर चढ़ बैठीं, गद्दी का सरहाना दबाकर उनका अपमान किया, अपशब्द कहे, रानी साहबा ने उन्हें अपनी पालकी भेजकर बुलवाया था, बैठने के लिए चंदन की जड़ाऊ चौकी रखवायी थी, भूत झाड़ने की तरह राजकुमारी के सिर पर मुठ्ठी घुमाने लगीं, फिर मुन्ना दासी को देना चाहा, दासी ने नहीं लिया, वह कैसे ले सकती थी, फिर तरह-तरह की बातें सुनायीं जो गालियों से बढ़कर थीं। दामाद साहब ने सलाह दी, अब विदा कर देना चाहिए। रानी साहबा इस पर सहमत नहीं हुईं। कहा—आदमी बनाकर भेजना अच्छा होगा। फिर कहा, जायगी भी कहाँ ?—तुम्हारी सगी बुआ हैं, अदब-करीने सीख जायगी तो विभा (विभावती राजकुमारी )  की मदद किया करेगी। रानी साहबा की सहानुभूति से दामाद साहब ने प्रसन्न होकर सम्मति दी।

         एक दूसरे कमरे में रानी साहबा ने मुन्ना को बुलाया और बुआ के सुधार के लिए आवश्यक शिक्षा दी। मुन्ना ने उनसे बढ़ाकर कहा कि लाख बार समझाने पर भी बुआ ने कहना नहीं माना। मुन्ना रोज बीसियों दफे उन पर रानी साहबा का बड़प्पन चढ़ाती थी; पर वह सुनी-अनसुनी कर जाती थीं। रानी साहबा ने अब के उपदेश के साथ अपने सम्मान से काम लेने के लिए कहा, जैसे स्वयम् वह रानी साहबा हो।
         इस बार बड़ी पालकी की जगह साधारण चार कहारोंवाली पालकी आयी। सिपाही और दासियाँ नदारद, सिर्फ मुन्ना। बुआ चुपचाप बैठ कर चली आयीं।

 

तीन

 

 

ब्याह के बाद जागीरदार राजा राजेन्द्रप्रताप कलकत्ता गये। आवश्यक काम था। जमींदारों की तरफ से गुप्त बुलावा था। सभा थी।
         मध्य कलकत्ता में एक आलीशान कोठी उन्होंने खरीदी थी। ऐशो-इशरत के साधन वहाँ सुलभ थे, राजा-रईस और साहब-सूबों से मिलने का भी सुभीता था, इसलिए साल में आठ महीने यहीं रहते थे। परिवार भी रहता था। राजकुमार इस समय वहीं पढ़ते थे। ये अपनी बहन से बड़े थे, पर अभी ब्याह न हुआ था। यह कोठी और सजी रहती थी।

         बंगाल की इस समय की स्थिति उल्लेखनीय है। उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध बंगाल और बंगालियों के उत्थान का स्वर्णयुग है। यह बीसवीं सदी का प्रारम्भ ही था। लार्ड कर्जन भारत के बड़े लाट थे। कलकत्ता राजधानी थी। सारे भारत पर बंगालियों की अँगरेजी का प्रभाव था। संसार-प्रसिद्धि में भी बंगाली देश में आगे थे। राजा राममोहनराय की प्रतिभा का प्रकाश भर चुका था। प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का जमाना बीत चुका था। आचार्य केशवचन्द्र विश्वविश्रुत होकर दिवंगत हो चुके थे। श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द की अतिमानवीयशक्ति की धाक सारे संसार पर जम चुकी थी। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की बंगाल, माइकेल मधुसूदनदत्त के पद्द, बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास और गिरीशचन्द्र घोष के नाटक जागरण के लिए सूर्य की किरणों का काम कर रहे थे। घर-घर साहित्य-राजनीति की चर्चा थी। बंगाली अपने को प्रबुद्ध समझने लगे थे। अपमान का जवाब भी देने लगे थे। अखबारों की बाढ़ आ गयी थी। रवीन्द्रनाथ के साहित्य का प्रचण्ड सूर्य मध्य आकाश पर आ रहा था। डी.एल. राय की नाटकीय तेजस्विता फैल चली थी। सारे बंगाल पर गौरव छाया हुआ था। परिवर्ती दोनों साहित्यिकों से लोगों के हृदयों में अपार आशाएँ बँध रही थीं। दोनों के पद्द कण्ठहार हो रहे थे। जातीय सभा कांग्रेस का भी समादर बढ़ गया था। उसमें जाति के यथार्थ प्रगति के भी सेवक आ गये थे।  

