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व्यवहारिक वेदान्त

प्रबोध कुमार मजुमदार

प्रकाशक : भुवन वाणी ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :90
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2842
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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इसमें स्वामी रामतीर्थ के भाषणों के संकलनों का वर्णन है...

Vayavharik vedant by Ramtirtha vachnamrita o

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

आज भौतिक उन्नति के चरमोत्कर्ष से प्रलुब्ध, किन्तु सच्चे सुख और शान्ति की क्षुधा से पीड़ित, समस्त विश्व की आँखें, भारतीय अध्यात्म एवं वेदान्त दर्शन के व्यावहरिक स्वरूप की ओर आशा के साथ निहार रही हैं।
 प्रस्तुत ‘रामतीर्थ वचनामृत’ के अन्तर्गत प्रकाशित साहित्य का उद्देश्य मनुष्य के लिए नित्यप्रति के जीवन में वेदान्त के सूत्रों को ढालने के सम्बन्ध में मनीषियों द्वारा प्रदत्त-वचनों को संग्रहीत करना और विश्व के समक्ष प्रस्तुत नयी समस्याओं का समाधान प्रदान करने के लिए, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि तैयार करना है।
यत्किश्चित् सफलता यदि हमें इस प्रयोजना में प्राप्त हुई, तो निस्संदेह वह हमें इस पथ पर आगे बढ़ने को उत्साहित करती रहेगी।

प्रकाशक

व्यावहारिक वेदान्त

आत्मोपलब्धि का मार्ग


(वेदान्त के सम्बन्ध में प्रचारित यह भ्रान्ति कि वेदांत कोरी कल्पना की उड़ान मात्र है और विरक्ति संन्यासियों को छोड़कर संसारी मनुष्यों के लिए व्यावहारिकता से एकदम दूर है, नितांत निर्मूल है। वेदांत एकमात्र वह व्यावहारिक मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी सारी पीड़ाओं से मुक्त हो जाता है। ऐसे वेदांतनुरूप मार्ग का गृहस्थ् किस प्रकार साधन करें और उस साधना-काल में आनेवाले कुविचारों और अवरोधों को भी कैसे अपने सानुकूल बनावें, इसका ही निरुपण इस ‘व्यावहारिक वेदांत’ नामक पुस्तक के आरंभ के अन्तर्गत और सर्वथा व्यावहारिक है।

प्रकाशक

(यह भाषण एक पुस्तिका के रूप में संयुक्तराष्ट्र अमरीका से प्रकाशित हुआ था)

वेदान्त के अनुसार मानसिक एकाग्रता की साधना में मुख्य बात यह है कि हम ऐसा अनुभव करने लग जाएँ कि हमारा वास्तविक आत्म-स्वरूप सूर्यों का सूर्य और प्रकाशों का प्रकाश है। देह से परे; ऐसी अवस्था में आप अपने मन को लाइए कि सकल मोहविभ्रम से मुक्त होकर आप प्रकाशों के प्रकाश एवं सूर्य के प्रद्रूप हो जाएँ। उस अवस्था में सम्पूर्ण संसार रहस्य-रहित होकर आपके सामने सम्मुख एक विशाल दृश्य-सा उन्मोचित हो जाएगा, खुल जाएगा या बादलों की तरह छट जाएगा। फिर तो प्रत्येक वस्तु आपके वशीभूति हो जायगी। आपके संकेत पर सर्वथा प्रस्तुत रहेगी।

 यदि असुविधा न हो तो प्रातः काल उठिए और सूर्य की उस छवि का दर्शन कीजिए जब वह क्षितिज के नीचे हो। सूर्य के प्रभामंडल की ओर देखिए और वह सुन्दर, उज्ज्वल तथा अति-रमणीय दृश्य मन को सजीव करेगा और कुछ दूर तक ऊपर उठायेगा। जब मन प्रमुदित हो जाता है या किसी ऊँचाई तक उठ जाता है तब उसे यथेच्छ ऊँचाई पर उठा ले जाना, मानों मनोहर पर्वतों के सर्वोंच्य शिखरों पर उसे चढ़ा ले जाना सरल हो जाता है।

भारत वर्ष में खेल के मैदान में, गुल्ली-डंडा नामक एक खेल खेलते हैं। गुल्ली बीच में मोटी और दोनों सिरों पर खूब नुकीली होती है। इसके दोनों सिरे जमीन से उठे रहते हैं। एक सिरे को हम डंडे से चोट करते हैं और गुल्ली तुरन्त हवा में उछलती है, तब उसी डंडे से हम उस पर जोर से दूसरी चोट मारते है और गुल्ली हवा को चीरती हुई बड़ी दूर जाकर गिरती है। इस खेल में दो काम हैं। पहला काम उसे ऊपर उछालना और फिर उसे हवा में दूर फेंकना। यदि मन को ईश्वरीय-मिलन में युक्त करना है तो सबसे पहले उसे कुछ ऊपर उठाना होगा और उसके उपरान्त उसे आध्यात्मिक-वातावरण में बहुत दूर तक फेंकना होगा।

