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प्रवास में

उषा राजे सक्सेना

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2854
आईएसबीएन :81-88139-23-8

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सात समुन्दर पार बसे भारतीय जन-जीवन की मर्मस्पर्शी कहानियाँ...

Pravas Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उषा राजे सक्सेना की ये कहानियाँ सात समंदर पार बसे भारतीय जन-जीवन की मर्मस्पर्शी गाथाएँ हैं। ऊपरी तौर पर देखने में किस्सागोई सी लगनेवाली इन कहानियों को लेखिका ने अपनी संवेदनात्मक ऊर्जा से एक नए किस्म का रचनात्मक आयाम दिया है। कहानियों के शिल्प से उनकी यायावरी चित्रवृत्ति का अनायास आभास होता है। रचनाशील व्यक्तियों की स्वाभाविक खासियतें इन कहानियों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। क्योंकि अकसर सफर में भी अनेक बार कोई ऐसा साथी बन जाता है जिसकी आपबीती एक मुकम्मल कहानी सी लगती है। हम पार्क में हों, ट्रेन में हों, बस में हों या फिर हवाई जहाज में हों, एक सजग कथाशिल्पी को हरेक परिस्थिति में कहानी दिखाई देती है। उषा राजे सक्सेना ने ये कहानियां इसी यात्रावृत्त शैली में लिखी हैं। संभवत: यही बड़ा कारण है कि इनकी भाषा सरल, सचित्र और गतिमान है। इस भाषा में संप्रेषणीयता की भरपूर गरमाहट है।

चूँकि इन दिनों साहित्य का एक बड़ा संकट संप्रेषणीयता है, जो कि सीधे तौर पर भाषा, शिल्प और अत्यधिक विचार-प्रधान होने से प्रभावित है, जिसे हम साधारण और सहज पाठक की संज्ञा से अभिहित करते हैं, वह इसी जटिल बोध से घबराकर साहित्य से अलग-थलग पड़ गया है। आज के उभरते साहित्यकारों के समक्ष यही सबसे बड़ी चुनौती है कि वे सच्चे और गंभीर साहित्य के खोए हुए सहृदय पाठकों को पुन: कैसे अपनी गिरफ्त में लेते हैं। गंभीर और सर्जनात्मक साहित्य कैसे समाज की मुख्यधारा में मशविरा का विषय बन सके, यह नए साहित्यकारों की नई चिंता होनी चाहिए। सूचना क्रांति ने यदि सुविधाएँ मुहैया कराई हैं तो रचनात्मकता को संक्रमित भी किया है, और रचनाकार इसी कारण संक्रमण में हैं।

उषा राजे सक्सेना की इन कहानियों की एक सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह कहानियों में खुद किसी तरह के घटनाक्रम या चरित्र उद्घाटन का ताना-बाना नहीं बुनतीं, उनके पात्र स्वयं उनके पास चलकर अपना रहस्योद्घाटन करते हैं। जो अकसर सफर में घटित होते हैं। यहाँ पात्र अपने चरित्र और किस्से को बयाँ करते हैं। इन कहानियों में किसी तरह का मनोविश्लेषण या विचार-विश्लेषण नहीं किया गया है। फ्लैश बैक का प्रयोग सभी कहानियों में है। यद्यपि उषा राजे की ये कहानियाँ चरित्र उद्घाटन की कहानियाँ नहीं है, परंतु मानवीय जीवन की ऊष्मा और सहिष्णुता से परिपूर्ण है। पश्चिम की धरती पर लिखी जाकर भी नितांत पूर्वी संवेदना और शैली से संपृक्त हैं ये कहानियाँ।