         इसी समय लार्ड कर्जन ने बंग-भंग किया। राजनीति के समर्थ आलोचकों ने निश्चय किया कि इसका परिणाम बंगाल के लिए अनर्थकर हैं। बंगाल के स्थायी बन्दोबस्त की जड़ मारने के लिए यह चाल चली गयी है।  यद्यपि लार्ड कर्जन का मूँछ मुड़ा़नेवाला फैशन बंगाल में जोरों से चल गया था।--मिलनेवाले कर्मचारी और ज़मींदार लाट साहब को खुश करने के लिए दाढ़ी-मूँछों से सफाचट हो रहे थे, फिर भी बंगभंगवाला धक्का सँभाले न सभँला। वे समझे चालक अँगरेज किसी रोज उन्हें उनके अधिकार से उखाड़कर दम लेंगे। चिरस्थायी स्वत्व के मालिक बड़े-बड़े ज़मींदार ही नही, मध्यवित्त साधारण जन भी। इसलिए यह विभाजन की आग छोटे-बड़े सभी के दिलों में एक साथ जल उठी। कवियों ने सहयोग पूर्वक देश-प्रेम के गीत रचने शुरू किये। संवाद-पत्र प्रकाश्य और गुप्त रूप से उत्तेजना फैलाने लगे। जगह –जगह गुप्त बैठके होने लगीं। कामयाबी के लिए विधेय-अविधेय तरीके अख्तियार किये जाने लगे। संघ-बद्ध होकर विद्यार्थी गीत गाते हुए लोगों को उत्साहित करने लगे। अँगरेजों के किये अपमान के जवाब में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रतिज्ञाएँ हुईं, लोगों ने खरीदना छोड़ा। साथ ही स्वदेशी के प्रचार के कार्य भी परिणत किये जाने लगे। गाँव-गाँव में इसके केंद्र खोले गये। कार्यकर्ता उत्साह से नयी काया में जान फूँकने लगे।

         विज्ञान की उस समय भी हिन्दुस्तानियों के लिए काफी तरक्की हो चुकी थी, पर मोटरों की इतनी भरमार न थी। हवाई जहाज थे ही नहीं। तब कलकत्ते में बग्घियाँ चलती थी। बाद को मोटरे हो जाने पर भी रईसों का विश्वास था, बग्धी रईसों के अधिक अनुकूल हैं, इससे आबरू रहती है। राजा साहब ने कई शानदार बग्घियाँ रक्खी थीं, कीमती घोड़ों से अस्तबल भरा था। शराब और वेश्या का खर्च उन दिनों चरम सीमा पर था। मांस, मछली, सब्जी और फलों के गर्म और क्रीम और बर्फदार ठण्ढे इतने प्रकार के भोजन बनते थे कि खाने में अधिकांश का प्रदर्शन मात्र होता था; वे नौकरों के हिस्से में आकर भी बच जाते थे। फूल और सुगन्धियों का खर्च अब शतांश भी नहीं रहा। पुरस्कार इतने दिये जाते थे कि एक-एक जगह के दान से नर्तकियों और गवैयों का एक-एक साल का खर्च चल जाता था। आमन्त्रित सभी राजे-रईस व्यवहार में हजारों के वारे-न्यारे कर देते थे। अगर स्वार्थ को गहरा धक्का न लगा होता तो ये ज़मींदार स्वदेशी आन्दोलन में कदापि शरीक न हुए होते। उन्होंने साथ भी पीठ बचाकर दिया था। सामने आग में झुक जाने के लिए युवक-समाज था। प्रेरणा देने वाले थे राजनैतिक वकील और बैरिस्टर। आज की दृष्टि से वह भावुकता का ही उद्गार था। सन् सत्तावन के गदर से महात्मा गाँधी के आखिरी राजनीतिक आन्दोलन तक, स्वत्व के स्वार्थ में, धार्मिक भावना ने ही जनता का रूख फेरा है। इसको आधुनिक आलोचक उत्कृष्ट राजनीतिक महत्त्व न देगा। स्वदेशी आन्दोलन स्थायी स्वत्व के आधार पर चला था। उससे बिना घरबार के, ज़मींदारों के आश्रय में रहने वाले, दलित, अधिकांश किसानों को फ़ायदा न था। उनमें हिन्दू भी काफ़ी थे, पर मुसलमानों की संख्या बड़ी थी, जो मुसलमानों के शासनकाल में, देशों के सुधार के लोभ से या ज़मींदार हिन्दुओं से बदला चुकाने के अभिप्राय से मुसलमान हो गये थे। बंगाल के अब तक के निर्मित साहित्य में इनका कोई स्थान न था, उल्टे मुसलमानी प्रभुत्व से बदला चुकाने की नीयत से लिखे गये बंकिम के साहित्य में इनकी मुख़ालिफ़त ही हुई थी। शूद्र कही जाने वाली अन्य दलित जातियों का आध्यात्मिक उन्नयन, वैष्णव-धर्म के द्वारा जैसा, श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के द्वारा हुआ था, पर उनकी सामाजिक स्थिति में कोई प्रतिष्ठा न हुई थी, न साहित्य में वे मर्यादित हो सके थे।   

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