प्रफुल्ल वातावरण, मनोहर दृश्य और सुरम्य भूभाग कभी-कभी मन को प्रथम उत्थान देने में, प्रारम्भिक दशाओं में उसे ऊपर उठाने में, बहुत सहायक होते हैं। उसके उपरान्त मन को दौड़ाना उस समय तक दौड़ाना जब तक कि वह शरीर-चेतना को भूलकर ईश्वर न हो जाए,  ऐसी अवस्था तक उसे उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते रहना हमारे लिए बहुत सरल हो जाता है। मन को पहली उठान देने में और प्रारम्भिक उत्थान प्रदान करने में अनुकूल हैं मन को पहली उठान देने में और प्रारम्भिक उत्थान प्रदान करने में अनुकूल समय और स्थान से प्राप्त होनेवाली प्रेरणा का उपयोग किया जा सकता है ऊष्माकालॉ, पक्षियों के गीत, सुरभित पवन और पूर्व दिगन्त में दिखाई देनेवाले अति मनमोहक और सुन्दर रंग मन को मौलिक उत्थान प्रदान करते हैं।

मन को किस प्रकार से स्वर्गीय क्षेत्रों में ले जाया जाय, आत्मा को ईश्वर के सिंहासन की ऊँचाई तक कैसे उठाया जाय ? उदयोन्मुख तथा अस्तगामी सूर्य का उदार आलोक जब अर्धोन्मीलित नेत्रों की मानों पारदर्शी पलकों पर गिरता है, तब हम ‘ओ’ मंत्र का उच्चारण शुरू करते हैं, भावना की भाषा में उसे गाते हैं।

विभिन्न व्यक्तियों के लिए ‘ओ’ अक्षर के विभिन्न अर्थ होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति, अपनी आध्यात्मिक उत्कर्ष की अवस्था विशेष में ‘ओं’ का वही अर्थ करता है जो उसके अत्यन्त अनुकूल होता है। कुछ लोग इस अक्षर ‘ओ’ को सूर्यों के सूर्य-सा मानते हैं और सूर्योदय होते ही सूर्यमंडल की ओर वे उसी प्रकार निहारते हैं जिस प्रकार नारियाँ अपने दर्पणों की ओर देखती हैं, भारत में नारियाँ अपने अँगूठों पर दर्पण पहनती हैं। उनके पास गोलाकार ढ़ाचे में दर्पण होते हैं। वास्तव में, नारी के लिए दर्पण से प्रियतर वस्तु कोई दूसरी नहीं हैं। जब उसमें देखती है तो अपना मुखड़ा ही देखती है, मानों वह उससे बाहर है, लेकिन वह जानती है और बोध करती है कि उसका मुखड़ा उनके साथ है। वह कोई वस्तु बाहर देखती है किन्तु उसे पूर्ण विश्वास है कि वह वस्तु वह स्वयं है

इसी प्रकार एक वेदान्ती सूर्य की ओर देखता है मानों वह उससे बाहर से किन्तु उसे पूर्ण विश्वास है और वह बोध करता है कि वास्तव सूर्य तो उसका अपना आत्मस्वारूप है; वह बाहर का भौतिक सूर्य केवल उसका बिम्ब उसकी प्रतिच्छाया या छाया-मात्र है।

वेदान्ती सूर्य को अपना वैसा ही आत्मीय समझता है जैसा सम्बन्ध चन्द्रमा का सूर्य से है। यों लगता है कि चन्द्रमा स्वयं प्रकाशमान है, किन्तु वास्तव में वैज्ञानिक दृष्टि से, वह अपनी सम्पूर्ण प्रभा के लिए सूर्य का ऋणि है। ऐसे ही वेदान्ती अनुभव करता और उपलब्धि करता है कि सूर्य, जो अपना तेज इस प्रकार प्रकट कर रहा है, मानों वह तेज उसी का है, वास्तव में अपनी सारी चमक-दमक मेरे सच्चे आत्मस्वरूप से ऋण लेता है और अपने सारे प्रताप और महिमा के लिए मेरा ऋणि है।


 पृथ्वी घूमती है लेकिन हम यह समझते हैं कि सूर्य चक्कर लगा रहा है। जब हम ज्योतिर्विद्या पढ़ते हैं तो हमारा ज्ञान बढ़ जाता है और आगे हम धोखा नहीं खाते और हमें निश्चय हो जाता है कि सूर्य चक्कर नहीं लगाता है बल्कि पृथ्वी की गति सूर्य पर आरोपित हो जाती है। उसी प्रकार वेदान्ती जब उदित् सूर्यमंडल को देखता है तो वह बोध करता और उपलब्धि करता है कि जो कुछ महिमा, गरिमा और शक्ति उस तेजस्वी सूर्य की प्रतीत होती है, वह भूल से सूर्य की मानी जाती है किन्तु वह वास्तव में मेरी है, मेरी है, मेरी है।