संग्रह की सभी दस कहानियों की विषय-वस्तु और परिवेश भिन्न होकर भी इनका आपकी समभाव यही है कि ये संबंधों को नए ढंग से जीने का अभ्यास है। ‘शुकराना’, ‘यात्रा में’, ‘अभिशप्त’ और ‘समर्पिता’ इस संग्रह की खूबसूरत कहानियों में से हैं। ये कहानियाँ पति-पत्नी परिवार और स्वाध्याय के लिए ईमानदार और संवेदनशील प्रतिबद्धता को बड़े महत्त्व के साथ रेखांकित करती हैं। विदेश की धरती पर महत्वाकांक्षी जीवन जीते हुए भी प्राच्च सोच और अवधारणाओं से विलग न होने की चेष्टा ही उषा राजे के कल्पित या सच्चे पात्रों की विशेषता है। अपनी प्रभावोत्पादकता में ये कहानियाँ लोकप्रियता को प्राप्त कर सकनेवाली हैं। यद्यपि समकालीन हिंदी कहानियों के कलेवर में यह तत्त्व गौण है। समकालीन प्रवृत्तिवाली कहानियाँ पारिवारिक संदर्भों के दायरे में लिखी होकर भी संवेदना, विचार और विशेषार्थ से युक्त होती है। हो सकता है उषा राजे की इन कहानियों में समकालीनता के ये तत्त्व क्षीण हों, परंतु हिंदी के खोए हुए सजग पाठकों के बीच उत्सुकता जगाने की पूरी क्षमता इनमें मौजूद है। विदेश में रहनेवाले भारतीयों की जीवन–शैली के दु:ख-दर्द और तनाव के बारे में जितना भी हिंदी में लिखा गया है, उषा राजे की रचनाएँ उसी क्रम की एक सुखद समृद्धि समझी जानी चाहिए।

कमलेश्वर

अपनी बात


कुछ कहना है इसिलए...
अभी चिड़ियों को दाना देकर धूप-स्नान के लिए ईजी चेयर पर बैठी ही थी कि सिकामोर का एक बड़ा सा पीला पत्ता हवा के साथ अठखेलियां करता हुआ कटी पतंग की तरह जरेनियम और एंटीराइनम की क्यारियों में जमकर बैठ गया। पास ही गीली मिट्टी में सिकुड़े-सिमटे बैठे स्लग के लिजलिजे बदन में कुछ हरकत हुई, वह सरकता हुआ आया और पत्ते पर बैठकर धूप सेंकने लगा। चेरी की डाल पर बैठी काले पंखों और लंबी पूँछवाली चिड़िया को उसका सुख से बैठना सुहाया नहीं। वह फुर्र से उड़ी और उसे चोंच में दबाकर रॉकरी के चपटे पत्थर पर अखरोट की तरह पटक-पटककर तोड़ने लगी। खोल में बैठे स्नेल की क्या दशा और मनोदशा हो रही होगी, आगे उसका क्या हश्र होगा ! अभी यही सब सोच रही थी कि कहीं से पड़ोसी फ्रैंक की बिल्ली निकिता चिड़िया पर झपटी...तभी फोन की घंटी हिनहिनाई और मैं उठकर अंदर भागी...आगे क्या हुआ नहीं मालूम। कौन भोग बना, किसने किसको भोगा, कौन संतुष्ट हुआ, कौन असंतुष्ट, कौन जीता और कौन हारा...कुछ तो हुआ ही होगा, कुछ देखा, कुछ नहीं देखा, पर कुछ अनुमान तो लगा ही सकती हूँ...

यह संसार एक घट है। यहाँ प्रतिपल कुछ-न-कुछ घटता ही रहता है। ये घटनाएँ हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। हमारे मन के अंदर भी प्रतिफल कुछ-न-कुछ घटता ही रहता है। हमारा चेतन और अचेतन मन दोनों ही हमारे घर, परिवेश, समाज, शहर, प्रांत देश, विश्व में जो कुछ अच्छा-बुरा होता है उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। एक कथाकार की संवेदनाएँ समय की धड़कन को अपने में समो लेती हैं। यह समोना कोई सचेत प्रक्रिया नहीं होती है जिसमें लेखक सचेत रूप से अपने समय के काल-बोध को पाठक तक पहुंचाने के लिए कहानी के माध्यम का उपयोग करे।

कहानीकार का संवेदन संस्कार के रूप में अपने परिवेश को ग्रहण करता है। वह उसी में जीता है। साँस लेता है। प्रवासी लेखक अपने घर-परिवार, देश और मिट्टी से अलग होकर एक अन्य देशकाल और परिवेश में चला जाता है। वहाँ उसके नए संस्कार बनते हैं, नए दृष्टिकोण बनते हैं। माहौल बदल जाने से उसीक जिंदगी में बहुत सी पेचीदगियाँ आ जाती हैं। उसकी मान्यताएँ बदलने लग जाती हैं। यही द्वंद्व के आरंभ का प्रारंभ होता है। और यहीं मेरी कहानियाँ जन्म लेती हैं...

कहानी का शिल्प, रूप और सौष्ठव कोई अलग चीज नहीं होती है। कविता की तरह इसमें भी पहले वाक्य से ही अभिव्यक्ति अपने रूप में ढलने लगती है। कहानी अपने आप भाव और शब्दों के सहारे अपना शिल्पात्मक गठन करती हुई आगे बढ़ती है। कहानी का शिल्प या गठन कोई अलग चीज नहीं होती, जिसे मात्र प्रयोग के लिए प्रयुक्त किया जाए।
ये कहानियाँ भारतीय मूल्यों और मान्यताओं के चौखटे में संभवत: सही नहीं बैठेंगी परंतु इन मूल्यों और मान्यताओं के कारण ही एक परिवेश का साहित्य दूसरे परिवेश के साहित्य से अलग नहीं हो जाता। इन कहानियों के भीतर रिसी हुई गहरी मानवीय संवेदना उन्हें एक-दूसरे से जोड़े रखती हैं। सात समुंदर पार होने पर भी यही मानवीयता इन कहानियों को समयातीत कालेतर और समय सापेक्ष बनाती है।

उषा राजे सक्सेना

प्रवास में


सिंतबर-अक्तूबर का महीना था। खिड़की के शीशे से छनकर आती पतझड़ की सुनहरी धूप तन और मन दोनों को भली लग रही थी। सिकामोर की पीली पड़ रही पत्तियों में अभी भी हरापन बाकी था। अभी थोड़ी ही देर पहले माली मोरिस ने क्यारियों और लॉन की निराई करते हुए एक-एक सूखी पत्ती और घास-फूस को बीनकर कंपोस्ट पिट में डाला है। मोरिस अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्ध है। वह अपना काम बड़े मनोयोग से करता है। फूलों और उनके रंगों का चयन वह सदा किसी कलाकार की भांति करता हुआ, नन्ही पौध को क्यारियों में रोपता है। काम खत्म करने के बाद कॉफी पीते हुए वह बड़ी देर तक अपने किए हुए काम को पैनी दृष्टि से देखता है। उसके अंदर अपने काम के प्रति लगाव और एक न्यायोचित ईमानदारी है।
अचानक सिकामोर की दो-तीन पत्तियाँ कटी पतंग की तरह हवा में तैरती, आपस में टकराती, उलझती, बलखाती पैटियो-डोर के शीशे से टकराकर जरेनियम और एंटीराइनम की क्यारियों में अपनी जगह बना लेती हैं। लगा, यह संसार भी एक घट है। इसमें हर पल कुछ-न-कुछ घटित होता ही रहता है। चीजें बनती हैं, बिगड़ती हैं, उलझती हैं, और अपने आप सुलझती हैं। आदर-सम्मान सुख-दुख आशा-निराशा प्रेम-घृणा, ईर्ष्या-द्वेष मिलन-विछोह, जीवन-मृत्यु, निर्माण-विनाश सब इस जीवन में हर पल घटनेवाली घटनाओं के केंद्र बिंदु के बीच स्थित सुप्त राग हैं, जिनमें हलचल होने से घटनाएँ क्रम बनाती हुई घटित होती हैं।