भौतिक जगत् में सूर्य प्रकाश अथवा ज्ञान का प्रतीक है। सूर्य की शक्ति का प्रतीक है। यह प्रत्येक ग्रह से चक्कर लगवा रहा है। यह अस्तित्व तथा जीवन का प्रतीक है। प्रत्येक प्राण या तो सूर्य से उत्पन्न हुआ है या उसका ऋणी है। सूर्य सौन्दर्य का प्रतीक है और इतना उज्जवल है कि पृथ्वी तथा दूसरों को आकर्षित करता है। सूर्य ज्ञान, प्रकाश, प्राण, अस्तित्व, आकर्षण का प्रतिनिधित्व करता है। यह सभी गुण अपने ही हैं वेदांती ऐसी उपलब्धि करता है। वेदान्ती बोध करता है कि ये सब गुण मेरे ही हैं, बल्कि ये गुण और वे शक्ति, प्रकाश, प्राण आदि उसी प्रकार मुझसे बाहर दिखाई पड़ते हैं जिस प्रकार एक सुन्दरी का मुखड़ा अपने से बाहर दर्पण में दिखाई पड़ता है। किन्तु वास्तव में सचमुच प्रकाश, जीवन, प्राण, ज्ञान, शक्ति, आकर्षण और सब कुछ मैं हूँ।

इस कल्पना को उपलब्ध करने और अपने सच्चे आत्मस्वरूप में लीन होने के लिए नवागत अभ्यासी को ‘ओं’ अक्षर से बड़ी सहायता मिलती है। ‘ओं’ अक्षर का उच्चारण या जप करते समय वेदान्ती उसका अर्थ यों लेता है : मैं प्रकाशों का प्रकाश हूँ। मैं हूँ सूर्य हूँ जिसके सम्मुख सारे ग्रह और नक्षत्र चक्कर काटते हैं मेरे लिए सभी स्वर्गीय और मानवीय शरीर गतिशील हैं और वे मेरे ही लिए सब कुछ करते हैं। मैं अचल हूँ और नित्य हूँ, कल, आज और सदा एक-सा हूँ। मेरे सामने वह सारा भूमंडल, समग्र विश्व अपने गुप्त रहस्य प्रकट करता है। मुझे अपने सब भाग दिखलाने को, अपना सब कुछ दिखलाने को  वह चक्कर काटता है। अपनी सभी दिशाएं मेरे सम्मुख उन्मोचित करने के लिए पृथ्वी अपने धुरे पर प्रदक्षिणा करती है।, विश्व मेरे लिए हर प्रकार का कार्य करता है। सूर्य मेरे लिए प्रभादीप्त है। चन्द्रमा मेरे लिए मेरे सम्मुख प्रकाश डालता है। मेरे ही आदेश से, मेरी उपस्थिति के कारण, इस संसार में सब व्यापार होते हैं। जिस प्रकार सूर्य की उपस्थिति ही वृक्षों की वृद्धि का कारण है, पशुओं की पेशियों की गति और मनुष्यों की मनन-शक्ति का कारण है, उसी प्रकार मेरी उपस्थिति सबको जाग्रत करती है। मेरी, सच्ची आत्मा की, प्रकृति ईश्वर की उपस्थिति ही इस संसार में सबकुछ होने का कारण होती है। ये सभी शरीर-स्वर्गीय या मानवीय–सभी प्रकार के पदार्थ, ये सारे प्राणी अपनी आत्माओं और देवताओं के सहित अपने अस्तित्व के लिए मेरे अधीन व आश्रित हैं। वे अपने अस्तित्व के लिए मुझ-जैसे सूर्यों के सूर्य के पास ऋणी हैं।

प्रकाशकों का प्रकाश मैं हूँ। स्वप्नों में हम जिन पदार्थों को  देखते हैं, वे हमें दीपक के प्रकाश से नहीं दिखते और न सूर्य या चन्द्रमा के प्रकाश की ही सहायता से दिखते हैं, फिर भी हम उन्हें देखते अवश्य हैं और यह भी हम जानते हैं कि बिना प्रकाश के हम उन्हें देख नहीं सकते हैं। तो फिर किस प्रकाश में हम वह सब देखते हैं ? यह मेरे प्रकृत आत्म-स्वरूप का प्रकाश है, यह मेरे आत्मा का प्रकाश है, यह मेरा ही आलोक है, जो स्वप्न में सबकुछ आलोकित करता है। मैं स्वप्न में एक हीरा देखता हूँ तो वह मेरे ही प्रकाश से दिखाई पड़ती है। हीरे की दमक भी मेरे ज्योति-समुद्र में एक तरंग मात्र है। यदि मैं स्वप्न में चंद्रमा देखता हूँ, तो वह अपनी प्रभा के सहित मेरी ही तेजप्रभा में एक लहर-मात्र है। यदि मैं सूर्य को अपने स्वप्न में उसके सारे प्रकाश में उद्भासित देखता हूँ, तो वह सूर्य और उसका प्रकाश भी मेरे शोभा-समुद्र में एक भँवर-मात्र है। जाग्रत अवस्था में भी यही दशा है। चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र और प्रत्येक वस्तु मेरे ज्योति-समुद्र में केवल लहरें हैं।



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