तभी देखती हूँ। गेट के सामने शशांक की गाड़ी रुकती है। वह गेट आहिस्ता से खोलता है। फिर बहुत सावधानी से कार रिवर्स करता हुआ उसे गेट के अंदर लाता है। और गैरेज के ठीक सामने खड़ा कर देता है। इंजिन बंद कर वह दरवाजा खोलकर बाहर निकलता है। पतलून की क्रीज और टाई की नॉट ठीक करता है। पल भर ठहरकर, एक ही दृष्टि में पूरी गाड़ी का निरीक्षण कर देख लेता है कि गाड़ी ठीक वहीं खड़ी है जहाँ वह खड़ी करना चाह रहा था तथा गाड़ी की सभी खिड़कियाँ और दरवाजे बंद हैं। पोर्च में आकर वह दोनों पैरों को पाँवदान पर रगड़ता है। एक प्रसंशात्मक दृष्टि खिले हुए फूलों पर डालता है। हलके से डोरबेल बजाता हुआ, रसोई में काम करती किम की प्रतीक्षा करता है। किम दरवाजा खोलकर उसे लिविंग रूम में बैठाती है। मुझे याद आता है। आज से ठीक पच्चीस साल पहले शशांक मुझे चेलसी आर्ट कॉलेज के सामने बस स्टैंड पर मिला था। बीस-बाईस वर्ष का हंसमुख, हाजिरजवाब चुस्त-दुरुस्त सुदर्शन शशांक आत्मविश्वास से दीप्त, मन में उत्साह और कुछ करने की उमंग लिये कुछ ही दिनों पहले लंदन आया था। बातचीत के दौरान उसने बताया, वह लंदन नौकरी की खोज में आया है। ब्रिटिश सिविल सर्विस कमीशन में भी उसने आवेदन-पत्र दिया है।’
यह कहकर पल भर को वह इस तरह चुप हुआ, मानो मन-ही-मन तर्क कर रहा हो कि परदेस में, वह भी अनजान महिला को, पहली बार मुलाकात में इतना सबकुछ बता देना ठीक भी है या नहीं ? फिर एक निश्चय सा उसकी आँखों में उभरा।
तभी बस आ गई। हम लोग बस के अपर-डेक में आकर बैठ गए।

बैठते ही मैंने पूछा, ‘‘क्यों, क्या सिविल सर्विस से इंटरव्यू का लेटर आया है ?’’
ब्रिस्बन कट मूछों के नीचे, उसके होठों पर एक खुशगवार मुसकराहट खेल गई। क्षण भर बाद वह संतुलित स्वर में बोला, ‘‘जी आज ही तो वहाँ से इंटरव्यू का लेटर आया है। खूब अच्छी तैयारी करनी है न, इसीलिए तो लाइब्रेरी जा रहा हूँ। पर आपको कैसे पता चल गया ?’’
उसने प्रश्न भरी दृष्टि मेरी ओर डाली।
मैंने कहा, ‘‘मैं पेशे से मनोचिकित्स हूँ। लोगों के अंदर होती हुई प्रतिक्रियाओं को जानना और पढ़ना ही मेरा व्यवसाय है।’’
अचानक ही उसकी आँखों में मेरे लिए एक विशेष आदर और स्नेह झलका, जिसे उसने छुपाने का प्रयास नहीं किया।
थोड़ी देर में उसका स्टॉप आ गया। उतरने से पहले उसने मेरा पता और फोन नंबर लेते हुए बड़ी आत्मीयता से कहा, ‘‘दीदी, इस इंटरव्यू में ही नहीं वरन् इस विदेशी धरती पर सफल जीवनयापन करने के लिए ब्रिटिश समाज के अदब-कायदे, रीति-रिवाज तथा मनोभावों के बारे में गहराई से जानना चाहता हूँ।’’

प्रतिभाशाली और तरक्कीपसंद शशांक अपने आंतरिक एवं बाह्म व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने के लिए अकसर मुझसे मशविरा लेता। अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण बोलने के सही तरीके तथा भाषा को सुधारने एवं माँजने के लिए उसने ‘ओरिएंटल स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज’ का सहारा लिया। साथ ही वह अपने अंग्रेज मित्रों के उच्चारण, हास्य और बातचीत के विषय को ध्यान से सुनता और उनसे उन्हीं के तर्ज पर, उन्हीं के विषयों पर साधिकार व सहज ढंग से बातें करने का सफल प्रयास करता।
महीने का पहला रविवार उसने मेरे नाम कर रखा था। ठीक साढ़े दस बजे हाथों में मेरी मनपसंद ‘रेड वाइन’ की बोतल या ‘रेड कारनेशन’ लिये दरवाजे पर उपस्थित होता। मुझे भी उस सुदर्शन युवक का घर आना अच्छा लगता। मेरे गिने-चुने परिचितों में बस वही एक ऐसा व्यक्ति था जो सकारात्मक सोच के साथ किसी भी विषय पर स्वस्थ ढंग से बहस कर सकता था। हमारे बहस का विषय अकसर ‘इमीग्रेशन’ और ‘सेटलमेंट इन यू.के.’ हुआ करता था।

‘‘दीदी, हम लोग अंग्रेजों को ‘रेसिस्ट’ कहकर उनसे घृणा करते हैं पर मेरे अनुभव में तो अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं आया। मेरे सभी अंग्रेज साथियों और अधिकारियों का व्यवहार हम सबके साथ बहुत मृदुल है। बातचीत, तर्क-वितर्क सब हम आपस में करते हैं। मतभेद होने पर एक-दूसरे का मजाक उड़ाते हुए उत्तेजित भी हो लेते हैं, पर दूसरे दिन फिर अच्छे दोस्त हो जाते हैं। कई बार रंग और नस्ल पर भी करारे व्यंग्य और तानेबाजी हो जाती है, किंतु ऐसा तो भारत में भी होता है। हम लोग गुज्जू, बिहारी, बंगाली और दक्षिणियों का भी तो मजाक उड़ाते हैं।
‘‘यहाँ सड़क पर, आस-पास, बस, ट्रेन आदि कहीं भी मुझे कभी कोई ऐसी अलगाव की या हिकारत की स्थिति नहीं मिली जिसको मैं नस्ली कहूँ। अंग्रेज भी हमारी तरह साधारण इनसान हैं, उनमें भी वही सब प्रवृत्तियां हैं जो हममें हैं। ऑफिस में लंच के समय यदि मैं बातों में रम गया तो मेरा बॉस मेरा जूठा बरतन तक धो देता है। कई बार मेरे मित्र बचा हुआ जूठा भोजन खा लेते हैं।’’

मैं कहती, ‘भई, शशांक, तुम्हारा व्यक्तित्व ही ऐसा है कि लोग तुम्हारे मुरीद हो जाते हैं।’’
‘‘नहीं दीदी, ऐसा मत कहिए मैं तो इस समस्या की तह तक जाना चाहता हूँ, कि आखिर क्यों हमारे लोग अंग्रेजों के प्रति अब तक मन में इतनी कड़ुवाहट घोले हैं। मेरा अब तक का जो अनुभव है वह मैं आपके साथ बाँटना चाहता हूँ।’’
कमरा ‘सेंट्रली हीटेड’ होने की वजह से खूब गरम हो रहा है। बाहर बर्फ पड़ रही है। मैं शशांक की बातें सुनती और गुनती हूँ। ‘स्मोक्ड बेवैरियन चीज फ्रेंच-ब्रेड’, ‘रेड वाईन’ और उसकी बातें, सबकुछ बेहद रसीली लगती हैं। मुझ पर हलका का सरूर आ जाता है और मैं अधमुँदी पलकों से उसके सुदर्शन व्यक्तित्व का प्रसंशात्मक रसास्वादन करती हूँ।

वह थोड़ा रुककर मुझे गौर से देखता है, फिर मुसकराते हुए बात को आगे बढ़ाता है ‘‘दीदी, यह मत समझना कि मैं अपने लोगों को नापसंद करता हूं। आज अपनी मेहनत से मैं एक ऐसी पोजीशन पर आ गया हूँ जहाँ से मैं उनके लिए बहुत कुछ कर सकता हूँ। पर हमारे लोग तो एक स्तर से ऊपर उठना ही नहीं चाहते हैं। जब भी हम आपस में मिलते हैं, अंग्रेज ही हमारा मुद्दा होता है। अंग्रेजों को गालियाँ देते हुए हम उनकी अजीबो-गरीब खामियाँ निकालते हैं। कभी-कभी तो लोग ऐसी हास्यप्रद बातें करते हैं कि सिर पीटने को जी करता है। कहते हैं कि अंग्रेजों को अंग्रेजी बोलनी नहीं आती। हर शब्द को चबा-चबाकर बोलते हैं, अरे भई, उनकी भाषा है, जैसे चाहे बोलें तुम उनकी भाषा बोल रहे हो तो उनकी तरह बोलो। वही मानदंड है। नहीं, वह तो कहेंगे, इनकी आँखों में तो सूअर का बाल है। ये कभी किसी के अपने नहीं हो सकते हैं। कभी-कभी मुझे तो लगता है, बरतानिया में आए प्रवासी यहाँ सदा परदेसी ही बने रहना चाहते हैं, हर चीज को रुपए में तौलते हैं। भला यहाँ वह सुखी कैसे रह पाएँगे ? तन यहाँ और मन वहाँ। बिहारी की परकीया नायिकाओं की तरह...’’

मुझे उसकी उपमा हास्यप्रद लगती है, ‘बिहारी की परकीया नायिकाओं की तरह..’ मेरी हँसी छूट पड़ती है।
वह कहता है, ‘‘दीदी, आप मेरी बातों को गंभीरता से नहीं ले रही हैं।’’
मैं कहती हूँ, ‘‘अरे, नहीं, मैं तुम्हारी बात को पूरी गंभीरता से ले रही हूँ। बस तुम्हारी उपमा बेहद गुदगुदानेवाली लगी। अत: मुझे हँसी आ गई। पर भई देखो, सँभलकर रहना, कहीं कोई आयतुल्ला खोमानी तुम्हारे सिर पर फतवा न लगा दे।’’
वह एक जोरदार ठहाका लगता हुआ कमीज के कॉलर में उँगली फिराकर टाई की नॉट ठीक करता है। फिर थोड़ा रुककर वाईन का एक सिप लेता हुआ, सलामी का एक छोटा टुकड़ा ‘फ्रेंच ब्रेड’ के टुकड़े के साथ काँटे में फँसाकर मुँह में रखता है, फिर मेरी ओर देखते हुए स्मित हास्य के साथ उसी बात को दूसरे ढंग से दोहराता है।

‘‘सच कहूं तो असल में हमारे अपने लोग स्वयं दोगली मानसिकता रखते हैं। फिर जिस पत्तल में वह खाते हैं उसी में छेद करते हैं। दशकों यहाँ रहने के बावजूद इस देश को पराया समझते हैं। रत्ती भर भी इस समाज के साथ ताल-मेल बैठाने का यत्न नहीं करते और अपने को सुरक्षित तथा दोयम दर्जे का नागरिक कहते हुए नहीं थकते हैं। क्यों ? हर तरह सुविधा है यहाँ, सोशल-सेक्यूरिटी, मेडिकल फेसिलिटी, एजुकेशन, रिटायरमेंट पेंशन, पर फिर भी ये लोग रोते हुए खुद को अलग-थलग रखते हैं। परिवार और बच्चों को तो यहाँ की हवा भी नहीं लगने देना चाहते हैं। जैसे अंग्रेज कोई छूत का रोग हों। वैसे पुरुष वर्ग के मन में अंग्रेज लड़कियों से हमबिस्तर होने की अदम्य लालसा रहती है, पर विवाह इंडियन वर्जिन से ही देश जाकर करेंगे। सच बात तो यह है कि हमारे अपने ही लोग रंग-भेद, जाति-भेद, लिंग-भेद और नस्ल भेद के जन्मदाता और पालक हैं। मैंने अंग्रेजों में सदा मानवता, सहृदयता और उदारता को ही पाया है। ‘एक्चुअली वी सफर फ्रॉम इनफीरियॉरिटी कॉम्पलेक्स, स्लेव मेंटेलिटी एंड एन एटरनल इनसिक्यूरिटी’।’’


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